गुरु आये घन गरज कर, करम कड़ी सब खेर ।
भरम बीज सब भूनिया, ऊग न सक्के फेर ॥
शब्दार्थ
- गुरु आये → सतगुरु का प्रकट होना।
- घन गरज कर → बादल की गर्जना समान प्रबल उपदेश देना।
- करम कड़ी सब खेर → कठोर कर्म-बन्धनों को तोड़ डाला।
- भरम बीज सब भूनिया → मोह-माया और अज्ञान के बीज जला दिए।
- ऊग न सक्के फेर → वे बीज फिर कभी अंकुरित नहीं हो सकते।
भावार्थ
महाराजश्री कहते हैं कि जब सतगुरु अपने प्रखर वचन और कृपा से साधक के हृदय में उतरते हैं, तब वे अज्ञान और कर्मबंधन के बीज को जलाकर नष्ट कर देते हैं। जैसे जला हुआ बीज कभी अंकुरित नहीं हो सकता, वैसे ही गुरु-कृपा से भस्म हुए कर्म दोबारा फल देने में असमर्थ हो जाते हैं।
व्याख्या
- हमारे जन्म और मृत्यु का चक्र कर्म और वासनाओं के कारण चलता रहता है।
- जब तक मन में इच्छाएँ और मोह का बीज है, तब तक आत्मा पुनः-पुनः जन्म लेती रहती है।
- सतगुरु की वाणी "घन गरज" की तरह होती है, जो साधक को भीतर से झकझोर देती है और भरम (भ्रम), मोह और अज्ञान को भस्म कर देती है।
- इस अवस्था में साधक का जीवन पूर्णत: बदल जाता है—
- कर्म-बंधन का नाश हो जाता है।
- मोह-माया की जड़ कट जाती है।
- आत्मा परमात्मा की ओर अग्रसर होती है।
- जैसे बीज को भून देने पर उसमें जीवनशक्ति नहीं रहती, वैसे ही गुरु-प्रसाद से कर्म-बीज निष्क्रिय हो जाते हैं और साधक को पुनर्जन्म का भय नहीं रहता।
व्यवहारिक टिप्पणी
यह दोहा हमें प्रेरणा देता है कि—
- गुरु-कृपा और नाम-स्मरण से अज्ञान और मोह के बीज जल जाते हैं।
- जब साधक का लक्ष्य केवल परमात्मा-प्राप्ति रह जाता है, तब संसारिक इच्छाएँ और वासनाएँ स्वतः समाप्त हो जाती हैं।
- यही अवस्था मुक्ति (मोक्ष) की ओर पहला कदम है।
जैसे जला हुआ बीज फिर अंकुरित नहीं होता, वैसे ही सतगुरु की कृपा से जला हुआ कर्म-संचय हमें दोबारा संसार में बाँध नहीं सकता।
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