Friday, 8 August 2025

डूबत रहा भव सिंधु में।। श्री दरियाव वाणी


डूबत रहा भव सिंधु में, लोभ मोह की धार ।
दरिया गुरु तैरू मिला, कर दिया परले पार।। 


❖ शब्दार्थ:

  • डूबत रहा = डूब रहा था, असहाय स्थिति में
  • भव सिंधु = संसार रूपी सागर (जन्म-मरण का चक्र)
  • लोभ = लालच, अधिक पाने की वासना
  • मोह = आसक्ति, ममता, माया का बंधन
  • धार = बहाव, धारा
  • गुरु तैरू = नाविक स्वरूप गुरु, जो पार उतारने वाले हैं
  • परले पार = मुक्ति, परम लक्ष्य, मोक्ष की स्थिति

❖ भावार्थ:

संत दरियावजी महाराज कहते हैं कि मैं सतगुरु के ज्ञान के बिना संसार रूपी सागर में डूब रहा था
इस सागर में लोभ और मोह की तेज धारा मुझे और गहराई में खींच रही थी।
तभी मुझे गुरु रूपी तैरू (नाविक) मिला, जिसने अपनी कृपा से मुझे भव-सागर से पार कर दिया।


❖ व्याख्या:

इस दोहे में संत दरियावजी महाराज ने संसार के खतरनाक स्वभाव और गुरु की महत्ता को अत्यंत सरल, लेकिन प्रभावशाली रूप में व्यक्त किया है।

  • संसार को वे भव-सिंधु कहते हैं — एक ऐसा सागर जो जन्म और मृत्यु की लहरों से भरा है।
  • इस सागर में लोभ और मोह की धाराएं इतनी तेज हैं कि जो इनके प्रवाह में फंसता है, वह डूबता ही चला जाता है।
  • लोभ हमें बाहरी वस्तुओं के पीछे दौड़ाता है, और मोह हमें माया के बंधनों में कस देता है।
  • इस स्थिति में साधक अपने दम पर पार नहीं लग सकता — जैसे बिना नाव और नाविक के कोई समुद्र पार नहीं कर सकता।
  • लेकिन जब सतगुरु तैरू (आध्यात्मिक नाविक) मिलता है, तो वे अपने ज्ञान, नाम और कृपा से आत्मा को सुरक्षित किनारे तक पहुँचा देते हैं — अर्थात मोक्ष की स्थिति में

❖ टिप्पणी:

यह दोहा एक स्पष्ट संदेश देता है:
👉 संसार रूपी सागर में अकेले तैरना असंभव है।
👉 सतगुरु ही वह नाविक हैं जो सही दिशा, नाव और शक्ति देकर हमें परपार तक पहुँचाते हैं
👉 लोभ और मोह की धाराएं इतनी तीव्र हैं कि केवल गुरु का मार्गदर्शन ही हमें बचा सकता है।

यह वाणी हर साधक को यह स्मरण दिलाती है कि गुरु कृपा के बिना, भक्ति और मुक्ति का पार उतरना कठिन ही नहीं, असंभव है


Thursday, 7 August 2025

दरिया सतगुरु शब्द की ।। श्री दरियाव वाणी


दरिया सतगुरु शब्द की, लागी चोट सुठौड़ ।
चंचल सो निस्चल भया , मिट गई मन की दौड़।।


❖ शब्दार्थ:

  • दरिया = संत दरियावजी महाराज
  • सतगुरु शब्द की = सतगुरु की वाणी / उपदेश / वचन
  • चोट सुठौड़ = सही स्थान पर सीधी और प्रभावशाली चोट
  • चंचल = चपल, इधर-उधर भागने वाला (मन)
  • निश्चल = स्थिर, शांत
  • मन की दौड़ = मन का लगातार भागते रहना — इच्छाएं, कल्पनाएं, भटकाव

❖ भावार्थ:

संत दरियावजी कहते हैं कि सतगुरु की वाणी ने मेरे भीतर सीधी और सटीक चोट मारी,जिसके कारण मेरा चंचल और भटकता हुआ मन स्थिर हो गया,और वह मन की लगातार भागने की दौड़, जो न जाने कितने जन्मों से चल रही थी — वह समाप्त हो गई


❖ व्याख्या:

यह दोहा आत्म-साक्षात्कार की उस गहराई को छूता है जो केवल सतगुरु की कृपा से संभव है।

  • संत दरियावजी बताते हैं कि सतगुरु की वाणी मात्र शब्द नहीं होती — वह ऐसी अंतरात्मा को झकझोरने वाली चोट होती है, जो सीधे चित्त के केंद्र पर पड़ती है।
  • इस “चोट” का अर्थ है — सतगुरु का वह उपदेश या अनुभव जो हमारी अंदर की मूल गलत धारणाओं, वासनाओं और भटकावों को तोड़ देता है।
  • जब वह चोट पड़ती है, तो मन की चंचलता — जो इंद्रियों, विचारों और इच्छाओं के पीछे भाग रही होती है — शांत हो जाती है, और साधक की आत्मा स्थिरता का अनुभव करती है
  • इस स्थिरता में ही प्रेम, भक्ति और आत्मिक शांति की नींव रखी जाती है

यह स्पष्ट संकेत करता है कि मन की दौड़, यानी “यह भी चाहिए, वह भी चाहिए, ये करो, वहां जाओ” — इस अनंत दौड़ का अंत केवल तब होता है जब सतगुरु की कृपा से भीतर जागरण होता है


❖ टिप्पणी:

इस दोहे का केंद्रीय भाव है:
👉 सतगुरु वाणी वह औषधि है जो सीधी आत्मा पर असर करती है
👉 वह मन की अशांत धारा को मोड़कर उसे निश्चल, शांत और प्रेमपूर्ण बना देती है

यह दोहा हमें बताता है कि:

  • केवल बाहरी उपदेश से कुछ नहीं होता,
  • जब वाणी हृदय में लगती है, जब सतगुरु की वाणी भीतर “सुठौड़” चोट करती है, तभी असली परिवर्तन होता है।


Wednesday, 6 August 2025

दरिया सतगुरु शब्द सौं ।। श्री दरियाव वाणी


दरिया सतगुरु शब्द सौं , मिट गई खैंचा तान ।
भरम अंधेरा मिट गया, परसा पद निर्वान।।


❖ शब्दार्थ:

  • दरिया = संत दरियावजी महाराज
  • सतगुरु शब्द सौं = सतगुरु के वचन / उपदेश / दिव्य वाणी से
  • खैंचा तान = मन की खींचतान, अंदरूनी द्वंद्व, सांसारिक संघर्ष
  • भरम = भ्रम, अज्ञान
  • अंधेरा = अज्ञान का अंधकार
  • परसा = प्राप्त हुआ, अनुभव हुआ
  • पद निर्वान = परमपद, आत्मशांति, मोक्ष, परमात्मा का अनुभव

❖ भावार्थ:

संत दरियावजी कहते हैं कि जब मुझे सतगुरु का वाणी-रूपी उपदेश मिला, तो मन की सारी खींचतान — द्वंद्व, उलझनें, और सांसारिक झंझट — सब मिट गए।
उस वाणी ने मेरे भीतर का अज्ञान और भ्रम का अंधकार दूर कर दिया, और उसी क्षण मुझे परमपद (निर्वाण) का अनुभव हो गया।


❖ व्याख्या:

इस दोहे में सतगुरु वाणी की शक्ति और उसका प्रभाव अत्यंत मार्मिक ढंग से प्रकट किया गया है।

  • संत दरियावजी अपने आत्मिक अनुभव को साझा करते हुए कहते हैं कि जब तक उन्हें सतगुरु का “शब्द” (दिव्य उपदेश, नाम, नाद) प्राप्त नहीं हुआ था, तब तक वे मन के द्वंद्व में उलझे हुए थे — यानी भीतर संसार और आत्मा के बीच खींचतान चल रही थी
  • लेकिन जैसे ही सतगुरु की कृपा से वाणी मिली, उस क्षण सारा अंदरूनी संघर्ष शांत हो गया
  • वह वाणी ऐसी शक्ति लिए थी कि उसने मनोमय और अज्ञानमय अंधकार को मिटा दिया — वह अंधकार जिसमें आत्मा जन्मों से भटक रही थी।
  • जब भ्रम मिटता है, तब ही निर्वाण पद, अर्थात शांति, स्थिरता और परमात्मा का अनुभव संभव होता है।

यह वाणी इस बात को सिद्ध करती है कि ज्ञान से अधिक प्रभावशाली होता है सतगुरु का शब्द, क्योंकि वह शब्द केवल विचार नहीं, चेतना का संचार करता है


❖ टिप्पणी:

यह दोहा उस क्षण का चित्रण है, जब साधक को सतगुरु वाणी का वास्तविक अर्थ भीतर उतरता है
वह कोई साधारण शिक्षा नहीं होती — वह आत्मा को झकझोर देने वाली, जाग्रति लाने वाली दिव्य चिंगारी होती है।

संत दरियाव जी महाराज का यह अनुभव हमें सिखाता है कि:

  • जीवन में जो भीतर का द्वंद्व है, उसका समाधान तर्क से नहीं, सतगुरु वाणी की कृपा से होता है।
  • और जब वह कृपा हो जाए, तो भ्रम, अंधकार और भय सब समाप्त हो जाते हैं, और आत्मा को मिलती है शाश्वत शांति — निर्वाण


Tuesday, 5 August 2025

जन दरिया हरि भक्ति की ।। Sri Dariyav Vani

जन दरिया हरि भक्ति की, गुरां बताई बाट ।

भूला ऊजड़ जाय था, नरक पड़न के घाट।। 


❖ शब्दार्थ:

  • जन दरिया = संत दरियावजी महाराज
  • हरि भक्ति की = परमात्मा की भक्ति
  • गुरां बताई बाट = गुरु ने जो मार्ग बताया
  • भूला = भटका हुआ
  • ऊजड़ जाय था = उजड़े हुए, सुनसान, असत्य के मार्ग पर चला जा रहा था
  • नरक पड़न के घाट = नरक में गिरने का स्थान, विनाशकारी मार्ग

❖ भावार्थ:

आचार्य श्री दरियावजी महाराज कहते हैं कि सतगुरु ने मुझे हरि भक्ति का सही मार्ग बताया
मैं तो अज्ञानवश भटककर ऐसे उजड़े हुए रास्ते पर जा रहा था, जो अंततः नरक की ओर ले जाने वाला था
लेकिन सतगुरु की कृपा और उनके बताए मार्ग पर चलने से, मुझे भगवत-प्राप्ति का सच्चा रास्ता मिल गया


❖ व्याख्या:

यह दोहा गुरु की महिमा और मार्गदर्शन के महत्व को अत्यंत सरल, लेकिन गहन शब्दों में व्यक्त करता है।

संत दरियाव जी महाराज स्वीकार करते हैं कि:

  • बिना गुरु के मार्गदर्शन के जीव भटका हुआ रहता है, उसे यह भी नहीं पता कि वह किस दिशा में जा रहा है।
  • वे कहते हैं कि मैं तो अज्ञान रूपी अंधकार में, असत्य और मोह के मार्ग पर चला जा रहा था — एक ऐसा मार्ग जो अंततः नरक (दुःख, जन्म-मरण के चक्र) की ओर ले जाता।
  • लेकिन जब सतगुरु ने मुझे हरि भक्ति की बाट (सही दिशा) बताई, तब मेरे जीवन का मोड़ बदल गया।
  • गुरु के वचन का पालन करने से, मेरी आत्मा को वह सत्य मार्ग मिल गया, जो भगवत-प्राप्ति की ओर ले जाता है।

इस वाणी से स्पष्ट है कि सतगुरु के बिना आत्मा का मार्ग अंधकारमय होता है, और गुरु ही सही दिशा देकर भक्ति और मुक्ति की राह पर आगे बढ़ाते हैं


❖ टिप्पणी:

इस दोहे का संदेश सीधा है:

  • गुरु के बिना जीवन दिशाहीन है
  • सतगुरु ही वह दीपक हैं जो अज्ञान के अंधकार को मिटाकर हमें भगवान तक पहुंचने की राह दिखाते हैं
  • यह हमें यह भी चेतावनी देता है कि भटका हुआ जीवन नरक समान है, और गुरु मार्गदर्शन ही हमें उस विनाशकारी राह से बचाता है।

यह दोहा हर साधक को प्रेरित करता है कि गुरु की वाणी को अपनाना ही मोक्ष का मार्ग है


Monday, 4 August 2025

अन्तर थो बहु जन्म को ।। श्री दरियाव वाणी

अन्तर थो बहु जन्म को , सतगुरु भाँग्यो आय ।

दरिया पति से रूठनो , अब कर प्रीति बनाय ।।


❖ शब्दार्थ:

  • अन्तर = दूरी, विरह
  • थो = था (राजस्थानी / ब्रज शैली में)
  • बहु जन्म को = अनेक जन्मों का
  • सतगुरु भाँग्यो = सतगुरु ने तोड़ दिया / समाप्त कर दिया
  • दरिया = संत दरियावजी महाराज
  • पति से रूठनो = अपने परमपति (परमात्मा, रामजी) से रूठे रहना
  • प्रीति बनाय = प्रेम स्थापित करना, प्रेम-संबंध जोड़ना

❖ भावार्थ:

संत दरियावजी कहते हैं कि हमारे और परमात्मा के बीच की दूरी कोई एक जीवन की नहीं, बल्कि अनेक जन्मों की दूरी है।
यह दूरी सतगुरु की कृपा से ही मिट सकती है
अब जबकि सतगुरु ने वह दूरी समाप्त कर दी है, तो परमात्मा से रूठे रहना उचित नहीं
बल्कि अब हमें उनसे प्रेम और आत्मिक संबंध जोड़ना चाहिए।


❖ व्याख्या:

यह दोहा उस आध्यात्मिक सच्चाई को उजागर करता है, जो अक्सर साधकों की दृष्टि से ओझल रहती है — कि हमारा परमात्मा से जुड़ाव टूटा नहीं है, बस हम भूल गए हैं

  • संत दरिया जी कहते हैं कि यह भूल, यह विरह, यह अन्तराल कोई एक जीवन की नहीं, असंख्य जन्मों की है।
  • इतने दीर्घकाल से परमात्मा से हमारा प्रेम-संबंध टूटा हुआ है
  • लेकिन जब सतगुरु कृपा करते हैं, तो वे उस भूल को भंग कर देते हैं, आत्मा को उसका मूल स्वरूप और परम लक्ष्य याद दिलाते हैं।

संत दरिया आगे कहते हैं कि अब जब सतगुरु ने वह दूरी मिटा दी है, तो अब भी परमात्मा से रूठे रहना, उनसे प्रेम न करना — यह उचित नहीं है।

अब समय है कि हम:

  • रूठे हुए परम पति से प्रीति करें
  • अपने भीतर उस भक्ति, प्रेम और आत्मीयता को जगाएं
  • और उस पवित्र संबंध को फिर से जोड़ें जो आत्मा और परमात्मा के बीच जन्मजात था

❖ टिप्पणी:

यह दोहा हमें याद दिलाता है कि सतगुरु ही वह पुल हैं, जो जीव और परमात्मा के बीच के अनेक जन्मों के विरह को समाप्त करते हैं

मगर केवल दूरी मिटा देना पर्याप्त नहीं — अब हमें स्वयं प्रेम की डोर थामनी होगी, रूठे हुए परमात्मा से मिलन की पहल करनी होगी

यह वाणी एक आत्मिक आह्वान है — कि अब और देरी मत कर, प्रेम में उतर जा, सत्य से जुड़ जा


Sunday, 3 August 2025

सतगुरु दाता मुक्ति का ।। श्री दरियाव वाणी


सतगुरु दाता मुक्ति का, दरिया प्रेम दयाल ।
किरपा कर चरणों लिया, मेटा सकल जंजाल।।


❖ शब्दार्थ:

  • सतगुरु = सच्चे गुरु, सत्यस्वरूप आत्मज्ञान से युक्त गुरु
  • दाता मुक्ति का = मोक्ष देने वाले, जन्म-मरण से छुटकारा दिलाने वाले
  • दरिया = संत दरियावजी महाराज
  • प्रेम दयाल = प्रेममय और दयालु, करुणा से पूर्ण
  • किरपा कर = कृपा करके
  • चरणों लिया = अपने शरण में लिया
  • मेटा सकल जंजाल = सारे बंधनों, सांसारिक उलझनों और अज्ञान को मिटा दिया

❖ भावार्थ:

संत दरियावजी कहते हैं कि सतगुरु ही मुक्ति के सच्चे दाता हैं।
वे प्रेम और दया के सागर हैं। जब उन्होंने कृपा करके मुझे अपने चरणों की शरण में लिया, तो उन्होंने मेरी सभी सांसारिक उलझनों, दुखों और अज्ञान का अंत कर दिया।


❖ व्याख्या:

इस दोहे में संत दरियावजी महाराज सतगुरु की महानता और उनकी कृपा के प्रभाव को श्रद्धापूर्वक प्रकट करते हैं।

वे कहते हैं कि:

  • सतगुरु ही मुक्ति के दाता हैं, क्योंकि वही जीव को माया और भ्रम से निकालकर परमात्मा की ओर ले जाते हैं।
  • सतगुरु कोई सामान्य शिक्षक नहीं, बल्कि सत्य से एकरूप हुए, प्रेमस्वरूप, और दयालु होते हैं।
  • जब ऐसे सतगुरु की कृपा होती है, और साधक को वे अपने चरणों में स्थान देते हैं — अर्थात उसे अपनी शरण में स्वीकारते हैं — तो उस साधक का जीवन रूपी बोझ, उसका अज्ञान, मोह, बंधन, और सभी मानसिक और आत्मिक जंजाल नष्ट हो जाते हैं।

यह केवल बाहरी बदलाव नहीं, बल्कि अंतरात्मा की क्रांति होती है।


❖ टिप्पणी:

इस दोहे में संत दरियावजी ने गुरुकृपा की शक्ति को अत्यंत सरल और हृदयस्पर्शी रूप में व्यक्त किया है।
यह वाणी हमें सिखाती है कि सच्चे मार्ग की प्राप्ति, आत्मिक शांति और मोक्ष — सब कुछ सतगुरु की कृपा से ही संभव है

यह दोहा हमें यह भी बताता है कि मोक्ष कोई दूर की वस्तु नहीं, वह तब प्राप्त होती है जब हम प्रेम, श्रद्धा और समर्पण से सतगुरु की शरण में आते हैं


Friday, 1 August 2025

दरिया सतगुरु भेंटिया ।। श्री दरियाव वाणी


दरिया सतगुरु भेंटिया , जा दिन जन्म सनाथ ।
श्रवना शब्द सुनाय के, मस्तक दीना हाथ।।


❖ शब्दार्थ:

  • दरिया = संत दरियावजी महाराज
  • सतगुरु भेंटिया = सच्चे गुरु से मिलन हुआ
  • जा दिन = जिस दिन
  • जन्म सनाथ = जीवन धन्य हो गया, जन्म सार्थक हुआ
  • श्रवना = कानों द्वारा, श्रवण के माध्यम से
  • शब्द सुनाय = दिव्य वाणी / नाद / सतगुरु का उपदेश
  • मस्तक दीना हाथ = सिर पर कृपा का हाथ रखा, आशीर्वाद दिया

❖ भावार्थ:

संत दरियावजी कहते हैं कि जिस दिन उन्हें सतगुरु का साक्षात्कार हुआ, उसी दिन उनका मानव जन्म सार्थक हो गया। सतगुरु ने जब उनके कानों में दिव्य वाणी (शब्द) सुनाया और माथे पर कृपा का हाथ रखा, तभी से उनका जीवन पूर्ण हो गया।


❖ व्याख्या:

यह दोहा सतगुरु की कृपा और उसके प्रभाव की गहराई को दर्शाता है।
संत दरिया जी बताते हैं कि जीवन के हर पल में भटकने के बाद जब उन्हें सच्चे सतगुरु का साक्षात्कार हुआ, तभी उन्हें असली अर्थ में “मानव जन्म” की सार्थकता समझ में आई।

सतगुरु ने उन्हें:

  • श्रवण के माध्यम से “शब्द” (दिव्य वाणी, नाद, उपदेश) सुनाया — यह “शब्द” आत्मा को झकझोरने वाला, जाग्रत करने वाला होता है।
  • और फिर कृपा का हाथ उनके मस्तक पर रखकर उन्हें आध्यात्मिक मार्ग पर आगे बढ़ा दिया।

यह अनुभव कोई साधारण घटना नहीं, बल्कि आत्मा की गहराई में उतरने वाला दिव्य मोड़ है, जिससे जीवन ही बदल जाता है।


❖ टिप्पणी:

यह दोहा दर्शाता है कि सतगुरु से मिलना ही असली जन्म है
बिना गुरु के जीवन भटका हुआ रहता है, पर जब सतगुरु मिलता है और अपनी वाणी से आत्मा को झकझोरता है, तब जन्म “सनाथ” हो जाता है — अर्थात वह अब अनाथ नहीं, परमात्मा से जुड़ा हुआ हो जाता है।

“मस्तक दीना हाथ” केवल आशीर्वाद नहीं, बल्कि वह कृपा संचार है जिससे साधक का मन, चित्त और आत्मा सभी रूपांतरित हो जाते हैं।