Friday, 8 August 2025

डूबत रहा भव सिंधु में।। श्री दरियाव वाणी


डूबत रहा भव सिंधु में, लोभ मोह की धार ।
दरिया गुरु तैरू मिला, कर दिया परले पार।। 


❖ शब्दार्थ:

  • डूबत रहा = डूब रहा था, असहाय स्थिति में
  • भव सिंधु = संसार रूपी सागर (जन्म-मरण का चक्र)
  • लोभ = लालच, अधिक पाने की वासना
  • मोह = आसक्ति, ममता, माया का बंधन
  • धार = बहाव, धारा
  • गुरु तैरू = नाविक स्वरूप गुरु, जो पार उतारने वाले हैं
  • परले पार = मुक्ति, परम लक्ष्य, मोक्ष की स्थिति

❖ भावार्थ:

संत दरियावजी महाराज कहते हैं कि मैं सतगुरु के ज्ञान के बिना संसार रूपी सागर में डूब रहा था
इस सागर में लोभ और मोह की तेज धारा मुझे और गहराई में खींच रही थी।
तभी मुझे गुरु रूपी तैरू (नाविक) मिला, जिसने अपनी कृपा से मुझे भव-सागर से पार कर दिया।


❖ व्याख्या:

इस दोहे में संत दरियावजी महाराज ने संसार के खतरनाक स्वभाव और गुरु की महत्ता को अत्यंत सरल, लेकिन प्रभावशाली रूप में व्यक्त किया है।

  • संसार को वे भव-सिंधु कहते हैं — एक ऐसा सागर जो जन्म और मृत्यु की लहरों से भरा है।
  • इस सागर में लोभ और मोह की धाराएं इतनी तेज हैं कि जो इनके प्रवाह में फंसता है, वह डूबता ही चला जाता है।
  • लोभ हमें बाहरी वस्तुओं के पीछे दौड़ाता है, और मोह हमें माया के बंधनों में कस देता है।
  • इस स्थिति में साधक अपने दम पर पार नहीं लग सकता — जैसे बिना नाव और नाविक के कोई समुद्र पार नहीं कर सकता।
  • लेकिन जब सतगुरु तैरू (आध्यात्मिक नाविक) मिलता है, तो वे अपने ज्ञान, नाम और कृपा से आत्मा को सुरक्षित किनारे तक पहुँचा देते हैं — अर्थात मोक्ष की स्थिति में

❖ टिप्पणी:

यह दोहा एक स्पष्ट संदेश देता है:
👉 संसार रूपी सागर में अकेले तैरना असंभव है।
👉 सतगुरु ही वह नाविक हैं जो सही दिशा, नाव और शक्ति देकर हमें परपार तक पहुँचाते हैं
👉 लोभ और मोह की धाराएं इतनी तीव्र हैं कि केवल गुरु का मार्गदर्शन ही हमें बचा सकता है।

यह वाणी हर साधक को यह स्मरण दिलाती है कि गुरु कृपा के बिना, भक्ति और मुक्ति का पार उतरना कठिन ही नहीं, असंभव है


Thursday, 7 August 2025

दरिया सतगुरु शब्द की ।। श्री दरियाव वाणी


दरिया सतगुरु शब्द की, लागी चोट सुठौड़ ।
चंचल सो निस्चल भया , मिट गई मन की दौड़।।


❖ शब्दार्थ:

  • दरिया = संत दरियावजी महाराज
  • सतगुरु शब्द की = सतगुरु की वाणी / उपदेश / वचन
  • चोट सुठौड़ = सही स्थान पर सीधी और प्रभावशाली चोट
  • चंचल = चपल, इधर-उधर भागने वाला (मन)
  • निश्चल = स्थिर, शांत
  • मन की दौड़ = मन का लगातार भागते रहना — इच्छाएं, कल्पनाएं, भटकाव

❖ भावार्थ:

संत दरियावजी कहते हैं कि सतगुरु की वाणी ने मेरे भीतर सीधी और सटीक चोट मारी,जिसके कारण मेरा चंचल और भटकता हुआ मन स्थिर हो गया,और वह मन की लगातार भागने की दौड़, जो न जाने कितने जन्मों से चल रही थी — वह समाप्त हो गई


❖ व्याख्या:

यह दोहा आत्म-साक्षात्कार की उस गहराई को छूता है जो केवल सतगुरु की कृपा से संभव है।

  • संत दरियावजी बताते हैं कि सतगुरु की वाणी मात्र शब्द नहीं होती — वह ऐसी अंतरात्मा को झकझोरने वाली चोट होती है, जो सीधे चित्त के केंद्र पर पड़ती है।
  • इस “चोट” का अर्थ है — सतगुरु का वह उपदेश या अनुभव जो हमारी अंदर की मूल गलत धारणाओं, वासनाओं और भटकावों को तोड़ देता है।
  • जब वह चोट पड़ती है, तो मन की चंचलता — जो इंद्रियों, विचारों और इच्छाओं के पीछे भाग रही होती है — शांत हो जाती है, और साधक की आत्मा स्थिरता का अनुभव करती है
  • इस स्थिरता में ही प्रेम, भक्ति और आत्मिक शांति की नींव रखी जाती है

यह स्पष्ट संकेत करता है कि मन की दौड़, यानी “यह भी चाहिए, वह भी चाहिए, ये करो, वहां जाओ” — इस अनंत दौड़ का अंत केवल तब होता है जब सतगुरु की कृपा से भीतर जागरण होता है


❖ टिप्पणी:

इस दोहे का केंद्रीय भाव है:
👉 सतगुरु वाणी वह औषधि है जो सीधी आत्मा पर असर करती है
👉 वह मन की अशांत धारा को मोड़कर उसे निश्चल, शांत और प्रेमपूर्ण बना देती है

यह दोहा हमें बताता है कि:

  • केवल बाहरी उपदेश से कुछ नहीं होता,
  • जब वाणी हृदय में लगती है, जब सतगुरु की वाणी भीतर “सुठौड़” चोट करती है, तभी असली परिवर्तन होता है।


Wednesday, 6 August 2025

दरिया सतगुरु शब्द सौं ।। श्री दरियाव वाणी


दरिया सतगुरु शब्द सौं , मिट गई खैंचा तान ।
भरम अंधेरा मिट गया, परसा पद निर्वान।।


❖ शब्दार्थ:

  • दरिया = संत दरियावजी महाराज
  • सतगुरु शब्द सौं = सतगुरु के वचन / उपदेश / दिव्य वाणी से
  • खैंचा तान = मन की खींचतान, अंदरूनी द्वंद्व, सांसारिक संघर्ष
  • भरम = भ्रम, अज्ञान
  • अंधेरा = अज्ञान का अंधकार
  • परसा = प्राप्त हुआ, अनुभव हुआ
  • पद निर्वान = परमपद, आत्मशांति, मोक्ष, परमात्मा का अनुभव

❖ भावार्थ:

संत दरियावजी कहते हैं कि जब मुझे सतगुरु का वाणी-रूपी उपदेश मिला, तो मन की सारी खींचतान — द्वंद्व, उलझनें, और सांसारिक झंझट — सब मिट गए।
उस वाणी ने मेरे भीतर का अज्ञान और भ्रम का अंधकार दूर कर दिया, और उसी क्षण मुझे परमपद (निर्वाण) का अनुभव हो गया।


❖ व्याख्या:

इस दोहे में सतगुरु वाणी की शक्ति और उसका प्रभाव अत्यंत मार्मिक ढंग से प्रकट किया गया है।

  • संत दरियावजी अपने आत्मिक अनुभव को साझा करते हुए कहते हैं कि जब तक उन्हें सतगुरु का “शब्द” (दिव्य उपदेश, नाम, नाद) प्राप्त नहीं हुआ था, तब तक वे मन के द्वंद्व में उलझे हुए थे — यानी भीतर संसार और आत्मा के बीच खींचतान चल रही थी
  • लेकिन जैसे ही सतगुरु की कृपा से वाणी मिली, उस क्षण सारा अंदरूनी संघर्ष शांत हो गया
  • वह वाणी ऐसी शक्ति लिए थी कि उसने मनोमय और अज्ञानमय अंधकार को मिटा दिया — वह अंधकार जिसमें आत्मा जन्मों से भटक रही थी।
  • जब भ्रम मिटता है, तब ही निर्वाण पद, अर्थात शांति, स्थिरता और परमात्मा का अनुभव संभव होता है।

यह वाणी इस बात को सिद्ध करती है कि ज्ञान से अधिक प्रभावशाली होता है सतगुरु का शब्द, क्योंकि वह शब्द केवल विचार नहीं, चेतना का संचार करता है


❖ टिप्पणी:

यह दोहा उस क्षण का चित्रण है, जब साधक को सतगुरु वाणी का वास्तविक अर्थ भीतर उतरता है
वह कोई साधारण शिक्षा नहीं होती — वह आत्मा को झकझोर देने वाली, जाग्रति लाने वाली दिव्य चिंगारी होती है।

संत दरियाव जी महाराज का यह अनुभव हमें सिखाता है कि:

  • जीवन में जो भीतर का द्वंद्व है, उसका समाधान तर्क से नहीं, सतगुरु वाणी की कृपा से होता है।
  • और जब वह कृपा हो जाए, तो भ्रम, अंधकार और भय सब समाप्त हो जाते हैं, और आत्मा को मिलती है शाश्वत शांति — निर्वाण


Tuesday, 5 August 2025

जन दरिया हरि भक्ति की ।। Sri Dariyav Vani

जन दरिया हरि भक्ति की, गुरां बताई बाट ।

भूला ऊजड़ जाय था, नरक पड़न के घाट।। 


❖ शब्दार्थ:

  • जन दरिया = संत दरियावजी महाराज
  • हरि भक्ति की = परमात्मा की भक्ति
  • गुरां बताई बाट = गुरु ने जो मार्ग बताया
  • भूला = भटका हुआ
  • ऊजड़ जाय था = उजड़े हुए, सुनसान, असत्य के मार्ग पर चला जा रहा था
  • नरक पड़न के घाट = नरक में गिरने का स्थान, विनाशकारी मार्ग

❖ भावार्थ:

आचार्य श्री दरियावजी महाराज कहते हैं कि सतगुरु ने मुझे हरि भक्ति का सही मार्ग बताया
मैं तो अज्ञानवश भटककर ऐसे उजड़े हुए रास्ते पर जा रहा था, जो अंततः नरक की ओर ले जाने वाला था
लेकिन सतगुरु की कृपा और उनके बताए मार्ग पर चलने से, मुझे भगवत-प्राप्ति का सच्चा रास्ता मिल गया


❖ व्याख्या:

यह दोहा गुरु की महिमा और मार्गदर्शन के महत्व को अत्यंत सरल, लेकिन गहन शब्दों में व्यक्त करता है।

संत दरियाव जी महाराज स्वीकार करते हैं कि:

  • बिना गुरु के मार्गदर्शन के जीव भटका हुआ रहता है, उसे यह भी नहीं पता कि वह किस दिशा में जा रहा है।
  • वे कहते हैं कि मैं तो अज्ञान रूपी अंधकार में, असत्य और मोह के मार्ग पर चला जा रहा था — एक ऐसा मार्ग जो अंततः नरक (दुःख, जन्म-मरण के चक्र) की ओर ले जाता।
  • लेकिन जब सतगुरु ने मुझे हरि भक्ति की बाट (सही दिशा) बताई, तब मेरे जीवन का मोड़ बदल गया।
  • गुरु के वचन का पालन करने से, मेरी आत्मा को वह सत्य मार्ग मिल गया, जो भगवत-प्राप्ति की ओर ले जाता है।

इस वाणी से स्पष्ट है कि सतगुरु के बिना आत्मा का मार्ग अंधकारमय होता है, और गुरु ही सही दिशा देकर भक्ति और मुक्ति की राह पर आगे बढ़ाते हैं


❖ टिप्पणी:

इस दोहे का संदेश सीधा है:

  • गुरु के बिना जीवन दिशाहीन है
  • सतगुरु ही वह दीपक हैं जो अज्ञान के अंधकार को मिटाकर हमें भगवान तक पहुंचने की राह दिखाते हैं
  • यह हमें यह भी चेतावनी देता है कि भटका हुआ जीवन नरक समान है, और गुरु मार्गदर्शन ही हमें उस विनाशकारी राह से बचाता है।

यह दोहा हर साधक को प्रेरित करता है कि गुरु की वाणी को अपनाना ही मोक्ष का मार्ग है


Monday, 4 August 2025

अन्तर थो बहु जन्म को ।। श्री दरियाव वाणी

अन्तर थो बहु जन्म को , सतगुरु भाँग्यो आय ।

दरिया पति से रूठनो , अब कर प्रीति बनाय ।।


❖ शब्दार्थ:

  • अन्तर = दूरी, विरह
  • थो = था (राजस्थानी / ब्रज शैली में)
  • बहु जन्म को = अनेक जन्मों का
  • सतगुरु भाँग्यो = सतगुरु ने तोड़ दिया / समाप्त कर दिया
  • दरिया = संत दरियावजी महाराज
  • पति से रूठनो = अपने परमपति (परमात्मा, रामजी) से रूठे रहना
  • प्रीति बनाय = प्रेम स्थापित करना, प्रेम-संबंध जोड़ना

❖ भावार्थ:

संत दरियावजी कहते हैं कि हमारे और परमात्मा के बीच की दूरी कोई एक जीवन की नहीं, बल्कि अनेक जन्मों की दूरी है।
यह दूरी सतगुरु की कृपा से ही मिट सकती है
अब जबकि सतगुरु ने वह दूरी समाप्त कर दी है, तो परमात्मा से रूठे रहना उचित नहीं
बल्कि अब हमें उनसे प्रेम और आत्मिक संबंध जोड़ना चाहिए।


❖ व्याख्या:

यह दोहा उस आध्यात्मिक सच्चाई को उजागर करता है, जो अक्सर साधकों की दृष्टि से ओझल रहती है — कि हमारा परमात्मा से जुड़ाव टूटा नहीं है, बस हम भूल गए हैं

  • संत दरिया जी कहते हैं कि यह भूल, यह विरह, यह अन्तराल कोई एक जीवन की नहीं, असंख्य जन्मों की है।
  • इतने दीर्घकाल से परमात्मा से हमारा प्रेम-संबंध टूटा हुआ है
  • लेकिन जब सतगुरु कृपा करते हैं, तो वे उस भूल को भंग कर देते हैं, आत्मा को उसका मूल स्वरूप और परम लक्ष्य याद दिलाते हैं।

संत दरिया आगे कहते हैं कि अब जब सतगुरु ने वह दूरी मिटा दी है, तो अब भी परमात्मा से रूठे रहना, उनसे प्रेम न करना — यह उचित नहीं है।

अब समय है कि हम:

  • रूठे हुए परम पति से प्रीति करें
  • अपने भीतर उस भक्ति, प्रेम और आत्मीयता को जगाएं
  • और उस पवित्र संबंध को फिर से जोड़ें जो आत्मा और परमात्मा के बीच जन्मजात था

❖ टिप्पणी:

यह दोहा हमें याद दिलाता है कि सतगुरु ही वह पुल हैं, जो जीव और परमात्मा के बीच के अनेक जन्मों के विरह को समाप्त करते हैं

मगर केवल दूरी मिटा देना पर्याप्त नहीं — अब हमें स्वयं प्रेम की डोर थामनी होगी, रूठे हुए परमात्मा से मिलन की पहल करनी होगी

यह वाणी एक आत्मिक आह्वान है — कि अब और देरी मत कर, प्रेम में उतर जा, सत्य से जुड़ जा


Sunday, 3 August 2025

सतगुरु दाता मुक्ति का ।। श्री दरियाव वाणी


सतगुरु दाता मुक्ति का, दरिया प्रेम दयाल ।
किरपा कर चरणों लिया, मेटा सकल जंजाल।।


❖ शब्दार्थ:

  • सतगुरु = सच्चे गुरु, सत्यस्वरूप आत्मज्ञान से युक्त गुरु
  • दाता मुक्ति का = मोक्ष देने वाले, जन्म-मरण से छुटकारा दिलाने वाले
  • दरिया = संत दरियावजी महाराज
  • प्रेम दयाल = प्रेममय और दयालु, करुणा से पूर्ण
  • किरपा कर = कृपा करके
  • चरणों लिया = अपने शरण में लिया
  • मेटा सकल जंजाल = सारे बंधनों, सांसारिक उलझनों और अज्ञान को मिटा दिया

❖ भावार्थ:

संत दरियावजी कहते हैं कि सतगुरु ही मुक्ति के सच्चे दाता हैं।
वे प्रेम और दया के सागर हैं। जब उन्होंने कृपा करके मुझे अपने चरणों की शरण में लिया, तो उन्होंने मेरी सभी सांसारिक उलझनों, दुखों और अज्ञान का अंत कर दिया।


❖ व्याख्या:

इस दोहे में संत दरियावजी महाराज सतगुरु की महानता और उनकी कृपा के प्रभाव को श्रद्धापूर्वक प्रकट करते हैं।

वे कहते हैं कि:

  • सतगुरु ही मुक्ति के दाता हैं, क्योंकि वही जीव को माया और भ्रम से निकालकर परमात्मा की ओर ले जाते हैं।
  • सतगुरु कोई सामान्य शिक्षक नहीं, बल्कि सत्य से एकरूप हुए, प्रेमस्वरूप, और दयालु होते हैं।
  • जब ऐसे सतगुरु की कृपा होती है, और साधक को वे अपने चरणों में स्थान देते हैं — अर्थात उसे अपनी शरण में स्वीकारते हैं — तो उस साधक का जीवन रूपी बोझ, उसका अज्ञान, मोह, बंधन, और सभी मानसिक और आत्मिक जंजाल नष्ट हो जाते हैं।

यह केवल बाहरी बदलाव नहीं, बल्कि अंतरात्मा की क्रांति होती है।


❖ टिप्पणी:

इस दोहे में संत दरियावजी ने गुरुकृपा की शक्ति को अत्यंत सरल और हृदयस्पर्शी रूप में व्यक्त किया है।
यह वाणी हमें सिखाती है कि सच्चे मार्ग की प्राप्ति, आत्मिक शांति और मोक्ष — सब कुछ सतगुरु की कृपा से ही संभव है

यह दोहा हमें यह भी बताता है कि मोक्ष कोई दूर की वस्तु नहीं, वह तब प्राप्त होती है जब हम प्रेम, श्रद्धा और समर्पण से सतगुरु की शरण में आते हैं


Friday, 1 August 2025

दरिया सतगुरु भेंटिया ।। श्री दरियाव वाणी


दरिया सतगुरु भेंटिया , जा दिन जन्म सनाथ ।
श्रवना शब्द सुनाय के, मस्तक दीना हाथ।।


❖ शब्दार्थ:

  • दरिया = संत दरियावजी महाराज
  • सतगुरु भेंटिया = सच्चे गुरु से मिलन हुआ
  • जा दिन = जिस दिन
  • जन्म सनाथ = जीवन धन्य हो गया, जन्म सार्थक हुआ
  • श्रवना = कानों द्वारा, श्रवण के माध्यम से
  • शब्द सुनाय = दिव्य वाणी / नाद / सतगुरु का उपदेश
  • मस्तक दीना हाथ = सिर पर कृपा का हाथ रखा, आशीर्वाद दिया

❖ भावार्थ:

संत दरियावजी कहते हैं कि जिस दिन उन्हें सतगुरु का साक्षात्कार हुआ, उसी दिन उनका मानव जन्म सार्थक हो गया। सतगुरु ने जब उनके कानों में दिव्य वाणी (शब्द) सुनाया और माथे पर कृपा का हाथ रखा, तभी से उनका जीवन पूर्ण हो गया।


❖ व्याख्या:

यह दोहा सतगुरु की कृपा और उसके प्रभाव की गहराई को दर्शाता है।
संत दरिया जी बताते हैं कि जीवन के हर पल में भटकने के बाद जब उन्हें सच्चे सतगुरु का साक्षात्कार हुआ, तभी उन्हें असली अर्थ में “मानव जन्म” की सार्थकता समझ में आई।

सतगुरु ने उन्हें:

  • श्रवण के माध्यम से “शब्द” (दिव्य वाणी, नाद, उपदेश) सुनाया — यह “शब्द” आत्मा को झकझोरने वाला, जाग्रत करने वाला होता है।
  • और फिर कृपा का हाथ उनके मस्तक पर रखकर उन्हें आध्यात्मिक मार्ग पर आगे बढ़ा दिया।

यह अनुभव कोई साधारण घटना नहीं, बल्कि आत्मा की गहराई में उतरने वाला दिव्य मोड़ है, जिससे जीवन ही बदल जाता है।


❖ टिप्पणी:

यह दोहा दर्शाता है कि सतगुरु से मिलना ही असली जन्म है
बिना गुरु के जीवन भटका हुआ रहता है, पर जब सतगुरु मिलता है और अपनी वाणी से आत्मा को झकझोरता है, तब जन्म “सनाथ” हो जाता है — अर्थात वह अब अनाथ नहीं, परमात्मा से जुड़ा हुआ हो जाता है।

“मस्तक दीना हाथ” केवल आशीर्वाद नहीं, बल्कि वह कृपा संचार है जिससे साधक का मन, चित्त और आत्मा सभी रूपांतरित हो जाते हैं।



Thursday, 31 July 2025

"नमो नमो हरि गुरु नमो..." श्री दरियाव वाणी


नमो नमो हरि गुरु नमो , नमो नमो सब सन्त ।जन दरिया वन्दन करै , नमो नमो भगवंत।।


❖ शब्दार्थ:

  • नमो नमो = बारम्बार प्रणाम / नमस्कार
  • हरि = ईश्वर, विष्णु, ब्रह्म
  • गुरु = आध्यात्मिक शिक्षक, आत्मा को परमात्मा से मिलाने वाला
  • सब सन्त = सभी संतजन
  • जन दरिया = संत दरियावजी महाराज
  • वन्दन करै = नमन करते हैं
  • भगवंत = भगवान, परब्रह्म, परम सत्ता

❖ भावार्थ:

संत दरियावजी महाराज हरि, गुरु, सभी संतों और परमात्मा भगवंत को बारम्बार वंदन करते हैं। यह उनके गहन समर्पण, भक्ति और विनम्रता को प्रकट करता है।


❖ व्याख्या:

इस दोहे में संत दरियावजी महाराज अपनी आत्मिक भावना और श्रद्धा को सहजता से प्रकट करते हैं। वे कहते हैं कि वे हरि (परमात्मा), गुरु (सतगुरु), सभी संतजन, और परम भगवंत को बारम्बार नमस्कार करते हैं।

इसमें यह संकेत है कि आध्यात्मिक मार्ग में हरि, गुरु और संत — तीनों ही पथप्रदर्शक हैं।

  • हरि (परमात्मा) से संबंध स्थापन करना साधना का लक्ष्य है।
  • गुरु वह दीपक हैं जो अज्ञान रूपी अंधकार को मिटाते हैं।
  • संत समाज में दिव्यता और प्रेम का संचार करते हैं।

संत दरिया कहते हैं कि यह सब कुछ उन्हें भगवंत की कृपा से ही मिला है, इसलिए वे हर क्षण कृतज्ञता पूर्वक वंदन करते हैं।


❖ टिप्पणी:

यह दोहा संत परंपरा की नम्रता, भक्ति और समर्पण की पराकाष्ठा को दर्शाता है।
यह भी संकेत करता है कि आध्यात्मिक मार्ग पर अहंकार नहीं, केवल वंदन और समर्पण ही चलते हैं।
यह वाणी साधकों को यह प्रेरणा देती है कि गुरु, हरि और संतों के प्रति नम्रता रखकर ही परम लक्ष्य प्राप्त किया जा सकता है।


Monday, 28 July 2025

नमो राम परब्रह्मजी ।। श्री दरियाव वाणी

॥ नमो राम परब्रह्मजी ॥

नमो राम परब्रह्मजी, सतगुरु संत आधार।
जन दरिया वन्दन करै, पल पल बारम्बार।।


शब्दार्थ:

  • नमो = नमन, वंदन
  • राम परब्रह्मजी = परमेश्वर स्वरूप राम, जो निर्गुण-सगुण से परे, सर्वव्यापक ब्रह्म हैं
  • सतगुरु = सच्चे गुरु, जो आत्मा को परमात्मा से मिलाते हैं
  • संत आधार = संत ही इस जीवन के आधार हैं, जो राह दिखाते हैं
  • जन दरिया = संत दरियावजी महाराज, सेवक स्वरूप
  • वन्दन करै = नमन करते हैं
  • पल पल बारम्बार = हर क्षण बार-बार

भावार्थ:

संत दरियाव साहेब कहते हैं कि मैं उन राम परब्रह्मजी को बारम्बार प्रणाम करता हूँ, जो इस सम्पूर्ण सृष्टि के मूल कारण हैं, जो सच्चे सतगुरु और समस्त संतों के भी आधार हैं।
ऐसे परब्रह्म को दरियावजी जैसा भक्त हर पल, हर श्वास में श्रद्धा से नमन करता है।

यह दोहा भक्त के हृदय में बसी गुरु भक्ति, संत श्रद्धा और ब्रह्म-निष्ठा का गहरा भाव प्रकट करता है।


टिप्पणी:

यह दोहा रामस्नेही परंपरा के उस भाव को व्यक्त करता है जहाँ राम = परब्रह्म, और गुरु-संतों को उस परब्रह्म तक पहुँचने का साधन माना गया है। संत दरियावजी का जीवन इसी नित्य वंदना और ध्यान का उदाहरण है।




Sunday, 27 July 2025

बहु विघन माया करे ।। श्री दरियाव वाणी

दोहा:

बहु विघन माया करे, निश दिन झंपे काल।
दरिया कुण बल साध के, रक्षक राम दयाल॥


शब्दार्थ व पंक्ति-विश्लेषण:

1. बहु विघन माया करे

  • बहु = बहुत
  • विघन = विघ्न (बाधाएँ)
  • माया = संसार की मोहिनी शक्ति (भ्रम, इच्छाएँ, भटकाव)
    👉 माया अनेक प्रकार की बाधाएँ उत्पन्न करती है।

2. निश दिन झंपे काल

  • निश दिन = दिन-रात
  • झंपे = हमला करता है, दबोचता है
  • काल = मृत्यु, समय का संहारक रूप, नाशकारी शक्ति
    👉 काल (मृत्यु और भय का प्रतीक) दिन-रात साधक पर हमला करता है।

3. दरिया कुण बल साध के

  • दरिया = संत दरियाव जी स्वयं
  • कुण = कौन
  • बल = बल (आंतरिक शक्ति)
  • साध = साधना करके
    👉 संत दरियावजी कहते हैं कि कौन ऐसा है जो साधना द्वारा बल प्राप्त करे…

4. रक्षक राम दयाल

  • रक्षक = रक्षा करने वाला
  • राम दयाल = करुणामय राम, परमात्मा
    👉 … और उसे परम कृपालु राम (ईश्वर) की रक्षा प्राप्त हो जाए।

समग्र भावार्थ (सरल हिंदी में):

माया (संसार की मोहिनी शक्तियाँ) साधक के मार्ग में बहुत सारी बाधाएँ डालती है, और काल (मृत्यु/अज्ञान/भय) दिन-रात उसे दबोचने की कोशिश करता है।
लेकिन जो साधक पूरे बल और निष्ठा से साधना करता है, उसे परम दयालु भगवान राम (परमात्मा) की रक्षा प्राप्त होती है।


आध्यात्मिक संकेत:

यह दोहा हमें बताता है कि—

  • साधना का मार्ग आसान नहीं है।
  • माया और काल निरंतर साधक को गिराने का प्रयास करते हैं।
  • लेकिन जो दृढ़ निश्चयी और समर्पित होता है, उसकी रक्षा स्वयं परमात्मा करते हैं।


Tuesday, 29 April 2025

संत दरियावजी महाराज द्वारा सेठ मधुचंद की रक्षा और दरियागंज की उत्पत्ति

संत दरियावजी महाराज द्वारा सेठ मधुचंद की रक्षा और दरियागंज की उत्पत्ति

संत दरियावजी महाराज के परम भक्तों में एक थे — दिल्ली निवासी नगर सेठ मधुचंद, जो एक श्रावक (जैन) कुल से थे। वह संत की शिक्षाओं से अत्यंत प्रभावित थे और गुरुभक्ति में लीन रहते थे।

यमुना में संकट

एक दिन सेठ मधुचंद प्रातःकाल यमुना नदी में स्नान कर रहे थे। दुर्भाग्यवश, वे जल की तेज धारा में बहने लगे और डूबने की स्थिति में आ गए। संकट की घड़ी में उन्होंने हृदय से अपने सतगुरु दरियावजी महाराज का स्मरण किया।

उस समय संत दरियावजी महाराज रेणधाम में विराजमान थे। भक्त की पुकार पर उन्होंने आध्यात्मिक रूप से यमुना में प्रकट होकर सेठ की रक्षा की। उन्होंने जल से उन्हें बाहर निकाला और जीवनदान दिया।

यह घटना भक्तों के लिए यह दर्शाती है कि:

> "सच्चे संत न केवल जीवन में मार्गदर्शक होते हैं, बल्कि संकट में रक्षक भी बनते हैं।"




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दरियागंज नामकरण

इस चमत्कारी कृपा से अभिभूत होकर, सेठ मधुचंद ने दिल्ली में अपने निवास क्षेत्र में एक मोहल्ले को “दरियागंज” नाम दिया — अपने सतगुरु दरियावजी के स्मरण और सम्मान में।

> यह नाम “दरियाव” (गुरु का नाम) + “गंज” (क्षेत्र या बाजार) के रूप में आज भी जीवित है।




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भावपूर्ण दोहा:

धरयो रूप भगवान दास दरिया को भारी।
करी सहाय तत्काल, इस्या है देव मुरारी।।


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यह प्रसंग दर्शाता है कि:

संत की कृपा असीम और अकल्पनीय होती है।

गुरु-स्मरण मात्र से जीवन का संकट टल सकता है

Thursday, 24 April 2025

सूरत शब्द योग

सूरत शब्द योग 
एक आध्यात्मिक ध्यान और साधना प्रक्रिया है, जो संत मत और अन्य आध्यात्मिक परंपराओं में अभ्यास की जाती है। इसमें "सूरत" (आत्मा) को "शब्द" (आत्मा का संगीत या आंतरिक ध्वनि) के साथ जोड़ना और अंततः परमात्मा के साथ मिलन करना शामिल है. 

विस्तार से
सूरत (आत्मा):
सूरत का अर्थ है आत्मा या ध्यान। यह शरीर, मन और आत्मा के परे, एक साक्षी तत्व है जो सब कुछ देखता है. 
शब्द (आत्मा का संगीत):
शब्द का अर्थ है आत्मा का संगीत या आंतरिक ध्वनि। यह वह ध्वनि है जो सृष्टि के आरंभ से ही प्रवाहित हो रही है और यह आत्मा को परमात्मा की ओर आकर्षित करती है. 
योग (मिलन):
योग का अर्थ है जोड़ना या मिलन। सूरत शब्द योग में, "सूरत" (आत्मा) को "शब्द" (आत्मा का संगीत) के साथ जोड़कर परमात्मा के साथ मिलन किया जाता है. 

अभ्यास
सूरत शब्द योग का अभ्यास मुख्य रूप से आंतरिक ध्वनियों पर ध्यान केंद्रित करके किया जाता है। इसमें सिमरण (राम नाम का जाप), ध्यान और भजन (आत्मा के संगीत को सुनना) शामिल है. 

लक्ष्य
सूरत शब्द योग का मुख्य लक्ष्य आत्मा को अपने मूल निवास तक पहुँचाना है, जहाँ से वह सृष्टि के आरंभ में उतरी थी और परम आनंद को प्राप्त करना है. 

संत मत और अन्य परंपराओं में
सूरत शब्द योग संत मत और अन्य आध्यात्मिक परंपराओं में अभ्यास की जाने वाली एक महत्वपूर्ण साधना है। यह आत्मा को परमात्मा के साथ जोड़ने का एक सरल और सहज मार्ग है.

Friday, 18 April 2025

उपदेश: मनुष्य और परमात्मा का संबंध


उपदेश: मनुष्य और परमात्मा का संबंध

मनुष्य के समक्ष सदा से यह प्रश्न रहा है कि क्या परमात्मा वास्तव में है? यदि है, तो उससे मिलन कैसे संभव है? इस विषय पर अनेक ग्रंथ और पुस्तकें लिखी गई हैं, परंतु केवल संत महात्मा ही इस गूढ़ प्रश्न का सही उत्तर दे सकते हैं, क्योंकि वे स्वयं परमात्मा से मिलन कर चुके होते हैं। उनका अनुभव प्रत्यक्ष प्रमाण होता है।

संतों का कहना है कि जब से जीव इस सृष्टि में आया है, वह परमात्मा की तलाश में इधर-उधर भटक रहा है, जबकि परमात्मा तो उसके भीतर ही विद्यमान है। संत महात्मा न केवल यह सिद्ध करते हैं कि परमात्मा है, बल्कि यह भी बताते हैं कि वह एक ही है। यहाँ "एक" का तात्पर्य संख्या से नहीं, बल्कि उसके अद्वैत स्वरूप से है — वह ही सत्य है, वही सब कुछ है, उसके सिवा और कोई नहीं।

दरियाव साहिब की वाणी में परमात्मा

संत दरियाव साहिब ने अपनी वाणी की शुरुआत प्रभु की वंदना से की है, जिसे उन्होंने 'ब्रह्म' या 'परब्रह्म' कहा:

"नमो राम पर ब्रह्माजी सतगुरु संत आधार।

जन दरिया बंदन करे पल पल बारम्बार ।।"

अपने जीवन के अंतिम चरण में जब प्रभु से उनका मिलन हुआ, तब वे प्रेम में निमग्न होकर कहते हैं:

"सोई कंत कबीर का, दादू का महाराज।

 सब संतन का बलमा, दरिया का सिरताज। 

तीन लोक चौदह भवन, दरिया देख्या जोय ।

एक राम सरीखा राम है, इसा न दूजा कोय।।"

यह वही परमात्मा है जो कबीर का स्वामी था, दादू का प्रियतम था, और सभी संतों का इष्ट है। वही दरियाव साहिब का सिरताज है — तीनों लोकों का स्वामी।

परमात्मा का दर्शन और अनुभव


उन्होंने प्रभु को उस निर्गुण, निराकार रूप में अनुभव किया, जो इंद्रियों की पकड़ से परे है। वह सृष्टिकर्ता है, जो हर कण में व्याप्त है। उसका कोई आदि, मध्य या अंत नहीं है। दरिया साहिब कहते हैं:

"आदि अंत मध्य नहीं, जग को कोई पार। 

मनुष्य जीवन का उद्देश्य

दरियाव साहिब ने मनुष्य जीवन को एक यात्रा बताया है। इस यात्रा का उद्देश्य है आत्मा का परमात्मा से मिलन। यह दुर्लभ मानव जीवन बार-बार जन्म मरण के चक्र से गुजरकर प्राप्त हुआ है। उन्होंने कहा:

शरीर पंचतत्वों से बना है, और इस जीवन का उद्देश्य है अपने कर्मों का बोझ उतारकर आत्मा को परमात्मा में विलीन करना।

सतगुरु का महत्व

परमात्मा तक पहुंचने के लिए एक मार्गदर्शक की आवश्यकता होती है — और वही हैं सतगुरु। दरिया साहिब कहते हैं:

"साधु मेरे सतगुरु भेद बताया, टेट राम निकट ही पाया। 

सतगुरु मिलें तो अर्थ बतावे, जीव ब्रह्म का मेला।"

सतगुरु वह होते हैं जिन्होंने स्वयं परमात्मा से मिलन कर लिया होता है। वे मार्ग दिखाते हैं, शब्द का अभ्यास कराते हैं और अंतर्मुखी यात्रा में साथ देते हैं।

" सतगुरु दाता, मुक्ति का दरिया प्रेम दयाल। 

कृपा कर चरणों लिया, मेटा सकल जंजाल।"

सच्चे साधु की पहचान

दरिया साहिब सच्चे साधु की पहचान बताते हुए कहते हैं:

"दरिया लक्षण साधु, बाहर भीतर एक। 

रहनी करनी साध की, एक राम की टेक।"

सच्चा साधु सांसारिक व्यवहार करता हुआ भी अंतर्मुखी भक्ति में लीन रहता है। वह मायामोह से परे होता है और सदैव राम नाम में स्थित होता है।

संदेश

दरिया साहिब का उपदेश है कि यह मानव जीवन एक अमूल्य अवसर है — इसे संसार के भौतिक सुखों में न गंवाकर परमात्मा की भक्ति में लगाएं। उन्होंने स्वयं के अनुभव से बताया कि सतगुरु की कृपा से ही परमात्मा से मिलन संभव है। उन्होंने कहा:

"दरिया गुरु पूरा मिला, नाम दिखाया नूर। 

 निसा गई सुख ऊपजा , किया निसाना दूर।।





Thursday, 17 April 2025

दरियावजी महाराज का प्राकट्य रामस्नेही सम्प्रदाय का उद्‌गम

दरियावजी महाराज का प्राकट्य रामस्नेही सम्प्रदाय का उद्‌गम

कर्मन्दिनां विश्वजनीन रामस्नेही जगद्धिश्रुत सम्प्रदाय ।
 तपोबल वोक्ष्य न यस्य केवा भवन्ति मग्ना भुवि विस्मयाष्धौ ।।


नमो राम पर ब्रह्माजी सतगुरु संत आधार।
जन दरिया बंदन करे पल पल बारम्बार ।।


धर्मप्रदान भारत देश संत सती तथा शूरवीरों का तपोस्थल रहा है। जब जब देश समाज वह धर्म पर आपत्तियां आई तब तब अनन्त कोटी ब्रह्माण्ड नायक ईश्वर की विभूतियां ईश्वर प्रेरणा से भारत देश में अवतरित होती रही है। योग साधना भारत की विश्व को सर्वश्रेष्ठ देन है। अनादिकाल से इस पुण्य भूमि पर महान् योगनिष्ठ महात्मा अवतरित होते रहे हैं। सोभाग्य से इस युग के महान् तपस्वी गूठतम योग तत्वों के ज्ञाता आत्मदर्शी अनन्त विभूषित महात्माओं तथा संतों का जन्म होता रहा है।
भारत पुण्यमय एवं पावन भूमि है। संत महापुरुषों के जप-तप एवं साधना से यह भूमि पवित्र हो गई है, इसलिए भारत माता संत महात्माओं की अमर भूमि है। पूरे विश्व में विख्यात यह भारत एक सत प्राण व ईश्वरीय कृत अवतरित देश के रूप में विख्यात है। भारत का नाम पूरे विश्व में संतों का आर्विभाव एवं संतत्व भावनाओं से प्रेरित देश के रूप में रहा है। संतों की कठोर तप व तपस्या के कारण ही यहां की धरती पावनहै। भारत के चराचर में ईश्वर निवास करते हैं। यहां पर ईश्वर संत के रूप में बार-बार जन्म लेते हैं।
भारत धर्मप्रधान देश रहा है। इसलिए भारत में अध्यात्मवाद का प्रभाव विश्व के सभी देशों से बहुत अधिक है। प्राचीन काल से ही यहां के ऋषी-मुनी यहां के निवासियों के हृदय में अध्यात्मवाद एवं भक्ति की पावनधारा प्रवाहित करते रहे हैं, लेकिन मध्ययुग में देश की राजनैतिक परिस्थितियां, विशेषकर बाह्य आक्रांताओं द्वारा इस देश पर अपना शासन स्थापित कर लेने के पश्चात यहां का जनजीवन अस्त-व्यस्त व आशंका का वातावरण व्याप्त हो गया था। ऐसे विषम परिस्थितियों में भक्त और देशवासियों के दुखद हृदय से कुसंगति से बचने के लिए भारतीय जनता ने परमात्मा से रक्षा की गुहार की।
हे सन्त प्यार के दीप जगत में नूर फैलाते हैं।
 सदा चली आई है रीत, सभी को गले लगाते हैं।।
"भक्त और भगवान एक ही है।"
इस वाक्य को चरितार्थ करने हेतु भगवान स्वयं भक्तों के रूप में धरती पर अवतरित होकर धर्म, समाज तथा देश की रक्षा करते हैं, इसी विषय के कारक कोटि महापुरुष भगवत प्रेरणा से धर्म की रक्षा हेतु मरुधर प्रान्त मारवाड़ में अवतरित हुए। वाणी में कहा भी है-
"जम जालम के तापसे, हंसा करी पुकार। 
सुखियां साहिब आविया, ले जन की अवतार ।।"

उपर्युक्त साखी के अनुसार स्वयं भगवान विभूति रूप में अनन्त विभूषित श्री दरियावजी महाराज अवतरित हुए, अपने धर्म और आस्था के प्रभाव से लाखों लोगों को आत्मज्ञान देकर 'राम' शब्द (नाद ब्रह्म) उपासना के माध्यम से कृतार्थ किया। श्री दरियावजी महाराज के भक्ति का प्रभाव सूर्य के प्रकाश की तरह पूरे विश्व में फैलने लगा। महाराजश्री की अनुठी साधना से राजा-महाराजा भी इनकी शिष्यता स्वीकार कर शरण में आकर शान्ति की अनुभूति करने लगे।
प्रकट भये दरिया सा दाता, जान कलयुग में व्याख्ता। 
भरतखण्ड मरूधर की माही, देश एक जैतारण जाही
 जन्म धर अवनि पर आये, गगन सूं पुष्पन झलाये द्वारिका नगरी में कमल में खिलाकर,पधारे हमारे दरिया सा दाता
पण्डित देख पुराण को सकल समझाय राजा, 
परजा, बादशाह, नीवै पैगम्बर आय धरेणा चरणो में माथा


ऐसे विषम परिस्थिति में रामस्नेही संप्रदाय के प्रवर्तक अनन्त श्री विभूषित श्री दरियावजी महाराज के प्राकट्य वि. स. 1733 कृष्ण जन्माष्टी के दिन द्वारकापूरी (गुजरात) के द्वारका सागर में कमल के पुष्प पर हुआ। दरियाव से प्राप्त होने के कारण आचार्य श्री को दरियाव नाम से पुकारा जाने लगा।
पौराणिक गाथाओं से पता चलता है कि महापुरुषों का जन्म प्रायः रहस्यमय व दिव्य ढंग से होता है। असाधारण परिस्थिति में ही असाधारण महामानव जन्म लेते हैं।
एक बात यह भी सत्य है कि भक्त और भगवान सदा अजन्मा ही होते हैं। भले ही इनका अवतरण किन्ही परिस्थिति में कैसे ही हो। शिशुकाल जैतारण (राजस्थान) में व्यतीत हुआ। लालन-पालन माँ गीगाबाई तथा पिता मनसारामजी ने किया। पिता के मृत्यु के बाद दरियाव साहब रेण में अपेन नाना किशनचंद्रजी खत्री के यहाँ आये।
आये हो ब्रह्म लोक दरिया सा महाराज दरिया तूम हो दीन बन्धु हीतकारी, मैं दुखिया शरण तिहारी।
काटो जन्म मरण के फेरे रेण धाम के दरिया मेरे ।।

दरियाव महाराज के प्राकट्य के समय देश में बहु देवोपासना, कर्मकांड की कठोरता, आर्थिक विषमता, ऊँच नीच के भेदभाव आदि अनेक प्रकार के उत्पीड़न चरम सीमा पर पहुंचे हुए थे। तभी बाहरी आक्रमक कारियों ने यहां के राजाओं की फूट का लाभ उठाकर अपना शासन पूर्ण रूप से स्थापित किया और प्रजा काधर्म परिवर्तन करना प्रारंभ कर दिया।
जन्म मरण सू रहित है, खण्डे नहीं अखण्ड।
जन दरिया भजराम जी, जिन्हा रची ब्रह्माण्ड ।।

संक्रामक काल की इसी स्थिति में निराश उत्पीडित, शोषित, कर्तव्य-विमूढ एवं दिशाविहिन भारतीय जनता का श्री दरियावजी महाराज ने पथ प्रदर्शन किया, क्योंकि लोगों को असहाय और दुःखी देखकर सच्चे साधु का हृदय द्रवित हो जाता है। द्रवणशीलता के कारण ही सच्चासाधु अपनी व्यक्तिगत
साधना की अपेक्षा लोक कल्याण को अधिक महत्व देता है। अपने इसी उच्चकोटी के साधु स्वभाव के कारण ही श्री दरियावजी महाराज ने आतंकित व संत्रस्त भारतीय जनता को जीवन में सुख और शान्ति प्राप्त करने के लिये तथा मानव जीवन को सार्थक बनाने के उद्देश से रामभक्ति (भगवद्भक्ति) की महिमा बताई। जन भावना का आदर करके ही सगुण ब्रह्म को माता तथा निर्गुण ब्रह्म पिता के रूप में स्वीकार कर समन्वयवादी उदार दृष्टि कोण अपनाया है।
भागवत, संस्कृत, गीता, वेद धुन निस वासर करता।
हिन्दी पारसी न्यारी, विद्या पद हिरदा में धारी ।।
आचार्य श्री दरियावजी महाराज थोड़े ही समय में काशी निवास कर व्याकरण, वेद, गीता, उपनिषद एवं सभी दर्शन शास्त्रों का अध्ययन किया। एक दिन आचार्य श्री नित्यनियम के अनुसार श्रीमद् भागवत व उपनिषदों का पाठ कर रहे थे। "रहुगणैः तत्तपसाः" आदि।
तभी उनकी दृष्टि गुरु-महिमा विषय पर अटक कर रह गई। उन्हें उसी समय सद्‌गुरु बनाने की प्रेरणा प्राप्त हुई। जैसा कि नियम है- अन्तर्यामी भगवान सत्य-संकल्प को अवश्य पूरा करते हैं-वह पुरा हुआ। महाराज श्री की स्थिति गुरु के वियोग में विरहिणी जैसी हो चुकी थी। वे घंटो बैठकर सतगुरु का चिन्तन करते थे। वे सोचते रहते थे कि कब भगवत प्राप्त पुरुष क्षोत्रिय ब्रह्मनिष्ठा महापुरुष मिलेंगे ?
गगन गिरा वाणी भई, बोल्या श्री भगवान।
प्रेम पुरुष मिलसी अब तोकूँ कहो हमारो मान ।।

अतः भगवान की प्रेरणा से प्रेमदासजी महाराज वि. सं. 1769 में भिक्षाटन करते हुए महाराज श्री के निवास स्थान पर पधारे। उन्होंने दरियाव महाराज के द्वार पर आकर बड़े घोष के साथ 'राम' कहा। राम की रहस्यमयी ध्वनि दरियाव महाराज के श्रवणों से होती हुई अन्दर तक प्रविष्ट हो गई। शीघ्र ही दरियाव महाप्रभू घर से निकलकर प्रेमदासजी महाराज के चरणों में गिर गए औरआत्म निवेदन किया। सन्तों का तो यह स्वभाव ही होता कि वे जिज्ञासु व प्रणव जनों को अपनाते है। वि. सं. 1769 कार्तिक शुक्ला एकादशी के दिन प्रेमदासजी महाराज ने दरियावजी महाराज का 'राम' नाम का तारक मंत्र प्रदान कर शिष्यत्व प्रदान किया।
सतगुरु दीन दयाल के, चरण नवायो शीश। प्रेमदास प्रसन्न भए, सुण रामस्नेही ईश ।। भेख तुम्हारा चालसी, सुन रामस्नेही बात। रामस्नेही धर्म के, होंगे तुम सिरताज ।। 

"दरिया सतगुरु भेंटिया जा दिन जन्म सनाथ,

श्रवणा शब्द सुनायके, मस्तक दीना हाथ।"

सतगुरु के उपदेशानुसार श्री दरियाव महाप्रभु अखंड ब्रह्मचर्य व्रत धारण कर सूरत शब्द योग से राम भजन करने लगे। इस प्रकार महाप्रभू कंठ, हृदय, नाभि, मुलाधार, बंक, मेरू, त्रिकुटी, दशावाँद्दार, शुन्य व महाशुन्य से परे जीवाभास को हटाकर कैवल्य ज्ञान को प्राप्त हुए।
दरिया सुमिरै राम को, आठ पहर आराध।

 रसना मैं रस उपजे, मिश्री जैसा स्वाद ।।
आचार्य श्री दरियावजी महाराज के यों तो हजारों शिष्य थे किन्तु इनमें ज्ञानी-ध्यानी शिरू 72 ही थे, 9 शिष्याएं भी प्रधान थी। आचार्य श्री के प्रायः सभी शिष्य महान व्यक्तित्व वाले, पराक्रमी, चमत्कारी तथा उन जैसी ही श्रद्धा व भक्ति से सम्पन्न थे। महाराज श्री अपने शिष्यों पर सदैव कड़ी दृष्टि रखते थे तथा कड़ाई से नियमों का पालन कराया करते थे। वे सदैव उन्हें आदर्शा, सत्य आचरण पर चलने के लिए प्रेरित करते रहते थे। उनके द्वारा बताए गए कुछ नियम इस प्रकार हैं:-
अहिंसा, ब्रह्मचर्य, शुद्ध आचरण, अक्रोध, दृष्ट-संग त्याग, सर्व दुर्व्यस्न त्याग, निर्गुण राम, आत्मानुसंधान, सुरत शब्द योग, गमनागमन, लोकों से परे केवल ब्रह्म आदि। वे इनका उपदेश करते थे। इस प्रकार आचार्य श्री के इन उपदेशों से हजारों नर-नारियों का कल्याण हुआ।
तत्व निष्ठ तथा धर्म रक्षक स्वभाव ।।
जन दरिया सतगुरु मिला, कोई पुरूवले पुन्न ।।

 जड़ पलट चेतन किया, आन मिल्या सुन्न ।।
श्री दरियावजी महाराज के अनेक शिष्यों में गुरु कृपा पात्र 8 शिष्य प्रधान माने जाते है। वे है-
श्री पूरणदासजी, श्री किशनदासजी, श्री सुखरामदासजी, श्री नानकदासजी, श्री हरकारामजी, श्री टेमदासजी, श्री बृजभानजी, श्री उदयरामजी।
दरिया तपस्या कृत ईटे रामनाम की है सार। 

जो आज भी तैरती है, लाखा सागर में सदाबहार ।।
आचार्य श्री की वाणियों की संख्या लगभग एक लाख थी। महाराजश्री द्वारा दिव्य वाणी से भरे हुए दिव्य लोकोपकारी संदेशों को किसी विषम परिस्थिति में लाखासागर में प्रवाहित किए जाने से शिष्य समुदाय को अपार कष्ट हुआ। उनके जीवन-चरित्र को लिखने के लिए उनके शिष्यों को जितनी वाणियाँ कण्ठस्थ रही उन्हीं के आधार पर सामग्री संकलित कर उन्होंने जनकल्याण के लिए लिपिबद्ध कर लिया। अनकी संख्या साखी शब्दों में अनुष्टुप श्लोक परिमाण से लगभग 700 है।
संसार में संयोग-वियोग का चक्र तो अनादिकाल से चला आ रहा है। प्रकृति के नियम सबके लिए एक से है। शरीर सबका नारायण है। परन्तु महापुरुषों की पुनीत वाणी जनकल्याणार्थ अजर-अमर होती है। वाणी ही महापुरुषों की अमर श्री विग्रह है। जैसे श्रीमद् भागवत और गीता स्वयं कृष्ण सशरीर है।
महान विभूतियों का अवतरण जिस उद्देश्य से धराधाम पर होता है। उसकी पूर्ति होने पर वे ऐहिलौकिक लीला संवरण कर लेते है। ऐसे ही महापुरुषों की श्रेणी में श्री दरियावजी महाराज अग्रगण्य है। आचार्य श्री की सभी शिष्य मण्डली उनकी सेवा में उपस्थित थी। उनके अन्तिम सारगर्भित प्रवचन उनके महाप्रयाण की सूचना दे रहे थे।
"कुण जाणे दरद हमारा, म्हारा बिछड्या रामप्यारा।
जन दरिया धाम सिधारा म्हारा नैन उमड़ भर आया ।।

वि. सं. 1815 मार्गशीर्ष की पूर्णिमा की सवा पहर रात बितने पर महाराज श्री ध्यान मुद्रा में स्थित हो गए। एक बार तो शिष्य समुदाय के करूण क्रदन से आकाश भर गया किन्तु दूसरे ही क्षण आचार्य श्री के उपदेश से सान्त्वना पाकर नाम जप करने लगे। आचार्य श्री ने इस परम पावन वसुन्धरा पर 82 वर्ष तीन मास व इक्कीस दिन, राम नाम भक्ति का महाकल्पवृक्ष लगाकर बाइसवें दिन सवा पहर रजनी बीतने पर ध्यान मुद्रा में स्थित होकर इस भौतिक शरीर का त्याग कर दिया और कैवल्य धाम प्राप्त किया :-
दाता गुरु दरियाव सही, गुरुदेव हमारा। 

राम राम सुमिराय, पतित को पार उतारा।


 राम नाम सुमिरण दिया, दिया भक्ति हरी भाव, 

आठ पहर बिसरो मती, यो कहै गुरु दरियाव ।।
महाराज श्री के जीवन की घटनाएँ ऐ से एक बदकर व लोकोपकारी है।
भक्तों और महात्माओं का अवतार तो जनकल्याण के लिए ही होता है। जिन महापुरुषों ने मानव-धर्म की सुखी जड़ों को हरा किया उनमें आचार्य श्री का विशेष स्थान है। मारवाड़ देश में धर्म संकट के समय विचलित हिन्दू समाज को धीरज बँधाकर तथा लाखों हिन्दुओं को विधर्मियों के पंजों से छुड़ाकर स्वधर्म में स्थिर करने का महान कार्य महाप्रभू दरियाव महाराज के द्वारा सम्पन्न हुआ। वे जीवन पर्यन्त भगवद् भक्ति का प्रचार करते रहे और रामस्नेही धर्म के मूलाचार्य बन कर डूबते हुए स्वधर्म रूपी जहाज के केवट बन गए।
आचार्य महाप्रभु के पश्चात जो भी आचार्य हुए, वे सभी बड़े वीतरागी, भजनानंदी, निष्ठावान, विद्वान व कार्यकुशल महापुरुष हुए। जिनमें श्री हरकारामजी महाराज, श्री रामकरणजी महाराज, श्री भगवतदासजी महाराज, श्री रामगोपालजी महाराज, श्री क्षमाराजी महाराज, श्री बलरामदासजी महाराज 
,श्री प. पू. हरिनारायणजी महाराज
तथा विद्यमान पीठाधीश श्री सज्जनरामजी महाराज।
लाखो लाव सीर सागर, त्रिवेणी समान है। 
याही में अडसठ तीरथ, अठारह पुराण है।।

रामधाम रेण में जनकल्याणार्थ गतिविधियाँ चलती रही है। यह धाम लाखासागर नामक तालाब के किनारे बसा हुआ है। श्री दरियावजी महाराज की वाणीजी की लाख साखियाँ जल में विसर्जित करदी गई थी। एक लाख वाणी विसर्जन के कारण उक्त सरोवर का नाम 'लाखासागर' पड़ा था। रामस्नेही भक्त इन सरोवर के जल का गंगा जल की भांति रोज प्राशन करते है, जो अत्यंत पवित्र एवं शुद्ध है। इसे गंगा जल से भी बढ़ कर परम पवित्र त्रितापहारी तीर्थ भक्तगण मानते हैं:
दरिया जैसी तुम करि वैसा, करि ना कोई नाम अमीरस मोह दियो, तीन लोक को बीज ।
 इतना नाम जपो; इतना नाम जपो।की जपने की हद कर दो, 

इतने सबल बन जाओ कि स्वयं यमराज के पन्ने भी रद कर दो ।।
इस प्रकार दरियावजी महाराज ने अवतार लेकर भारतवर्ष की जनता को रामनाम की महिमा का गुणगान कराया सभी भक्तों को इस अथाह भवसागर से पार उतरने की विधि बताई है। श्री दरियावजी महाराज ने अपने जीवन को राममय बनाकर तथा सभी शिष्यों को अपनी सखियों से तथा अपनी दिव्य वाणियों से सभी का जीवन धन्य कर दिया। दरियाव धाम को रामस्नेहीयों का उद्गम स्थल माना गया। सभी लोग रेणधाम और दरियावजी महाराज की ओर आकृर्षित होने लगे।