Monday 21 December 2015

।।दरियाव जी महाराज की लावणी।।

।।दरियाव जी महाराज की लावणी।

प्रगट भये दरियासा दाता, जाण कलियुग में विख्याता।।
भरतखण्ड मरुधर के मांही, शहर एक जैतारण जांही।
जनम धर अवनि पर आये, गगन सुर पुष्पन झड़ लाये।
सत्रह सौ तैतीस का, जन्म अष्टमी जाण ।
प्रगट भये दरियावजी,रोप्या भक्ति निशाना ।
धिन है वांके पितु माता ।।1।।
एक दिन पलणे पौढाये, नागेश्वर दर्शन को आये।
भान उदय व्याकुल भयो गाता, गई जल भरने को माता।।
व्याकुल वदन विलोक के, छत्र कियो तेही आन ।
देख माता सुध बुध बिसरी, रही अचम्भो  मान ।।
लग्या है धूजन सब घाता ।।2।।
जाय पण्डित पे मेहतारी, हकीकत बरणी है सारी ।
अचम्भो भयो मोय भारी, पुरूष नहीं है कोई अवतारी।।
पण्डित देख पुराण को,कहयो सकल समझाय।
राजा प्रजा बादशाह, निवें पैगम्बर आय।।
धरेगा चरणों में माथा ।।3।।
वर्ष एक दोय तीन च्यारी, पंच षट सप्त तेज भारी।
पिता देह तजी मोक्ष पाये,आप जद रेंण में आये।।
नाँनो नाम कमेसता, राखे हेत सनेह।
ता कारण महाराज पधारें, कियो पवित्र गेह।।
ताप गई उपजी सुख साता ।।4।।
भागवत संस्कृत गीता, वेद धुन निसवासर करता।
हिन्दगी पारसी न्यारी, विद्या पढ़ हिरदा में धारी।।
एक दिन भागवत में, प्रसंग ऐसो आय ।
सतगुरू बिना मुक्ति नहीं पावै, किजो कोट उपाय।।
सुनी सब निश्चय कर बाता ।।5।।
उदासी भई पिण्ड मांही,गुरू बिन जीवन होय नांही।
सोध षट् दर्शन सब लीना,सतगुरु धारण नहीं किना।।
गिगन गिरा वाणी भई, बोल्या श्री भगवान।
प्रेम पुरूष मिलसी अब तोकुं,कयो हमारो मान।।
धरो मन धीरज उर ताता ।।6।।
प्रेमजी कृपा कर आये, जाय चरणों में सिर नाये।
मिलत ही वाणी प्रकाशा, झोड़ मत करना दरियासा।।
सकल भरमना दूर कर, राम नाम कर याद।
बार बार  मिनखां तन नांहि, मत खोवो ना बाद।।
नाम बिना मुक्ति नहीं पाता ।।7।।
भेद मोय भक्ति को दीजो, नाथ मोय शरणागत लीजो।
जोड़कर दासातन किनी, प्रेमजी आज्ञा जब दीनी।।
कार्तिक सुदी एकादशी, आज्ञा शीश चढाय।
होय निरदाव सिंवरण किजो, दीनो भेद बताय।।
समेट सब इन्द्रियां मन हाता ।।8।।
श्रवण सुध रसना सुं ध्याये, कंठ होय हिरदा में आये।
नाभि में रोम रोम जागी, शब्द धुन रग रग में लागी।।
पेस पयाँला उलट मेर होय, चढ़या त्रिगुटी जाय।
सुन्न शिखर बेहद पद मांही, केबल ब्रह्म समाय।।
जहां कोई दिवस नहीं राता ।।9।।
समाधी पुरूष भये भारी, लगाईं उनमुन होय तारी।
भई जब अणभै की वाणी, शिष्य बहू उपजे परमाणी।।
किसनदास सुखराम जन,पूरण नानक सन्त।
बहत्तर शिष्य को शीश निवाऊं, उधरे और अनन्त।।
कहूं मै कहां लग गुण गाता ।।10।।
कलु में जीव बहुत जागे, प्रगटे आप ब्रह्म सागे।
राजा जद दरसन को आये, देख दीदार जो सुख पाये।।
आज्ञा भई सुखराम को, दीयो नृपति को ज्ञान।
दोयकर जोड़ में शीश निवाऊं, धिन हो कृपा निधान।।
डूबता पकड़्यो मोय हाथां।।11।।
थाग नहीं दरिया को कोई, चिड़ी भर चोंच मगन होई।
तुच्छ बुध कहता नहीं आई, सन्त मोय लिजो अपनाई।।
मैहर भई महाराज की, तपे शीश सुखराम।
जन 'जयराम' लावणी गाई, शहर मेड़ता धाम।।
सदा चित चरणों में राता ।।12।।











No comments:

Post a Comment