Monday 7 August 2023

श्री दरियाव चालीसा :- स्वामी श्री बलरामदासजी महाराज कृत

श्रीमद् दरियावाय नमः

नत्वाभवाब्धिं पोतांस्तान्हेतून् गुरूपदान् । 
यदरियाव चालीसाम्पठाम्यात्म हिताय वै ॥

राम नाम अरू सन्त जन, गुरू दरिया से हेत । 
धर्म अर्थ अरू काम मोक्ष, फल चारों ही देत ॥

चौपाई

जय दरियाव दयानिधि भारी, 
जीव मात्र भव भय हारी। 
राम रसिक आतम तत् ज्ञानी, 
गीगापुत्र मनसा सुख दानी । 
शील सन्तोष दया उर मांही, 
राग द्वेष क्रोध मद नाही । 
सर्पराज बासुकी जब आया, 
जय तारण में दर्शन पाया।
तुम बलवान शास्त्र सब ज्ञाता, 
मात पिता गुरू दरिया दाता । 
अखण्ड तपस्वी भोग रस त्यागी, 
राम सनेही प्रेम अनुरागी । 
राम नाम रस मधुर पियारा, 
नव रस षट-रस धन-रस खारा । 
हाथ काम मुख राम उचारी, 
दयावन्त अखण्ड ब्रह्मचारी | 
दाढी धावल मूच्छ सुन्दराई, 
लोमश कच सम भय जटिलाई । 
शशि सम शीतल तेज तपोसम, 
अचल हिमाचल ये उपमा कम । 
सरल गुणापम सबसे न्यारे । 
साधु सन्यासी के रखवारे, 
पतित पावन कर पार उतारे । 
संत सनकादिक देव गौरीसा, 
करि हरि दर्शन करत खगेसा ।
यम कुबेर शेष सुर राया, 
सूर्य शशि तुमरी ये माया ।
 राजा बगतसिंह घबराया, 
 प्रभु तुमने ही धैर्य बंधाया। 
 तुम उपकार नृपति का कीये, 
 शीघ्र दोह देय प्रभु धर लीये । 
 हिन्दु तुरक ये भेद मिटाया, 
 राम नाम रस अमृत पाया। 
 एहि भांति कीन्ह उपकारा, 
 जेहि जानत सत शिव संसारा । 
 जग उद्धारक पालक स्वामी, 
 तीनुं देव तुमरे अनुगामी। 
 दरिया देव के दर्शन पावे, 
 देव दैत्य दानव यश गावै । 
 गुरू लघु व्यापक तुम तन धारी, 
 भू पाताल गगन दिगवारी । 
 शिक्षक बन संसार में आये, 
 मोक्ष पन्थ के पथिक बनाये।
 पांच देव भये शिष्य तिहारे, 
 मोक्ष हेतु नर देह को धारे। 
 धाता रूप किशन धर आये,
  राम रूप सुखराम कहाये । 
   सोम भये पूरण के रूपा, 
 देव गुरू दरियाव अनूपा ।
   नृसिंह रूप धर नानक दासा, 
   गुरू दरियाव चरण चित्त आसा ।
    हरकाराम स्वरूप कुबेरा, 
    पांच देव दरिया के चेरा। 
    आपकी लीला है सुखदाई, 
    दरियाव उच्चारण दुख मिट जायी । 
    प्रेत पिशाच विघ्न नहीं छावे, 
    जय दरियाव ये नाम सुनावे। 
    राम नाम दरियाव बतावे, 
    यक्ष - योगिनी अति भय खावे। 
    राहु अरू केतु शनिश्चर लागे, 
    दरिया नाम श्रवण कर भागे ।
    कुछल कपट डायन भरमाया,
     राम नाम से दूर हटाया।
      नित प्रति दरिया को जो ध्यावे,
       रोग शोक भय कष्ट न आवे।
जनम मरण मेट दुख दोषू, 
अभय होय पावे सन्तोषु । 
श्री दरियाव के हो शरणाई,
 अष्ट सिद्धी नवनिद्धि घर आई । 
 देहिक वाचिक मानस पापू, 
 काम क्रोध दूर होय तापू । 
 शक्ति हीन बलवान कहावे, 
 मानव मूढ विद्या यश पावे। 
 जय जय जय दरियाव नमामि 
 चरणाश्रम मम देवों स्वामी । 
 सफल होई स्वेच्छा मन धरई, 
 अष्टोत्तर शत पाठ जो करई। 
 सायं प्रातः पढे चालीसा 
 ते सुख भोग मोक्ष पद वासा |

दोहा : 
उर में बसो दरियावजी, ताप त्रय स्वयं नशाय । 
बलरामा को ज्ञान दो, दुविधा सब मिट जाय।।

Monday 27 March 2023

श्री अभाँबाई का विरह का अंग ••

श्री अभाँबाई का विरह का अंग ••

नमो नमो निराकार को, नमो निरंजन नाथ । 
जय अँभा की वन्दना, (कर) जोड़ नमाऊँ माथ ॥ 
नमो नमो जगदेव को, सकल सुधारणा काम । 
जन अभा प्रणाम कर, निस दिन सिवरुँ राम ।।
बिरह आण जाग्रत भई, किया देह में बास । 
ताला बेली जीव में, आवे अमूं ज्या स्वास ।।
हाथां पांवा फूटणी, चले कमर में पीर । 
नाड़ नाड़ नशां सब दूखे, घायल हुवो शरीर।।
बिरह घटा घन ऊमटी, नैण न खण्डे धार।
रोम रोम चेतन भयो, सब तन भयो सुमार
मात पिता जग देख कर, मन में किया विचार ।
बेग बुलावो वेद ने, औषध करो तैयार।।
देखत सब इचरजकरे, सही भाजसी देह । 
भंग पड़यो कोई भक्ति में, यूं कह रामस्नेह।।
राम शब्द परगट सुण्यो, अदरत हुई अवाज ।
सही पाधाय सन्त जन, सुण अनहद की गाज।।
किस्तूरी कूँपा खुल्या, सो मुख कह्या न जाय।
नाड़ नाड़ हर रोम में, सिलता चले सुभाय।।
रैन न आये निंदडी, दिवस न लागे भूक ।
साहबजी से आंतरो, पूर्व जनम की चूक।।
जन अँभा बिरह भेद की, किण सू कहिये बात ।
बिती सोहि जाणसी, जाणे निरंजन नाथ।।
नेण बेण बुदता भया, पांवा चल्यो न जाय।
बोलन की सरदा नही, श्रवणा सुण्यो न जाय।।
कहता आवे लाजडी, बिरह तणा बिस्तार ।
के तो जाणे सतगुरु, के जाणे सिरजनहार।।
जन अभा इण बिरहकी, किण सूं बुझं बात ।
मन मिलावू संतजन, सतगुरु पकड्यो हात।।
खारो लागे जगत सब, मिठा लागे राम ।
अँभा आसा राम की, सकल पुरवे काम।।
मन मैला दिसे नही, किण सूँ कहिये बात ।
सतगुरु साचा टेमजी, समरथ पकडे हाथ।।
जन अंभा इण दरदकी, पीड न जाणे कोय ।
सो चोकस इण जाणसी, ज्या उर बिती होय।।

Friday 3 March 2023

श्री आचार्य चालीसा

श्री आचार्य चालीसा
विध्न हरण मंगल करण, भज दरियाव का नाम
श्री हरिनारायण चालीसा, पढ़े ध्यान धर राम

जय जय जय जय हरिनारायण
जय जग वंदित धर्म परायण
रामस्नेही सन्त शिरोमणि
पीठाधीश्वर रेण मुकुटमणि
शीलगाव मरुधर जग चांवा
भादवा बदी आठम प्रगटावा
भौतिक सुख सब नश्वर जाना
गुरु बलराम शरण मे आना
चार वेद उपनिषद पुराणा
पठन मनन चिंतन परिज्ञाना
षड दर्शन भाषा विख्याता
रामायण गीता व्याख्याता
दिवस चतुर्थी पोष महीना
पीठाधीश्वर पदवी दीना
दिव्य ललाट नेत्र विशाला
ब्रह्मचर्य का तेज निराला
वसन गुलाबी गुरुवर सोहे
निर्मल वचन राम मन मोह
राम राम श्री राम सुमिरते
राम छवि हिर्दय में धरते
मधुर मधुर संगीत सुनावे
श्रोता मंत्र मुग्ध हो जावे
गरुड़ासन जब आप विराजे
प्रवचन सिंह समान है गाजे
चतुर्कषाय से किया किनारा
कनक कमल सम तव व्यवहारा
जप तप वृत अनुपम अवतारी
ध्यान साधना मय अविकारी
नमो नमामि अंतर्यामी
सर्व ऋद्धि सिद्धि के स्वामी
राष्ट्र सन्त सुरतरु महाज्ञानी
घर घर गूंजे अमृत वाणी
संकट मोचक सब सुख दाता
भक्त जनों के भाग्य विधाता
सन्मति सागरवर गंभीरा
समता योगी स्नेह समीरा
नर नारी बालक जन मोह
जनता सारी भजति तोहे
देश विदेश में भक्त है नामी
धनपति निर्धन सबके स्वामी
हरिजन मन परिवर्तन किना
हिन्दू धर्म प्रतिष्ठित किना
राम नाम का अलख जगाया
पतित जनो को पार लगाया
राम धाम रेन अति भारी
जीर्णोद्धार किया अवतारी
रेन पीठ के अष्ठम पठधर
जग में चमके महामुनिस्व्र
तरक मनिसि महाधुरंध्र
अविचल योगी ध्यान पुरन्दर
अचल अमल अटल जगदेवा
निर्मल सबल करत सब सेवा
अदभुत योगी महातपस्वी
सुरसती साधक परम्मनस्वी
स्यंमनिष्ठ धर्म महा नायक
सन्त परम्परा के उन्नायक
गुरु दरियाव का नाम कमाया
रेन पीठ जग में चमकाया
बड़े बड़ो का आदर किना
दरिया रत्न अलंकर दीना
एं हिं श्रीम क्लिम हरिनारायण
जाप जपो शुभ राम रसायन
चमत्कार कहि दिए दिखाई
निर्धन अक्षत सम्पति पाई
मिटी बीमारी मिरगी भारी
कैंसर रोग मुक्त नरनारी
बंध्या पुत्र वती हो जावे
हरिनारायण कृपा पावे
दिन दुखी दरिया दर आता
मन अभिलाषा पुरी पाता
शहर पिंपाड़ में पर्चा दिना
खारा पानी मीठा किना
राम रक्षा मन्त्र जो पावे
डाकिन साकिन प्रेत भगावे
सेवा में मेरा मन प्यारा
विन्यवान शिष्य परिवारा
जैसे दुख सबन के टारे
दूर करो प्रभु विध्न हमारे
राम सुमिर चालीसा गाओ
नवल सिद्धि नर नारी पावो

देव किशन सुभ प्रेरणा, गुरुवर आशिर्वाद।
चालीसा नित गाइये, गुरु दरियाव प्रशाद।।

Monday 6 February 2023

श्री दरियावजी महाराज द्वारा अनुभव वाणी जी को लाखा सागर में बहा देना :-


श्री दरियावजी महाराज द्वारा अनुभव वाणी जी को लाखा सागर में बहा देना :- श्रीमद् दरियाव जी महाराज की अनुभव वाणीयों की संख्या एक लाख थी इस एक लाख वाणी को महाराज श्री ने दो कारणों से रेण के पास तालाब में प्रवाहित कर दिया था। लाख वाणी प्रवाहित करने के कारण इस तालाब का नाम लाखा सागर पड़ गया था। प्रथम कारण यह था कि आपके एक शिष्य ने इस शब्द का अर्थ कर के वाणी जी के शब्दों को धुआँ घोषित कर दिया था यथा:-

'अनुभव झूठा थोथरा, निर्गुण सच्चा नाम। 
परम ज्योत परचे भई, तो धूंआ से क्या काम।।" 

यह शब्द श्री दरियाव वाणी जी का ही हैं। इस शब्द के आधार पर एक लाख वाणी जी को सागर में बहाने का मानस बना लिया था और दूसरा कारण यह था कि आचार्य श्री दरियाव जी महाराज के मामा का पुत्र फतेहराम बेमुख होकर आचार्य श्री से द्वेष रखता था। अतः एक बार वह महाराज श्री की अनुभव वाणी जी के पत्तों को चुरा कर ले गया था और उन्हें अनादर भाव से आम रास्ते पर फेंक दिया था। कुछ बच्चे पत्रों को अपने पैरों के नीचे कुचल रहे थे उस समय श्री दरियाव जी महाराज अपने शिष्यों सहित तालाब पर स्नान करने जा रहे थे। उन्होंने उसे देख लिया और एक पत्र में लिखा था - " आत्मराम सकल घट भीतर " इन शब्दों को पढ़कर आचार्य श्री को बहुत दुःख हुआ था अतः ऐसा समझकर कि कलियुग में वाणीयों का सम्मान नहीं होगा, उन्होंने वाणी जी को तालाब में प्रवाहित कर दिया था। बाद में जो महाराज श्री जी के समर्पित शिष्य थे, उनको वाणी जी के शब्द याद थे। उनका संग्रह करके उन शिष्यों ने" श्रीमद दरियाव गीता "ग्रन्थ महाराज श्री जी की वाणी जी की निशानी रखी, जो वर्तमान समय में असंख्य साधक जन श्रीमद दरिया गीता जी का पाठ करते हैं। कहते है कि वह बेमुख फतेहराम द्वेष के कारण जल्दी मृत्यु को प्राप्त हो गया और प्रेत योनि में जा गिरा। बाद में उसने प्रेतयोनि में पड़े-पड़े ही आ. श्री दरियाव जी महाराज से अपनी मुक्ति के लिए प्रार्थना की थी, तब महाराज श्री जी ने दयादृष्टि कर के उसे प्रेत योनि से मुक्त किया और उनका उद्धार ही कर दिया था। इस प्रकार करूणा के सागर श्री मद् दरियाव जी महाराज ने अनन्तजीवों पर दयादृष्टि करके उनकों भव सागर से पार लगाया तथा महाराज श्री की शरण में आकर अनन्त जीव भव सागर से तर गये। जब महाराज श्री जी द्वारा वाणी में भरे हुए दिव्य लोकोपकारी संदेशों को लाखा सागर में प्रवाहित किए जाने से सम्पूर्ण शिष्य समुदाय को अपार कष्ट हुआ था। कर्म भक्ति व ज्ञान योग से परिपूर्ण जीवन दर्शन की अभूतपूर्व निधि के इस प्रकार बहा देने से जो क्षति हुई है वह कभी पूरी नहीं हो सकती हैं।

 श्री दरियाव जी महाराज ने जब अनुभव वाणीजी को लाखा सागर में बहा दिया था, तब सभी शिष्यों को बड़ा दुःख हुआ था। उन शिष्यों के मन की बात को समझकर महाराज श्री ने उन सभी शिष्यों को विशेषकर रामभजन करने का आदेश दिया था। वे सभी शिष्य केवल राम सुमरण भजन करने में लग गये थे । यथा:-

'राम नाम सुमिरण दिया, दिया भक्ति हरी भाव। 
आठ पहर बिसरो मति, यूं कहै गुरू दरियाव ।।


Saturday 4 February 2023

व्यक्तित्व और कृतित्व:-


व्यक्तित्व और कृतित्व:-

श्रीमद्भगवदगीता में श्री कृष्ण कहते हैं कि जब-जब भी धर्म की हानि होती है तब-तब वे अवतार लेकर धर्म की पुनः स्थापना करते है। धर्म का क्षय होना शुरू होने पर अनेक संत महापुरूषों का भी अवतार धर्म के क्षय को रोकने के लिए होता है।

देश में औरगजेब जैसा क्रूर शासक हो गया था। उससे पूर्व के शासकों, बाबर, हूमायूं, अकबर, जहाँगीर, शहजाहां ने क्रमशः इतना आतंक फैलाया था कि भारत के राजा-महाराजाओं ने पहले तो तलवारें भांजी, किन्तु जब हारने लगे तो उन बाहदशाहों को पृथ्वीपति और पृथ्वीनाथ मान लिया। बादशाहों के साथ जब राजाओं ने अपने राज्यों ने अपने को निष्कंटक करने हेतु रोजी बेटी का व्यवहार शुरू कर दिया। धर्म तो धर्म की जगह सत्ता भोगने की लालसा ने लोगो

को कर्मच्युत कर दिया । यही कारण था कि भारत की ललनाओं को पाश्चात्य लोगों के हवस का

शिकार बनाया जाने लगा। सत्ता पर काबिज होने के बाद औरंगजेब ने जबरन धर्म परिर्वतन का

एक अभियान आरम्भ कर दिया। जीवित रहने का एक ही विकल्प था और वह धर्म परिवर्तन।

दूसरी तरफ हिन्दू धर्म में अपार विकृतियां आ गई थी। मूर्ति पूजा चरमसीमा पर थी। मूर्ति से भगवान के प्रक्टीकरण की आशा आम लोग लगाए बैठे थे किन्तु मूर्ति से भगवान प्रकट नहीं हो रहे थे। तंत्र-यंत्र ही नहीं अन्यान्येक ढ़ोगी लोग समाज और धर्म के ठेकेदार बन बैठे थे और अपना उल्लू सीधा कर रहे थे। धर्म भीरू जनता का हाल बहुत बुरा था। वह किंकर्तव्यविमूढ़ हो गई थी। धर्म में एक विकृति ओर आ गई थी, छूत-अछूत का इतना प्रचार प्रसार हुवा कि हिन्दू धर्म भी अनेक फिरकों में और पंथों में बंट गया था। इस प्रकार की व्यवस्था यदि कुछ समय और चली होती तो निश्चित ही हिन्दू धर्म समाप्त हो जाता किन्तु दैवीय शक्ति भी अपना काम कर रही थी। कई समाज सुधारकों और सन्त महापुरूषों का प्रदुर्भाव हुआ । जन्म अवतार हुए और धर्म में आई गिरावट को रोकने का प्रयास हुआ ।

अनकों संतो और भक्तों ने अवतार लेकर हिन्दुओं को ईश्वर एक है और मनुष्य मात्र भी एक ही है का सन्देश प्रचारित व प्रसारित किया। ऊंच-नीच के भेदभाव को समाप्त करने के प्रयास किए तथा पौंगा पंथ व ढ़ोग से दूर आम आदमी को दो अलग विचार धाराऐं दी। पहली व दूसरी निर्गुण विचार धाराऐं देश के धार्मिक जीवन में संचरण करने लगी। दोनों विचार धाराओं में भी अनेकानेक संत अवतरित हुए, उन्ही में से एक महापुरूष दरियावजी महाराज थे जिन्होने रामस्नेही सम्प्रदाय की स्थापना की ओर छत्तीस करोड़ देवी-देवताओं के जाल से मनुष्य मात्र | को निकालकर एक राम का नाम सुपर्द कर दिया। ढ़ोग से कही दूर मनुष्य को निर्गुण उपासना का मार्ग प्रशस्त किया ।

मारवाड़ देश के जैतारण निवासी खत्री वंशीय श्री मनसारामजी व उनकी पत्नी श्रीमति गीगाबाई निःसन्तान थे। सन्तान प्राप्ति के लिए तीर्थे की यात्रा करते-करते द्वारिका पहुंच गए वही पर समुद्र की लहरों में तैरते हुए बालक पर उनकी दृष्टि पड़ी और उन्होंने बालक को अपनी गोदी में रख कर स्तनपान कराना आरम्भ कर दिया व देवयोग से उनके स्तनों से दूध निकल आया। समुद्र को स्थानीय भाषा में दरिया कहा जाता है। अतः उसी समय उन्होने उस बालक का नाम दरियाव रख दिया । यह शुभ दिन भगवान कृष्ण का जन्म दिवस जन्माष्टमी विक्रम संवत 1733 था।

दरियावजी के बचपन की एक घटना सर्व विदित है कि दरियावजी को पालने में सुलाकर उनकी मां पानी लाने चली गई थी। उनके आने तक सूर्य की किरणों की धूप दरियावजी पर आ गई और उसे रोकने के लिए कहीं से एक बहुत बड़ा सांप फन फैलाकर बैठ गया था। गीगाबाई जब जल लेकर आई तो उन्हें भय हुआ कि सांप बालक को काट न ले किन्तु मां के आते ही सांप चला गया। दरियावजी की सात वर्ष की आयु विक्रम संवत् 1740 में उनके पिता श्री मनसाराम का स्वर्गवास हो गया। उनकी माता गीगाबाई 1741 में रेण आ गई। रेण गीगा बाई की जन्मस्थली पीहर था। व उनके पिता किशनजी खत्री यहां निवास करते थे।

मेड़ता पर मुसलमानों का अधिपत्य हो गया। और जबरदस्ती लोगों को इस्लाम में परिवर्तित किए जाने वाले लोगों में किशनजी खत्री भी थे। दरियावजी के नाना किशनजी को मुसलमान बनाकर उसका नाम खमीश रख दिया गया था। किशनजी के लगभग पूरे खानदान को ही ईस्लाम में परिवर्तित कर दिया था। किशनजी ने खमीश मुसलमान के रूप में रुई धुनने व पीनने का काम अपनी आजीविका के लिए आरम्भ कर दिया था। इसी कारण उन्हें पिंनारा कहा जाने लगा। पिंनारा को ही जुलाहा कहा जाता है। इन्ही वर्षे में काशी के दो पण्डित स्वरूपानन्दजी व शिवप्रसादजी जोधपुर आ रहे थे।

पण्डितों ने रेण में बालकों में खेलत हुए दरियावजी को देखा तो उनकी माता के पास गए। उन्होंने दरियावजी को अपने साथ अध्ययन के लिए काशी ले जाने का प्रस्ताव रखा जिसे सहज ही माता ने स्वीकार कर अध्ययन के लिए उनके साथ दरियावजी को विदा कर दिया।

अल्प समय में ही दरियावजी महाराज काशी में व्याकरण, वेद, उपनिषद् व गीता का अध्ययन कर पुनः रेण पधार गए किन्तु वे सैदव सदगुरू की खोज में रहते थे। इसी अविधि में प्रेमदासजी महाराज एक बार भिक्षाटन करते हुए दरियावजी महाराज के द्वार पर आ गए और राम नाम के उद्घोष से भिक्षा मांगी, इस ध्वनी से प्रभावित होकर दरियावजी महाराज तुरन्त बाहर आए और प्रेमदासजी महाराज को अपना गुरु बनाने का प्रस्ताव रखा। प्रेमदासजी महाराज रामानन्दजी की शिष्य परम्परा में उनके पश्चात नौवे उत्तराधिकारी थे। प्रेमदासजी महाराज ने कार्तिक शुक्ला एकादशी विक्रम संवत् १७६६ को राम नाम के मूल मंत्र के साथ अपना शिष्यत्व प्रदान किया। दरियावजी महाराज ने ब्रह्मचर्य धारण कर कैवल्य ज्ञान प्राप्त किया।

समाज कल्याण में रामस्नेही धर्म के आदि प्रवर्तक श्री दरियावजी महाराज की अहं भूमिका:-


समाज कल्याण में रामस्नेही धर्म के आदि प्रवर्तक श्री दरियावजी महाराज की अहं भूमिका:-

भारत माता अवतारों एवं ऋषि-मुनियों की पावन भूमि रही हैं। भारत में आध्यात्मवाद विश्व के अन्य देशों से कहीं अधिक हैं इसीलिए भारत देश विश्ववन्द्य और जगद्गुरू कहलाया । आदि काल से ही अवतारों और ऋषि-मुनियों ने भारतीयों के हृदय में आध्यात्मवाद और भक्ति की पावन धारा प्रवाहित की हैं। पौराणिक गाथाओं के अनुसार जगत जननी सीता पृथ्वी से तो महर्षि अगस्तय घट से उत्पन्न हुए थे। इसी प्रकार भगवान राम यज्ञ चरू की खीर से तो वैद्य धनवंतरी, लक्ष्मी, रम्भा आदि चौदह रत्न समुद्र से उत्पन्न हुए थे। ठीक इसी प्रकार रामस्नेही सम्प्रदाय के संस्थापक दरियाव महाराज भी पन्द्रहवें रत्न के रूप में दरिया (समुद्र) से उत्पन्न हुए थे।

जब राजपुताने में शाहजहां के पुत्र औरंगजेब के अत्याचार की सीमा चरम पर थी, हिन्दुओं का जबरन धर्म परिवर्तन कराया जा रहा था। धर्म को बचाने की महत्ती आवश्यकता थी तब दरियाव महाराज ने अवतार लेकर धर्म को संरक्षण प्रदान किया। उनके अवतार की कहानी बड़ी रोचक हैं। पाली जिले के जैतारण कस्बे में मनसाराम-गीगाबाई नाम से एक धर्मनिष्ठ दम्पत्ति निवास करता था। उनके कोई सन्तान नहीं थी। उस समय भारत में धर्मद्रोह और अत्याचार का बोलबाला था। यह निःसन्तान दम्पति जोड़ा कहीं भी सुरक्षित स्थान न पाकर द्वारिका की और चल पड़ा। वहां पहुँचकर उन्होंने अनन्यभाव से भगवद् भक्ति की तथा धर्म व संस्कृति की रक्षा के लिए उन्होंने ईश्वर से पुत्र प्राप्ति की कामना की। भगवानके दरबार में भी जब उनकी प्रार्थना नहीं सुनी जा रही थी तो वो सांसारिक जीवन से पूरी तरह निराश होकर समुद्र में जल समाधि के लिए तत्पर हुए। भगवान को शायद उनके मानस की ऐसी ही स्थिति की प्रतिक्षा थी।

जल समिधि ग्रहण करने के लिए समुद्र की गहराई में उतरते समय उन्हें दिव्यवाणी सुनाई दी, " तुम्हारी मनोकामनाएँ अवश्य पूर्ण होंगी। कल प्रातः ब्रहम मुहूत में इसी दरिया की लहरों पर कमल पुष्प में तैरती बाल विभूति प्राप्त होगी। ईश्वरीय विभूति द्वारा जगत में चारों और तुम्हारी कीर्ति फैलेगी। उस बालक द्वारा जगत के कल्याण हेतु कार्य होंगे। ”

यह दिव्य वरदान पाकर दम्पति ने जल समाधि का विचार त्याग दिया। अगले दिन ब्रह्म मुहूत में वे विस्मित भाव से अथाह दरिया की लहरों पर कमल पुष्प में विद्युत चमक -सी आभायुक्त एक बालमूर्ति उन्हें तैरती दिखाई दी। निःसंतान दम्पति ने तत्परता के साथ बालक को उठा- कर हृदय से लगा लिया। वात्सलय से विभोर दम्पति को कुछ पल तो पुत्र प्राप्ति की अगाध प्रसन्नता हुई लेकिन ततकालीन अत्याचारपूर्ण परिस्थिति का पुनः ध्यान आते ही उनके लिए बालक को सुरक्षित रखना एक समस्या बन गई। उस दम्पति ने सांसारिक जीवन से विरक्त होकर पुनः समुद्र की गहराईयों में उतरने लगे तभी उन्हे फिर से दिव्य वाणी सुनाई दी- " बाल विभूति को लेकर तुरन्त स्वदेश लौट जाओ। यह बालक डूबते धर्म की रक्षा करेगा "। यह दिव्य वरदान पाकर जलसमाधी का विचार त्याग मनसाराम गीगाबाई तुरन्त स्वदेश जैतारण लौट आए। इस प्रकार विक्रम संवत् 1733 भाद्रपद कृष्ण जन्माष्टमी के दिन निःसन्तान दम्पति को 'दरिया' से अमूल्य बाल निधि प्राप्त हुई, इसलिए बालक नाम 'दरियाव' रखा गया। वरदान के अनुसार, बालक दरियाव की अलौकिक शक्तियाँ उसके ननिहाल में रेणवासियों को उनकी बाल कीड़ाओं में दृष्टिगोचर होने लगी। एक बार की घटना हैं कि बालक दरियाव अपने बाल सखाओं के साथ खेल रहा था। तभी काशी के दो पण्डित रेण से होते हुए तत्कालीन जोधपुर नरेश से मिलने जा रहे थे। उनकी दृष्टि अन्य बालकों के संग खेल रहे बाल दरियाव पर पड़ी। वे बालक के तेजस्वरूप से अति प्रभावित हुए। पण्डितों ने गीगाबाई से इस तेजस्वी बालक को अपने साथ काशी ले जाकर सुशिक्षित करने की अनुमति चाही, जो उन्हें सहज ही मिल गई । इस प्रकार “गुरू गृह पढ़न को गए रघुराई अल्प काल विद्या सब पाई। " सिद्धान्त को चरितार्थ करते हुए थोड़े ही समय में व्याकरण, वेद, गीता, उपनिषद एवं सभी दर्शन- शास्त्रों का अध्यन कर दरियाव रेण लौट आए। अब उन्हें सद्गुरू की प्राप्ति के बारे में वह सोचते रहते । आखिर विक्रम संवत् 1769 में उनकी प्रेमदास महाराज से भेंट हुई। विक्रम संवत् 1769 कार्तिक शुक्ल एकादशी को प्रेमदास महाराज ने दरियाव महाराज को अपना शिष्य स्वीकार कर आशीर्वाद प्रादान किया ।

दरियाव महाराज महाराज बाल्यावस्था में ही अपने ननिहाल रेण आ गए जहां उनका लालन-पालन खत्री समाज में हुआ। उन्होंने रामस्नेही सम्प्रदाय की आधारशिला रखी। वे राम- धुन लगाय करते थे। रेण को ही उन्होंने तपःस्थली बनाया। कस्बे के लाखासागर के तट पर ईंटो से निर्मित चबुतरे पर विराजमान होकर वे तपसवा किया करते थे। कहा जाता है कि इस एकांत वन में लक्ष्मीजी, ब्रह्माजी, शिव, सनकादि, नारद जैसे देवादिदेव देवलोक से आकर दरियावजी महाराज से मिलते थे। अपने अनुयायियों को वे सदैव आदर्शो और सत्य आचारणों पर चलने के लिए उपदेश देते रहते थे। अनके अवतारित होने के समय भारत वर्ष में कर्मकाण्ड की कठोरता, बहुदेवापासना, आर्थिक विषमता, ऊँच-नीच का भेदभाव आदि अनेक कुप्रथाएँ एवं अत्याचार चरम पर थे। यहां के तात्कालिक शासक ( नरेश ) भी अपनी स्वर्ग से महान जन्मभूमि के गौरव को भूल चुके थे। विदेशी आक्रमणकारियों ने भी यहां के शासकों की फूट का लाभ उठाकार प्रजा का बलपूर्वक धर्म परिवर्तन करना शुरू कर दिया था। भारतीय समाज में सदियों से संस्कारित धार्मिक वर्चस्व के गढ़ भी धराशायी होने लगे। जनता भी अपने आप में असहाय महसूस करने लगी, ऐसे में दरियावजी ने धर्म पथ प्रदर्शित किया । उन्होंने पूर्ववर्ती संत कबीर, दादूदयाल आदि की भांतिनिर्गुण 'रामभक्ति' का प्रचार किया। उन्होंने जीव और ब्रह्म में कोई भेद नहीं माना। जीव मात्र में उन्होंने ब्रह्म की उपस्थिति का आभास किया।


अपनी कठोर साधना के कारण उन्होंने परमात्मा का आत्म साक्षात्कार किया। दरियाव महाराज ने 'नाम' उच्चारण को बड़ा महत्व दिया। उन्होंने ब्रह्म के प्रचलित अनेक नामों में से “राम” नाम को स्वीकार किया। इसके पीछे कारण यह था कि 'राम-नाम' को शिक्षित एवं अशिक्षित सभी लोग आसानी से उच्चारित कर सकते हैं। उन्होंने योग बल पर आत्म तत्व को परमात्म तत्व में विलीन करते हुए परमात्मा के संग तादात्म्य भाव स्थापित कर स्वानुभूति का वर्णन अपनी वाणी में प्रधानता के साथ किया है। उनकी ज्ञान रूपी ज्योति और आध्यात्म सत्ता तीनों लोकों में व्याप्त हैं। वे अपने तपोबल से अत्याचारियों एवं दुष्टों का हृदय परिवर्तित कर उनमें क्षमा, दया और करूणा की निर्मल धारा प्रवाहित कर हिंसा, अन्याय, अत्याचार, आदि की मनोवृत्ति को बदलने में समर्थ थें । यही कारण था कि उनके समक्ष बैठी शेरनी हिरनी को चाहती थी तो चूहा फूदक कर सांप के फन पर निर्भय होकर बैठ जाता था। उन्होंने अपने अपने तपोबल से कोटि-कोटि जीवों का उद्धार किया। ज्ञान, भक्ति व योग की त्रिवेणी की पुनीत निर्मल धारा ऊर्जा शक्ति के रूप में प्रवाहित होने के कारण उनके तपोस्थल चबूतरे की ईटे आज कलयुग में पानी पर तैरती हैं। रामस्नेही भक्त तो उन्हें समुद्र से प्राप्त 15 वाँ रत्न मानते हैं। दरियाव महाराज का "वाणी सहित्य" तो रामसेहियों के लिए संजीवनी ही हैं। उनकी वाणी में सत्संग के प्रभाव एवं सद्गुरू की महिमा का विस्तारपूर्वक वर्णन किया गया हैं।

दरियाव महाराज ने अपनी अलौकिक लीलाओं से जगत को चकित कर दिया। शिकारी द्वारा मारे गए मृग को जिंदा करना, कुओं के खारे जल को मीठा कर देना, भक्त उदयगिरि की पुकार पर लुटेरों से उसकी रक्षा करना आदि उनके अनेक पर्चे चर्चित है। यहीं नहीं, अनके तपस्थल चबूतरे की ईटे आज कलयुग में भी पानी पर तैरना उनकी आध्यात्म शक्ति का प्रत्यक्ष प्रमाण है। इन ईटो को वर्ष में तीन बार चैत्र, भद्रपद व मार्गशीर्ष की पूर्णिमा तिथि को सार्वजनिक रूप से हजारो श्रद्धालुओं की उपस्थिति में लाखासागर में तैरायी जाती हैं।

रेण स्थित रामधाम में दरियाव महाराज की पावन समाधि स्थित है। अखिल भारतीय रामनेही सम्प्रदाय की रेण पीठ के वर्तमान पीठाधीश्वर आचार्य हरिनारायण शास्त्री ने रामधाम में भक्तों एवं श्रद्धालुओं के ठहरने के लिए सैकड़ों कमरों का निर्माण कराया हैं। सत्संग हेतु पांच हजार लोगों के बैठाने की क्षमता वाले विशाल एवं अद्भुत सत्संग भवन का निर्माण कराया हैं। इसी प्रकार संगमरमर का सिंह द्वारा बनाया गया हैं। वहीं भीतरी द्वार का संगमरमर निर्माण जारी हैं। उन्होंने रामधाम का तो कायाकल्प किया ही हैं वे भारत भ्रमण कर सत्संग के माध्यम से भक्तों को आत्मकल्याण हेतु उपदेश प्रसारित कर रहे हैं।

Thursday 2 February 2023

जहां पत्थर(ईंट), पानी पर तैरते है

जहां पत्थर(ईंट), पानी पर तैरते है

बाल्मिकी रामायण और राम चरित मानस में सबसे बड़ा चमत्कार यदि कोई है तो वह है रामेश्वर से लंका तक समुद्र पर पत्थरों के पुल का निर्माण शास्त्र साक्षी हैं कि नल और नील जैसे वानर इंजिनियरों की देख रेख में असंख्य वानर, भालू आदि ने बड़े-बड़े पत्थरों पर राम नाम लिखकर समुद्र में फैकते और वे समुद्र के पानी की सतह पर कागज की तरह जैसे तैरते थे। इस तरह चमत्कारिक ढंग से एक जबर्दस्त पुल का निर्माण हो गया था।

करोड़ो,लाखो वर्ष पुरानी इस घटना का मात्र रामायण के अन्य कोई साक्षी या साक्ष्य नहीं हैं। आज के वैज्ञानिक रामायण काल की उस घटना को हास्यापद, मजाक व झूठ की सीमा से भी बड़ा झूठ कहते हैं। वे सवाल करते है कि यदि राम के नाम से उस युग में पत्थर तैरते थे तो अभी क्यों नहीं तैरते? अपने स्थान पर सही है क्योकि पत्थर तैरते या तैराते किसी ने अपनी आंखों से नहीं देखा ।

राजस्थान सती-जती और सूरमाओं की जगह हैं। यहां वह सभी घटता है जो आश्चर्य- जनक हैं। अनेक बुद्धिजीवी, वैज्ञानिक, विचारक, चिन्तक और दार्शनिक इस करिश्में को देखकर सोचने पर बाध्य है। जब राम नाम के पत्थर पानी पर तैरते दिखाए जाऐं।

राजस्थान के नागौर जिले के रेण नामक गांव में संत दरियावजी महाराज पीठ राम- धाम हैं। इस रामधाम में मिट्टी से निर्मित पकाई हुई चार ईटें विद्यमान है। ये चारों ईटें आज भी पानी पर तैरती है और वर्ष में तीन बार सार्वजनिक रूप से तैराई जाती है। एक बड़ी ईट लगभग ढाई किलो वजन की है, यह लगभग १० इंच लम्बी ८ इंच चौड़ी और ३ इंच मोटाई में हैं। इस बड़ी ईट सहित शेष सभी ईटें तालाब में पानी पर ऐसे तैरती हैं जैसे कागज की बनी ईटें हो।

दरियावजी ने एक स्वतंत्र रामस्नेही संप्रदाय की आधारशिला रखी और वे रामधुन लगाया करते थे। दरियावजी महाराज के बादउनके उत्तराधिकारी गद्दीनशीन क्रमशः हरखारामजी, रामकरणजी, भगवतदासजी व रामगोपाल महाराज हुए।

ये सभी संत पक्की ईटों के एक चबूतरे पर स्नान किया करते थे। रामगोपालजी के परलोक गमन के बाद उस ईटों के चबतूरे को हटाकर स्नान का नया स्थान बनाया गया तब | ईटें तालाब के पानी में फिंकवा दी गई।

आश्चर्य तो तब हुआ जब ईटें पानी में डूबने के बजाय तैरने लग गई। उस समय महन्त क्षमारामजी ने इन ईटों को सहेज कर सुरक्षित रखा और विभिन्न अवसरों पर इन ईटों को तैराना प्रदर्शित करना आरम्भ कर दिया ।

जब पानी पर ईटें तैरने का समाचार आग की तरह पूरे मारवाड़ में फैला तो तात्कालीन मारवाड़ के महाराज सर उम्मेदसिंह ने एवं ब्रिटिश सरकार के एजेंट ने जो आबू में रहता था, इसे लोगों को बेवकूफ व मूर्ख बनाने वाला जालमाजी का कार्य मानकर स्वयं अपने सामने ईटें तैराने का आदेश दिया। तात्कालीन महन्त क्षमारामजी महाराज ने राम का नाम लेकर एक ईंट नहीं बल्कि सभी ईटें पानी में जोर से फेंक दी। देखते ही देखते ही देखते ईटें पानी की सतह पर आ गई और तैरने लग गई।,

इस चमत्कार से महाराज और एजेंट प्रभावित हुए और अग्रेंज को इस ईट में किसी प्रकार की जालसाजी का शक था। एक ईट उसने रख ली और इग्लैड में जांच के लिए भेज दी। इगलैड के वैज्ञानिकों की इस रिपोर्ट ने तो उसे और भी अधिक शर्मिंदा कर दिया कि यह ईट पत्थर की है। इनका तैराना प्रकृति के विपरीत हैं। नियमानुसार इस घटना से अग्रेज एजेंट प्रभावित हुआ और महाराज की प्रभावित हुए बगैर नहीं रह सके।

जोधपुर राजघराने पर रामस्नेही सम्प्रदाय का प्रभाव और भी अधिक हो गया। रेण में क्षमारामजी के स्वर्गवास के बाद उनके उत्तराधिकारी बलरामदासजी शास्त्री हुए जिन्होंने गद्दी का परित्याग कर अपने योग्य शिष्य हरिनारायणजी शास्त्री को गद्दीनशीन किया। आप के ब्रह्मलीन होने पर सज्जनराम जी महाराज विराजमान हुए।

 वर्ष में तीन बार इन ईटों को तलाब में सार्वजनिक तौर पर चैत्र, भाद्रपद, मार्ग शर्ष की पूर्णिमा को हजारों दर्शनार्थियों के समक्ष लाखासागर तालाब में तैराते है जिसे देखकर दर्शनार्थी भक्तगण आनन्द से अभिभूत हो उठते हैं।

Wednesday 4 January 2023

गुरुकृपा सन्देश ।। सत्संग के सूत्र ।। आचार्य श्री हरिनारायण जी महाराज के सत्संग से

जीव और परमात्मा के बीच जो दूरी है वह कई जन्मो से है, कई कल्पो से है , सतगुरू हमे मंत्र बताकर उपासना बताकर वह दूरी मिटाते है।

ईश्वर का महाप्रसाद है मानव जीवन।

बिना गुरू के कर्म नही कट सकते हैं।

मन ही बंधन और मोक्ष का कारण है।

राम नाम से ही आत्मा का पोषण होता है। 

प्राणिमात्र में परमात्मा को देखना चाहिए।

हमारी चिन्तनधारा आध्यात्मिकता की ओर होनी चाहिए।

भगवान का परिचय सतगुरू देते हैं।

राम नाम स्मरण से करोड़ों पाप कर्म जलकर नष्ट हो जाते हैं।

संतो के संग से मानव का कल्याण होता है। 

कलियुग में राम नाम जाप को मुक्तिदाता माना गया है।

राम नाम रुपी औषधि से ही मन के विकारों पर विजय पाई जा सकती है।

राम नाम जाप भगवत् प्राप्ति का सरलतम उपाय है।

नम्रता और परमार्थ के साथ जीवन जीना चाहिए।

निष्काम भाव से की जाने वाली सद्गुरू की सेवा और साधना से भगवान भक्त के वश में हो जाते हैं। भगवान स्वयं साधक के आगे झुककर सेवक बन जाते हैं।

ह्रदय मे बैठे शत्रु को मारे , वो ही शूरवीर है।

राम नाम का निरंतर स्मरण करते रहने से जीवन में आध्यात्मिकता आती है।

गुरू जैसा दूसरा कोई उपकारी नहीं हो सकता।

राम नाम के संकिर्तन में सब समस्याओं का समाधान भरा है।

जिस शरीर से भजन नही हो रहा वो कुडा घर की तरह है।

राम शब्द में कोटि कोटि ब्रम्हान्ड समाया हुआ है।

 जो व्यक्ति हमेशा राम का चिंतन करता है भगवान उसको संभालते है।

डीमांड(मांग) भगवान की करनी चाहिए संसार की नही।

जीभ पे लगा हुआ घाव जल्दी भर जाता है परंतु जीभ से दिया घाव जीन्दगी भर नही भरता , इसलिए जीभ का संभलकर उपयोग करना चाहिए।

दुखो के सागर में सद्गुरू ही व्यक्ति के साथ खडे़ रहकर शिष्य को भवसागर पार उतारते हैं।

सद्गुरू की शरण में जाने से व्यक्ति के जीवन में अलौकिक क्रान्ति आती है।

ये मानव तन हमे मिला है जिससे मनुष्य नर से नारायण बन जाता है। हमे इस अवसर का लाभ उठाना चाहिए।

सारे शास्त्रो का सार भगवत नाम स्मरण है।

आशा परम दुःख का कारण है निराशा परम सुख का कारण है ईश्वर को छोडकर और किसी से आशा नही करनी चाहिए।

राम नाम स्मरण से करोडो़ं पाप कर्म जलकर नष्ट हो जाते हैं।

जो व्यक्ति भगवान के नाम में विश्वास करता है, वह अवश्य ही जीवन में सफलता अर्जित करता है।

हमे भजन करके अंतकरण को पवित्र करना चाहिए। अंतकरण पवित्र होंगा तभी परमात्मा हमारे अंदर निवास करेंगे।

राम कृपा को आसरो, राम कृपा को जोर ।
राम बिना दिखे नहीं, तीन लोक में ओर।।

शरीर को मै मानना सबसे बडा अपराध हैं।

ज्ञान सर्वत्र है उसे लेने के लिए पात्रता होनी चाहिए।

ह्रदय में बैठे शत्रु को परास्त करना मुश्किल है। लेकिन गुरू की कृपा से ही ये संभव है

जीवन मे सतगुरु ही आधार हैं।

अनंत कोटि ब्रम्हान्डनायक परमात्मा की प्राप्ति कराने में सच्चे सहायक केवल सतगुरू ही है।

गुरू के अंतःकरण से निकला हुआ शब्द ही 'गुरू' का स्वरूप है।

आध्यात्मिकता से जुड़े बिना सारा जीवन व्यर्थ होगा।

धनवान तो वही है जो रामनाम का धन संग्रह करता है।

राम राम रटते रहो तो परिणाम अपने आप प्राप्त हो जाएगा।

सच्चे विश्वास के साथ जो सतगुरू के चरणों का आश्रय ले लेता है उसका कल्याण निश्चित है।

गुरू वही है जो स्वयं तिरता है और दूसरो को भी तारता है।

सतगुरू की महिमा इसीलिए है की हम उनसे उपकृत हैं तथा उनका ऋण हम उतार नही सकते।

अन्तर्यामी भगवान सत्य संकल्प को अवश्य पूरा करते हैं।

सत्संग एंव सतगुरु ही जीवन के सही मार्गदर्शक हैं।

जो शिष्य गुरू कि गर्जना को सहन करता है वो परम पद प्राप्त करता है।

सतगुरू शिष्य को ऐसा अक्षय दान देते है, जिसका कभी विनाश नहीं होता है तथा जिसके द्वारा शिष्य सदा ही आनंद मे गोता लगाता रहता है।

जीवन ऐसा बनाना चाहिए जिसे देखकर प्रत्येक व्यक्ति आकर्षित हो।

सतगुरू के शब्द रूपी जल को ह्रदय में बनाए रखने से शिष्य की जन्म जन्मांतरों की प्यास बुझ जाती है।

सतगुरू का स्वरूप छोटा सा दिखता है परन्तु उनके अन्दर महान आध्यात्मिक धन भरा रहता हैं।

भगवदनाम (रामनाम) रूपी चिंतामणि के द्वारा आत्मा को जानना ही मानव जीवन की उपयोगिता है।

हम सब परमात्मा की संतान है।

संसार परिवर्तनशील है।

अहंता ओर ममता ही सब दुखो की मूल है।

 ईश्वर से अपना संबंध पहचानो और लोगों से ईश्वर के नाते व्यवहार करो तो इसी जन्म में कल्याण हो जायेगा ।

जो अपने मन के दोष निकालने के लिए तत्पर रहता है वह इसी जन्म में निर्दोष नारायण का प्रसाद (आत्मसाक्षात्कार) पाने का अधिकारी हो जाता है ।

गुरु की वाणी को निर्णायक होकर नही,निष्ठावान होकर सुनना चाहिए।

सत्संग मानवता का निर्माण करती है।

वर्तमान का सदुपयोग ही भूत और भविष्य की चिंता मिटा देता है।

ईश्वर स्मरण करने वाला साधक ही इस मृत्यु के जाल से बच सकता है।

नाशवान शरीर की सुंदरता का अभिमान ने करके शरीर के द्वारा राम भजन व सत्संग करना ही शरीर की उपयोगिता है।