-:सतगुरु दाताश्री गुलाबदास जी महाराज के पत्र:-
(1)
अपनी और कोई गलती नहीं, गलती केवल यही है कि राम-राम कम हुआ है, सो इस गलती को राम-राम अधिक करके दूर करो। भगवान से प्रार्थना करो।
देखो, इन्द्र, वरुण, कुबेर, सूर्य, अग्नि, चन्द्र, और पवन के समान होने पर भी मनुष्य यदि केवल अपनी देह का भरण-पोषण करके इन्द्रियों को सुख पहुँचाने वाला है तो वह मनुष्य अभागा है। वह अभागा इसलिए है कि उसकी इस नाशवान शरीर में ममता है, इस मिटने वाली वस्तु में आसक्ति है। इसके विपरीत सौभाग्यशाली मनुष्य वह है जो ब्रह्माजी से लेकर कीड़ी (चिंउटी) तक में श्री रामजी महाराज के दर्शन करे अर्थात अनुभव करे कि
देही देवल बिच आतम पूजा। - देव निरंजन और न दूजा ।।
साथ ही मंत्रराज का जिव्हा से स्मरण करे। मंत्रराज का हृदय में, कंठ में, नाभि में और बैखरी बाणी में दर्शन करे। ऐसा मनुष्य भाग्यशाली है। मंत्रराज का ध्यान करते समय ऐसा भाव रखना चाहिए कि 'रा' रुपी सूर्य में अन्धेरा कैसा ? 'म'रुपी चन्द्रमा में तपन कैसी ? राम रुपी अग्नि के सामने कर्म रुपी काष्ठ कैसे ? गुरु महाराज की बताई हुई विधि से ध्यान करना चाहिए।
दाता दरियाव महाराज स्वयं फर्माते हैं:
दरिया तीनों लोक में ढूंढ़या सब ही धाम।
तीरथ व्रत विधि करत बहु, बिना राम किस काम।।
उपरोक्त रीति से जो जीवन बनाते हैं वे बड़भामी है। इस 'र' कार और 'म' कार को शिवजी महाराज ने मंत्रराज नाम दिया है।
-:दोहा:-
तीन लोक चवदह भुवन ढूंढ़ा सब ही धाम।
दरिया देख्या निरख कर राम सरीखा राम ।।
भाव मिला परभाव से धर कर ध्यान अखंड़।
दरिया देख्या ब्रह्म को न्यारा दीसै पिंड।।
पांच तत्व गुण तीन से आतम भया उदास ।
सरगुण निरगुण से मिला चौथा पद में बास।।
माया वहां न संचरै जहां ब्रम का खेल।
जन दरिया कैसे बने रवि रजनी का मेल ।।
जीव जाति से बीछड़ा घर पंच तत्व का भेख ।
दरिया निज घर आइया पाया ब्रह्म अलेख।।
जाति हमारी ब्रहम् है मात-पिता है राम।
गृह हमारा सुन्न में अनहद में विश्राम।।