Sunday 30 January 2022

सतगुरु दाताश्री गुलाबदास जी महाराज के पत्र:- (3)

-:सतगुरु दाताश्री गुलाबदास जी महाराज के पत्र:-

                                      (3)

आप और हम प्रायः पढ़ते और सुनते हैं। पढ़ना और सुनना अच्छी बात है, परन्तु हम उसको जीवन में नहीं उतारते इसलिए शांति नहीं मिलती। आज का युग प्रायः श्रवण और कथन का ही युग हो रहा है। पूर्वकाल में कहना, सुनना और करना साथ-साथ चलता था जो कि सन्तों के जीवन को देखने से समझ में आता है। क्या करना उचित है ? इसका उत्तर यही है कि इच्छाओं के कारण को जानकर सम्बन्ध का त्याग कर देना चाहिए। भजन करने से भी ऐसा ही परिणाम होता है। भजन से वासना मिट जाती है ओर जन्म वासना से ही होता है। शरीर अभिमान पर आश्रित है और अभियान अज्ञान पर। अज्ञान विचार से मिटता है। प्रभु ने हमको विचार शक्ति देकर ही मानव बनाया है। यह विचार शक्ति वर्तमान के मोह से तक गई है इसलिए उपरोक्त रीति से सुधार करना चाहिए। भजन से भी यही फल होगा।

सतगुरु दाताश्री गुलाबदास जी महाराज के पत्र:- (2)

-:सतगुरु दाताश्री गुलाबदास जी महाराज के पत्र:-               
                               (2)

श्री अनन्त सतगुरुदेव को कोटि-कोटि प्रणाम। हे सतगुरु तु सचमुच हमारी माता भी हो और पिता भी हो। हे देवादिदेव आपकी सेवा में हमारे दोनों हाथ एवं मस्तक है। इस अविद्या के सृष्टि में आपके सिवाय हमारा न कोई हुआ है, न होगा। आप अपार हो। आपका ऐश्वर्य मन, और बाणी की पहुँच के परे है। सतगुरु आप अनिर्वचनीय हो और आपका प्रभाव भी अनिर्वचनीय है। 
हे सतगुरु आप सर्वेश्वर और हमारे सिरताज हो हे सतगुरु, हृदय में आपकी समृति आते ही विषमता और दृश्यवर्ग अधिष्ठान में लय हो जाते है। कोई भी इन्द्रियगोचर और मन-गोचर पदार्थ उसी प्रकार नहीं दीखता जिस प्रकार कि नमक का ढेला पानी में नहीं दीखता हे सतगुरु, प्राणों के आधार, प्राणों के नाथ, केवल आप ही । आप रह जाते हो, अन्य कुछ नजर ही नहीं आता। आपके प्रभाव रूपी प्रसाद का पता लगते ही जगत का अवशेष तक नहीं रहता। आप ही अपने आप में पूर्ण, सब गोचर वस्तुओं से अतीत, सब के जीवन रूप में अपने आपको प्रकट कर देते हो। हे दयानिधि, हमारी अल्प शक्ति आपको कैसे जान सकती है ? आप दयानिधि है, दया के केन्द्र है। आप अतुल्य हैं, आप असीम है। आप अविषम है, आप अपार है। आपको प्रणाम करते समय भावना रुपी प्रबल शक्ति भी संकुचित हो जाती है। तो भी हे नाथ, आपकी परम हितैषी शक्ति आवरण रूपी अज्ञान का निवारण करने में कितना उत्कृष्ट प्रभाव दिखाती है। मनुष्य के द्वन्द, संकल्प-विकल्प और विषमता के सूक्ष्म परमाणुओं को मिटाने वाली आपकी लालसा कितनी प्रिय और आश्चर्यजनक है। द्वन्द को जड़से मिटाने वाली आपकी द्वन्दातीत शक्ति अभेद को स्वीकार करती हुई भेद और भिन्नता को छिन्न-भिन्न करती है। हे सतगुरु आप सत्य स्वरूप और अनोखे देव हो। आप अमृत रूपी विवेक का प्रसाद देने के लिए ही अवतार लेते हो। आप अम्बा हो, आप पिता हो। आपके समान न कोई हुआ, न होगा।

हमारे सभी महापुरुषों की निधि गुरुधर्म है। उपरोक्त शब्द साक्षात श्री सतगुरुदेव दरियाव महाराज की गाथा है। इसका स्मरण करते हुए जल में पत्थर डूबता है उस प्रकार डूब जावो।
राम राम

सतगुरु दाताश्री गुलाबदास जी महाराज के पत्र:-1

-:सतगुरु दाताश्री गुलाबदास जी महाराज के पत्र:-

                                   (1)

अपनी और कोई गलती नहीं, गलती केवल यही है कि राम-राम कम हुआ है, सो इस गलती को राम-राम अधिक करके दूर करो। भगवान से प्रार्थना करो।

देखो, इन्द्र, वरुण, कुबेर, सूर्य, अग्नि, चन्द्र, और पवन के समान होने पर भी मनुष्य यदि केवल अपनी देह का भरण-पोषण करके इन्द्रियों को सुख पहुँचाने वाला है तो वह मनुष्य अभागा है। वह अभागा इसलिए है कि उसकी इस नाशवान शरीर में ममता है, इस मिटने वाली वस्तु में आसक्ति है। इसके विपरीत सौभाग्यशाली मनुष्य वह है जो ब्रह्माजी से लेकर कीड़ी (चिंउटी) तक में श्री रामजी महाराज के दर्शन करे अर्थात अनुभव करे कि

देही देवल बिच आतम पूजा। - देव निरंजन और न दूजा ।।

साथ ही मंत्रराज का जिव्हा से स्मरण करे। मंत्रराज का हृदय में, कंठ में, नाभि में और बैखरी बाणी में दर्शन करे। ऐसा मनुष्य भाग्यशाली है। मंत्रराज का ध्यान करते समय ऐसा भाव रखना चाहिए कि 'रा' रुपी सूर्य में अन्धेरा कैसा ? 'म'रुपी चन्द्रमा में तपन कैसी ? राम रुपी अग्नि के सामने कर्म रुपी काष्ठ कैसे ? गुरु महाराज की बताई हुई विधि से ध्यान करना चाहिए।

दाता दरियाव महाराज स्वयं फर्माते हैं:

दरिया तीनों लोक में ढूंढ़या सब ही धाम। 
तीरथ व्रत विधि करत बहु, बिना राम किस काम।।
उपरोक्त रीति से जो जीवन बनाते हैं वे बड़भामी है। इस 'र' कार और 'म' कार को शिवजी महाराज ने मंत्रराज नाम दिया है।

                            -:दोहा:-

तीन लोक चवदह भुवन ढूंढ़ा सब ही धाम। 
दरिया देख्या निरख कर राम सरीखा राम ।।
 भाव मिला परभाव से धर कर ध्यान अखंड़। 
दरिया देख्या ब्रह्म को न्यारा दीसै पिंड।।
 पांच तत्व गुण तीन से आतम भया उदास । 
सरगुण निरगुण से मिला चौथा पद में बास।।
 माया वहां न संचरै जहां ब्रम का खेल।
 जन दरिया कैसे बने रवि रजनी का मेल ।। 
जीव जाति से बीछड़ा घर पंच तत्व का भेख । 
दरिया निज घर आइया पाया ब्रह्म अलेख।। 
जाति हमारी ब्रहम् है मात-पिता है राम। 
गृह हमारा सुन्न में अनहद में विश्राम।।

जन दरियाव तुम्हारा दर्शन

*जन दरियाव तुम्हारा दर्शन*

जन दरियाव  तुम्हारा दर्शन, 
भाग भला सोई पावे ॥ टेक ॥ 

सप्तपुरी रायण में प्रगटे, 
दरस परम सुख पावे ।। १ ।।

नाम जहाज भवसागर मांही, बेठत पार लगावे ॥ २ ॥

 देस देस का रामसनेही, 
हिल मिल मंगल गावे ।। ३ ।। 

तपो भूमि में जो कोई आवे, 
करम सकल मिट जावे ॥ ४ ॥ 

कामी क्रोधी और मति हीना, व्याभिचारी टल जावे ।। ५ ।। 

'दर्सण आवे परम पद पावे, आवागमन मिट जावे ॥ ६ ॥ 

सिवसनकादिक और ब्रह्मादिक, मिल नारद जी आवे ।। ७ ।।

 स्वर्ग लोक से सकल देवगण, निसदिन महिमा गावे ।। ८ ।।

 गढ गिरनार मुनीश्वर आवे, 
चरणां सीस नमावे ।। ९ ।। 

मरुधर पुरी जहाँ रायण, 
राजा दर्सण आवे ।। १० ।। 

पूरणदास दासन के दासा, मनवांछित फल पावे ।। ११ ।।