Wednesday 29 November 2017

भजन :- संतो क्या गृहस्थी क्या त्यागी

⚛ *"संतो क्या गृहस्थी क्या त्यागी। जहां देखूं तेहि बाहर भीतर, घट घट माया लागी!!",,,,*
➡ दाता दरियासा फरमाते है कि, संतो मैंने सारा जगत देख लिया लेकिन जहाँ देखता हूँ वहां गृहस्थी हो या त्यागी सबके पीछे किसीके बाहर और किसीके घट भीतर माया लगी हुई है।
⚛ *माटी की भीत पवन का थंबा गुण औगुण से छाया। पांच तत्त आकार मिलकर, सहजां गृह बनाया!!१!!*
➡ सभी के माटी रूपी तन( शरीर) में पवन (स्वास) रूपी खंबा एक आधार है , जिसके गुण अवगुण रूपी छाया है , और पांच तत्व(शब्द,स्पर्श,रूप,रस,गंध) से गृह (घर) बना हुआ है।
⚛ *मन भयो पिता मनसा भई माई, दुख सुख दोनों भाई। आशा तृष्णा बहिनें मिलकर, गृह की सौंज बनाई!!२!!*
➡ इस पांच तत्व के शरीर के मन रूपी पिता और मनसा(इच्छा) रूपी माता है , सुख और दुःख रूपी दोनों भाई है ,आशा और तृष्णा रुपी दोनों बहनों ने मिलकर इस घर को सजाया है ।
⚛ *मोह भयो पुरूष कुबुध भई धरनी, पांचों लड़का जाया। प्रकृति अनंत कुटंबी मिलकर, कलहल बहुत उपाया!!३!!*
➡ इस माया रूपी घट(घर) मे मोह रूपी पुरुष और कुबुद्धि रूपी स्त्री के पांच पुत्र है तथा प्रुकृति रूपी कुटुंबिय के अनेक प्रकार के कोलाहल से यह घर भरा हुआ है ।
⚛लड़कों के संग लड़की जाई, ता का नाम अधीरी। वन में बैठी घर घर डोलै, स्वारथ संग खपीरी!!४!!
➡ इस मोह और कुबुद्धि के लड़कों के संग जिसका ब्याह हुआ है उसका नाम अधिरी है उनका निवास तो वन में है लेकिन वह हरएक के घर मे जाकर स्वार्थ रूपी झगड़ा लगाती है ।
⚛पाप पुन्न दोउ पास पडो़सी, अनन्त बासना नाती। राम द्वेष का बंधन लागा, गृह बना उतपाती!!५!!
➡ इस घर के पाप और पुण्य दोनों पड़ोसी है ,उन पड़ोसी के अनन्त नाती-पोती है , ये पडोसी राग-द्वेष रूपी दोष बंधन(लांछन) लगाकर घर में सदा उत्पात मचाते है ।
⚛कोई गृह मांड गृह में बैठा, वैरागी बन बासा। जन दरिया इक राम भजन बिन, घट घट में घर बासा!!६!!
➡ ऐसे माया रूपी शरीर को लेकर कोई घर परिवार के साथ(गृहस्थी) रहता है तो कोई वैरागी बनकर वन में बैठा है लेकिन दाता *दरिया* सा कहते है कि ,एक *राम* भजन के शिवाय सभी घट में माया का ही निवास है ।
*राम राम सा* 🙏🙏

Sunday 19 November 2017

साधो अलख निरंजन सोई।

साधो अलख निरंजन सोई।
गुरू परताप राम रस निर्मल, और न दूजा कोई!!
सकल ज्ञान पर ज्ञान दयानिधि, सकल जोत पर जोती। 
जाके ध्यान सहज अघ नाशै, सहज मिटैं जम छोती!!१!!
जाकी कथा के सरवन तेही, सरवन जाग्रत होई। 
ब्रह्या विष्णु महेश अरु दुर्गा, पार न पारै कोई!!२!!
सुमिर सुमिर जन होई हेराना, अति झीना से झीना।
अजर अमर अक्षय अविनाशी, महावीन परवीना!!३!!
अनंत संत जाके आश पियासा, अगन मगन चिरजीवै।
जन 'दरिया' दासन के दासा,महा कृपा रस पीवै!!४!!

नाम महातम का अंग

नाम महातम का अंग

अथ श्री दरियावजी महाराज की दिव्य वाणीजी का " नाम महातम का अंग " प्रारंभ । राम राम

सोहि कंत कबीर का, दादू का महाराज ।
सब सन्तन का बालमा, दरिया का सिरताज (1) 

आचार्यश्री दरियावजी महाराज फरमाते हैं कि जो राम संत कबीर का पति था, जिस राम का भजन दादू ने किया था तथा जो राम सभी संतों का बालमा है, वही राम मेरा भी पूर्ण पति है एवं वही प्यारा राम मेरे सिर का ताज है । अतः उस राम के बिना सब कुछ निरर्थक है । राम राम!

दरिया तीनों लोक में, ढूँढा सब ही धाम ।
तीर्थ व्रत विधी करत बहु, बिना राम किस काम  (2)

आचार्यश्री दरियावजी महाराज फरमाते हैं कि तीनों लोकों तथा सभी धामों में घूमने के पश्चात केवल यही निष्कर्ष निकला कि ये सभी धाम तथा तीर्थ व्यर्थ हैं । केवल निर्गुण निराकार सत्यरूप राम के नाम का जाप करने में ही जीवन की सार्थकता है । राम राम  !

तीन लोक चौदह भवन, दरिया देख्या जोय ।
एक राम सरीखा राम है, इसा न दूजा कोय (3) 

आचार्यश्री दरियावजी महाराज फरमाते हैं कि तीन लोक चौदह भवन का अवलोकन करने के पश्चात मैंने देखा कि राम ही सर्वशक्तिमान सर्वज्ञ तथा समर्थ है । जो होने वाला कार्य है, उसे परमात्मा रोक देता है तथा जो नहीं होने वाला कार्य है , उसको करके दिखा देता है । अतः ऐसी भावना उदय होगी, तभी परमात्मा से प्रेम होगा । उस परमात्मा के समान संसार में कोई है ही नहीं । अतः राम के समान तो राम है । राम राम  !

तीन लोक चौदह भुवन, ढूँढा सब ही धाम ।
दरिया देख्या निरत कर, एक राम सरीखा राम (4)

आचार्यश्री दरियावजी महाराज कण-कण में ब्रह्म के अस्तित्व को स्वीकार करते हैं । उनके विचारानुसार समस्त सृष्टि का  रचियता सर्वशक्तिमान, सर्वान्तर्यामी कण-कण में व्याप्त निर्गुण राम ही है । वही तीन लोक चौदह भुवनों को प्रकाशित करने वाला है । राम राम  !

दरिया परचे नाम के, दूजा दिया न जाय ।
या पर तन मन वार के, राखीजे उर माय (5) 

आचार्यश्री दरियावजी महाराज फरमाते हैं कि भगवत नाम के सामने सभी वस्तुएं नगण्य हैं । संसार में ऐसा कोई उदाहरण है ही नहीं, जिसे देकर हम राम नाम की महिमा को उजागर कर सकें । अतः इस नाम को हृदय में स्थायित्व देने हेतु एक ही उपाय है कि अपना तन-मन परमात्मा को समर्पित कर दो, इसे ही शरणागति कहते हैं । राम राम  !

कंचन भाजन विष भरा, सो मेरे किस काम ।
‎दरिया बासण सो भला, जामें अमृत राम (6)
 ‎
आचार्यश्री दरियावजी महाराज फरमाते हैं कि सोने का घड़ा है परन्तु अंदर जहर भरा हुआ है तो वह घड़ा कोई काम का नहीं है कयोंकि यदि उसका उपयोग करेंगे तो जहर से हमारी मृत्यु हो जाएगी । इसके विपरीत मिट्टी के घड़े में भी अमृत है तो हम उससे प्यार करेंगे । राम राम  !

जो काया कंचन भई, रत्नों जड़िया चाम ।
‎जन दरिया किस काम की, जां मुख नांहि राम (7)
 ‎
आचार्यश्री दरियावजी महाराज फरमाते हैं कि यदि किसी का शरीर सोने का हो गया है और उसके रोम रोम में रत्न जड़े हुए हैं  परन्तु यदि उसके मुख में राम का नाम नहीं है तो वह किसी काम का नहीं है । क्योंकि परमात्मा तो प्रेम के भूखे हैं । राम राम  !

राम सहित मध्यम भला, गलत कोढ़ होय अंग ।
‎उत्तम कुल कुँ त्याग के, रहिये उनके संग (8)
 ‎
आचार्यश्री दरियावजी महाराज फरमाते हैं कि यदि कोई मध्यम जाति का व्यक्ति है तथा उसके शरीर में कुष्ठ रोग है परन्तु यदि वह राम का नाम लेता है तो अच्छा है । इसी प्रकार यदि कोई व्यक्ति उत्तम कुल का है तथा शरीर से इत्र की सुगंधि आ रही है परंतु हृदय में राम नाम नहीं है तो वह उत्तम नहीं है । अतः ऐसे उत्तम कुल के व्यक्ति का त्याग  करके उस मध्यम कुल के व्यक्ति का संग करना चाहिए । राम राम  !

 कस्तूरी कुँडे भरी, मेली उंडे ठांव ।
‎दरिया छानी क्यों रहे, साख भरे सब गाँव  (9)
 ‎
आचार्यश्री दरियावजी महाराज फरमाते हैं कि कस्तूरी किसी बर्तन में ढककर  बहुत ही नीचे छिपाकर रख दिया जाए तो भी सुगंध के कारण सारा गाँव साक्षी देने लगता है कि यहाँ कस्तूरी छिपाई हुई रखी है । इसी प्रकार महापुरुष एवं भगवद्भक्त भी छिपे हुए नहीं रह सकते क्योंकि उन्हीं के द्वारा भगवान की भक्ति प्रकट की जाती है । राम राम  !

कूड़ो आलो चाम को, भीतर भरया कपूर ।
‎दरिया बर्तन क्या करे, वस्तु दिखावे नूर  (10)
 ‎
आचार्यश्री दरियावजी महाराज फरमाते हैं कि मरे हुए जानवर की चमड़ी से बने हुए कूड़े में कपूर भरा हुआ है, परन्तु चमड़े से बना हुआ होने पर भी कपूर तो अपनी सुगंध चारों तरफ फैला देता है । चर्म निर्मित इस शरीर में सुन्न समाधि अपना प्रभाव सबको दिखाकर ही रहती है । राम राम  !

कूड़ो आलो चाम को, जाँ में उत्तम काह ।
‎दरिया संगत घीव की, सिर ले चाल्या साह (11) 

‎आचार्यश्री दरियावजी महाराज फरमाते हैं कि ऊँट की खाल के कूड़े के अंदर  घी भर दिया जाता है तो बड़े बड़े सेठ भी उसे सिर पर रखते हैं । कूड़ा तो गंदे चमड़े का बना होता है तथापि सेठ उसे सिर पर रखकर बेचने के लिए जाते हैं क्योंकि उसने घी की संगतकी है । इसी प्रकार जो व्यक्ति परमात्मा के नाम का संग कर लेता है , उसका जीवन पूजनीय हो जाता है । राम राम  !

जन दरिया पुन्य पाप का, थोथे तीरां जूंझ ।
‎करे दिखावा ओर को, आप समावे गूंझ (12)
 ‎
आचार्यश्री दरियावजी महाराज फरमाते हैं कि पाप और पुण्य दोनों ही एक जैसे ही हैं । जिस प्रकार तीर की नोक में लोहे का सिरा यदि लगा हुआ नहीं है तो वह केवल बांस का थोथा तीर ही कहलाता है । ऐसा तीर लक्ष्य भेदन नहीं कर सकता । इसी प्रकार लोग पुण्य भी करते हैं और लोगों के सामने दिखावा भी करते हैं जो थोथे तीरों से जूंझने के समान है । राम राम  !

पाप पुन्य सुख दुख की, अरट भरत है साख ।
‎जन दरिया रह राम सूँ, या सब ही हो राख (13)
 ‎
आचार्यश्री दरियावजी महाराज फरमाते हैं कि पाप, पुन्य, सुख और दुःख अरट में लगी हुई डालियों के समान हैं, जिस प्रकार अरट की डोलियां पानी से भर-भर कर खाली होती जाती हैं इसी प्रकार ये पाप पुन्य और सुख-दुख के दिन भी बदलते रहते हैं । परंतु जो व्यक्ति सच्चाई से राम से स्नेह करता है राम ही उसका रक्षक होता है । राम राम  !

जीव विलम्ब्या जीव से, कारज सरे न कोय ।
‎जन दरिया सतगुरु मिले, ब्रह्म विलंबन होय (14)

‎आचार्यश्री दरियावजी महाराज फरमाते हैं कि जीव तो जीव से दिन-रात मिलते ही रहते हैं परंतु इससे कार्य की सिद्धी नहीं होती किन्तु जब जीव सतगुरू से मिल जाता है तो उसे राम का साक्षात्कार हो जाता है तथा समाधान प्राप्त हो जाता है । राम राम  !

जीव विलंबन झूठ है, मिल मिल बिछड़ जाय ।
‎ब्रह्म विलंबन साच है, रह उर मांय समाय (15) 

‎आचार्यश्री दरियावजी महाराज फरमाते हैं कि जीव का जो आपस में मिलना है, वह झूठ है क्योंकि वे मिल-मिलकर पुनः बिछुड़ जाते हैं । परंतु राम गुरुदेव का मिलना सत्य है, जो कि मिलने  के  पश्चात सदा ही हृदय में  स्थाई रहता है । राम राम  !

सकल आदि सबके परे, है अविनाशी राम ।
‎उपजे वरते विनस जाय, सो माया रूपी काम (16)

आचार्यश्री दरियावजी महाराज फरमाते हैं कि जो सबसे परे अनादि परमात्मा हैं, वे कभी जन्म-मरण में नहीं आते हैं । इसके विपरीत जो उत्पन्न होता है, वृद्धि को प्राप्त होता है और तत्पश्चात जीर्ण होकर विनाश को प्राप्त हो जाता है, वह माया रूपी काम है । राम राम  !

दरिया दस दरवाज में, ता बिच पढत निमाज।
‎ 'र' रो 'म' मो इक रटत है, और सकल बैकाज (17)
 ‎
 आचार्यश्री दरियावजी महाराज फरमाते हैं कि यह शरीर दस दरवाजे का एक मंदिर है । इस मंदिर में मैं सदा ही नमाज पढता रहता हूँ अर्थात रकार और मकार की रटन करता रहता हूँ । राम राम!

जन दरिया कण नीपजे, सिरो पान गया सूख ।
‎हरियाली मिट कन भया, भीतर भागी भूख (18) 

‎आचार्यश्री दरियावजी महाराज फरमाते हैं कि हरियाली मिट गई तथा पत्ता सूख गया । जो सिट्टा हरा भरा था उसमें कण आ गये । कच्चे बीज पककर कड़े हो गये जिससे भीतर की भूख समाप्त हो गई । इसी प्रकार भगवद्नाम जपने से हमारे अंदर व्याप्त मान-बड़ाई की भूख, सांसारिक सुखों और भोगों की भूख मिट जाती है । राम राम  !

रवि शशि चाले पूर्व दिश, पश्चिम कहे सब लोय ।
‎दरिया या गत साध की, लखे सो बिरला कोय (19) 
 ‎
दुनिया कहती है कि सूर्य और चंद्रमा पश्चिम की ओर जाते हैं परंतु आचार्यश्री दरियावजी महाराज कहते हैं कि नहीं! ये दोनों पूर्व की ओर ही जाते हैं । सूर्य अपने उद्गम स्थान अर्थात पूर्व से बिछुड़ कर तथा पश्चिम को माध्यम बनाकर पुनः पूर्व में ही जाता है । इसी प्रकार साधकों की  गति भी उल्टी होती है । महापुरुषों के जीवन को कोई बिरले ही पहचान सकते हैं । राम राम  !

दरिया सुमिरे राम को, पारख कीजे जाय ।
‎श्रवण ढ़ल नेतर ढ़ले, देह रसना ढ़ल जाय (20)
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आचार्यश्री दरियावजी महाराज फरमाते हैं कि राम नाम जाप करने से साधक के शरीर का प्रत्येक अंग ढ़ल जाता है अर्थात परिवर्तन हो जाता है । जिन कानों से दुनिया की राग द्वेष की बातें सुनते थे, उन्ही कानों से आज ईश्वर की सुधामयी कथाओं का श्रवण करते हैं । जो नेत्र सांसारिक अश्लील दृश्य देखते थे,  वही नेत्र आज राम गुरूदेव का दर्शन करके स्वयं को धन्य मान रहे हैं । राम राम  !

दरिया सतगुरु शब्द ले, करे राम संयोग ।
‎ज्ञान खुले अरू बल बढ़े, देही रहे निरोग (21)
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आचार्यश्री दरियावजी महाराज फरमाते हैं कि जब शिष्य सतगुरू से शब्द लेकर राम-राम  (ध्यान ) करता है, तब कुछ समय पश्चात प्रभु से मधुर मिलन हो जाता है । अतः ऐसी स्थिति में साधक का ज्ञान खुलता है, आत्मबल बढ़ता है तथा देही निरोग हो जाती है । राम राम  !

दरिया प्रेमी आत्मा, करे भजन को गाड़ ।
‎आवे उबासी चौगुनी, भाजन लागे हाड़ (22)
 ‎
आचार्यश्री दरियावजी महाराज फरमाते हैं कि जब भी कोई साधक परमात्मा का भजन करता है तो उसे उबासी आती है क्योंकि उसके अंदर का पाप बाहर निकलता है जिससे बार-बार उसका मुँह खुलता है तथा हड्डियाँ भी दुखती है । यदि नींद आने लगती है तो और भी अधिक जोर से भजन में लग जाना चाहिए । राम राम  !

बड़ के बड़ लागे नहीं, बड़ के लागे बीज ।
‎दरिया नाना होय कर,  राम नाम गह चीज  (23)

आचार्यश्री दरियावजी महाराज फरमाते हैं कि बड़ अर्थात वटवृक्ष  के ऊपर वटवृक्ष नहीं लगता है । वटवृक्ष के ऊपर तो छोटे-छोटे बीज लगते हैं तथा इसी बीज में इतना विशाल वटवृक्ष समाया हुआ होता है । इसी प्रकार राम का नाम छोटा सा है किन्तु इसमें सारा संसार समाया हुआ है । अतः यदि हमें भजन करना है तो छोटा बन कर रहना होगा क्योंकि बड़ा होते ही व्यक्ति में अभिमान आ जाता है । राम राम  !

रसना अन्तर भाइये, लोक लाज सब खोय ।
‎"दरिया " पानी प्रेम का, सींच सहज बड़ होय (24) 
आचार्यश्री दरियावजी महाराज फरमाते हैं कि अंतर में हमारी रसना निरंतर जाप करती रहनी चाहिए । यदि कुल की समाज की लाज भगवद्भजन में व्यवधान डालती है तो उस लाज का भी त्याग कर देना चाहिए परन्तु भगवद् नाम जाप का कभी त्याग नहीं करना चाहिए । इस प्रकार से यदि राम नाम रूपी बीज में प्रेम रूपी पानी का सींचन किया जाता है तो राम नाम बहुत बड़ा वटवृक्ष बन जाता है । राम राम  !

दरिया तीनों लोक में, देखा दोय विधान ।
‎गुजरानी गुजरान में, गलतानी गलतान (25)                    

गुजरानी गलतान की, दरिया यह पहचान ।
‎आन रत्ता गुजरान सब, कोई राम रत्ता गलतान  (26)    

आचार्यश्री दरियावजी महाराज फरमाते हैं कि हमने इस संसार में दो ही प्रकार के लोग देखें है । एक तो गुजरानी होते हैं, जो प्रतिदिन दो-चार रूपये कमाकर केवल पेट भरते हैं । दूसरे गलतानी होते हैं जो प्रतिदिन लाखों रुपये कमाकर  मालामाल रहते हैं । इसी प्रकार जो थोड़ा राम-राम करते हैं वे गुजरानी हैं तथा जो अहर्निश नाम जाप करते रहते हैं, वे गलतानी हैं । अतः ऐसे गलतानी का शीघ्र कल्याण हो जाता है । राम राम  !

पाय विसारे राम को, भिष्ट होत है सोय ।
‎रवि दीपक दोनों बिना, अंधकार ही होय (27)
 ‎
आचार्यश्री दरियावजी महाराज फरमाते हैं कि जो व्यक्ति सतगुरू से शब्द लेकर कुछ दिन तो नामजाप करता है परन्तु बाद में छोड़ देता है उसका जीवन भ्रष्ट हो जाता है । जिस प्रकार सूर्य भी नहीं है और दीपक भी नहीं है तो अंधकार ही होगा । उसी प्रकार सतगुरू की कृपा भी समाप्त हो जाती है तथा राम रूपी सूर्य भी अस्त हो जाता है तो जीवन अंधकारमय हो जाता है । राम राम!

पाय विसारे राम को, बैठा सब ही खोय ।
' दरिया ' पड़े आकाश चढ़, राखण हार न कोय (28)

आचार्यश्री दरियावजी महाराज फरमाते हैं कि जो व्यक्ति राम को याद करके फिर राम को भूल जाता है तो उसकी वैसी ही दशा होती है, जैसे कोई आकाश पर ऊँचा चढ़कर अचानक नीचे गिरता है तो वह चकनाचूर हो जाता है, फिर उसकी जिंदगी बच नहीं सकती । राम राम  !

पाय बिसारे राम को, महा अपराधी सोय ।
‎' दरिया ' तीनों लोक में, ईस्यो न दूजो कोय (29)

आचार्यश्री दरियावजी महाराज फरमाते हैं कि रामजी को भूलना, सबसे बड़ा पाप और अपराध है । जिस ईश्वर ने तुम्हे यह शरीर दिया है, तुम्हारे लिए सब व्यवस्था की है, उसे ही तुम भूल रहे हो तो इससे बड़ा अपराध क्या हो सकता है ? राम राम  !

पाय बिसारे राम को, तीन लोक तल सोय ।
‎जन दरिया अघ जीव का, दिन दिन दूणा होय (30)

आचार्यश्री दरियावजी महाराज फरमाते हैं कि जो व्यक्ति परमात्मा को भूल जाता है तो तीन लोकों में भी उसके जैसा अपराधी नहीं मिलेगा । इस प्रकार से वह भगवद् भजन करना तो छोड़ देता है परन्तु उसके पाप की गति तो स्वभाविक ही गतिमान होती है अतः पाप में तो अभिवृद्धि होती ही रहती है । ऐसे व्यक्ति के धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष भी समाप्त हो जाते हैं । राम राम  !

दरिया निर्गुण नाम है, सगुण सतगुरु देव ।
‎ये सुमरावे राम को, वो है अलख अभेव (31)
 ‎
आचार्यश्री दरियावजी महाराज ने भगवान के नाम को निर्गुण के रूप में तथा सतगुरु को सगुण के रूप में माना है । सतगुरू तो राम नाम का सुमिरन करवाते हैं तथा परमात्मा अलख अभेव है । अतः ये दोनों ही पक्ष आध्यात्मिक जीवन के लिए कारगर हैं । इन दोनों से प्रेम होगा तभी जीव का कल्याण संभव है । राम राम  !

इति श्री दरियावजी महाराज की दिव्य वाणीजी का नाम महातम का अंग संपूर्ण हुआ । राम जी राम ।

आदि आचार्य श्री दरियाव जी महाराज एंव सदगुरुदेव आचार्य श्री हरिनारायण जी महाराज की प्रेरणा से श्री दरियाव जी महाराज की दिव्य वाणी को जन जन तक पहुंचाने के लिए वाणी जी को यहाँ डिजिटल उपकरणों पर लिख रहे है। लिखने में कुछ त्रुटि हुई हो क्षमा करे। कुछ सुधार की आवश्यकता हो तो ईमेल करे dariyavji@gmail.com .

डिजिटल रामस्नेही टीम को धन्येवाद।
दासानुदास
9042322241

Tuesday 14 November 2017

55. महापुरूषो का सत्संग राम बाण ओषधि है


55. महापुरूषो का सत्संग राम बाण ओषधि है :
सनातम काल से विद्यमान अनन्त भाव, कर्म,परम प्रभु के पवित्र नाम के बिना विगलित नही हो सकते है । शास्त्र विपरीत भावकर्म को बदलने के लिये महापुरूषो का सत्संग राम बाण औषधि है । राम नाम का अभिमान साधक जीव , स्वयं अभिमान रहित होकर जब तक नाम स्वरूप नही हो जाता तब तक संसार के राग व द्वेष भाव नही छूट सकेंगे तथा व्यक्ति वास्तविक सुख भी नही पा सकेगा । सांसारिक जीव मल से मल (कर्म से कर्म) को धोना चाहता है जबकि सन्त नैषकर्मीय सिद्धान्त को मुक्ति जे प्रति परम साधना स्वीकर करते है । जब व्यक्ति नाम (राम )का स्मरण करता है तो जीव तदरूप जीव ही नाम (राम) बन जाता है ।
दरिया छुरी कसाव की पारस परसे आय । 
लोह पलट कंचन भया ,आमिष भखा न जाय।।
रेण पीठाधीश्वर "श्री हरिनारायण जी शास्त्री ",,,,,कर्त,,,,"सागर के बिखरे मोती"
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54.सांसारिक भोग विलास की चीजें अस्थायी व क्षणिक:

54.सांसारिक भोग विलास की चीजें अस्थायी व क्षणिक:

महापुरूषो के सम्पर्क में आने से ही मानव जीवन आदर्शमय बन सकता है लेकिन महापुरूषो की संगति के अभाव में ही आज मनुष्य परमात्मा से काफी दूर होता चला जा रहा है ।
           *ये दूरी केवल सतगुरु की कृपा दृष्टि से ही मिट सकती है ।*
आज का मानव भौतिक सुख सुविधाओं की प्राप्ति के लिये बेतहाशा भाग रहा है । तथा उन्ही में सच्चा व वास्तविक आनन्द खोज रहा है । यही उसकी बहुत बड़ी भूल व गलतफयमी है , क्योकि सांसारिक भोग विलाश कु चीजे अस्थाई सर्वथा क्षणिक आनन्द पहुचाने वाली है तथा इनसे व्यक्ति पर वासना का नशा छाने लगता है । जिससे उसका जीवन बेकार व निरर्थक बनता चला जाता है । यह सब मन की चंचलता का ही दुष्परिणाम है ।

*✍रेण पीठाधीश्वर "श्री हरिनारायण जी शास्त्री",,,,,कर्त,,,,"सागर के बिखरे मोती"*

53. दूसरो के लिये जीना सार्थक है :

53. दूसरो के लिये जीना सार्थक है :

जो सुख अपनी आत्मा में रमण करने वाले निष्कय, संतोषी पुरुषों को मिलता है वह उस मनुष्य को कैसे मिल सकता है जो कामना व भोगवश दूसरों का अधिकार छीनकर स्वयं पापकर्मो से संगृहीत धन द्वारा सुखी होना चाहता है । आध्यत्म विद्या द्वारा शोक और मोह पर, संतो की उपासना से दम्भ पर , मोन द्वारा योग (ईश्वर स्मरण) के विघ्नों पर और शरीर, प्राण आदि को वश में करके हिंसा पर विजय प्राप्त करनी चाहिये । जीवन वही सार्थक है जो दूसरों के लिये जिया जाये ।

*परोपकाराय संता विभूत:*

रेण पीठाधीश्वर "श्री हरिनारायण जी शास्त्री"
              *कर्त*
"सागर के बिखरे मोती"

52. दूसरो को मारने वाला कायर व पापी

52. दूसरो को मारने वाला कायर व पापी

✍आज के सम्प्रदायवाद ,आतंकवाद, व राष्ट्र विरोधी गतिविधियों में रत लोगों से लोहा लेकर राष्ट्र निर्माण , एकता व भाईचारे को बढ़ाना ही राष्ट्र की महती सेवा है जिसके लिये सभी को दृढ़ता से कार्य करना होगा । राष्ट्र सर्वोपरि है । भारत मे रहने वाले विभिन्न मतावलम्बी पहले भरतीय है लेकिन कुछ विनाशकारी तत्व देश व समाज को कमजोर करने में लगे हुए है । इन राष्ट्र विरोधी तत्वों का मुकाबला हमें संगठित होकर करना है ।
    गाय हमारी माता है  " गावः विश्वस्य मातरः"  इसीलिये किसी न किसी रूप में गायों की सेवा करनी चाहिए । इससे बड़ा कोई पुण्य नही है । जो व्यक्ति निज स्वर्थो के लिये दूसरो का अहित करता है , दूसरो को मारता है वही कायर व पापी है लेकिन अन्यो का हित साधक व्यक्ति ही सबकी दृष्टि में पूजनीय है ।

*अधेव वा मरनमस्तु युगांतरें वा, न्यायतपथ प्रवचलन्ति पद न धीरा*

रेण पीठाधीश्वर "श्री हरिनारायण जी शास्त्री"
           *कर्त*
🌸सागर के बिखरे मोती🌸

51.दूसरो का सम्मान करने वाला ही बड़ा होता है:

51.दूसरो का सम्मान करने वाला ही बड़ा होता है:

अनादि काल से जीव स्वयं को बड़ा मानता है लेकिन वह यह नही सोचता की वह बड़ा कैसे हो सकता है ? जब हमने किसी को बड़ा नही बनाया तो हम स्वयं बड़े कैसे हो सकते है ? प्रभु स्वयं भी स्वयं की प्रभुता से दूर रहते है इसीलिए हमे अहम भाव से रहित होकर जगत्स्वरूप ईश्वर को सम्मान देकर तन मन वचन से निष्काम सेवा करने वाला होना चाहिए।
भागवत में एक बड़ा रोचक व प्रभावशाली प्रसंग आता है कि त्रिदेवों की पत्नियों ने सती अनुसूया को नीचा दिखाने,उसका व्रत खंडित करने के लिये अपने पतियों को उसके पास भेजा। सती अनुसुया को नीचा दिखाना तो दुर रहा उन्हें ही ( तीनो देवो को) छोटा बालक बनना पड़ा । इसलिए कभी किसी को किसी भी प्रकार से छोटा (नीचा दिखना) दिखने की भावना मन मे न रखो ।

*रेण पीठाधीश्वर "श्री हरिनारायण जी शास्री"*
             *कर्त*
✍ *"सागर के बिखरे मोती"*

50. परमात्मा का नाम ही मोक्ष प्राप्ति का साधन है:

50. परमात्मा का नाम ही मोक्ष प्राप्ति का साधन है:

गरीब की सेवा करने एवं परोपकार से मानव जीवन सफल हो सकता है । किसी भी प्राणी को धोखा देना और आत्मा को कष्ट पहुचना सबसे बड़ा पाप व अधर्म है। सत्यमार्गी तथा धर्मनिष्ठ  एवं महापुरूषो का सत्संग करने में ही मानव शरीर की सार्थकता है । महापुरुषों, सद्गुरुओं की कृपा से सब कुछ प्राप्त होता है। सारा संसार ब्रह्म झाल से मोहित है लेकिन ज्ञानी व्यक्ति ब्रह्म तत्व को पहचान जाता है और बन्धन मुक्त व्यक्ति ब्रह्म झाल से मोहित नही होता है । परमात्मा के नाम मे वह शक्ति है जिसके स्मरण से मनुष्य को मोक्ष की प्रप्ति हो जाती है ।
*दरिया साँचा राम है और सकल ही झूठ। सनमुख रहिए राम से दे सब ही को पूठ।।*

रेण पीठाधीश्वर "श्री हरिनारायण जी शास्त्री"
             *कर्त*
"सागर के बिखरे मोती"

49. ईश्वर की स्मृति ही मृत्यु का सच्चा लाभ है:

49. ईश्वर की स्मृति ही मृत्यु का सच्चा लाभ है:

यह शरीर नाशवान है इसलिए मृत्यु अनिवार्य है। मृत्यु के समय मनुष्य को घबराना नही चाहिये। मनुष्य वैराग्य के शस्त्र से शरीर और शरीर से संबंध रखने वालों (माता पिता पुत्र पत्नी) से अपनी ममता को काट दे। मनुष्य को अपने ज्ञान, भगति तथा धर्म निष्ठा से अपना जीवन ऐसा बना लेना चाहिए कि मृत्यु के समय ईश्वर स्मृति बनी रहे । अन्तिम समय ईश्वर की ही स्मृति ही मृत्यु का सच्चा लाभ है।

*दरिया सुमिरे एक ही राम, एक राम सारे सब काम।।*

रेण पीठाधीश्वर"श्री हरिनारायण जी शास्त्री"

🌷सागर के बिखरे मोती🌷

48. निष्काम कर्म ही सुख प्रदाता है

48. निष्काम कर्म ही सुख प्रदाता है

सभी प्राणियों से मनुष्य जन्म ही श्रेष्ठ है क्योंकि मनुष्य योनि ज्ञान व विज्ञान के मूल स्रोत है । जो इस दुर्लभ मानव शरीर को प्राप्त करके भी अपने आत्मस्वरूप परमात्मा को नही जान लेते उसे अन्य किसी योनि में भी शांति नही मिल सकती । सांसारिक सुखों के लिये जो चेष्टायें की जाती है , वे सुख के बजाय दुख देती है । सभी स्त्री पुरुष सुख प्राप्ति के लिये तथा दुखो से मुक्ति पाने के लिये कर्म करते है ,लेकिन न तो उनके दुख दूर होते है और नही उन्हें सुख मिलता है । सुखों की प्राप्ति तभी सम्भव है जब प्राणी मात्र को भगवत्स्वरूप मान कर निष्काम सेवा भाव से कर्म करें ।

*दरिया सुमिरे राम को कोट कर्म की हान। जम ओर काल का भय मिटे ना काहू की कान।।*

रेंन पीठाधीश्वर " श्री हरिनारायण जी शास्त्री"

🌸सागर के बिखरे मोती

47. हिन्दू धर्म को आत्मसात करना ही नैतिक दायित्व:

47. हिन्दू धर्म को आत्मसात करना ही नैतिक दायित्व:

हिन्दू धर्म विश्व का श्रेष्ठ एवं महान धर्म है । इसके उदात्त गुणों को आत्मसात करते हुए ही अपना जीवन व्यतीत करना देश के प्रत्येक हिन्दू का नैतिक दायित्व है। हिन्दू धर्म व संस्कृति की श्रेष्ठता के आधार पर ही देश का नाम हिंदुस्थान पड़ा ।यहाँ की धर्म निष्ठ जनता के कारण ही विश्व इतिहास में हिंदुस्थान का नाम स्वर्णाक्षरों में अंकित है। दीनदुखियों की सेवा व परोपकार से मानव जीवन सफल होता है। किसी को धोखा देना व किसी की आत्मा को कष्ट पहुचना सबसे बड़ा पाप व अधर्म है । मनुष्य को ,काम,क्रोध,लोभ,मोह, अभिमान ,निंदा और स्वार्थ को त्यागकर पूर्ण धार्मिक जीवन व्यतीत करना चाहिए। इनके परित्याग से हृदय नितान्त व निर्मल होता है और चित्त में अलौकिक शांति व शुद्धता उत्पन्न होती है ।

*राम बिना तो ठौर नही रे, जह जावे तह काल।जन दरिया मन उलट जगत सु अपना राम सम्भाल।।*

रेण पीठाधीश्वर "श्री हरिनारायण जी शास्त्री"

🌸"सागर के बिखरे मोती"🌸

46. जीव ईश्वर से अलग नही है:

46. जीव ईश्वर से अलग नही है:

जीव ईश्वर का ही एक भाग है जिस तरह कोई प्राण अपने शरीर के अंगों को शरीर से अलग नही मानता उसी तरह ईश्वर के सभी जीव अंग होने से अलग नही है अतः प्राणी मात्र को ईश्वर का परिवार मानकर सबसे प्रेम करना चाहिए। मनुष्य को परमात्मा से अलग मानने वाला भगवान का भगत नही हो सकता। ईश्वर अंशी तथा जीव अंश है अतः ऊंच नीच,छोटा बड़ा तथा जाति धर्म के नाम पर विभाजन और अलगाव की धारणाए मिथ्या है आज के वैज्ञानिक युग मे मानव भौतिक दासता में अबर्द्ध होता जा रहा है और दानवता पूर्ण व्यवहार करता हुआ भयंकर मोह माया के पाश में आबद्ध होकर मृत्यु के मुख में जाने को तैयार है जबकि भगवान मानव मात्र को परम सुखी व अजर अमर बनाने के लिए अनादि काल से सन्देश देते रहे है।

*बूंद के माही समुंद समाना, राई में पर्वत डोले।चींटी माही हस्ती बैठा, घट में अघटा बोले।।*

स्पष्ट है कि इस पद में समुन्द्र ,पर्वत,हस्ती एवं अशरीरी शब्द "ईश्वर" के विराट रूप को प्रगट कर रहे है तथा बूँद, राई पिपीलिका और शरीर जीव के रूप को प्रगट कर रहे है।

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🌸सागर के बिखरे मोती🌸
रेण पीठाधीश्वर "श्री हरिनारायण जी शास्त्री"

45. आनंद आत्मा में ही है

45. आनंद आत्मा में ही है

सांसारिक विषयो में आनंद नही है किन्तु अंतःकरण में आत्मा का प्रतिबिम्ब पड़ने से, आनंद सा प्रतीत होता है । जगत के क्षणिक विषयो में जब तक मन फ़सा हुआ है । तब तक वास्तविक सच्चे आनंद की प्राप्ति नही होगी। लौकिक असत वासना से मन बिगड़ता है। वासना का नाश सत्संग,नाम जप से ही संभव है । मन को स्थिर करने के लिये राम नाम जप करते हुये महापुरूषो का संग करना चाहिए। जप व सत्संग से मन की मलिनता और चंचलता दूर होती है । अज्ञानी मानव विषयो में आनंद ढूंढता है जबकि आनंद आत्मा में ही है।

*जन दरिया गुरुदेव जी सब विधि दई बताय। जो चाहो निज धाम को सांसों उसांसो धयाय।।*

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🌸 *सागर के बिखरे मोती 🌸*
   *रेण पीठाधीश्वर श्री हरिनारायण जी शास्त्री*