Wednesday 14 February 2024

संत श्री किशनदास जी महाराज का संक्षिप्त जीवन चरित्र


संत श्री किशन दास जी महाराज का जन्म वि.सं. 1746, माघ सुद्धि बसंत पंचमी को टाँकला गाँव में हुआ था। ये टाँकला गाँव नागौर से जोधपुर रोड़ पर तीस किलोमीटर दूरी पर है। आपके पिता का नाम श्री दीसाराम जी मेघवाल तथा माता का नाम महीदेवी था। श्री किसनदास जी मं. ने अनन्त विभूषि श्रीमद् दरियाव जी मं. से गुरू दीक्षा ली थी। दीक्षा लेकर आप राम भजन में लग गये थे। वैसे तो आप एक सद्‌गृहस्थ का जीवन यापन कर रामभजन करते थे। आपने ज्यादातर साधना टाँकला से एक मील दूर अपने ही खेत में खेजड़ी के वृक्ष के नीचे की थी। आप साधना काल के बीच बीच में सद्गुरू दरियाव जी मं. का दर्शन-पर्सण करने के लिए रेण राम धाम में जाया करते थे। आपने सद्गुरू की महिमा करते हुए कहा:- 

'सतगुरू' जन दरियाव सही, मन मान्या मेरे। 

सूरवीर सत बैण, कहो कुण पूठा फेरे ।। 

निराकार आकार बिच, जन दरिया का वास। 

अगम आगोचर गम किया, देख्या किसनेदास।।" 

रामरचिया जीव आयके, चौरासी दुःख पाय। 

किसना गुरू की महर सूं., सहज मुक्त हो जाय।।" 


श्री किसनदास जी महाराज का तपतेज व साधना इतनी ऊंची स्थिति में थी कि बड़े-बड़े योगी-महापुरूष उनका दर्शन करने आते थे जैसे-गोरख नाथ जी भरतरी जी, गोपीचन्द्र जी आदि। यथा:-

"किशनदास गोरख मिल्या, बोल्या अणभै बाण।

 राम राम निशदिन रटे, निर्भय चढ़े निरबाण।। 

भरतरी तेरी कंचन बरणीदेह, मरद महबूबथा। 

नैण नासिका कान, सूरत में खूब था ।।

 सिर पर खांगी पाग, बदन मुख भलहले। 

गल मोत्यां की माल, झगा मग झलझले ।।

राज पाट राणी तजी, संतों साहिब काज। 

जन किसनदास धिन्न भरतरी, चढ़िया नाम जहाज ।।"

 इसी प्रकार मक्का के पाँच पीर श्री किसन दास जी मं. की महिमा सुनकर दर्शन करने के लिए आये थे। उस समय महाराज श्री भजन ध्यान में विराजे हुए थे तब पीर अपने चमत्कारी ढोलिये जो जमीन से पाँच - छः फिट ऊपर अधर ही चलता था। उस पर से उतर कर आसपास घूमने फिरने चले गये थे। कुछ समय पश्चात् पीर वापिस आकर महाराज श्री से मिले तथा बातचीत की। बातचीत करने के बाद जब पीर रवाना होने लगे तो पहले की तरह ढोलिया जमीन से अधर नहीं हुआ था। चमत्कारी पीरों ने अपनी चमत्कारी मंत्र शक्ति से ढोलिये को जमीन से अधर करके चलाने की खूब कोशिश की किन्तु सफल नहीं हुए और आखिर में हार कर ढोलिये को वहीं छोड़कर खाली हाथ जाना पड़ा तथा साथ ही उनके चमत्कार का घमण्ड भी चूर-चूर हो गया था। श्री किसनदास जी मं. ने ध्यानावस्था में सब जान लिया था कि पीरों ने भैरव को वश में कर रखा था। जिससे पाँचों पीर ढोलियें पर बैठ जाते और भैरव देवीशक्ति से उस पलंग (ढोलिये) को सिर पर रख कर चलता था तथा भैंरू किसी को दिखायी नहीं देता था जिसके कारण पीरों का चमत्कार दिखायी देता था। श्री किशनदास जी महाराज को भैरव पर दया आयी और उसे पीरों के बन्धन से मुक्त कर दिया था। उस समय भैरव श्री किशन दास जी मं. का शिष्य बन गया था। यथाः -

'किसन के भैंरू शिष्य साता। मुण्डवे दूदो हरि राता।।' 

पीरों द्वारा छोड़े गये उस ढोलिये को महाराज श्री ने अपने हाथों से बुनकर दुबारा नये सिरे से तैयार किया तथा अपने दैनिक जीवन में उपयोग किया करते थे। 


लकड़ी की छड़ीः एक समय श्री किशनदास जी मं. बैलगाड़ी से कोलायत जा रहे थे। मार्ग में एक रात्रि को केलणसर गाँव में रूके थे। रात्रि के समय केलणसर गाँव के ठाकुर का कँवर तथा उसके दो तीन साथियों ने मिलकर बैलगाड़ी के दो बैलों में से एक बैल को चुराकर एक छप्पर में छिपा दिया था। सुबह जब किशन दास जी महाराज रवाना होने के लिए बैलगाड़ी के पास गये तो वहाँ एक ही बैल था और दूसरा बैल इधर उधर ढूँढने पर कहीं भी नहीं मिला था। तब महाराज श्री 'केलणसर 'गाँव के ठाकुर के पास गये और बैल चुराये जाने की बात कही तथा बैल ढूँढने के लिए कहा, तब ठाकुर ने महाराज की बात पर ध्यान न देकर उपेक्षापूर्वक वचनों में कहा कि - दूसरा बैल भी खो देगा। यहाँ कोई बैल नहीं है तब महाराज श्री ने बैलगाड़ी में एक तरफ बैल जोता तथा दूसरी तरफ बैल की जगह अपने हाथ में रखने वाली लकड़ी को लगाकर बैलगाड़ी को चलाकर गाँव की सीमा से बाहर ले आ गये थे। थोड़े ही समय पश्चात अचानक बैल खुलकर महाराज श्री के पास आ गया तथा जहाँ बैल को छिपाया गया था उस छप्पर में आग लग गयी व ठाकुर के कंवर व उसके साथी मेणा व भावरी के पेट में दर्द हुआ व थोड़ी ही देर में उनके प्राण पंखेरू उड़ गये। जब ठाकुर को पता चला तो वह बहुत ही घबराया और अपनी माताजी से जाकर सब हाल कह सुनाया तथा आग्रह किया कि अब आप ही महाराज श्री से जाकर माफी मांगों, मेरे से बहुत बड़ी गलती हो गयी हैं। मैं तो अब महाराज श्री के सामने नहीं जा सकता हूँ। तब ठाकुर की माजीसा ने महाराज श्री के सामने जाकर माफी मांगते हुए प्रार्थना की कि हमारे पुत्र व पौत्र से बहुत बड़ा अपराध हो गया है। आप संत है हम पर दया करके हमें माफ करें। तब महाराज श्री ने दया करके उन लोगों को शान्ति प्रदान की थी।


पखाल के पानी का दूध हो जाना:- एक बार किशनदास जी मं. नागौर पधारे और हाकम के नोहरे जो वर्तमान समय में रामपोल की जगह है, वहाँ दरवाजे के पास विराजे थे। वहाँ पाडे पर पानी से भरी पखाल लिए पखाली आया तो महाराज श्री ने पखाली से पूछा कि किसके यहाँ पानी की पखाल ले जा रहे हो ? तब पखाली ने कहा कि "मैं हाकम साहब के नोहरे में पानी की पखाल खाली करने ले जा रहा हूँ। तब महाराज श्री ने पखाली को हाकम साहब से एक लोटा दूध लाने के लिए कहा। पखाली ने हाकम के पास जाकर महाराज श्री के द्वारा एक लोटा दूध मांगे जाने की बात कही। इस पर हाकम ने कहा कि "संत हो गये फिर भी दूध चाहिये ?" इतनी ही अगर दूध की जरूरत है तो, हाकम ने पखाली के पाडे की ओर हाथ से इशारा करते हुए कहा कि - महाराज से कहना कि जितना भी दूध चाहिये उतना इस पाडे से दुह लेना। पखाली ने वापस जाकर महाराजश्री को हाकम की कटाक्ष भरी बात कही, तब महाराजश्री ने पखाली को पखाल पानी से भर कर लाने को कहा। तुरन्त पखाली पानी से भर कर पखाल लेकर महाराज श्री के पास आया तब महाराज श्री ने पखाल पर हाथ रखा और हाथ रखते ही पखाल के पानी का दूध बन गया तथा पखाली से कहा अब इसे हाकम साहब के पास ले जाओ। पखाली दूध से भरी पखाल को लेकर हाकम साहब के पास गया और हाकम से पूछा कि पखाला कहाँ खाली करूँ ? तब हाकम ने पखाली को डाँटा व कहा कि तुम्हारा दिमाग खराब हो गया क्या ? तब पखाली ने हाकम साहब को महाराज श्री द्वारा भिजवायी दूध से भरी पखाल की सब बात कहें दी। उस समय हाकम ने उठकर स्वयं अपनी आँखों से दूध से भरी पखाल को देखा तो घबराकर हक्का-बक्का सा हो गया और दौड़ता - हाँफता हुआ आकर श्री किशनदास जी महाराज के श्री चरणों में गिर गया तथा उसने अपनी गलती की माफी मांगी तथा अनुनय-विनय करके कहा कि आप आदेश दें कि मैं आपकी क्या सेवा करूँ ? आप आदेश फरमा ओ तो पूरा नागौर ताम्र पत्र पर लिखकर आपके श्री चरणों में भेंट कर दूँ।" तब महाराज श्री ने कहा कि एक लौटा दूध तो दे नहीं पाये और अब पूरा नागौर देने की बात कर रहे हो।" हाकम ने महाराज श्री से विशेष आग्रह किया कि कुछ तो आपको स्वीकार करना ही होगा, हाकम के ज्यादा आग्रह करने पर महाराज श्री ने हाकम की प्रार्थना को स्वीकार करते हुए कहा कि "यह नोहरा राम प्रेमी भक्तों के सत्संग भजन हेतु दे दो, तब हाकम ने तुरन्त वह नोहरा महाराजश्री को अर्पित कर दिया था जो वर्तमान में श्री किशनदास जी महाराज की रामपोल के नाम से नागौर शहर में प्रसिद्ध है।


 नागौर में नया दरवाजा के निमार्ण का प्रसंग: एक बार श्री किशनदास जी महाराज नागौर रामपोल जो हाकम के द्वारा भेंट जगह पर सत्संग कर रहे थे। उस समय महाराजा श्री बख्तसिंह जी किशनदास जी मं. के दर्शन करने आये थे। महाराज की महिमा के बारे में सुनकर श्री बख्तसिंह जी के मन में परीक्षा करने की भावना जगी और महाराज श्री से कहा कि मुझे कल जोधपुर प्रस्थान करना है तो नागौर के कौन से दरवाजे से निकलूँगा तब महाराज श्री ने कागज पर दरवाजे का नाम लिखकर कागज को बन्द करके राजा साहब को दे दिया और कहा कि जिस किसी भी दरवाजा से निकलना हो निकल जाना और दरवाजे से बाहर निकलने के बाद इस कागज को खोलकर पढ़ लेना।

राजा साहब महाराज श्री की सत्संग करके रात्रि शयन के लिए अपने निवास स्थान किले में चले गये। वहाँ राजा ने विचार किया कि किशनदास जी महाराज ने नागौर शहर के दरवाजों में से किसी एक दरवाजे का तो नाम लिखा ही होगा। ऐसा सोचकर राजा साहब ने रातो रात अपने आदमियों को एक अलग से नया दरवाजा बनाने का आदेश दिया जो सुबह तक बन जाना चाहिये। दूसरे दिन सुबह राजा साहब अपने दलबल के साथ नये दरवाजे से बाहर निकलकर कागज को खोलकर पढ़ा तो उस कागज में "नया दरवाजा' ही लिखा हुआ था, जिसे पढ़कर राजा साहब चकित हो गये और उनका हृदय महाराज श्री के प्रति श्रद्धाभाव से भर गया था। वास्तव में तार्किक लोक महाराज श्री को बिना चमत्कार के पहचान नहीं पाये थे।

टॉकला के ठाकुर का द्रोहभाव का प्रसंग :- सामंत काल में मारवाड़ के गाँव सामन्तों के नाम से जाने जाते थे। श्री किसनदास जी सं. की प्रसिद्धि के कारण टाँकला गाँव श्री किशनदास का टाँकला के नाम से जाना जाने लगा। टाँकला-ठाकुर जब कभी बाहर जाते तो उनकों अपने नाम की जगह श्री किसनदास जी महाराज का टॉकला का वाक्य बार-बार जहाँ-तहाँ सर्वत्र सुनना पड़ता था तो टाँकला के ठाकुर साहब व मन ही मन में कुढ कर रहे जाते और विचार करते कि " मै बारह गांवों का धणी जागीरदार हूँ और इतने बड़े गाँव का ठाकुर हूँ फिर भी मेरे ही गाँव को मेरे नाम से न बोलकर किसी अन्य के नाम से बोला जाना यह कैसे सहन किया जाय ? इस प्रकार काफी समय से टाँकला ठाकुर मन ही मन में जलता रहता था। "विनाश काले विपरितेन बुद्धि" के अनुसार एक बार ठाकुर को विपरित बुद्धि सवार हो गई और ठाकुर ने विचार किया कि "न रहे बाँस न बजे बाँसुरी " अर्थात् महाराज श्री को मैं जान से मार डालूँ तो टाँकला का नाम मेरे ही नाम से बोला जाने लगेगा। ठाकर ने श्री किशनदास जी मं. को जान से मारने के लिए एकान्त का मौका खोजना शुरू कर दिया था। श्री किशनदास जी मं. टाँकला से नागौर सत्संग करने के लिए पैदल जाते थे। एक बार जब महाराज टाँकला से नागौर जाने के लिए रवाना हुए तो ठाकुर ने महाराज श्री के पीछे घोड़ी दौड़ाकर पीछा किया, किन्तु घोड़ी को खूब तेज दौड़ाने के बावजूद भी घोड़ी सवार ठाकुर व श्री किशनदास जी मं. के बीच एक निश्चित अन्तर का फासला बना रहा जो नागौर पहुँचने तक न तो घटा और नहीं बढ़ा। इस प्रकार ठाकुर श्री किशनदास जी मं. के पास पहुँचने में असफल रहा था। रात्रि को महाराज रामपोल में सत्संग करके दूसरे दिन सुबह टाँकला के लिए नागौर से रवाना हुए, तब ठाकर ने भी दुबारा महाराज का पीछा किया किन्तु पहले की तरह इस बार भी वहीं निश्चित दूरी का अन्तर तो बना ही रहा। इस बारे में महाराज ने अपनी वाणी जी में कहा है कि 

"आगे पीछे रामजी, सदा करे प्रतिपाल। 

किशनदास निजसंत के, रक्षक राम दयाल।।"

 इतना कुछहोते हुए भी ठाकुर समझ नहीं पाया था और नादान बनकर छोड़ी को निर्दयीतापूर्वक दौड़ाना शुरू किया और तेज दौड़ायी ओर तेज दौड़ायी, आखिर में टाँकला गाँव के तालाब के किनारे पहुँचने पर घोड़ी बेचारी गिर पड़ी और मर गयी। घोड़ी के गिरने की आवाज को सुनकर महाराज ने पीछे मुड़कर देखा तो घोड़ी तो मर चुकी थी और ठाकुर घोड़ी के पास खड़ा था। तब महाराज ने ठाकुर को कहा कि - बैर तो तेरा मुझसे था, इस बिचारि घोड़ी को निर्दयतापूर्वक दौड़ाकर क्यों मारा ? महाराज श्री ने ठाकुर को कहा कि अब बोल क्या चाहता है ? किन्तु ठाकुर को अब भी सद्बुद्धि नहीं आयी क्योंकि -


"होनहार भावी, प्रबल, बिसर जात सब सुध। जैसी होनी होत है, तैसी उपजत बुध ।।" श्री किशनदास जी महाराज ने तो ठाकुर को कहा- क्या चाहता है ? लेकिन ठाकुर ने परमार्थ का कुछ भी नहीं मांगकर कहा कि "मुझे इस समय यानी जेठ-आषाठ का महिना था कि केवल फूँक व मतीरा चाहिए।। " ठाकुर ने सोचा कि इस समय ये फूंक व मतिरा तो कहाँ से लायेगें और नहीं लायेगें तो मैं इन पर कोप कर इन्हें दण्ड दूँगा कि "झुठा ही महाराज बनकर फिरता है।" किन्तु महाराज तो समरथ थे अतः उसी समय में अपनी झोली में से फूंक का सींटा ठाकुर को हाथ में दिया और मतिरा निकाल कर कहा- "तूने मतीरा मांगा है अतः ना तो कोई तेरा वंश रहेगा और नहीं मेरी गादी पर कोई महन्त बैठेगा।" इस प्रकार महाराज के वचनों से टाँकला ठाकुर के सात पीढ़ी तक कोई वंश नहीं चला अर्थात् दत्तक पुत्र लेकर ही ठाकुर बैठाते रहें तथा श्री किशनदास जी म. के पीछे भी कोई गादी पर विराजमान नहीं हुआ। तालाब के किनारे जिस जगह घोड़ी मरी थी उस जगह आज भी घोड़ी की यादगार में चबुतरा बनाया हुआ है। 

किशनदास जी म. का बिखणियाँ गाँव में अन्तिम सत्संग : एक बार संत श्री किशनदास जी महाराज सत्संग करने के लिए रेणधाम से आगे डंगाणा की तरफ बिखणियाँ गाँव में पाँच गृहस्थी भाई शिष्यों के यहाँ गये थे। विखणिया में कुछ दिन सत्संग के लिए हेमदास जी के यहाँ ठहरे थे। हेमदास जी व उनके पाँचों ही भाई रामनामी भक्त कहलाते थे। इनमें हेमदास जी मं. की स्थिति बहुत ऊँची थी। यथा - 

"हेमदास हरिका हितकारी। सतशबद से प्रीति पियारी ।। (133, भक्तमाल)" श्रीकिशनदास जी महाराज ने अपने भजन के बल से देख लिया कि अब यह शरीर ओर अधिक समय तक नहीं रहेगा अतः टाँकला चल देना चाहिए। उस समय महाराज ने हेमदास जी आदि पाँचों भाईयों से कहा कि अब हम टाँकला जाना चाहते है। तब हेमजी आदि ने बिखणियाँ ठाकुर साहब से कोई साधन मांगा था, किन्तु ठाकर ने महाराज को बिखणियाँ गाँव में ही शरीर छूटे व महाराज श्री का यहीं पर स्मारक बने, इस प्रकार की लालशावश होकर कोई भी साधन देने से इन्कार कर दिया था। फिर भी महाराज ने टाँकला पधारने की ही इच्छा व्यक्त की, तब अन्य सभी भक्तों ने महाराज को पालकी में बिठा कर टाँकला के लिए प्रस्थान कर दिया था। रास्ते में रेणधाम में विश्राम किया था, फिर टाँकला पधारे। तीन दिन तक टाँकला में अपने निवास स्थान-साल में आप विराजे रहे तब तक हेमदास जी आदि ने आपके आदेशानुसार आपके सारे शिष्यों को टाँकला बुला लिया था। सब शिष्यों में से एक खेताराम जी मं. नहीं आ पाये थे बाकी के सब शिष्यों को अन्तिम उपदेश देकर आप वि.सं. 1825 आषाढ कृष्ण सप्तमी को महानिर्वाण को प्राप्त हो गये थे। अन्तिम संस्कार होने के बाद जब शिष्य श्री खेताराम जी मं. आये तो वे बहुत व्याकुल हो गये और बहुत विरह की थी। तब श्री किसनदास जी महाराज ने पुनः दर्शन दिया था और सान्त्वना देकर फिर अन्तर्ध्यान हो गये थे श्री किसनदास जी महाराज के अनेक समर्पित शिष्य हुए थे जिसमें प्रमुख ये है :- संत श्री हेमदास जी महाराज (बिखाणियाँ), संत श्री हरिदास जी मं. (चाडी), संत श्री मेघोदास जी मं. (चाडी), संत श्री बुधसागर जी महाराज (खाबड़ी याणा-डेह), संत श्री खेताराम जी म. ( टाँकला), साध्वी श्री साराबाई जी (नागौर), संत श्री शोभारामजी (टाँकला) संत श्री रामूराम जी मं. (टाँकला) संत श्री हरिराय जी मं. (जयपुर), छः शिष्य नौसर गाँव में हुए - (हरि जी कृष्ण जी लघु हेम जी, लादू जी, चन्दाराम जी व बखताराम जी इस प्रकार संत श्री किशनदास जी मं. के शिष्यें तथा इन शिष्यों की शाखाएँ भी बढ़ती ही रही है