Monday 5 June 2017

नाद परचे का अंग (दरियावजी दिव्य वाणी)

नाद परचे का अंग
अथ श्री दरियावजी महाराज की दिव्य वाणीजी का "नाद परचे का अंग" प्रारंभ । राम !

दरिया सुमिरै राम को, आठ पहर आराध ।
रसना में रस ऊपजे , मिश्री जैसा स्वाद (1)
आचार्यश्री दरियावजी महाराज कहते हैं कि नाम साधना अथवा शब्द साधना में ध्यान की प्रधानता रहती है । इस अवस्था मेंं भक्त अजपाजाप करने लगता है तथा सभी बाह्य उपादान माला आदि निरर्थक हो जाते हैं ।भगवदभजन के प्रभाव से साधक का चेहरा , स्वभाव तथा संपूर्ण जीवन परिवर्तित हो जाता है । निरन्तर ध्यानावस्थित अवस्था में राम नाम के जाप के प्रभाव से भक्त को जिह्वा के अग्रभाग पर मिश्री जैसा स्वाद अनुभव होने लगता है । राम राम!
रसना सेती ऊतरा , हिरदे किया वास ।
दरिया वर्षा प्रेम की  ,षट् ऋतु बारह मास (2)
आचार्यश्री दरियावजी महाराज कहते हैं कि इस अनिर्वचनीय  आनन्द का प्रभाव जब रसना से कण्ठ  में पहुँचता है तो साधक को निरन्तर ध्यानावस्थित अवस्था में बैठे रहने के कारण उसके शरीर में प्रेम की लहरें  उठने लगती है । इसके पश्चात जब राम शब्द हृदय में प्रवेश करता है , तब बारह ही मास निरन्तर प्रेम की वर्षा होने लगती है । राम राम!
दरिया हिरदे राम से, जो कबहू  लागे मन ।
लहरें उठै प्रेम की, ज्यों सावन बरसा घन (3)
आचार्यश्री दरियावजी महाराज कहते हैं कि राम शब्द के हृदय में पहुंचते ही भक्त के भ्रम, कर्म व संशय सब नष्ट हो जाते हैं । हृदय में  नाद प्रेम ज्ञान प्रकाश उत्पन्न करके साधक को आत्मानन्द का अनिर्वचनीय सुख प्रदान करता है एवं सतत प्रेम रूपी सावन बरसता रहता है । राम राम!
जन दरिया हिरदा बिचे , हुआ ज्ञान प्रकाश ।
हौद भरा जहँ प्रेम का, तहँ लेत हिलोरा दास  (4)
आचार्यश्री दरियावजी महाराज कहते हैं कि यह राम नाम सूर्य के सदृश है जिसके प्रभाव से हृदय में व्याप्त अज्ञान रूपी अंधकार नष्ट हो जाता है तथा अनन्त प्रकाश दिखाई देने लगता है । निरन्तर  साधना के फलस्वरूप प्रेम से लबालब भरा  हृदय आनन्द की हिलोरें लेने लगता है । राम राम!
हिरदे सेती ऊतरै , सुखम प्रेम की लहर  ।
नाभि कँवल में सँचरै , सहज भरीचै डेहर (5)
महाराजश्री आगे कह रहे हैं कि तदनन्तर "राम "शब्द नाभि में प्रवेश करता है । नाभि स्थान में, जहाँ संपूर्ण शरीर की नाड़ियों का केन्द्र बिन्दु है, नाद (राम ) ध्वनि में  अलौकिक आलाप उत्पन्न करके संपूर्ण शरीर में अजपाजाप का आत्मानुभूत अनुभव कराता है । राम राम!
नाभि कँवल के भीतरै , भँवर करत गुंजार ।
रूप न रेख न वरन है , ऐसा अगम अपार  (6)
आचार्यश्री कहते हैं कि नाभि में साधक को बड़ी आनन्ददायिनी अनुभूति होती है । नाभि कमल के भीतर भ्रमर (राम शब्द ) गुंजार करते हैं, उनका न कोई रूप है और न कोई वर्ण है । यहीं पर नाम रूपी भ्रमर को दिव्यानन्द की प्राप्ति होती है । राम राम!
नाभि परचा ऊपजै, मिट जाय सभी विवाद ।
किरनै छूटै प्रेम की, दिखे अगम अगाध  (7)
महाराजश्री कहते हैं कि राम शब्द के नाभि में प्रवेश करने पर भक्त को परमात्मा की अनुभूति होने लगती है । अनुभूति होते ही परमात्मा के संबंध से सभी  वाद-विवाद, संसय नष्ट हो जाते हैं , तथा भक्त को अगम्य परमात्मा के अस्तित्व का आभास होने लगता है । राम राम!
नाभि कँवल से ऊतरा, मेरुदंड तल आय ।
खिड़की खोली नाद की , मिला ब्रह्म से जाय (8)
महाराजश्री कहते हैं  कि नाभि के पश्चात राम शब्द इड़ा, पिंगला, सुषुम्ना से विचरण करता हुआ मेरूदंड के नीचे उतर कर नाद की खिड़की खोल कर ब्रह्म में लीन हो जाता है । शब्द प्रदुषण से मनुष्य के मस्तिष्क में तनाव उत्पन्न हो जाता है परन्तु राम नाम की आवाज से शब्द प्रदुषण समाप्त हो जाता है ।राम राम!
दरिया चढिया गगन  को, मेरू उलंघ्या डण्ड ।
सूख उपजा साँई मिला, भेंटा ब्रह्म अखण्ड  (9)
आचार्यश्री दरियावजी महाराज कहते हैं कि जब मैं मेरूदंड से आगे बढ़कर त्रिकुटी में पहुंचा , तब मैंने वहां साँई अर्थात परमात्मा का साक्षात्कार किया । वहाँ मुझे शाश्वत सुख की प्राप्ति हुई तथा मैंने अखण्ड ब्रह्म के साथ भेंट की । राम राम!
बंकनाल की सुध गहै , मेरूदंड की बाट ।
दरिया चढिया गगन को, लांघ्या ओघट घाट (10)
  आचार्यश्री दरियावजी महाराज कहते हैं कि मेरूदंड के माध्यम से ही राम नाम शब्द बंकनाल को पार करके , समाधि में आने वाले बाधक तत्त्वों को कुचलता हुआ गगन ब्रह्मरंध्र में पहुंच गया । राम राम!
दरिया मेरू उलंघ कर , पहुंचा त्रिकुटी संध ।
दुख भाजा सुख ऊपजा, मिटा भर्म का धुंध  (11)
आचार्यश्री दरियावजी महाराज कहते हैं कि अब राम शब्द मेरूदंड को पार करके त्रिकुटी ( नाक के ऊपर भौंहों के मध्य स्थित स्थान ) में पहुंच गया है । त्रिकुटी में राम शब्द के प्रवेश करते ही मेरे सब भ्रम और दुख मिट गए तथा अपार आनन्द की अनुभूति होने लगी । राम राम!
अनन्त ही चन्दा ऊगिया, सूर्य कोटि प्रकाश ।
बिन बादल बरषा घनी , छह ऋतु बारह मास  (12)
महाराजश्री कहते हैं कि सतत् ध्यानयोग के माध्यम से जब साधक त्रिकुटी से आगे बढता है , तब उसे दिव्य दृश्यों का साक्षात्कार होता है । यहाँ पहुँचते ही साधक अनन्त चन्द्रमा एवं करोड़ों सूर्यों के प्रकाश का दर्शन करता है । अनेक प्रकार के वाद्य बजते हैं , प्रतिपल वसंत का दृश्य रहता है तथा अमृत की वर्षा होती है । ध्यानयोग की इसी चरमोत्कर्ष स्थिति में  जीवतत्व , परमात्म तत्व में लीन होकर सच्चे सुख की अनुभंति करता है । राम राम!
बंकनाल की सुध गहै, कोई पहुंचे बिरला सन्त ।
अमी झरै ज्योति झिलमिलै , नौबत धुरै अनन्त  (13)
महाराजश्री कहते हैं कि बंकनाल के माध्यम से कोई बिरला उच्चकोटि का साधक ही ब्रह्मरंध्र तक पहुंचता है । वहाँ निरन्तर दिव्य प्रकाश व अमृत की वर्षा होती रहती है तथा अनेक प्रकार के बाजों की ध्वनि सुनाई देती है । राम राम!
दरिया मन प्रसन्न भया, बैठा त्रिकुटी छाजै ।
अमी झरै बिगसै कंवल , अनहद धुन गाजै (14)
आचार्यश्री दरियावजी महाराज कहते हैं कि त्रिकुटी के छाजै पर स्थित होकर मेरा मन अत्यंत प्रसन्न हो गया । वहाँ पर मैंने देखा कि अमृत बरस रहा है , कमल विकसित हो रहा है तथा अनहद धुन की गर्जना हो रही है । राम राम!
दरिया त्रिकुटी सन्ध में , मन ध्यान धरै कर धीर ।
अवस चलत है सुषुम्ना, चलत प्रेम की सीर  (15)
आचार्यश्री दरियावजी महाराज कहते हैं कि त्रिकुटी की संधि में मन अत्यंत धैर्य धारण करके ध्यान करता है । वहाँ प्रेम की सुषुम्ना बहती रहती है । जब यह राम शब्द सुषुम्ना नाड़ी में आ जाता है , तब प्रेम की शिराऐं चलने लगती है । राम राम!
चलै सुरसरी अगम की , हृदय मंझ समाय ।
जन दरिया वा सुषुम्ना, रोम रोम हो जाय (16)
आचार्यश्री दरियावजी महाराज कहते हैं कि जब यह सुषुम्ना हृदय में प्रवेश करती है तब रोम रोम में राम-राम की ध्वनि प्रसारित हो जाती है । सांसोसांस की गति जब शरीर में प्रवेश करती है, तब शब्द रचना होती है । तत्पश्चात जब यह शब्द साधक के रोम-रोम में प्रवेश कर लेता है तब सम्पूर्ण शरीर में आनन्द का साम्राज्य छा जाता है । राम राम!
दरिया नाद प्रकाशिया , सो छवि कही न जाय ।
धन्य धन्य वे साधवा, वहाँ रहे लौ लाय  (17)
आचार्यश्री दरियावजी महाराज कहते हैं कि जब यह नाद प्रकाशित होता है , उस समय जो छवि प्रकट होती है , वह अवर्णनीय है । अर्थात पूर्णब्रहम परमात्मा के साक्षात्कार का जो आनन्द है , उसका शब्दों में वर्णन नहीं किया जा सकता । ऐसे साधकों को धन्य है , जो ऐसे दिव्य स्थल पर पहुंच कर इन अभूतपूर्व दृश्यों का अवलोकन करते हैं । उस वर्णनातीत आनंद के सामने इन्द्र तथा ब्रह्मा के पद का सुख भी कुछ नहीं है । राम राम!
दरिया नाद प्रकाशिया, पूरी मन की आस ।
घन बरसै गाजै गगन , तेज पुंज प्रकाश (18)
आचार्यश्री दरियावजी महाराज कहते हैं कि नाद अर्थात आवाज प्रकाशित हुआ । जब बादल आपस में टकराते हैं तब आवाज भी उत्पन्न होती है साथ ही बिजली भी चमकती है । उसीप्रकार सांसोसांस की टक्कर लगने से नाद तथा प्रकाश दोनों का प्रादुर्भाव होता है । इसीलिए महाराजश्री कहते हैं कि जब नाद प्रकाशित हुआ, तब मैरे मन की आशा की पूर्ति हो गई । राम राम!
दरिया नाद प्रकाशिया, किया निरन्तर वास ।
पारब्रह्म परसा सही, जहँ दर्शन पावै दास (19)
आचार्यश्री दरियावजी महाराज कहते हैं कि राम नाम का ध्यानयोग सहित निरन्तर जाप करने से वह अन्तश्चेतना में प्रकट होकर शरीर के भीतर अलौकिक प्रकाश व आनन्दरूप में अवतरित  (प्रकट) होता है । नाद सर्वव्यापक है किन्तु श्वासोश्वास राम नाम जाप से नाद ब्रह्म का प्राकट्य होता है । नाद ब्रह्म की उपासना से साधक अलौकिक उपलब्धियों को प्राप्त करता है । राम राम!
जन दरिया जाय गगन में, परसा देव अनाद ।
असुध बिसरी सुध भई , मिटिया वाद विवाद  (20)
  आचार्यश्री दरियावजी महाराज कहते हैं कि भक्ति साधना में नाद  (राम शब्द )की बड़ी महिमा है तथा जब मैं ध्यान करता हुआ ध्यानमार्ग से विशुद्ध चक्र का उल्लंघन करके, आज्ञाचक्र को छोड़कर ब्रह्मचक्र में पहुंचा तब मेरी सारी अशुद्धियां अर्थात गलतियां समाप्त हो गई एवं सारी सांसारिक आशाएं , ईच्छाएं , आकांक्षाएं नष्ट होकर चित्त ब्रह्माकार हो गया  । राम राम!
घुरे नगारा गगन में, बाजे अनहद तूर ।
जन दरिया जहँ थिति रची , निस दिन बरसै नूर  (21)
आचार्यश्री दरियावजी महाराज कहते हैं कि जब योग साधना से राम शब्द ब्रह्मरंध्र में पहुंच जाता है तब वहां भक्त अनुभव करता है कि इस स्थिति में अर्थात आत्मतत्व के परमात्मा तत्व में विलीन होकर एकाकार हो जाने की स्थिति में, असंख्य बाजे बज रहे हैं तथा वहाँ अहर्निश प्रकाश ही रहता है । राम राम!
जन दरिया जाय गगन में, किया सुधा रस पान ।
गंग बहै जहँ अगम की , जाय किया स्नान  (22)
आचार्यश्री दरियावजी महाराज कहते हैं कि राम शब्द ब्रह्मरंध्र में पहुंचने पर भक्त अमृत का पान करता है तथा उस स्थिति में वह अगम्य भगवान रूपी गंगा में निरंतर पवित्र स्नान करता रहता है । राम राम!
अमी झरत विगसत कँवल, उपजत अनुभव ज्ञान ।
जन दरिया उस देश का, भिन्न भिन्न करत बखान  (23)
आचार्यश्री दरियावजी महाराज साधना की परिपक्व अवस्था के विषय में कह रहे हैं कि उस चमत्कृत तथा अलौकिक स्थान पर सदा ही अमी झरती है । मानवमात्र के शरीर में अमी झरती है , परन्तु उस अमी में अलौकिकता नहीं होती है । निरन्तर ध्यान करने से उस अमी में अलौकिकता आ जाती है।तत्पश्चात जो अमी झरती है , वह अमृतरूप होती है । उस दिव्य स्थल पर पहुंचने के पश्चात अनुभव ज्ञान का प्रादुर्भाव होता है । राम राम!
सुरत गगन में बैठकर, पति का ध्यान सँजोय ।
नाड़ी नाड़ी रूँ रूँ बिचे , रंरकार धुन होय (24)
  महाराजश्री कहते हैं कि सुरत गगन में पहुंचकर अर्थात ध्येय में जाकर जब ध्येय का ही ध्यान करती है , तब नाड़ी-नाड़ी तथा रोम-रोम में रंरकार की धुन गूँजने लगती है ।शब्द जब ब्रह्म के ध्यान काल में राम-राम शब्द सुषुम्ना नाड़ी में प्रवेश करता है तब सम्पूर्ण शरीर में प्रेम, प्रकाश व ज्ञान की शिराऐं फूटने लगती है । राम राम!
बिन पावक पावक जलै , बिन सूरज प्रकाश ।
चाँद बिना जहँ चाँदना, जन दरिया का वास (25)
महाराजश्री उस अलौकिक स्थल का वर्णन करते हुए कह रहे हैं कि जहाँ बिना ही अग्नि , अग्नि जलती रहती है , बिना ही सूरज प्रकाश रहता है तथा बिना ही चन्द्रमा वहाँ चांदनी फैली रहती है उस भगवत धाम में उन्होंने निवास किया । सभी लोकों की समीक्षा करने के पश्चात श्री प्रभु इस निर्णय पर पहुंचे कि भगवतधाम को छोड़कर कहीं भी सुख नहीं है । राम राम!
नौबत बाजै गगन में, बिन बादल घन गाज ।
महल बिराजै परमगुरू , दरिया के महाराज (26)
आचार्यश्री कहते हैं कि ब्रह्मरंध्र में सदा ही बाजै बजते रहते हैं तथा बिना ही बादल गर्जना होती रहती है । आगे श्री दरियावजी महाराज कह रहे हैं कि उन्होंने परब्रह्म परमात्मा के धाम पर सतगुरुदेव का साक्षात्कार किया । सतगुरुदेव के मुख से निकला हुआ शब्द ही सतगुरु रूप हुआ । राम राम!
कंचन का गिरि देखकर, लोभी भया उदास ।
जन दरिया थाके बनिज , पूरी मन की आस  (27 )
आचार्यश्री दरियावजी महाराज कहते हैं कि सोने का पूरा पहाड़ देखकर लोभी का मन उदास हो जाता है । वह सोचता है कि यह पूरा सोना मैं ले लूं तो अच्छा हो । बनिज अर्थात व्यापारी उस सोने का व्यापार करते- करते थक जाते हैं परन्तु पहाड़ का कोई अंत नहीं आता है । उसी प्रकार परमात्मा के स्वरूप का जो आनन्द है, उसका कोई अंत नहीं है । साधक प्रभु के रूप माधुरी का पान करते-करते थक जाता है तथा इस प्रकार उसके मन में जो आध्यात्मिक आशा थी उसकी पूर्ति हो जाती है । राम राम!
ब्रह्म अग्नि ऊपर जलै , चलत प्रेम की बाय ।
दरिया शीतल आत्मा , कर्म कन्द जल जाय (28)
  आचार्यश्री दरियावजी महाराज कहते हैं कि ब्रह्म रूपी अग्नि जलती रहे तथा प्रेम रूपी हवा आती रहे तो साधक के जन्म-जन्मांतरों के कर्म जलकर नष्ट हो जाते हैं तथा आत्मा को शाश्वत  शांति प्राप्त होती है । सर्वादिनिर्गुण राम के चिन्तन से शीघ्र प्रज्वलित योगाग्नि द्वारा समस्त संचित कर्म दग्ध हो जाते हैं तथा अंतःकरण अत्यन्त विशुद्ध हो जाता है । राम राम!
कहा कहै कृपा करी , कहै रहै कोई रूठ ।
जन दरिया बानक बना , राम ठपोरी पूठ (29)
आचार्यश्री दरियावजी महाराज कहते हैं कि यह दुनिया रूठ जाए तो भी भक्त को कोई हानि नहीं होती है तथा यह दुनिया कृपा कर दे तो भी भक्त को कोई लाभ नहीं होता है । महाराजश्री कहते हैं कि जब मेरा बानक बन गया तब रामजी महाराज ने मेरी पीठ थपथपाई कि बेटा , धन्यवाद है तुझे । भजन ध्यान करके आज तू मेरे स्वरूप को प्राप्त हो गया है । राम राम!
दरिया त्रिकुटी महल में, भई उदासी मोय ।
जहँ सुख है तहँ दुख सही, रवि जहँ रजनी होय (30)
आचार्यश्री दरियावजी महाराज कहते हैं कि जब मैं त्रिकुटी के महल में पहुँचा तब मुझे उदासी आ गई क्योंकि त्रिकुटी के नीचे का भाग माया का है तथा त्रिकुटी के ऊपर का भाग ब्रह्म का है ।अतः त्रिकुटी में आने पर मेरे सामने संसार के प्रलोभन,रिद्धि-सिद्धि तथा सुख आने लगे । जिस प्रकार जहां दिन है वहां रात अवश्य होगी उसी प्रकार जहां सुख वहां दुख अवश्य आयेगा अतः मुझे त्रिकुटी छोड़कर आगे बढ़ना है तथा ब्रह्म की प्राप्ति करनी है क्योंकि सच्चा सुख तो परमात्मा के नाम में है । राम राम!
दरिया मन रंजन कहे , सुखी होत सब कोय ।
मीठे औगुन ऊपजै, कड़वा से गुन होय  (31)
आचार्यश्री दरियावजी महाराज कहते हैं कि लोग मनोरंजन करके सुखी होना चाहते हैं परन्तु यह मनोरंजन एक प्रकार का मीठा है । जिस प्रकार मीठा खाने से रोग होता है परन्तु कड़वा खाने से रोग चला जाता है । संसार के भोग और मनोरंजन से प्रारंभ में सुख मिलता है परन्तु परिणाम बहुत ही भयंकर और बुरा होता है । इसके विपरीत भगवत भजन में प्रारंभ में थोड़ी समस्या और कठिनाई सी लगती है , परंतु परिणाम बहुत ही सुंदर और अमृतमय है । राम।
मीठे राचे लोग सब, मीठे उपजै रोग ।
निर्गुण कड़वा नीम सा ,दरिया दुर्लभ जोग (32)
आचार्यश्री दरियावजी महाराज कहते हैं कि लोग मीठा बहुत खाते हैं और मीठा खाने से रोग होता है परन्तु नीम खाने से रोग नहीं होता है । निर्गुण ब्रह्म नीम के समान कड़वा लगता है परंतु परिणाम  (अमृत ) को न जानने के कारण लोग इसे स्वीकार नहीं करन चाहते । अतः परमात्मा का नाम दुर्लभ संयोग है । राम राम!
त्रिकुटी के मन्झ बहत , सुख की सरिता जोर ।
जन दरिया सुख दुख परे , वह कोई देश जो ओर  (33)
आचार्यश्री दरियावजी महाराज कहते हैं कि त्रिकुटी में सदा ही सुख की नदियां बहती रहती है परन्तु सुख-दुख से अलिप्त वह देश तो दूसरा ही है । राम राम!
त्रिकुटी मांहि सुख घणा, नाँहि दुख का लेश ।
जन दरिया सुख दुख नहीं, वह कोई अनुभव देश  (34)
आचार्यश्री दरियावजी महाराज कहते हैं कि त्रिकुटी में सुख ही सुख है , दुख रत्ती मात्र का भी नहीं है । परन्तु अनुभव देश अर्थात भगवत धाम तो ऐसा है , जहाँ सुख-दुख कुछ नहीं है , केवल एक आनंद का ही साम्राज्य है । राम राम!

इति श्री दरियावजी महाराज की दिव्य वाणीजी का नाद परचे का अंग संपूर्ण हुआ । राम जी राम ।

आदि आचार्य श्री दरियाव जी महाराज एंव सदगुरुदेव आचार्य श्री हरिनारायण जी महाराज की प्रेरणा से श्री दरियाव जी महाराज की दिव्य वाणी को जन जन तक पहुंचाने के लिए वाणी जी को यहाँ डिजिटल उपकरणों पर लिख रहे है। लिखने में कुछ त्रुटि हुई हो क्षमा करे। कुछ सुधार की आवश्यकता हो तो ईमेल करे dariyavji@gmail.com

डिजिटल रामस्नेही टीम को धन्येवाद।

दासानुदास
9042322241

नाद परचे का अंग / दरियावजी दिव्य वाणी