Thursday 20 April 2017

राम- सुमिरन

राम- सुमिरन

दरियाव जी महाराज ने परमात्मा की प्राप्ति के लिए राम- सुमिरन को महत्व दिया है। राम- स्मरण से ही कर्म व भ्रम का विनाश संभव है। अतः अन्य सभी आशाओं का परित्याग कर केवल रामस्मरण पर बल देना चाहिए --

""दरिया सुमिरै राम को दूजी आस निवारि।''

राम- स्मरण करने वाला ही श्रेष्ठ है। जिस घट ( शरीर, हृदय ) में राम- स्मरण नहीं होता, उसे दरिया घट नहीं ""मरघट'' कहते हैं।

सब ग्रंथों का अर्थ ( प्रयोजन ) और सब बातों की एक बात है -- ""राम- सुमिरन''

सकल ग्रंथ का अर्थ है, सकल बात की बात।
दरिया सुमिरन राम का, कर लीजै दिन रात।।

दरिया साहब की मान्यता है कि सब धर्मों का मूल राम- नाम है और रामस्मरण के अभाव में चौरासी लाख योनियों में बार- बार भटकना पड़ेगा, अतः प्रेम एवं भक्तिसंयुत हृदय से राम का सुमिरन करते रहना चाहिए, लेकिन यह रामस्मरण भी गुरु द्वारा निर्देशित विधि- विशेष से संपन्न होना चाहिए। केवल मुख से राम- राम करने से राम प्राप्ति नहीं हो सकती। उस राम- शब्द यानि नाद का प्रकाशित होना अनिवार्य है, तभी ""ब्रह्म परचै'' संभव हे। शब्द- सूरति का योग ही ब्रह्म का साक्षात्कार है, निर्वाण है, जिसे सदुरु सुलभ बनाता है। सुरति यानि चित्तवृति का राम शब्द में अबोध रुप से समाहित होना ही सुरति- शब्द योग है।

इसलिए जब तक शरीर में सांस चल रहा है, तब तक राम- स्मरण कर लेना चाहिए, इस अवसर को व्यर्थ नहीं खोना है, क्योंकि यह शरीर तो मिट्टी के कच्चे ""करवा'' की तरह है, जिसके विनष्ट होने में कोई देर नहीं लगती --

दरिया काया कारवी मौसर है दिन चारि।
जब लग सांस शरीर में तब लग राम संभारि।।(सुमिरन का अंग)

राम- सुमिरन में ही मनुष्य देह की सार्थकता है, वरन् पशु व मनुष्य में अंतर ही क्या!

राम नाम नहीं हिरदै धरा, जैसे पसुवा तेसै नरा।
जन दरिया जिन राम न ध्याया, पसुआ ही ज्यों जनम गंवाया।।(दरिया वाणी पद)

गुरु प्रदत्त निरंतर राम- स्मरण की साधना से धीरे- धीरे एक स्थिति ऐसी आती है, जिसमें ""राम'' शब्द भी लोप हो जाता है, केवल ररंकार ध्वनि ही शेष रहती है। क्षर अक्षर में परिवर्तित हो जाता है, यह ध्वनि ही निरति है। यही ""पर- भाव'' है और इसी ""पर- भाव'' में भाव अर्थात् सुरति का लय हो जाता है अर्थात भाव व ""पर- भाव'' परस्पर मिलकर एकाकार हो जाते हैं, यही निर्वाण है, यही समाधि है --

एक एक तो ध्याय कर, एक एक आराध।
एक- एक से मिल रहा, जाका नाम समाध।।(ब्रह्म परचै का अंग)

यही सगुण का निर्गुण में विलय है, यही संतों का सुरति- निरति परिचय है और चौथे पद ( निर्वाण) में निवास की स्थिति है। यही जीव का शिव से मिलन है, आत्मा का परमात्मा से परिचय है, यही वेदान्तियों की त्रिपुटी से रहित निर्विकल्प समाधि है। यहाँ सुख- दुख, राग- द्वेष, चंद- सूर, पानी- पावक आदि किसी प्रकार के द्वन्द्व का अस्तित्व नहीं। यही संतों का निज घर में प्रवेश होना है, यही अलख ब्रह्म की उपलब्धि है, यही बिछुड़े जीव का अपने मूल उद्रम ( जात ) से मिलन है, यही बूंद का समुद्र में विलीनीकरण है, यही अनंत जन्मों की बिछुड़ी मछली का सागर में समाना है। इस सुरत- निरति की एकाकारिता से ही जन्म- मरण का संकट सदा- सदा के लिए मिट जाता है। यही सुरति- निरति परिचय संत दरिया का साधन भी है और साध्य भी। परंतु इस समाधि की स्थिति की प्राप्त करने के लिए प्रक्रिया- विशेष से गुजरना पड़ता है। वह प्रक्रिया- विधि- सद्रुरु सिखलाता है, इसलिए संत- मत में सद्रुरु की महत्ता स्वीकार की गई है।

इस प्रक्रिया में गुरु- प्रदत्त ""राम'' शब्द की स्थिति सबसे पहले रसना में, फिर कण्ठ में , कण्ठ से हृदय तथा हृदय से नाभि में होती है। नाभि में शब्द- परिचय के साथ सारे विवादों का निराकरण भी शुरु हो गया है और प्रेम की किरणे प्रस्फुटिक होने लगती हें। इसलिए संतों द्वारा नाभि का स्मरण अति उत्तम कहा गया है। नाभि से शब्द गुह्यद्वार में प्रवेश करता हुआ मेरुदण्डकी २१ मणियों का छेदन कर ( औघट घट लांघ ) सुषुम्ना ( बंकनाल ) के रास्ते ऊर्ध्वगति को प्राप्त होता हुआ त्रिकुटी के संधिस्थल पर पहुँच जाता है। यहाँ अनादिदेव का स्पर्श होता है और उसके साथ ही सभी वाद- विवादों का अंत हो जाता है। यहाँ निरंतर अमृत झरता रहता है। इस अमृत के मधुर- पान से अनुभव ज्ञान उत्पन्न होता है। यहाँ सुख की सरिता का निरंतर प्रवाह प्रवहमान होता रहता है। परंतु दरिया का प्राप्य इस सुखमय त्रिकुटी प्रदेश से भी श्रेष्ठ है, क्योंति दरिया का मानना है --

दरिया त्रिकुटी महल में, भई उदासी मोय।
जहाँ सुख है तहं दुख सही, रवि जहं रजनी होय।। (नाद परचै का अंग)

यद्यपि त्रिकुटी तक पहुँचना भी बिरले संतों का काम है, फिर भी निर्वाण अर्थात् ब्रह्मपद तो उससे और आगे की वस्तु है --

दरिया त्रिकुटी हद लग, कोई पहुँचे संत सयान।
आगे अनहद ब्रह्म है, निराधार निर्बान।।

निर्वाण को प्राप्त करने हेतु सुन्न- समाधि की आवश्यकता है और शून्य समाधि ( निर्विकल्प समाधि ) के लिए सुरति को उलट कर केवल ब्रह्म की आराधना में लगाना पड़ता है, अर्थात् उन्मनी अवस्था प्राप्त करनी पड़ती है --

सुरत उलट आठों पहर, करत ब्रह्म आराध।

दरिया तब ही देखिये, लागी सुन्न समाध।।

Monday 17 April 2017

" सूरातन का अंग " / दरियाव वाणी

सूरातन का अंग

अथ श्री दरियावजी महाराज की दिव्य वाणीजी का " सूरातन का अंग " प्रारंभ ।

इष्टी स्वांगी बहु मिले , हिरसी मिले अनन्त ।
दरिया ऐसा ना मिला , राम रता कोई सन्त  (1)

महाराजश्री कहते हैं कि इस संसार में अपने अपने इष्टों को , अपने प्रियजनों को चाहने वाले , तथा तरह तरह के स्वांग बनाकर जीवन यापन करने वाले और अकारण ही हर्षित प्रसन्न  होने वाले असंख्य लोग मिले हैं लेकिन मुझे अभी तक राम भक्त, ईश्वर भक्त, सच्चा साधु नहीं मिला है । वास्तव में ऊच्चकोटि के साधु-संत दुर्लभ ही होते हैं । राम!
पंडित ज्ञानी बहु मिले, वेद ज्ञान परवीन ।
दरिया ऐसा ना मिला, राम नाम लवलीन  (2)

आचार्यश्री दरियावजी महाराज कहते हैं कि उन्हें  अनेक पंडित और ज्ञानी मिले , वेदों के ज्ञान में पूर्ण दक्ष अनेक विद्वान भी मिले , लेकिन मुझे अभी तक अहर्निश राम नाम में लवलीन  (तल्लीन ) रहने वाला कोई भी सच्चा भक्त नहीं मिला है । राम!
वक्ता श्रोता बहु मिले, करते खेंचातान ।
दरिया ऐसा ना मिला, जो सन्मुख झेले बान (3)

आचार्यश्री दरियावजी महाराज कहते हैं कि इस जीवन में उन्हें तरह तरह की व्यर्थ की बातें करने वाले और सुनने वाले अनेक लोग मिले हैं लेकिन मुझे अभी तक बातों के स्थान पर काम करने वाला सच्चा शूरवीर नहीं मिला है । केवल सच्चा शूर ही शत्रु के सम्मुख रह कर उसके बाणों के प्रहार को सहन करता है । इसीप्रकार सच्चा भक्त, भक्ति में आने वाली बाधाओं को सहन करके निरन्तर राम नाम जाप भगवद् भक्ति के लक्ष्य की प्राप्ति की ओर अग्रसर होता रहता है ।राम!
दरिया बान गुरूदेव का , बेध भरम विकार ।
बाहर घाव दीखै नहीं, भीतर भया सिमार (4)

महाराजश्री कह रहे हैं कि  गुरुदेव के शब्द रूपी बाण  हृदय पर अपने प्रभाव से  सब अवगुण दूर कर देते हैं । बाण का घाव तो शरीर के बाहर दिखाई देता है परन्तु  गुरूदेव के शब्द रूपी बाण का जो भयानक घाव हृदय पर होता है उसका प्रभाव किसी को दिखाई नहीं देता है । वास्तव में गुरु के सत शब्दों का हृदय पर अपार प्रभाव होता है । राम!
दरिया बान गुरूदेव का, कोई झेले सूर सधीर ।
लागत ही व्यापै सही, रोम रोम में पीर (5)

आचार्यश्री दरियावजी महाराज कहते हैं कि जिस प्रकार युद्ध में कोई धीरज रखने वाला शूर के बाण के प्रहार को सहन कर सकता है , उसी प्रकार सद्गुरु के शब्द रूपी बाण के प्रहार को केवल सच्चा भक्त ही सहन करता है और उसे अपने रोम-रोम में शब्द का प्रभाव अनुभव होने लगता है । राम राम!
सोई घाव तन पर लगै , ऊठ संभालै साज ।
चोट सहारे शब्द की , सो सूरा सिरताज (6)

महाराजश्री कहते हैं कि सच्चा शूर शरीर पर घाव होते ही अपने साजबाज अस्त्र-शस्त्र संभाल लेता है । वास्तव में सच्चा भक्त, गुरु के शब्दों से प्रभावित होकर अपने राम नाम जाप भक्ति के सच्चे लक्ष्य को प्राप्त करने में लग जाता है  और धीरे-धीरे वह भक्तों का सिरताज बन जाता है । राम राम!
चोट सहै उर सेल की, मुख ज्यों का त्यों नूर ।
चोट सहारे शब्द की, दरिया सांचा सूर (7)

महाराजश्री कहते हैं कि युद्ध में शूर के हृदय पर बाण की चोट लगने पर भी मुख के तेज में कोई कमी नहीं आती है । श्रीदरियावजी महाराज कहते हैं कि जो भक्त गुरु के शब्द से प्रभावित होकर सच्चे मन सै भक्ति में  लगकर अपना लक्ष्य हासिल कर लेता है , वही भक्त भक्ति के क्षेत्र में सच्चा शूरवीर है । राम राम  !
दरिया सूरा गुरुमुखी , सहै शब्द का घाव ।
लागत ही सुध बीसरे ,  भूलै आन सुभाव (8)

आचार्यश्री दरियावजी महाराज कहते हैं कि गुरुमुखी होकर, गुरू के शब्दों से प्रभावित होकर भक्ति में लग जाने वाला भक्त ही सच्चा शूर है । वह गुरू के  शब्दों का हृदय पर प्रभाव होते ही अपनी सुध-बुध खो देता है और उसके स्वभाव आचरण में  परिवर्तन हो जाता है । भक्ति में लीन रहना ही उसका स्वभाव बन जाता है । राम राम ।
दरिया सांचा सूरमा, सहै शब्द की चोट  ।
लागत ही भाजे भरम , निकस जाय सब खोट (9)

आचार्यश्री दरियावजी महाराज कहते हैं कि सच्चा सूरमा अर्थात भक्त ही गुरु के शब्दों  की चोट सहन कर सकता है । उस चोट के लगते ही , गुरू के शब्दों  का हृदय पर प्रभाव पड़ते ही भक्त के सभी प्रकार के भ्रम और अवगुण नष्ट हो जाते हैं और इस तरह गुरु के शब्द के प्रभाव से भक्त का जीवन  विकार रहित, उज्ज्वल हो जाता है । आचार्य श्री कहते हैं कि तुम साधना का कभी त्याग मत करो । जीवन में कभी निराशा को स्थान मत दो । राम राम!
दरिया शस्त्र बांधकर, बहुत कहावै सूर ।
सूरा तब ही जानिए, अनी मिले मुख नूर  (10)

महाराजश्री कहते हैं कि केवल अस्त्र-शस्त्र बांध लेने से कोई भी व्यक्ति शूरवीर नहीं हो जाता । शूरवीर तो तब होता है , जब वह गोलियों की बौछारों के बीच अपने शरीर तथा परिवार की परवाह न करते हुए हंसते हंसते बलिदान की वेदी पर चढ जाता हैं । जो व्यक्ति प्रतिकूलता के समय धैर्य तथा धर्म को नहीं छोड़ता है , वही सच्चा शूरवीर है । राम राम!
सबहि कटक सूरा नहीं, कटक माँहि कोई सूर ।
दरिया पड़ै पतंग ज्यों, जब बाजै रन तूर (11) 

आचार्यश्री दरियावजी महाराज कहते हैं कि सेना में सभी सिपाही शूरवीर नहीं होते हैं ।इसी प्रकार साधना करने वाले सभी साधक शूरवीर नहीं होते हैं ।लड़ाई का डंका बजने पर जो सिपाही अपने शरीर की परवाह न करता हुआ शत्रुओं से निरन्तर जूझता रहता है , वही वास्तव में शूरवीर है । इसी प्रकार  रात दिन निरन्तर नाम जाप करने वाला सच्चा शूरवीर है । आचार्य श्री कहते हैं कि तुम भगवान की भक्ति में शूरवीर बन जाओ तो तुम्हारा बेड़ा पार हो जायेगा । राम राम!
पड़ै पतंगा अग्नि में, देह की नांहि संभाल ।
दरिया शिष सतगुरु मिले, तो हो जाये निहाल  (12)

महाराजश्री कहते हैं कि पतंगा प्रकाश को देखकर दौड़ता है उस समय पतंगे को स्वयं के शरीर का ज्ञान नहीं रहता है । वह प्रकाश को अपना स्वरूप मानता है । इसी प्रकार शिष्य सतगुरु के सिद्धांत से , उनकी साधना से तथा उनके लक्ष्य  से जुड़े हुए हैं तो सतगुरु से मिले हुए हैं । राम राम!
भया उजाला गैब का , दौड़े देख पतंग ।
दरिया आपा मेटकर , मिले अग्नि के रंग  (13)

आचार्यश्री दरियावजी महाराज कहते हैं कि पतंगा किसी अनजान स्थान से आने वाले प्रकाश की ओर दौड़ता है । यद्यपि उसे प्रकाश के विषय में  कोई ज्ञान नहीं रहता , तथापि वह  अपना अस्तित्व मिटाकर अग्नि के रंग में मिल जाता है क्योंकि वह तो प्रकाश का प्रेमी होता है  । राम राम!
दरिया प्रेमी आत्मा , आवै सतगुरु संग ।
सतगुरु सेती शब्द ले , मिले शब्द के रंग  (14)

आचार्यश्री दरियावजी महाराज कहते हैं कि जो रामजी महाराज में प्रेम रखने वाली आत्मा होती है , वह सतगुरु का संग करती है तथा सतगुरु से शब्द लेकर शब्द के रंग में मिल जाती है । अतः साधक को दृढ़तापूर्वक साधना करते रहना चाहिए क्योंकि जो व्यक्ति दृढता रखता है , वही वास्तव में परमात्मा की प्राप्ति कर सकता है । राम राम!
दरिया प्रेमी आत्मा, राम नाम धन पाया ।
निर्धन था धनवन्त हुवा, भूला घर आया  (15)

आचार्यश्री दरियावजी महाराज कहते हैं कि प्रेमी आत्मा ने राम नाम रूपी धन प्राप्त कर लिया तथा उस धन के भण्डार से साधक निर्धन से धनवान बन गया । पहले वह भूला-भटका हुआ जंगलों में घूम रहा था परन्तु अब उसने असली घर को प्राप्त कर लिया तथा सच्चे धन का संग्रह करना प्रारंभ कर दिया है । आगे महाराजश्री कहते हैं कि राम-नाम रूपी धन का संग्रह करने वाला ही वास्तव में धनवान है । राम राम!
सूरा खेत बुहारिया , सतगुरु के विश्वास  ।
सिर ले सौंपा राम को , नहीं जीवन की आस (16)

महाराजश्री कहते हैं कि शत्रुओं का मुकाबला करके उन्हें धराशाई कर दें । इसी प्रकार सतगुरु के विश्वास से अंतःकरण रूपी मैदान से काम, क्रोध, लोभ, मोह इत्यादि को परास्त कर दें । आचार्यश्री कहते हैं कि जब सिर भगवान को सौंप दिया तो फिर जीने की आशा नहीं है , क्योंकि जब एक बार भगवान को सिर दे दिया तो बार-बार जन्म-मरण नहीं होगा । राम राम!
दरिया खेत बुहारिया, चढा दई की गोद ।
कायर काँपे खड़ बड़ै , सूरा के मन मोद (17)

आचार्यश्री दरियावजी महाराज कहते हैं कि मैंने अपनी आत्मा अर्थात स्वयं को परमात्मा की गोद में सौंप दिया है । इस प्रकार की दृढ़ता केवल शूरवीरों के मन में होती है , कायर तो केवल खड़े खड़े काँपते रहते हैं । अतः साधक को चाहिए की वह अपने को परमात्मा को सौंपकर निश्चिंत होकर नाम जाप करे । राम राम!
शूरवीर साँची दसा , भीतर साँचा सूत ।
पूठ फिरै नहीं मुख मुड़े , राम तणा रजपूत  (18)

महाराजश्री कहते हैं कि  साधन रूपी रणक्षेत्र में काम-क्रोध रूपी शत्रु हमसे संघर्ष कर रहे हैं । यदि हम इन शत्रुओं से पराजित हो गये तो हम कायर बन जायेंगे । अतः यदि प्रभु का प्यारा बनना है तो सदा ही इन शत्रुओं के साथ संघर्ष करते रहो और उन्हें परास्त करो । राम राम!
साध सूर का एक अंग, मना न भावै झूठ ।
साध न छाड़ै राम को, रन में फिरै न पूठ (19)

आचार्यश्री कहते हैं कि साधु और शूरवीर का एक जैसा ही स्वभाव होता है । साधु राम नाम जाप नहीं छोड़ता है तथा शूरवीर कभी रणांगण में पीठ नहीं दिखाता है वह तो सदा शत्रुओं का संहार करता हुआ आगे बढ़ता रहता है । महाराजश्री कहते हैं ऐसा राम नाम जाप करो कि राम नाम ही आपको पकड़ लें,  आप राम नाम छोड़ना चाहो तो भी नहीं छोड़ सको । राम राम!
शूरवीर की सभा में, कायर बैठे आय ।
सूरातन आवै नहीं, कोटि भाँति समुझाय (20)

आचार्यश्री कहते हैं कि  शूरवीरों की सभा में जब कोई कायर व्यक्ति आकर बैठता है एवं उस सभा मेंं देश रक्षा एवं समाज रक्षा की चर्चा सुनता है तब वह मृत्युवत कार्यों को देखकर घबरा जाता है । उसे भिन्न भिन्न प्रकार से उदाहरण देकर समझाया जाए तो भी वह समझ नहीं पाता क्योंकि उसके हृदय में कायरता ने घर कर लिया है । उसी प्रकार जो व्यक्ति भक्ति से पीछे हटते हैंं, वे भी कायर हैंं । राम राम!
शूरवीर की सभा मेें, जो कोई बैठे शूर ।
सुनत बात सुख ऊपजै , चढै सवाया नूर  (21)

महाराजश्री कहते हैं कि शूरवीरों की सभा में कोई शूरवीर आकर बैठता है तो वह शूरवीरता की चर्चा सुनकर बड़ा ही प्रसन्न होता है तथा उसको सवाया नूर चढता जाता है । उसीप्रकार भक्ति पथ पर सदा ही अग्रसर होने वाले भक्त को भक्ति तथा ज्ञान की बातें बहुत ही सुंदर और प्यारी लगती है । राम राम!
आगे बढ़ै फिरै नहीं, यह शूरां की रीत ।
तन मन अरपै राम को , सदा रहै अघ जीत (22)

महाराजश्री कहते हैं कि शूरवीर सदा ही आगे बढता रहता है परन्तु कभी घूमकर शत्रुओं को पीठ नहीं दिखाता है , यही शूरवीर के लक्षण होते हैं । उसी प्रकार भक्त परमात्मा को अपना तन मन अर्पित करके पापों पर विजय प्राप्त कर लेता है क्योंकि भक्त का एक ही लक्ष्य होता है परमात्मा को प्राप्त करना । राम राम!
शूर न जाने कायरी , सूरातन से हेत ।
पुरजा पुरजा हो पड़ै , तहू न छोड़े खेत  (23)

आचार्यश्री कहते हैं कि शूरवीर को कायरता के बारे में कोई जानकरी अथवा ज्ञान नहीं होता है । उसे तो सदैव ही शूरवीरता से प्रेम होता है । ऐसे शूरवीर  शरीर के टुकड़े -टुकड़े हो जाने पर भी रणक्षेत्र को छोड़ते नहीं है । अतः महाराजश्री कहते हैं कि तुम भक्ति के विषय में शूरवीर बनोगे तो तुम्हे भी परमात्मा की प्राप्ति होगी अन्यथा भगवान का मिलन बहुत ही कठिन है । राम राम!
शूर सदा है सनमुखी , मन में नाँहि संक ।
आपा अरपै राम को, तो बाल न होवे बंक (24)

महाराजश्री कहते हैं कि शूरवीर भक्त सदा ही  परमात्मा के सन्मुख रहता है । वह कभी मन में ऐसी शंका नहीं करता है कि भगवान मुझे मिलेंगे अथवा नहीं । भक्त ऐसी शंका न करके स्वंय को भगवान् के समर्पित कर देता है तो भक्ति में किसी भी प्रकार की बाधा उत्पन्न नहीं हो सकती है । राम राम!
शूर वीर साँची दसा, कबहू न मानै हार ।
अनी मिले आगे धसै , सनमुख झेले सार (25)

महाराजश्री कहते हैं कि सच्चा शूरवीर कभी हार नहीं मानता है वह निरन्तर शत्रुओं को मारने के लक्ष्य की ओर बढता रहता है । इसी प्रकार सच्चा भक्त भी सांसारिक परिस्थितियों से हार नहीं मानता है वह  परिस्थितियों से जूझता हूआ भगवद् भक्ति की ओर अग्रसर होता जाता है तथा केवल गुरु के शब्दों के अनुसार ही आचरण करता है । राम राम!
शूरा के सिर साम है , साधों के सिर राम ।
दूजी दिस ताकै नहीं, पड़े जो करड़ा काम  (26)

महाराजश्री कहते हैं कि शूरवीर सदा ही सेनापति को अपने सिर पर रखता है , उसी प्रकार संत सदा ही राम को अपने सिर पर रखते हैं । चाहे कितना ही बड़ा उत्तरदायित्व उन्हें सौंप दिया जाए, किन्तु वे भयभीत नहीं होते हैं । यदि हम अपने सिर पर राम को रखेंगे तभी हमारी रक्षा हो सकती है अन्यथा यदि हमारे सिर पर राम न होकर काम रहेगा तो हमारा पतन हो जाएगा । राम राम!
शूर चढै संग्राम को, मन में शंक न कोय ।
आपा अरपै राम को, होनी होय सो होय (27)

महाराजश्री कहते हैं कि शूरवीर जब लड़ाई में चढता है, उस समय उसके मन में किसी प्रकार की शंका नहीं रहती है । उसी प्रकार भजनानंदी साधक के जीवन में यह अति आवश्यक है कि वह साधना तथा साध्य पर कभी संशय की दृष्टि नहीं लाए । उसे तो ऐसा दृढ विश्वास होना चाहिए कि परमात्मा है तथा इस साधना के द्वारा अवश्य मेरा कल्याण होगा । राम राम!
शूरा खेत बुहारिया, भ्रम मनी कर चूर ।
आय बिराजै रामजी, दुर्जन भाजा दूर (28)

महाराजश्री कहते हैं कि सच्चे शूरवीरों ने शत्रुओं के भ्रम व घमंड को चकनाचूर कर दिया । शत्रुओं को मारकर युद्ध का मैदान साफ कर दिया । सच्चे भक्तों ने अपने जीवन में काम, क्रोध आदि शत्रुओं को   मारकर जीवन रूपी मैदान को साफ कर लिया है जिससे उन भक्तों के हृदय में रामजी का निवास हो गया है । राम राम!
पीछे पाँव धरै नहीं, शूरा बड़ा सुभाव ।
हूँ करियाआगे धसै, कायर खेले डाव (29)

आचार्यश्री कहते हैं कि शूरवीरों का ऐसा स्वभाव होता है कि उनके कदम कभी पीछे नहीं मुड़ते हैं वे तो जोश से शूरवीरता के गीत गाते हुए आगे ही बढते रहते हैं । इसी प्रकार जो सच्चे शूरवीर भक्त होते हैं, उनके जीवन में भगवत भजन की प्राथमिकता होती है । राम राम!
साध सुरग चाहे नहीं, नरकाँ दिस नहीं जाय ।
पारब्रह्म के पार लग , पटा गैब का खाय (30)

महाराजश्री कहते हैं कि सच्चा साधु स्वर्ग प्राप्त करना नहीं चाहता है एवं वह कभी भी नरक में ले जाने वाले दुष्कर्म नहीं करता है । जिस प्रकार सच्चा वीर गजब का तलवार चलाने की कुशलता दिखाकर सबसे श्रेष्ठ योद्धा बन जाता है उसी प्रकार सच्चा साधु एवं सच्चा भक्त अपनी भक्ति की श्रेष्ठता से परब्रह्म में  लीन हो जाता है । राम राम!
पटा पवाड़िया ना लहै , पटा लहै कोई  शूर ।
साखियाँ साहब ना मिले, भजन किये भरपूर  (31)

महाराजश्री कहते हैं कि कायर तलवार चलाने की कुशलता प्राप्त नहीं कर सकता है , इस कौशल को तो केवल शूरवीर ही प्राप्त कर सकता है । केवल साखियों को पढने व सुनने से राम  (ईश्वर )की प्राप्ति नहीं होती है । ईश्वर की प्राप्ति तो निरन्तर भजन , ध्यान, योग से ही संभव होती है । राम राम!
दरिया सुमिरन राम का, शूराँ हँदा साज ।
आगे पाछे होय नहीं, वाहि धनी को लाज (32)

आचार्यश्री दरियावजी महाराज कहते हैं कि यह साधना कोई शूरवीर ही कर सकता है । यह कायरों का काम नहीं है । शूरवीर कभी  आगे-पीछे नहीं होता उसका तो दृढ़ निश्चय होता है कि मुझे साधना करनी है तथा लक्ष्य की प्राप्ति करनी है । राम राम!
दरिया सो शूरा नहीं, जिन देह करी चकचूर ।
मन को जीत खड़ा रहै , मैं बलिहारी शुर (33)

आचार्यश्री दरियावजी महाराज कहते हैं कि वह सच्चा शूरवीर नहीं है , जो रणांगण में गोली अथवा बाण लगने से मर जाता है । मन को जीतने वाला ही वास्तव में सच्चा शूरवीर होता है क्योंकि मन को वश में रखना बहुत ही कठिन काम है । मन के ऊपर विजय प्राप्त करने वाला ही सबसे बड़ा शूरवीर होता है तथा उसी की बलिहारी है । राम राम!
सिन्धु बजा शूरा भिड़ा , बिरद बखाने भाट ।
हिला मेरू धूजी धरा , खुली सुरग की बाट  (34)

आचार्यश्री कहते हैं कि जब बाजे बजने लगे तब सेना में  हिम्मत आई तथा शूरवीर शत्रुओं के साथ भिड़ गये , जिससे शत्रुओं का नाश हो गया । जिस प्रकार शूरवीरों के चले जाने के पश्चात भाट अर्थात चारण लोग उनकी गाथाएं गाते रहतें हैं  उसी प्रकार भक्तों के चरित्र को दुनिया याद करती है । राम राम!
बाट खुली जब जानिए, अंतर भया उजास ।
जो कुछ थी सो ही बनी , पूरी मन की आस (35)

आचार्यश्री कहते हैं कि साधना करने से शरीर के अंदर मार्ग खुला तथा प्रकाश-ही प्रकाश हो गया । उस प्रकाश में परमात्मा का प्राकट्य हुआ तथा मैंने परमात्मा का  अवलोकन किया । इस प्रकार से मेरे मन की आशा की पूर्ति हो गई । राम राम!
दरिया साँचा शूरमा , अरिदल घालै चूर ।
राज थरपिया राम का , नगर बसा भरपूर  (36)

आचार्यश्री दरियावजी महाराज कहते हैं कि उन्होंने शत्रुओं के दल को तहस-नहस कर दिया तथा ऐसा नगर बसाया है, जिसमें राम का ही राज्य है । अब वे आसुरी सम्पदा से  दैवी-सम्पदा को प्राप्त हो गये तथा सदा के लिए शत्रओं का नाश हो गया । राम राम!
शूरवीर सनमुख सदा, एक राम का दास ।
जीवन मरण चित मेटकर, किया ब्रह्म में वास  (37)

आचार्यश्री कहते हैं कि सन्मुख रहना ही शूरवीर की स्वाभाविक प्रवृति है अर्थात वह सदा ही परमात्मा के सन्मुख रहता है । जो सुख-दुख, जीवन-मरण, अनुकूल-प्रतिकूल किसी भी परिस्थिति में परमात्मा को छोड़ता नहीं है, वही वास्तव में शूरवीर है ।राम राम!
काया गढ़ ऊपर चढ़ा, परसा पद निर्वान ।
ब्रह्म राज निर्भय भया, अनहद घुरा निसान (38)

आचार्यश्री दरियावजी महाराज कह रहे हैं कि जीव ने निरन्तर भक्ति के प्रभाव से शरीर को शून्य करके परम पद मोक्ष को प्राप्त कर लिया है । वहाँ केवल ब्रह्म  (राम ) का ही राज्य है तथा जीव को किसी का कोई भय नहीं है । उस ब्रह्म राज्य में अनन्त असंख्य सुख के बाजे बज रहे हैं और आनंद-ही आनंद है ।राम राम!

अथ श्री दरियावजी महाराज की दिव्य वाणीजी का शूरातन का अंग संपूर्ण हुआ । राम जी राम ।

आदि आचार्य श्री दरियाव जी महाराज एंव सदगुरुदेव आचार्य श्री हरिनारायण जी महाराज की प्रेरणा से श्री दरियाव जी महाराज की दिव्य वाणी को जन जन तक पहुंचाने के लिए वाणी जी को यहाँ डिजिटल उपकरणों पर लिख रहे है। लिखने में कुछ त्रुटि हुई हो क्षमा करे। कुछ सुधार की आवश्यकता हो तो ईमेल करे dariyavji@gmail.com

डिजिटल रामस्नेही टीम को धन्येवाद।

दासानुदास
9042322241