Saturday 19 September 2015

दरियाव जी महाराज की दिव्य वाणी

दरिया लच्छन साध का, क्या गिरही क्या भेख।
नि:कपटी निरसंक रहि, बाहर भीतर एक॥
कानों सुनी सो झूठ सब, ऑंखों देखी साँच।
दरिया देखे जानिए, यह कंचन यह काँच॥
पारस परसा जानिए, जो पलटै ऍंग-अंग।
अंग-अंग पलटै नहीं, तौ है झूठा संग॥
बड के बड लागै नहीं, बड के लागै बीज।
दरिया नान्हा होयकर, रामनाम गह चीज॥

Thursday 10 September 2015

राम भरोसा राखिये, ऊनित नहिं काई

राम भरोसा राखिये, ऊनित नहिं काई।
पूरनहारा पूरसी, कलाइ मत भाई!
जल दिखै आकाससे कहो कहाँसे आवै?
बिन जतना ही चहुँ दिसा, दह चाल चलावै।
चात्रिक भू-जल ना पिवै, बिन अहार न जीवै।
हर वाहीको पूरवै, अन्तरगत पीवै।
राजहंस मुकता चुगै, कछु गाँठ न बाँधै,
ताको साहब देत है, अपनों ब्रत साधै।
गरभ-बासमें जाय करि, जिव उद्यम न करही;
जानराय जानै सबै, उनको वहिं भरही।
तीन लोक चौदह भुवन, करै सहज प्रकासा।
जाके सिर समरथ धनी, सोचै क्या दासा?
जबसे यह बाना बना, सब समझ बनाई।
'दरिया' बिकलप मैटिके, भज राम सहाई॥

साधो, राम अनूपम बानी

साधो, राम अनूपम बानी।
पूरा मिला तो वह पद पाया, मिट गई खैंचातानी॥
मूल चाँप दृढ़ आसन बैठा, ध्यान धनीसे लाया।
उलटा नाद कँवलके मारग, गगना माहिं समाया॥
गुरुके सब्दकी कूंजी सेती, अनंत कोठरी खोली।
ध्रू के लोकपै कलस बिराजै, ररंकार धुन बोली॥
बसत अगाध अगम सुख-सागर, देख सुरत बौराई।
बस्तु घनी, पर बरतन ओछा, उलट अपूठी आई॥
सुरत सब्द मिल परचा हुआ, मेरु मद्धका पाया।
तामें पैसा गगनमें आया, जायके अलख लखाया॥
पण बिन पातुर, कर बिन बाजा, बिन मुख गावैं नारी।
बिन बादल जहँ मेहा बरसै, ढुमक-ढुमक सुख क्यारी॥
जन दरियाव, प्रेम गुन गाया, वह मेरा अरट चलाया।
मेरुदंड होय नाल चली है, गगन-बाग जहँ पाया॥

साधो, हरि-पद कठिन कहानी

साधो, हरि-पद कठिन कहानी।
काजी पण्डित मरम न जानै,
कोइ-कोइ बिरला जानी॥
अलहको लहना, अगहको गहना,
अजरको जरना, बिन मौत मरना।
अधरको धरना, अलखको लखना,
नैन बिन देखना, बिनु पानी घट भरना॥
अमिलसूँ मिलना, पाँव बिन चलना
बिन अगिनके दहना, तीरथ बिन न्हावना।
पन्थ बिन जावना, बस्तु बिनु पावना,
बिन गेहके रहना, बिना मुख गावना॥
रूप न रेख, बेद नहिं सिमृति,
नहि जाति बरन कुल-काना।
जन 'दरिया' गुरुगमतें पाया,
निरभय पद निरबाना॥

राम-नाम नहि हिरदै धरा

राम-नाम नहि हिरदै धरा, जैस पसुवा तैसा नरा॥
पसुवा-नर उद्यम कर खावै, पसुवा तो जंगल चर आवै।
पसुवा आवै पसुवा जाय, पसुवा चरै औ पसुवा खाय॥
राम-नाम ध्याया नहिं माईं, जनम गया पसुवाकी नाईं।
राम-नामसे नाहीं प्रीत, यह सब ही पशुओंकी रीत॥
जीवत सुख-दुखमें दिन भरै, मुवा पछे चौरासी परै।
जन 'दरिया' जिन राम न ध्याया, पसुवा ही ज्यों जनम गँवाया॥

साधो, अलख निरंजन सोई

साधो, अलख निरंजन सोई।
गुरु परताप राम-रस निर्मल, और न दूजा कोई॥
सकल ज्ञानपर ज्ञान दयानिधि, सकल जोतिपर जोती।
जाके ध्यान सहज अघ नासै, सहज मिटै जम छोती॥
जाकी कथाके सरवनतें ही, सरवन जागत होई।
ब्रह्मा-बिस्नु-महेस अरु दुर्गा, पार न पावै कोई॥
सुमिर-सुमिर जन होइहैं राना, अति झीना-से-झीना।
अजर, अमर, अच्छय, अबिनासी, महा बीन परबीना॥
अनंत संत जाके आस-पिआसा, अगन मगन चिर जीवैं।
जन 'दरिया' दासनके दासा, महाकृपा-रस पीवैं॥