Saturday 13 June 2015

सतगुरु का अंग

नमो राम परब्रह्मजी,सतगुरु सन्त आधार।
जन दरिया वन्दन करै,पल पल बारम्बार।।
नमो नमो हरी गुरु नमो,नमो नमो सब सन्त।
जन दरिया वन्दन करै,नमो नमो भगवन्त।।
दरिया सतगुरु भेटिया,जा दिन जन्म सनाथ।
श्रवनां सब्द सुनाय के,मस्तक दिना हाथ।।
सतगुरु दाता मुक्ति का,दरिया प्रेम दयाल।
कृपा कर चरनों लिया,मेटा सकल जंजाल।।
अंतर थो बहु जन्म को,सतगुरु भाँग्यो आय।
दरिया पति से रूठनो,अव कर प्रीति बनाय।।
जन दरिया हरि भक्ति की,गुरां बताई बाट।
भुला ऊजड़ जाय था,नरक पड़न के घाट।।
दरिया सतगुरु शब्द सौ,मिट गई खेंचा तान।
भरम अँधेरा मिट गया,परसा पद निरबान।।
दरिया सतगुरु शब्द की,लागी चोट सुठोड।
चंचल सो निस्चल भया,मिट गई मन की दौड़।।
डूबत रहा भव सिंधु में,लोभ मोह की धार।
दरिया गुरु तैरु मिला,कर दिया परले पार।
दरिया गुरु गरुवा मिला,कर्म किया सब रद।
झुटा भर्म छुड़ाय कर,पकड़ाया सत शब्द।।10।।

Tuesday 9 June 2015

विरह साखी श्री दरियाव वाणी


महाराजश्री कह रहे है कि है प्रभु आपके सेवक की क्या हालत
हो रही है । मेरा रात-दिन दुख में जा रहा है परन्तु पिव से मिलन नहीं हो
रहा है जिससे मुझे बिरह अत्यधिक सताने लगा है । आचार्यश्री ने यहाँ
भगवान के लिए 'पिब' शब्द का उच्चारण किया है । भगवान के साथ
आप पिता, पुत्र, सखा इत्यादि कोई भी सम्बन्ध रख सकते हैं परन्तु 'पिव'
शब्द के साथ संपूर्ण समर्पण की भावना जुड़ी हुई है । जिस प्रकार पति
के लिए स्त्री का सारा जीवन अर्थात् तन, मन और धन सब समर्पित हो
जाता है । एक स्त्री अपने पति के लिए जितनी सेवक बनती है, उतना
संसार में कोई भी नहीं बन सकता है । क्योंकि अपने पति के लिये वह
लाज-शर्म सब कुछ त्याग देती है, इसे शरणागति भाव कहते है ।

Thursday 4 June 2015

सत्संग की कुछ सार बातें

सत्संग की कुछ सार बातें 

1 मनुष्य-जीवन के समय को अमूल्य समझकर उत्तम-से-उत्तम काममें  व्यतीत करना

चाहिये। एक क्षण भी व्यर्थ नहीं बिताना चाहिये ।

2 यदि किसी कारणवश कभी कोई क्षण भगवत-चिंतनके बिना बीत जाय तो उसके लिये

पुत्रशोकसे भी बढ़कर घोर पश्चाताप करना चाहिये, जिससे फिर कभी ऐसी भूल न हो ।

3 जिसका समय व्यर्थ होता है, उसने समय का मूल्य समझा ही नहीं ।

4 मनुष्यको कभी निकम्मा नहीं रहना चाहिये ; अपितु सदा-सर्वदा उत्तम-से-उत्तम कार्य

5 मनसे भगवान् का चिंतन, वाणीसे भगवान् के नामका जप, सबको नारायण समझकर

शरीर से जगज्जनार्दनकी नि:स्वार्थ सेवा यही उत्तम-से-उत्तम कर्म है ।

6 बोलने के समय सत्य, प्रिय, मित और हितभरे शास्त्रानुकूल वचन बोलने चाहिये ।

7 अपने दोषों को सुनकर चित्त में प्रसन्नता होनी चाहिये ।

8 यदि कोई हमारा दोष सिद्ध करे तो उसके लिये जहाँ तक हो , सफाई नहीं देनी चाहिये;

क्योंकि सफाई देने से दोषों की जड़ जमती है तथा दोष बतलानेवालेके चित्त में भविष्य

के लिये रूकावट होती है । इससे हम निर्दोष नहीं हो पाते ।

9 यदि हम निर्दोष हैं तो दोष सुनकर हमें मौन हो जाना चाहिये, इससे हमारी कोई हानि

नहीं है और सदोष हैं तो अपना सुधार करना चाहिये ।

10 दोष बताने वाले का गुरुतुल्य आदर करना चाहिये, जिससे भविष्य में उसे                            

दोष बताने में उत्साह हो ।

11 अपने निकट सम्बन्धीका दोष सहसा नहीं कहना चाहिये, कहने से उसको दुःख हो सकता

है; जिससे उसका सुधार सम्भव नहीं ।

12 यदि कहीं किन्हींसे काम लेना हो तो उनको अपने पास न बुलाकर उन्ही के पास जाना

13 सादगी से रहना चाहिये ।

14 स्वावलम्बी बनना चाहिये ।

15 जीवन को अधिक खर्चीला नहीं बनाना चाहिये । ऋषि-मुनियों का जीवन खर्चीला नहीं

था । अधिक खर्चीला जीवन मनुष्य को रुपयों और दूसरे पुरुषों का दास बना देता है,

जिसके कारण अनेक पाप करने पड़ते हैं और दर-दर भटकना पड़ता है ।

16 शरीर निर्वाह के लिये भी अनासक्तभावसे ही पदार्थों का उपयोग करना चाहिये ।

17 भोजन के समय स्वाद की और ध्यान नहीं देना चाहिये;क्योंकि यह पतन का हेतु है ।

स्वास्थ्य की ओर लक्ष्य रखना भी वैराग्य में कमी ही है ।

18 कल्याणकामी पुरुष को तो वैराग्ययुक्त चित्त से केवल शरीर निर्वाहके लिये ही भोजन

                                 सत्संग की कुछ सार बातें

19 व्यवहार के समय भजन –ध्यान में मुख्य वृत्ति और संसारी कामों में गौण  वृत्ति रखनी

20 सोते समय भी भगवान् के नाम, रूपका स्मरण विशेषतासे करना चाहिये, जिससे शयन

का समय व्यर्थ न जाय । शयनके समय को साधन बनाने के लिये सांसारिक संकल्पोंके

प्रवाहको भुलाकर भगवान् के नाम,रूप,गुण,प्रभाव, चरित्रका चिंतन करते हुए ही सोना

21 अपने ऊपर भगवान् की अहैतुकी दया और प्रेम समझ- समझकर हर समय प्रसन्न रहना

22 सब प्राणियों पर हेतुरहित दया और प्रेम करना चाहिये ।

23 एकांत में मन को सदा यही समझाना चाहिये कि परमात्मा के चिंतन के सिवा किसी का

चिंतन न करो; क्योंकि व्यर्थ चिंतन से बहुत हानि है ।

24 भगवान् के सामान अपना कोई हितैषी नहीं है, अत: अपने अधीन सब पदार्थों को और

अपने को राजा बलि की भाँती भगवान् के समर्पण कर देना चाहिये ।

25 भगवत्प्राप्ति के लिये मनुष्य मात्र को पात्र बनना चाहिये । पात्र बनने पर भगवान् स्वयं

ही शीघ्र दर्शन दे सकते हैं ।

26 सुननेवालों की इच्छा के बिना वक्ता को सत्संग के सहस्य की बातें नहीं सुनानी चाहिये ।

27 जहाँ व्याख्यानदाता बहुत हों, वहाँ जहाँतक हो व्याख्यान न दें ।

28 पूजा – प्रतिष्ठा, ऊँचे आसन और ऊँचे पदसे सदा ही दूर रहना चाहिये ।

29 जहाँ तक जो, गुरु बनने की इच्छा कभी न करें ।

30 किसी सम्बन्धी की मृत्यु-सूचना मिलने पर, जहाँ आवश्यकता हो, वहाँ जाना चाहिये;

किन्तु अपने घरमे किसी के मरने पर, जहाँतक हो, दूरस्थ कुटुम्बियोंको आने के लिये

सभ्यतापूर्वक निवारण कर देना चाहिये ।

31 दहेज़ और दान देना चाहिये; जहाँ तक हो, लेने से बचना चाहिये ।

32 जहाँतक हो, पञ्च न बनना चाहिये । बने तो पक्षपात नहीं करना चाहिये ।

33 जहाँतक हो, सगाई – विवाह आदि सम्बन्ध करानेके कामसे दूर रहना चाहिये ।

34 ब्रह्ममुहूर्त में उठाना चाहिये । यदि सोते- सोते ही सूर्योदय हो जाय तो दिनभर उपवास

35 एकान्तके साधन को मूल्यवान बनाने के लिये संध्या, गायत्रीजप, ध्यान, पूजा, पाठ,

स्तुति, प्रार्थना , नमस्कार आदि के अर्थ और भाव को समझते हुए ही निष्कामभावसे

श्रद्धा-भक्तिपूर्वक नित्य करना चाहिये ।

                                 सत्संग की कुछ सार बातें

36 भगवत्प्राप्ति पवित्र और एकान्त देश का सेवन, सत्संग और स्वाध्याय , परमात्माका ध्यान

और उसके नाम का जप, निष्कामभाव, ज्ञान, वैराग्य और उपरति — इनके सामान कोई

37 द्विजातिमात्र को उचित है कि नित्य सूर्योदय और सूर्यास्त से पूर्व ही संध्योपासना और

38 भगवान् के नाम-रूपको याद रखते हुए ही सामाजिक, व्यवहारिक, आर्थिक आदि काम

नि:स्वार्थ भाव से करे ; क्योंकि अपनी सारी चेष्टा नि:स्वार्थभाव से दूसरे के हित के लिये

करने से ही कल्याण होता है ।

39 स्नान और नित्यकर्म किये बिना दातुन और जलके सिवा कुछ भी मुख में न लें ।

40 श्रीभगवान् के भोग लगाकर तथा यथादिकार बलिवैश्वदेव करके ही भोजन करें ।

41 तुलसीदल के सिवा चलते फिरते या खड़े हुए कोई भी चीज कभी न खाय ।

42 भोजन के आदि और अंत में आचमन करे ।

43 एकान्त में दो आदमी बात करते हों तो उनकी सम्मतिके बिना उनके समीप न जाय ।

44 जीव हिंसा को बचाता हुआ चले ।

45 घी, दूध, शहद, तेल, जल आदि तरल पदार्थ छानकर काम में ले ।

46 कर्तव्यका पालन न होने पर तथा अपने से बुरा काम बन जाने पर पश्चाताप करे, जिससे

47 कर्तव्यकर्म को झंझट मान लेने पर वह भार रूप हो जाता है, विशेष लाभदायक नहीं

48 वही कर्म भगवान् को याद रखते हुए प्रसन्नतापूर्वक मुग्ध होकर किया जाय तो बहुत ऊँचे

दर्जे का साधन बन जाता है ।

49 अकर्मण्यता(कर्तव्यसे जी चुराना) महान हानिकारक है। पाप का प्रायश्चित है, किन्तु

इसका नहीं । अकर्मण्यता का त्याग ही इसका प्रायश्चित है ।

50 कर्तव्य पालन रूप परम पुरुषार्थ ही मुक्ति का मुख्य साधन है ।

51 धन का प्राप्त होना यद्यपि अपने वश की बात नहीं है, तथापि मनुष्य को शरीरनिर्वाह के

लिये कर्तव्यबुद्धिसे न्याययुक्त परिश्रम तो अवश्य करना चाहिये ।

52 सुख-दुःख आदि के प्राप्त होने पर उनको भगवान् का मंगल-विधान समझकर हर समय

परम संतुष्ट रहना चाहिये ।

53 उत्तम काम को शीघ्रातिशीघ्र करने की चेष्टा करें, क्योंकि शरीर का कोई भरोसा नहीं हैं ।

54 जिसमे प्राणियों की हिंसा होती हो, ऐसी किसी चीज को व्यवहार में न लावें।

55 रेशम और तूष काम में न लें ।

56 हिंसायुक्त शहद, मृगचर्म और कस्तूरी काम में न लें ।

                                 सत्संग की कुछ सार बातें

57 जहाँ तक हो, मिलकी बनी चीजें खाने के काममें न ले ।

58 ईश्वर की सत्ता पर प्रत्यक्षसे भी बढ़कर विश्वास रखे; क्योंकि ईश्वर पर जितना प्रबल

विश्वास होगा, साधक उतना ही पाप से बचेगा और उसका साधन तीव्र होगा ।

59 सदा-सर्वदा ईश्वर पर निर्भर रहना चाहिये । इससे धीरता, वीरता, गंभीरता, निर्भयता

और आत्मबलकी वृद्धि होती है ।

60 विशुद्ध ईश्वर-प्रेम एक बहुत गोपनीय परम रहस्य की वस्तु है । उससे बढ़कर संसार में

61 ईश्वर ज्ञानके सामान कोई ज्ञान नहीं ।

62 ईश्वर प्रभाव के सामान कोई प्रभाव नहीं ।

63 ईश्वर दर्शन के सामान कोई दर्शन नहीं ।

64 महापुरुषों के आचरण से बढ़कर कोई अनुकरणीय आचरण नहीं ।

65 भगवद्भावसे बढ़कर कोई भाव नहीं ।

66 समता से बढ़कर कोई न्याय नहीं ।

67 सत्य के सामान कोई तप नहीं ।

68 परमात्मा की प्राप्ति के सामन कोई लाभ नहीं ।

69 सत्संग के सामान कोई मित्र नहीं ।

70 कुसंग के सामान कोई शत्रु नहीं ।

71 दया के सामान कोई धर्म नहीं, हिंसा के सामान कोई पाप नहीं, ब्रह्मचर्य के सामान कोई

व्रत नहीं, ध्यान के सामान कोई साधन नहीं, शान्ति के सामान कोई सुख नहीं, ऋणके

सामान कोई दुःख नहीं, ज्ञान के सामान कोई पवित्र नहीं, ईश्वर के सामान कोई इष्ट नहीं,

पापी के सामान कोई दुष्ट नहीं — ये एक-एक अपने –अपने स्थान पर अपने-अपने

विषयमें सबसे बढ़कर प्रधान हैं ।

72 कामी के साख नहीं, लोभी के नाक नहीं, क्रोधी के बाप नहीं, अज्ञानी के थाप नहीं,भक्तके

शाप नहीं, नास्तिक के जाप नहीं, ज्ञानी के माप नहीं, अर्थात इन लोगों पर इन पदार्थों

73 गंगा के सामान कोई तीर्थ नहीं, गौ के सामान कोई सेव्य नहीं , गीता के सामान कोई

शास्त्र नहीं, गायत्री के सामान कोई मंत्र नहीं एवं गोविन्द के सामान कोई देव नहीं ।

74 गंगा-स्नान, गौ की सेवा, अर्थसहित गीताका अभ्यास, गायत्री का जप और गोविन्द का

ध्यान — इनमेंसे किसी एक का भी निष्कामभाव और श्रद्धा- भक्ति पूर्वक सेवन करने से

75 जिसने सत्य,अहिंसा,क्षमा,दया,समता,शान्ति,संतोष,सरलता,तितिक्षा, त्याग आदि शस्त्र

धारण कर रखें हैं , उसका कोई भी शत्रु किंचिन्मात्र भी अनिष्ट नहीं कर सकता ।

                                 सत्संग की कुछ सार बातें

76 आचरणोंके सुधार की जड़ स्वार्थका त्याग है ।

77 झूठसे बचने के लिये जहाँ तक हो, भविष्यके निश्चित वचन नहीं कहने चाहिये ।

78 भगवान् की प्राप्ति के सिवा मन में किसी भी प्रकार की इच्छा नहीं रखनी चाहिये; क्योंकि

कोई भी इच्छा रहेगी तो उसके लिये पुनर्जन्म धारण करना पड़ेगा । इसलिये इच्छा,

वासना, कामना , तृष्णा आदि का त्याग कर देना चाहिये ।

79 बार बार मन से  पूछे कि “ बतला, तेरी क्या इच्छा है ?” और मनसे यह उत्तर मिले कि

“कुछ भी इच्छा नहीं है ।“ इस प्रकार के अभ्यास से इच्छा का नाश होता है । यह निश्चित

80 महात्मा के हृदय में किसी भी प्रकार की इच्छा रहती ही नहीं , हमें भी उसी प्रकार का

81 संसार के किसी भी प्रदार्थ से आसक्ति नहीं करनी चाहिये; क्योंकि आसक्ति होने से

अन्तकाल में उसका संकल्प हो सकता है । संकल्प होनेपर जन्म लेना पड़ता है ।

82 सत्ता और आसक्ति को लेकर जो स्फुरणा होती है, उसी का नाम संकल्प है ।

83 महात्मा पुरुषों का पुनर्जन्म नहीं होता; क्योंकि उनके हृदय में किसी प्रकार का भी

किंचिन्मात्र संकल्प रहता ही नहीं । प्रारब्धके अनुसार केवल स्फुरणा होती है , जो कि

सत्ता और आसक्ति का अभाव होने के कारण जन्म देनेवाली नही है तथा कार्य की की

सिद्धि या असिद्धि में उनके हर्ष-शोकादी कोई भी विकार लेशमात्र भी नहीं होते । यही

संकल्प और स्फुरणा का भेद है ।

84 आसक्ति वाले पुरुषके मनके अनुकूल होने पर राग और हर्ष तथा प्रतिकूल होने पर द्वेष

85 निन्दा-स्तुति सुनकर जरा भी हर्ष-शोक, राग-द्वेष आदि विकार नहीं होने चाहिये ।

86 कल्याणकामी पुरुष को उचित है कि मान और किर्तिको कलंक के सामान समझे ।

87  हर समय संसार और शरीर को कालके मुख में देखे ।

88 मरुभूमि में जल दीखता है, वास्तव में है नहीं । अत: कोई भी समझदार मनुष्य प्यासा

होते हुए भी वहाँ जलके लिये नहीं जाता । इसी प्रकार संसार के विषयों में भी सुख प्रतीत

होता है, वास्तव में है नहीं । ऐसा जाननेवाले विरक्त विवेकी पुरुष की सुख के लिये उसमे

89 जीवन्मुक्त, ज्ञानी महात्माओं की दृष्टि में संसार स्वप्नवत है । इसलिये वे संसार में रहकर

भी संसार के भोगों में लिप्त नहीं होते ।

90 जीते हुए ही जो शरीर को मुर्दे के सामान समझता है, वही मनुष्य जीवन्मुक्त है । अर्थात्

जैसे प्राणरहित होने पर शरीर से कोई सम्बन्ध नहीं रहता, वैसे ही प्राण रहते हुए भी

जिनका शरीर से कोई सम्बन्ध नहीं, वही जीवन्मुक्त महाविदेही है ।

                                 सत्संग की कुछ सार बातें

91 श्रद्धालु मनुष्य के लिये तो महात्मा का प्रभाव माने जितना ही थोडा है; क्योंकि महात्मा

92 महापुरुषों के प्रभाव से भगवान् की प्राप्ति होना — यह तो उनका अलौकिक प्रभाव है

तथा सांसारिक कार्य की सिद्धि होना — लौकिक प्रभाव है ।

93 महापुरुषों की चेष्टा उनके तथा लोगों के प्रारब्धसे होती है एवं लोगों के श्रद्धा-प्रेम तथा

ईश्वराज्ञा  से भी होती हैं ।

94 सर्वस्व जाय तो भी कभी किसी निमित्तसे कहीं किन्चिन्मात्र भी पाप न करे, न करवावे

और न उसमे सहमत ही हो ।

95 पैसे न्याय से ही पैदा करे, अन्याय से कभी नही, चाहे भूखों मरना पड़े ।

96 ईश्वर भक्ति और धर्म को कभी छोड़े ही नहीं,प्राण भले ही चले जायँ ।

97 धैर्य, क्षमा, मनोनिग्रह, अस्तेय, बाहर-भीतर की पवित्रता, इन्द्रियनिग्रह, सात्त्विकबुद्धि,

अध्यात्मविद्या, सत्यभाषण, और क्रोध न करना— ये दस सामान्य धर्मके लक्षण हैं ।

98 विपत्तिमें भगवान् की स्मृति बनी रहे, इसलिये कुंती ने भगवान् से निरंतर विपत्तिके लिये

99 पाण्डवोंने अपनेसे निम्नश्रेणी के राजा विराटकी नौकरी स्वीकार कर ली, पर धर्म का

किंचिन्मात्र भी कभी त्याग नहीं किया ।

100 महाराज युधिष्ठिरने स्वर्गको ठुकरा दिया, पर अपने अनुगत कुत्तेका भी त्याग नहीं

101 स्वार्थ का त्याग सामान व्यवहारसे भी श्रेष्ठ है, इसलिये नि:स्वार्थ भाव से सबकी सेवा

102 स्त्रीके लिये पातिव्रत्यधर्म ही सबसे बढ़कर है । इसलिये भगवान् को याद रखते हुए ही

पतिकी आज्ञा का पालन विशेषता से करना चाहिये तथा पतीके और बड़ों के चरणों में

नमस्कार करना और उनसबकी यथायोग्य सेवा करनी चाहिये ।

103 विधवा स्त्री के लिये तो विषय-भोगों से वैराग्य, ईश्वर की भक्ति, सद्गुण-सदाचारका

पालन और नि:स्वार्थभावसे सबकी सेवा ही सर्वोत्तम धर्म है ।

104 दूसरों को दुःख पहुँचाने के सामान कोई पाप नही है और सुख पहुँचाने के सामान

कोई धर्म नहीं है । इसलिये हर समय दूसरों के हित के लिये प्रयत्न करना चाहिये ।

105 कुटुम्ब, ग्राम, जिला, प्रान्त, देश, द्वीप, पृथ्वी और त्रिलोकीतक उत्तर-उत्तरवाले के

हित के लिये पूर्व-पूर्व वाले के हितका त्याग कर देना चाहिये ।

नोट – १०५ – अर्थात बाद वाले के लिए पहले वाले के हित का त्याग कर देना चाहिये । जैसे पृथ्वी के

हित के लिए द्वीप के हित का त्याग , द्वीप के हित के लिए देश के हित का त्याग , ऐसे ही देश के हित के

लिए राज्य/प्रान्त के हित का त्याग कर देना चाहिये ।

                                 सत्संग की कुछ सार बातें

106 किसी के भी दुर्गुण-दुराचार का दर्शन, श्रवण, मनन, और कथन नहीं करना चाहिये।

यदि उसमे किसी का हित हो तो कर सकते हैं; किन्तु मन धोखा दे सकता है, अत: खूब

सावधानी के साथ विचार पूर्वक करना चाहिये ।

107 किसी का उपकार करके उसपर अहसान न करे, न किसी से कहे और न मनमे

अभिमान ही करे; नहीं तो किया हुआ उपकार क्षीण हो जाता है । ऐसा समझे कि सब

कुछ भगवान् करवाते हैं, मैं तो निमित्तमात्र हूँ ।

108 अनिष्ट करने वाले के साथ बदले में बुराई न करे, उसे क्षमा कर दे; क्योंकि प्रतिहिंसा

का भाव रखने से मनुष्य दोष का भागी होता है ।

109 यदि अनिष्ट करने-वाले को दण्ड देने से उसका उपकार होता हो तो ऐसी अवस्था में

उसे दण्ड देनेमें दोष नहीं है ।

110 अपने पर किये हुए उपकार को आजीवन कभी न भूले एवं अपकार करने वाले का

बहुत भारी प्रत्युपकार करके भी अपने ऊपर उसका अहसान ही समझे ।

111 अपने द्वारा किसी का अनिष्ट हो जाय तो सदा उसका हित ही करता रहे, जिससे कि

अपने किये हुए अपराध को वह मनसे भूल जाय, यही इसका असली प्रायश्चित है ।

112 मन और इन्द्रियोंको इस प्रकार वशमें रखना चाहिये कि जिस से व्यर्थ और पापके

काममें न जाकर जहाँ हम लगाना चाहें उसी भगवत्प्राप्ति के मार्ग पर लगी रहें ।

113 ब्रह्मचर्य के पालन पर हरेक मनुष्य को विशेष ध्यान देना चाहिये ।

114 कामकी उत्पत्ति संकल्प से होती है, सुन्दर जवान स्त्री और बालक आदि के संगसे

ब्रह्मचर्यका नाश होता है ।

115 गृहस्थी मनुष्यको महीने में एक बार से अधिक स्त्री-प्रसंग नहीं करना चाहिये ।

ऋतुकाल पर महीनेमें एक बार स्त्री-प्रसंग करने वाला गृहस्थी ब्रह्मचारी के तुल्य है।

116 जीते हुए मन-इन्द्रिय मित्र के सामान है और न जीते हुए विषयासक्त मन-इन्द्रिय शत्रु

117 शरीर और संसार में जो आसक्ति है , वही सारे अनर्थों का मूल है, उसका सर्वथा त्याग

118 कोई भी सांसारिक भोग खतरे से खाली नहीं, इसलिये उससे दूर रहना चाहिये ।

119 कंचन, कामिनी, मान, बडाई, ईर्ष्या, आलस्य, प्रमाद, ऐश , आराम, भोग, दुर्गुण और

पाप को साधन में महान विघ्न समझकर इनसबका विषके तुल्य सर्वथा त्याग करना

120 ज्ञान, वैराग्य, भक्ति, सद्गुण, सदाचार, सेवा, और संयमको अमृत के सामान

समझकर सदा सर्वदा इनका सेवन करना चाहिये ।

                                 सत्संग की कुछ सार बातें

121 शौचाचारसे सदाचार बहुत ऊँचा है, उस से भी भगवान् की भक्ति और ऊँचे दर्जे की

122 भगवान् जाती-पाँति कुछ नहीं देखते, केवल असली प्रेम ही देखते हैं, अत: मनुष्यको

केवल भगवान् से ही प्रेम करना चाहिये ।

123 ईश्वर, महात्मा, शास्त्र और परलोक में विश्वास करने वाले पुरुष से कभी पाप नहीं

बन सकते । उसमे धीरता, वीरता, गम्भीरता, निर्भयता, समता और शान्ति आदि अनेक

गुण अनायास ही आ जाते हैं, जिससे उसके सारे आचरण स्वाभाविक ही उत्तम-से-उत्तम

124 भगवान् के नाम,रूप, गुण , प्रभाव, तत्त्व, रहस्य और चरित्रों को हर समय याद करते

125 भगवान् के गुण, प्रभाव, चरित्र तत्त्व और रहस्य की बातें सुनने, पढ़ने और मनन

126 एकान्त में भगवान् के आगे करुण भाव से रोते हुए स्तुति प्रार्थना करने से भी श्रद्धा

127 ऊपर बतलाई हुयी बातों पर विश्वास करके उनके अनुसार अनुष्ठान करने से भी श्रद्धा

128 श्रद्धा होने पर श्रद्धेय पुरुष की छोटी-से-छोटी क्रिया में भी बहुत ही विलक्षण भाव

129 माता,पिता,पति,स्वामी,ज्ञानी, महात्मा, और गुरुजनों की श्रद्धा पूर्वक नि:स्वार्थ

सेवासे आत्माका शीघ्र कल्याण हो सकता है ।

130 निष्कामकर्म और भगवान् के नाम-जपसे, धारणा और ध्यानसे एवं सत्संग और

स्वाध्याय से मल-विक्षेप और आवरण का सर्वथा नाश होकर भगवत्प्राप्ति शीघ्र हो सकती

131 शीघ्र कल्याण चाहने वाले मनुष्य को परमात्माकी प्राप्ति के सिवा और किसी भी बात

की इच्छा नहीं रखनी चहिये; क्योंकि इसके सिवा सब इच्छाएँ जन्म-मृत्यु रूप संसार-

सागर में भरमाने वाली हैं ।

132 परमात्मा की प्राप्ति के लिये मनुष्य को अर्थ और भाव के सहित शास्त्रों का अनुशीलन

और एकान्त में बैठकर जप-ध्यान तथा आध्यात्मिकविषय का विचार नियमपूर्वक  नित्य

133 अनिच्छा या परेच्छा से होने वाली घटना को भगवान् का भेजा हुआ पुरस्कार मान

लेने पर काम- क्रोध आदि शत्रु पास नहीं आ सकते, जैसे सूर्य के सम्मुख अन्धकार नहीं आ

                                 सत्संग की कुछ सार बातें

134 जीव, ब्रह्म और माया के तत्त्व को समझनेके लिये एकान्त में बैठकर विवेक और

वैराग्ययुक्त चित्तसे नित्यप्रति परमात्मा का चिंतन करते हुए अध्यात्म-विषय का विचार

135 जिसने ईश्वर की दया और प्रेम के तत्त्व-रहस्य को जान लिया है, उसके शान्ति और

आनन्द की सीमा नहीं रहती ।

136 जो अपने-आप को ईश्वरके अर्पण कर चुका है और ईश्वरपर ही निर्भर है , उसकी

सदा-सर्वदा सब प्रकार से ईश्वर रक्षा करता है, इससे वह सदा के लिये निर्भय-पदको प्राप्त

137 प्रेमपूर्वक जप-सहित भगवान् के ध्यान का अभ्यास, श्रद्धापूर्वक सत्पुरुषोंका संग,

विवेकपूर्वक भावसहित सत- शास्त्रों का स्वाध्याय, दु:खी, अनाथ, पूज्यजन तथा वृद्धों की

नि:स्वार्थभावसे सेवा — इनको यदि कर्तव्यबुद्धिसे किया जाय तो ये एक-एक साधन

शीघ्र कल्याण करने वाले हैं ।

138 भगवान् बहुत बड़े दयालु और प्रेमी हैं । जो साधक उनका तत्त्व समझ जायगा, वह

भगवान् की शरण होकर शीघ्र ही परम शान्ति को प्राप्त हो जायगा ।

139 सर्वत्र भगवद्भावके सामान कोई भाव नहीं है और सर्वत्र भगवद्भाव होने से दुर्गुण

और दुरुचारों का अत्यंत अभाव होकर सद्गुण और सदाचार अपने–आप ही आ जाते हैं ।

140 वस्तुमात्र को भगवान् का स्वरुप और चेष्टामात्र को भगवान् की लीला समझने

समझने से भगवान् का तत्त्व समझ में आ जाता है ।

Wednesday 3 June 2015

मिश्रीत साखी श्री दरियाव जी महाराज की वाणी

पतिव्रता सो अपने पति को ही सर्वोपरि मानती है परन्तु इसका
तात्पर्य यह भी नहीं है कि वह घर के अन्य सदस्यों के साथ गलत व्यवहार
करती है । व्यवहार तो यह सभी के साथ अच्छा करती है, परन्तु जो प्रेम
पति के साथ में होता है, वह किसी अन्य के साथ नहीं हो सकता । इस
प्रकार से पतिव्रता स्त्री पति को छोड़कर अन्य सभी पुरुषों को भाई के
समान देखती है तथा बड़े है तो पितातुत्य समजती है ।महाराज श्री
कहते है की राम के प्रति हमारा प्रेम भी पतिव्रता जैसा ही होना चाहिए ।
जब सांसारिक नियम भी इतना कहा है तो क्या परमात्मा के लिए
यह नियम लागू नहीँ होगा ? परमात्मा के प्रति तो पतिव्रता से भी बढ़कर
निष्ठा होनी चाहिए ।