Friday 17 March 2017

विरह का अंग / दरियाव वाणी

" विरह का अंग "

अथ श्री दरियावजी महाराज की दिव्य वाणीजी का " विरह का अंग " प्रारंभ

दरिया हरि कृपा करी,बिरह दिया पठाय ।
यह बिरहा मेरे साथ को, सोता लिया जगाय  (1)

महाराजश्री कहते हैं कि परमात्मा की मुझ पर असीम कृपा हुई तो मेरे हृदय में विरह भगवान प्रकट हुए । यह जीव अन॔तानंत कल्पों से सोया हुआ था , परन्तु विरह ने प्रकट होकर इसे जगा दिया । राम!
बिरह वियापी देह में, किया निरन्तर वास ।
तालाबेली जीव में, सिसके साँस उसाँस (2)

महाराजश्री कहते हैं कि यह विरह मेरे सारे शरीर में व्याप्त हो गई तथा यह विरह निरंतर मेरे शरीर में वास कर रहा है जिससे मुझे रोम-रोम में पीड़ा का अनुभव हो रहा है । यह विरह का दर्द  असहनीय होता है , परन्तु यह बेदर्दी संसार इस दर्द का अनुमान नहीं लगा सकता । जिन्होंने विरह का  अनुभव किया है तथा जिन्होंने अपने प्यारे के वियोग का अनुभव किया है वे ही लोग जान सकते हैं कि विरह का क्या स्वरूप है तथा विरह कितना पीड़ादायक है ।राम!
कहा हाल तेरे दास का, निस दिन दुख में जाँहि ।
पिव सेती परचो नहीं, बिरह सतावे माँहि (3)

महाराजश्री कह रहे हैं कि हे प्रभु ! आपके सेवक की क्या हालत हो रही है । मेरा रात-दिन दुःख में जा रहा है परन्तु पिव से मिलन नहीं हो रहा है जिससे मुझे बिरह अत्यधिक  सताने लगा है । आचार्यश्री ने यहाँ भगवान के लिए " पिव " शब्द का उच्चारण किया है क्योंकि "पिव" शब्द के साथ संपूर्ण समर्पण की भावना जुड़ी हुई है । राम!
दरिया बिरही साध का, तन पीला मन सूख ।
रैन न आवै नींदड़ी , दिवस न लागै भूख (4)

आचार्यश्री दरियावजी महाराज बिरही व्यक्ति के लक्षण बताते हैं कि उसका शरीर पीला पड़ जाता है , मन सूख जाता है तथा वह काँटे जैसा दुबला पतला हो जाता है । क्योंकि परमात्मा के वियोग में वह रात दिन रोता रहता है परन्तु दुनिया को वह दिखाता नहीं है । उसका रोना अंदर-ही-अंदर लगा रहता है । प्रभु के वियोग में साधक को रात में  नींद नही  आती है तथा दिन में भूख नहीं लगती है, क्योंकि परमात्मा का प्रेम ऐसा ही है । राम!
बिरहन पिउ के कारने , ढूँढन बन खण्ड जाय ।
निस बीती पिउ ना मिला , दरद रहा लिपटाय  (5)

आचार्यश्री कहते हैं कि बिरही साधक अपने प्रेमास्पद की खोज में जंगल में जगह जगह घूमता फिरता है । रात बीत जाती है परन्तु पिव का मिलन नहीं होता है ।जिससे हृदय का दर्द मिटता नहीं है बल्कि बढता जाता है। यह दर्द वही जान सकता है , जिसे यह दर्द लगा है । अतः परमात्मा को प्राप्त करने के लिए तो प्रभु के प्रेम में पागल होना ही पड़ेगा । इस प्रकार आचार्यश्री कहते हैं कि जो भगवत प्रेमी होते हैं, वे रात-दिन रोते रहते हैं । राम!
बिरहन का घर बिरह में, ता घट लोहू न माँस ।
अपने साहिब कारने , सिसके सांसोसांस  (6)

आचार्यश्री कहते हैं कि विरही भक्त का निवास तो विरह के अंदर ही होता है । आगे महाराजश्री कहते हैं कि विरही साधक  के अंदर लोह और माँस नहीं रहता है , उसका सारा शरीर सूख जाता है तथा अपने साहिब के लिए वह रात दिन सांसोसांस ध्यान करता रहता है । क्योंकि परमात्मा से मिलने की बहुत  उत्कंठा है । इसलिए विरहीजन रात दिन कुरजां के समान रोते रहते हैं ।। राम!

अथ श्री दरियावजी महाराज की दिव्य वाणीजी का विरह का अंग संपूर्ण हुआ ।राम राम!

  आदि आचार्य श्री दरियाव जी महाराज एंव सदगुरुदेव आचार्य श्री हरिनारायण जी महाराज की प्रेरणा से श्री दरियाव जी महाराज की दिव्य वाणी को जन जन तक पहुंचाने के लिए वाणी जी को यहाँ डिजिटल उपकरणों पर लिख रहे है। लिखने में कुछ त्रुटि हुई हो क्षमा करे। कुछ सुधार की आवश्यकता हो तो ईमेल करे dariyavji@gmail.com . डिजिटल रामस्नेही टीम को धन्येवाद।
दासानुदास
गोवत्स राधेश्याम रावोरिया
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