Friday 30 December 2022

रेण रामस्नेही आचार्य परम्परा :-

 रेण रामस्नेही आचार्य परम्परा :-
  1. रेण रामस्नेही सम्प्रदाय के आदि प्रर्वतक श्री श्री 1008 आचार्य श्री दरियाव जी महाराज का प्राकट्य - वि.सं. 1733 भाद्रपद कृष्ण जन्माष्टमी तथा महानिर्वाण वि.स. 1815, मार्गशीर्ष पूर्णिमा को। 
  2. आचार्य श्री हरखाराम जी महाराज प्राकट्य वि.सं. 1803, भाद्र पद कृष्ण द्वादशी तथा महा निर्वाण वि.स. 1861, भाद्रपद कृष्ण त्रयोदशी को। 
  3. आचार्य श्री रामकरण जी महाराज (आपने 77 वर्ष तक गादी पर विराजमान होकर संत सेवा की थी ) प्राकट्य वि.सं. 1736, भाद्र पद शुक्ला चतुर्दशी को तथा निर्वाण तीथी ज्ञात नहीं हैं, 
  4. आचार्य श्री भगवद्दास जी महाराज प्राकट्य वि.स. 1917, चैत्र कृष्णा तृतीया तथा महानिर्वाण वि.सo 1859, कार्तिक कृष्ण का एकादशी को । 
  5. आचार्य श्री रामगोपाल जी महाराज - पदासीन वि.स. 1959, कार्तिक सुद्धीपूर्णिमा तथा ब्रह्मलीन वि.सं. 1998, फाल्गुन शुक्ला, प्रतिपदा को । 
  6. आचार्य श्री क्षमारामजी महाराज- प्राकट्य वि.सं. 1940, भाद्रपद कृष्णाष्टमी व गादी आसीन वि. सम्वत् 1998, चैत्र शुक्ला तृतीया तथा ब्रह्मलीन वि.सं. 2029 पौष कृष्णा तृतीया शनिवार को। 
  7. आचार्य श्री बलरामदास जी महाराज ने केवल पांच मिनट गादी स्वीकार की और अपने शिष्य श्री हरिनारायण जी महाराज को गादी प्रदान कर दी। प्राकट्य वि.स. 1994, मिंगसर सुद्धि एकादशी व गादी स्वीकार्यं दिन वि.सं. 2029, पोष शुक्ला चतुर्थी तथा ब्रह्मलीन वि.सं. 2036, पौष कृष्णा अष्टमी को। 
  8. आचार्य हरिनारायण जी महाराज वि.सं. 2004 जन्माष्टमी भादवा में 21 अगस्त, 1947 में व पदासीन वि.सं. 2029 पौषशुक्ला चतुर्थी से 08.06.2021 जेष्ठ कृष्ण त्रयोदशी विक्रम सम्वत 2078।
 
(नोट :- तृतीय आचार्य श्री रामकरण जी महाराज के बाद रेण रामस्नेही गादी कुछवर्षों तक रिक्त रही थी। )


Friday 16 December 2022

जीवन चरित्र:- स्वामी श्री बलरामदासजी महाराज

॥ श्री राम ।। 

जीवन चरित्र:- स्वामी श्री बलरामदासजी महाराज

संसार में समय समय पर लोकोत्तर महापुरुषों का आविर्भाव होता रहता है । कोई जाति, कोई धर्म, कोई देश, कोई काल, ऐसा नहीं है जिसमें ऐसे महापुरुषों का आविर्भाव नहीं हुआ हो। प्राचीन काल से लेकर आज तक के काल में न मालूम कितने वैभवशाली आदर्श महापुरुष अवतीर्ण हो चुके ! न मालूम भविष्य में और कितने होंगे ।

मानव समुदाय का जो कुछ महत्त्व आज है या भविष्य में रहेगा ! वह ऐसे ही महान् पुरुषों के पुरुषार्थं का फल है । ऐसे महापुरुषों की गिनती में परम पूज्य भूतपूर्व आचार्य श्री शास्त्री बलरामदास जी महाराज थे । पूज्य श्री शास्त्री जी महाराज का जन्म विक्रम सं. १६६४ मिगंसर सुदि एकादशी को ग्राम असावरी जिला नागौर पवित्र दाधीच ब्राह्मण कुल में हुआ | आपके माता का नाम जमुनाबाई एवं पिता का नाम श्री जयदेव जी हैं। जब आप बाल्यावस्था में थे, उस समय आपका शरीर शान्त हो गया था, और मृत शरीर को स्मशान में ले जाया जा रहा था। घर वालों की रोने की आवाज सुन-कर रेण सम्प्रदाय के संत श्री गुलाबदास जी महाराज ने जीवन दान देकर के रेण में दीक्षित होने की प्रेरणा दी। इन्हीं महात्मा की दिव्य प्रेरणा से सात वर्ष की अवस्था में आचार्य श्री क्षमारामजी महाराज से वि० सं० २००१ में गुरु दीक्षा प्राप्त की । आप बाल्यकाल से ही विद्या अध्ययन में रूचि रखते थे, विद्या अध्ययन में दक्षता देख के आचार्य श्री क्षमारामजी महाराज ने झोंकर थम्बा के साधु आनन्दरामजी के संकेत से आपको विद्याध्ययन के लिये आकोला भेज दिया । आकोला में राधाकृष्ण तोषनीवाल पाठशाला में संस्कृत लघु- सिद्धान्तकौमुदी आदि ग्रन्थों का अध्ययन तीन वर्ष तक करके श्री सीताराम पारिक संस्कृत विद्यालय, इन्दौर में (म.प्र.) संस्कृत के आदर्श ग्रन्थों का अध्ययन करने के पश्चात् विश्वनाथ की महान् नगरी वाराणसी में स्थित विश्व विख्यात संस्कृत विश्व विद्यालय के अन्तर्गत ढूंढीराज गली में संस्कृत सन्यासी डिग्री कालेज में आपने दर्शन, न्याय, मीमांसा, ज्योतिष आदि ग्रन्थों का अध्ययन करके व्याकरणाचार्य उपाधी प्राप्त की । तदनन्तर आप आचार्य पीठ रामधाम रेण पधार गये । आचार्य श्री क्षमाराम जी महाराज के वर्तमान समय में आप रेण आचार्य पीठ के उत्तराधिकारी बनकर भारत की पथ भ्रष्ट जनता को आपने उपदेश- आदेश, मधुर एवं आकर्षक वाणी द्वारा जाग्रत किया । आपमें स्वभावतः त्याग एवं उदारता की भावना थी, तथा आप भगवत् भक्ति में लीन रहते थे । कभी-कभी वैराग्य के आवेश में आकर रामधाम को छोडकर पुष्कर एवं जोधपुर के पहाड़ों में साधना हेतु पधार जाते थे । परन्तु आचार्य श्री क्षमाराम जी महाराज के वृद्ध अवस्था की स्मृति व सम्प्रदाय का उत्तरदायित्त्व का विचार जकजोर देता था । अतः पुनः रामधाम रेण में पधार जाते थे । आपके जीवन में इस प्रकार की घटनाएँ अनेक बार हुई पश्चात् आपने रामधाम रेण में बिराजकर सन्त साहित्य का पिछडा हुआ क्षेत्र आगे लिया । आचार्य श्री क्षमाराम जी महाराज के परम धाम पधारने के बाद में अत्यन्त वैराग्य के कारण पहले से ही आचार्य पद पर न रहने की प्रतीज्ञा कर ली थी परन्तु साधु समाज एवं ग्रहस्थ समाज के अति आग्रह व आचार्य परम्परा का विधान पालन करने के लिये पाँच मिनिट आचार्य पीठ को स्वीकार करके गादी पर बिराजमान हुये थे । तदनन्तर तुरन्त ही गादी का त्याग कर पूज्य गुरुदेव ने विक्रम संवत् २०२६ पोष शुक्ला चतुर्थी के दिन आचार्य पीठ को मेरे सुपुर्द कर दिया।
पश्चात् आपने परम् श्रद्धेय श्री स्वामीजी रामसुखदास जी महाराज के साथ रहकर व्यापक धर्म प्रचार किया। कुछ महिनों तक आपने गीता प्रेस गोरखपुर संस्था की सेवा की । आपके त्याग, तपस्या, सरलता, आदि देवी सम्पदा के कारण स्वाभाविक ही भूली भटकी जनता आपके शब्दों का अनुकरण कर आध्यात्मिक लाभ उठाती रही। इस प्रकार आपने भारत के कोने कोने में परिभ्रमण कर हजारो जीवों को सत्संग द्वारा भगवत्प्राप्ति का मार्ग प्रदर्शित किया। ऐसे महान् पुरुषों की देश को बड़ी आवश्यकता है, किन्तु विधि के विधान को कौन परिवर्तन कर सकता है। विक्रम संवत् २०३६ पौष कृष्णा प्रथम अष्टमी मंगलवार को वियोग के दुःख का दिन आया और शरणागत सभी जीवों को अनाथ कर- "जातस्य हि ध्रुवो मृत्युः'
का उपदेश करते हुए पूज्य गुरुदेव इहलौकिक लीला समाप्त कर सत्य लोक कैवल्यधाम पधार गये । आपका चरित्र व्यवहारिक वाणी को अगोचर है अतः मेरे तुच्छ वाणी द्वारा आपके चरित्र का वर्णन करना असंभव है ।

श्रीगुरुचरणानुरागी 
हरिनारायण शास्त्री

Wednesday 14 December 2022

श्रीमद्दरियावजी महाराज का संक्षिप्त जीवन चरित्र

श्रीमद्दरियावजी महाराज:-

 प्राकट्य :- श्रीमद्दरियाव जी महाराज का प्राकट्य वि.सं. 1733, भाद्रपद कृष्ण जन्माष्टमी को हुआ था। आपका प्राकट्य ऐसे समय में हुआ था, जब इस भारत देश पर मुगलों का अत्याचार हो रहा था। जबरन हिन्दुओं को मुसलमान बनाया जा रहा था और जो मुसलमान नहीं बनते थे उन पर "जजिया कर लगाया जाता था। हिन्दुओं के धार्मिक स्थान नष्ट-भ्रष्ट किये जाते थे। साधु महात्माओं को कठोर ताड़ना दी जाती थी। ऐसे विकट परिस्थिति में मानस की वह चौपाईयां स्मरण हो आती हैं कि 
 "जब-जब होड़ धरम के हानी। बाढ़हि असुर अधम अभियानी ।। 
 करहि अनिती जाइ नहिं बरनी। सींदहि विप्र धेनु सुर धरनी।।
  तब-तब प्रभु धरहि विविध शरीरा। हरहिं कृपानिधि सज्जन पीरा।।" 
 
ऐसे समय में डूबते हुए के लिए सहारा रूप श्रीमद्दरियाव जी महाराज का प्राकट्य हुआ था कि राजस्थान के पाली जिला के जैतारण तहसील में अनेक कुलीन हिन्दु जातीयाँ रहती थी, उन्हें भी जबरन तुर्क बनाने के पूरे प्रयास किये जाते थे और कई हिन्दुओं को मुसलमान बना दिया गया था। इसी घटनाक्रम के अनुसार धर्मनिष्ठ श्री मनसारम जी खत्री (वैश्य) व उनकी धर्म पत्नी श्रीमती गीगा बाई पर भी यवन होने का दबाव डाला गया था। आप दोनों ही पति-पत्नि बड़े ही धर्म निष्ठ थे, आपके कोई संतान नहीं थी। आपने मुसलमान बनने की अपेक्षा जैतारण का त्याग कर श्री वासुदेव भगवान की शरण में श्री द्वारिका जाना ही सर्वश्रेष्ठ समझा था। द्वारिका पहुँचकर आपने अपना सारा दुःखड़ा भगवान श्री द्वारिकाधीश जी के सामने प्रकट कर दिया था। एक तो घर में सन्तान नहीं थी और दूसरी घर से बाहर तुकों का बेरहमी अत्याचार था। अतः सब तरह से सर्वत्याग करके दोनों ही दम्पति भगवद् भजन में तल्लीन हो गये थे। उन दोनों के मन में सुक्ष्म फुरणा यह थी कि भगवान हमें ऐसी संतान दे कि वह हिन्दु धर्म व संस्कृति की रक्षा कर सके। ये दोनों ही पति-पत्नि कुछ महिनों तक भगवान से प्रार्थना करते थे और ध्यान भजन भी करते थे किन्तु जब उन्हें लगा कि भगवान के दरबार में उनकी प्रार्थना नहीं सुनी जा रही हैं, तब पूरी तरह से निराश होकर जल समाधि लने के लिए तत्पर हो गए थे। वे ज्यूँ ही जल समाधि लेने के लिए दरिया (सागर) के पास गये तो, उन्हें आकाशवाणी सुनाई पड़ी कि " शान्ति शान्ति शान्ति" । चकित दम्पति ने चारों ओर निहारा, उन्हें समुद्र की लहरों पर कमल पुष्प के ऊपर आकाश विद्युत सी आभायुक्त एक बालमूर्ति दुष्टिगोचर हुई। पति-पत्नि विस्मित व विह्वल होकर उस बाल स्वरूप की ओर दौड़ पड़े तथा उसे उठाकर अपने हृदय से लगा लिया था। बाल वात्सल्य के प्रेम में माता गीगा बाई जी तो अपनी सुध बुध ही खो बैठी। उनके ममत्व भरे स्तनों से दुग्ध की धारा प्रवाहित हो चली थी। देश की तत्कालीन दशा को पति-पत्नि थोड़ी देर के लिए भूल ही गए थे, किन्तु थोड़ी ही देर बाद ज्यूँ ही वे भौतिक चेतना में लौटे, तो उनके सामने देश में व्याप्त तत्कालीन अत्याचार पूर्ण परिस्थितियों ने उन्हें घर लिया था। वे सोचने लगे कि ईश्वर की कृपा से हमें बालक तो प्राप्त हो गया है किन्तु इसे कहाँ और कैसे सुरक्षित रखा जाय ? इसको पालने पोचने के लिए मारवाड़ तो जाना ही होगा, किन्तु वहाँ तो अत्याचार हो रहे है। ये पुनः अपनी विवशताओं के घेरे में लौट आए थे उन्होंने तय कर लिया कि ऐसी परिस्थितियों में जल समाधि ही लेना ठीक है वे कुछ समय के लिए बालक के स्नेहभाव से विरोहित होकर जल में समाधि के लिए प्रवेश कर ही रहे थे कि उसी समय पुनः आकाशवाणी हुई कि "आप बालक को लेकर स्वदेश लौट जाओ। ये ईश्वरीय प्रसाद आपके लिए मंगलदायी होगा संसार में इस बालक के द्वारा आपकी कीर्ति फैलेगी। इस बालक के द्वारा विश्वकल्याणकारी कार्य होंगे।"इस आकाशवाणी को सुनकर श्रीमनसारामजी खत्री व श्री गीगाबाईजी बालक को अपने साथ लेकर मारवाड़ जैतारण को आ गये थे। बालक का नाम दरियाव रखा था क्योंकि दरिया (सागर) से प्राप्त हुए थे इसीलिए सभी लोग बालक को दरियाव के नाम से पुकारने लगे। श्री दरियाव जी द्वितीया के चाँद की तरह बड़े होने लगे तो एक दिन माता गीगाबाईजी दरियाव जी को पालने में सुलाकर जल भरने के लिए तालाब पर गई थी। उनके जाने के कुछ देर बाद बालक के मुँह पर कुछ धूप आ गई। थोड़ी ही देर में बालक के शरीर पर धूप छा गई थी। अतः बालक की काया व मुँह को धूप की चिलाहट से बचाने के लिए ईश्वरीय प्रेरणावश एक नाग देवता कहीं से उत्तर आए और अपना फन फैलाकर बालक के ऊपर छायां करने लगे। जब माता गीगा बाई जी जल भरकर वापस आई तो बालक के ऊपर छायां किए नाग को देखकर हतप्रभ हो गई थी। थोड़ी ही देर में वह नाग चला गया। माता ने बालक दरियाव जी को गोदी में लिया और स्वस्थ देखकर प्रसन्न हुई। फिर बालक को लेकर माता पण्डित जी के पास बालक का भविष्य जानने के लिए गई। ज्योतिषी पण्डित ने अपने ज्योतिष ज्ञान के आधार पर बालक को अद्भुत महापुरूष बताया और भविष्यवाणी करते हुए कहा कि यह बालक आगे चलकर महापुरूष बनेगा। बहुत से दुःखी लोगों के कष्ट निवारण करेगा। दुनिया इन्हें पूजेगी।" ज्योतिष जी की भविष्यवाणी सिद्ध कि कुछ ही दिनों बाद बालक दरियाव जी महाराज अपनी बाल्य लीलाओं से सबको आनन्द विभोर करने लगे। आपका आकर्षण भगवान बालक कृष्ण की ही तरह था। आपके पिता रूई पीनने का काम करते थे। इसीलिए लोग इन्हें पीनाराजी भी कहते थे। जब से आपका पर्दापण घर में हुआ था, तब ही से आपके ऊपर आने वाली बाधाएँ दूर से ही टल जाती थी। यहाँ तक कि क्रूर हृदय वाले तुर्क भी आपके घर को देखकर ही बदल जाते थे और आप पर मेहरबान बन जाते थे। किन्तु आपके पोषक पिता श्री मनसाराम जी आपकी बाल लिलाओं का आनन्द मात्र सात साल ही ले सके अर्थात वि.सं. 1740 में उनका स्वर्गवास हो चुका था। तब माता गीगा बाई जी ने आपका पालन पोषण किया था।

श्रीदरियाव जी महाराज का रेण आगमन :- पति देव के परलोक गमन के बाद माता गीगा बाई जी ने सोचा कि अपने पीहर रेण में पिता श्री किशनजी के यहाँ जाना अच्छा रहेगा अतः वे अपने प्यारे पुत्र श्री दरियाव को लेकर रेण को आ गई थी। यह रेण ग्राम मेड़ता सीटि से पन्द्रह किलोमीटर दूर नागौर रोड़ पर उतर दिशा में हैं। रेण में अपने पिताजी के यहाँ माता श्री गीगाबाई जी अपना पुस्तैनी कार्य करती और रेण में ही रहने लगी थी। श्री किशन जी खत्री को भी मुसलमानों ने बलपूर्वक यवन बनाकर उनका नाम "कमीश यानि कमसेत जी" रख दिया था। किशनजी के कुछ अन्य परिजन भी मुसलमान बना दिये गये थे। श्री गीगा बाई जी के पीहर के लोग बालक दरियाव जी के प्राकट्य का वृतान्त सुनकर अति प्रसन्न हुए थे। कुछ ही समय बाद श्री दरियाव जी महाराज की अलौकिक शक्तिया रेण वासियों को दृष्टि गोचर होने लगी थी। सतगुरू कबीर साहेब व गुरुनानक जी की तरह इनके अलौकिक चमत्कारों से जनता प्रभावित होने लगी थी। एक बार आप बालकों के साथ खेल रहे थे, उसी समय काशी के दो पण्डित रेण से होकर गुजर रहे थे। ये पं. जोधपुर नरेश से मिलने के लिए जा रहे थे। उनकी दृष्टि अन्य बालकों के मध्य खेलते हुए बालक दरियाव जी पर पड़ी थी। वे बालक के आकर्षणी आभा मण्डल व ओजस्वी चेहरे को देखकर बहुत प्रभावित हुए थे। जैसे भगवान महादेव जी श्री रामजी के बाल रूप को देखकर चकित हुए थे, वे ही स्थिति इन पण्डितों की हो गयी थी। पण्डित जी माता गीगा बाईजी के पास गये और बालक को शिक्षित करने के लिए अपने साथ काशी ले जाने का प्रस्ताव रखा, तब माताजी ने बहुत सोच विचार कर अपने पिताजी की आज्ञा लेकर किशोर दरियावजी को उन पण्डितों के साथ काशीजी में शिक्षा पाने के लिए भेज दिया था। पण्डितों ने काशी जी में श्री दरियाव जी महाराज को शास्त्र अध्ययन कराना शुरू कर दिया था। कुशाग्र बुद्धि के धनी श्री दरियावजी ने थोड़े ही समय में पण्डितों द्वारा दी गई शिक्षा को अर्जित कर लिया था। आपने काशी निवास के दौरान - व्याकरण, वेद, श्रीमद्धभगवद गीता, श्रीमद् भागवत, उपनिषद तथा दर्शन शास्त्र व योग शास्त्र के सभी ग्रन्थों का अध्ययन कर लिया था। श्री दरियाव जी जैसे सुपात्र को शिक्षा देकर पण्डितों को बड़ा आनन्द आया और अपना जीवन सफल माना था।

सद्गुरु की प्राप्ति: काशीजी से विद्या प्राप्त कर आप सकुशल रेण पधार गये थे। एक दिन आप नित्य नियम के अनुसार श्रीमद भागवत जी का पाठ कर रहे थे कि - 
"रहुगणैः तत्तपसाः " आदि। इसी प्रसंग को पढ़ते समय आपकी दृष्टि गुरू महिमा पर अटक गई थी। श्री दरियाव जी महाराज को भीतर से प्रेरणा होने लगी कि -" अब मुझे सतगुरू धारण करना चाहिये।" इसी विचार में आप कुछ दिन तक खोये रहें। फिर आपने गुरू की खोज की, तब खटदर्शनीयों में कोई ऐसा महात्मा नहीं मिला जो आपको गुरू रूप में प्राप्त हो। आपने कई सन्यासी महात्माओं का भी दर्शनादि किये, परन्तु आत्मा ने गुरू धारण करने की स्वीकृति नहीं दी। किसी भी साधक का भाग्य, पुण्य, सुकृत आदि समर्थ सद्गुरू की ओर ही ले जाने की प्रेरणा करते है और यह सच भी है। कि- भाग्य के बिना समर्थ सद्गुरू नहीं मिलते है। कुछ दिन तक श्री दरियावजी महाराज की गुरू प्राप्ति करने की आकांक्षा बनी रही और आप कभी उदास हो जाते तो कभी विरह करने लगते । एक दिन स्वयं भगवान ने आपको प्रेरणा दी कि हे दरियाव! चिन्ता मत करो। अवश्य ही एक दिन प्रेम पुरूष जी आकर तुमको साधना का मार्ग प्रशस्त करेंगे।" उधर ब्रह्मज्ञानी महापुरूष श्री संतदास जी महाराज के शिष्य भजनानन्दी श्री प्रेमदास जी महाराज को भगवद प्रेरणा से यह संकल्प हुआ कि -' रेण नगर में जाकर महाभाग्यशाली साधकों को भजन करने का मार्ग प्रसस्त करों अतः भगवान का संकल्प सुनकर श्री प्रेमदास जी महाराज वि.सं. 1769 में भिक्षाटन करते हुए श्री दरियाव जी महाराज के निवास स्थान रेण में पधारे थें उन्होंने द्वार पर आकर बड़े ऊँचे स्वर से घोष किया कि -'रामराम'' रामनाम की रहस्यमयी ध्वनि श्री दरियाव जी महाराज के श्रवण से होती हुई हृदय तक प्रविष्ट कर गई। शीघ्र ही श्री दरियाव जी महाराज घर से बाहर निकल कर घरम तेजस्वी श्री प्रेमदास जी महाराज के श्री चरणों में गिर गए। श्री प्रेमदास जी महाराज ने उन्हें अपने हाथों से उठाया और धैर्य बन्धाया, तब दरियावजी महाराज ने आपका नाम सुनकर गुरू दीक्षा प्राप्त करने की प्रार्थना की थी। परम कृपालु संत श्री प्रेमदास जी महाराज ने दरियाव जी महाराज की जिज्ञासा को देखकर उन्हें गुरू मंत्र प्रदान किया और शीश पर हाथ रखकर भक्ति का आशीर्वाद दिया था। श्री दरियाव जी महाराज ने वि.स. 1769 कार्तिक शुक्ला एकादशी को गुरू दीक्षा प्राप्त की थी। गुरू दीक्षा प्राप्त करते ही श्री दरियाव जी महाराज के हृदय में राम-भक्ति का प्रवाह चलने लगा था, सुषुप्त शक्तियाँ जागृत हो गई थी। उसी दिन से श्री दरियाव जी महाराज ने अपना जीवन सनाथ (सफल ) माना था। यथा:-

" दरिया सतगुरु भेटिया, जां दिन जन्म सनाथ।
 श्रवणा शब्द सुनाय के, मस्तक दीना हाथ ।।" 
  सतगुरू प्रेमदास जी महाराज द्वारा गुरू दीक्षा प्राप्त कर श्री दरियाव जी महाराज ने राम नाम की तीव्र साधना करना आरम्भ कर दिया था। आपने वैखरी वाणी द्वारा जप करके प्रथम कोष व प्रथम केन्द्र मूल को शुद्ध कर लिया था, जब मूलबन्द शुद्ध होता है तो पशुबुद्धि निवृत होकर मानवता के गुण प्रगट होने लगते हैं कुछ समय बाद आपने मध्यमा में जप करके द्वितीय केन्द्र स्वाधिष्ठान को शुद्ध कर लिया था, जब स्वाधिष्ठान केन्द्र शुद्ध होता है तो बुद्धि कुशाग्र होकर प्रज्ञा में बदलने लगती हैं। थोड़े ही समय बाद आपने पश्यन्ति से जप करना शुरू कर दिया था, इस स्थिति में जाप होने से रिद्धि सिद्धियों का प्राकट्य होता है तथा तीन केन्द्र एक साथ विकसित होते है - मणिपुर केन्द्र, हृदय चक्र तथा विशुद्धाक्य चक्र । श्री दरियावजी महाराज ने तीव्र साधना करते हुए शब्द को परा में स्थिति किया था, इस स्थिति में अनाहत चक्र व आज्ञा चक्र खुल जाते है जिससे साधक की दिव्य दृष्टि खुलने लगती हैं। फिर दरियावजी महाराज ने सहस्रारचक्र को पार करते हुए परम सत्ता का साक्षात्कार कर लिया था । यथा :- 
  'जन दरिया जाय गगन में, परसा देव अनाद । 
  असुध बिसरी सुध भई, मिटिया वाद विवाद ।।
   श्रीमद् दरियावजी महाराज ने उक्त साधना का वर्णन अपनी अनुभव वाणी जी के "नाद परचा अंग" में किया हैं। आपके लिए यह साधना खेल मात्र रही, किन्तु आपने इस साधना का अनुसरण करके कलिकाल के असंख्य जीवों के कल्याण के लिए मार्ग बना दिया, जिससे आसानी से साधक इस पर चलकर अपने लक्ष्य परमात्मा की प्राप्ति कर सकता है।

श्रीमद दरियावजी महाराज ने परम तत्व का साक्षात्कार करने के बाद एक दिन सद्गुरू प्रेमदासजी महाराज को दण्डवत प्रणाम किया था। यथा:-


दरिया: सतगुरू दीन दयाल के, चरण निवायो शीश। 
प्रेम दास प्रसन्न भए, सुण रामस्नेही ईश ।।

तब गुरूजी ने आशीर्वाद देते हुए कहा :-

भेख तुम्हारा चालसी, सुन रामस्नेही बात।
 रामस्नेही धर्म के होगें तुम सिरताज ॥ 
 अनन्त जीवों को तारसी, यह मेरा आशीर्वाद ।
 राम स्नेही धर्म से, सुधरे सब काज ।।
 दरिया- राम स्नेही मुझको किया, प्रेम पुरूष महाराज।
  दरिया रग रग में धुन्न राम की, अखै सुन्नमें राज ।।

इस प्रकार सद्गुरू प्रेमदास जी महाराज ने श्री दरियाव जी महाराज को रामस्नेही सम्प्रदाय चलाने का आशीर्वाद दिया था। उसके बाद भी दरियाव जी महाराज निरन्तर राम भजन में लगे रहे। थे। उन्होंने रेण नगर के आस-पास कई जगह जहाँ एकान्त मिलता था वहीं साधना-तपस्या की थी जैसे :- रेणग्राम में स्थित रामसभागार, लाखोलाव सागर का तट जहाँ अभी राम धाम बना हुआ हैं, लाखासागर का बरगू, खेजड़ा जी (रेण से मेड़ता की तरफ कुछ मील दूर) आदि ।

श्रीमद् दरियावजी महाराज का गुरू जी के प्रति विशेष आदर भाव था। जब आपके गुरूजी ने विवाह कर लिया था, तब भी गुरू जी में दिव्य लीला का ही दर्शन किया था। इसीलिए गुरूजी का विशेष आशीर्वाद आप पर था। आप गुरू जी के श्री चरणों में हमेशा इस पद के द्वारा प्रार्थना करते ही रहते थे। जैसे :- 

पद :- 
मैं अरज करूँ गुरां थाने, चरणां में राखज्यों म्हानें ।।
हेलो प्रकट कहूँ चाहे छानें, म्हारी लाज शर्म सब थानें । । टेर ।। 
माता-पिता सुत भ्राता, सब स्वार्थ का है नाता। 
तारण तिरण गुरू दाता, चारों वेद गुण गाता ।।1।। 
भवसागर भरियों भारो, मोय सूजत नहीं किनारो।
 मैं डूब रहयो मंझधारों, गुरू घट में दया विचारो ।।2।।
 गुरू जग में लिया अवतारों, जीवां ने पार उतारो। 
मोय आयो भरोसो भारो, नहीं छोडूं शरणो तुम्हारो ॥3॥
तन मन धन सब थांरो, चाहे शीश काट लो म्हारो। 
जनदरिया दास पुकारो, चरणांरो चाकर थारो ।।4 ।। 

महाराज जी का आदेश पाकर आपने राम भक्ति का प्रचार-प्रसार करना शुरू कर दिया था। आपकी  सत्संग में धीरे-धीरे हजारों भक्त जन आने लगे थे। आपके दर्शन, सत्संग व आशीर्वाद से अनेकों भक्तों की मनोकामनाएँ पूर्ण होती थी। आपके जीवन में कई दिव्य घटनाएँ घटि थी, उन में से कुछ इस प्रकार है :-

पूर्णदास जी महाराज की देवी के कोप से रक्षा करना : श्री पूरणदासजी महाराज रेण के ही रहने वाले थे। ये दो भाई थे, दोनों ही देवी की पूजा करते थे। जब श्री दरियाव जी महाराज की महिमा सुनी तो, उनसे ज्ञान प्राप्त करने के लिए आए। तब श्री दरियावजी महाराज ने उनके हृदय की बात को जानकर कहा कि -" पूर्ण! तुम तो आन उपासना करता है।। आन उपासना करने वाले को नरक में जाना पड़ता है। देवी-देवता ये सब रामजी की माया है और माया की पूजा करने से मुक्ति नहीं होती है। हे पूर्ण ! मानव तन बड़ा ही दुर्लभ से प्राप्त होता है, इसे रामभजन के बिना व्यर्थ की आन उपासना में नहीं गमाना चाहिए।" इस प्रकार श्रीमद् दरियावजी महाराज की सतसंग सुनकर पूर्णदासजी अपने घर आये और भोजनादि करके सो गये। इस दिन उन्होनें देवी की धूप पूजा आरती आदी नहीं की। रात्री के समय देवी ने पूर्णदास जी पर बड़ा भारी प्रकोप किया और प्रगट होकर पूर्णदास जी को धमकाने लगी, डराने लगी। उसी समय सद्गुरू की महिमा जानकर श्री पूर्णदास जी महाराज ने श्री दरियाव जी महाराज को रक्षार्थ याद किया। उसी क्षण श्री दरियावजी महाराज प्रगट हुए और देवी महाराज का दर्शन करके प्रसन्न होकर चली गई। इधर श्री दरियावजी महाराज भी पुनः अपने धाम को आ गये। सुबह होते ही श्री पूर्णदास जी महाराज श्रीमद् दरियावजी महाराज की शरण में आ गये और आप बीती सुनाई। पूर्णदास जी की पूर्ण शरणागति का भाव देखकर महाराज ने उन्हें उसी प्रकार ध्यान योग का मार्ग बताया जैसे सद्गुरू कबीर साहेब ने धनी धर्मदास जी महाराज को बताया था। श्री पूर्णदास जी महाराज श्रीमद दरियाव जी महाराज के बहत्तर शिष्यों में से प्रथम शिष्य थे और उन्होंने राम भजन करके पूर्ण पद प्राप्त किया था। यथा

"प्रथम मिले दरियाव सु, पूरणदास जन जांण। 
राम मंत्र दरिया दियो, मिट गई खेचा ताण ।। 
पूरणदास परचे भये, सिर पे दरियादास।
कलह भरमना मिट गई, हिरदे नांव प्रकाश ॥ 
पूरणदास समरथ भये, सतगुरू के प्रताप।
रायण नगर के मायने, जप्या अजपा जाय।।

श्री पूर्णदासजी महाराज की महिमा करते हुए संत श्री रामदासजी महाराज कहते है कि-

पूरणदास प्रेमरस पीया सद्गुरु संग मिल जुग जुग जीया
अर्थात- पूर्णदास जी महाराज ने सद्गुरू की शरणागति लेकर राम भजन करके परमात्मा की प्राप्ति कर ली थी। श्री पूर्णदास जी महाराज ने मध्य प्रदेश के झॉकर नगर में शरीर का त्याग किया था। वहाँ आज भी उनकी समाधि हैं।

षडयंत्रकारियों के प्रयास विफल:- श्रीमद् दरियाव जी महाराज के दिव्य तेज व प्रभाव को देखकर बहुत से हिन्दू अपने धर्म में दृढ़ रहने लगे और यहाँ तक कि हिन्दुओं में से बने मुसलमान वे फिर से हिन्दु धर्म अपनाने लगे थे। श्री दरियाव जी महाराज के मामा के पुत्र भी मुसलमानों के पंजे से निकलकर राम भजन में लग गये थे फतहराज, कुशालीराम व हंसाराम ये मामा के पुत्र थे, इनमें फतहराज बाद में बेमुख हो गये थे। श्री मद् दरियाव जी महाराज का इतना प्रभाव बढ़ा कि मारवाड़ से राजा लोग भी आपकी शरणागति में आने लगे थे जैसे मारवाड़ के राजा बखतसिंह जी, जोधपुर के राजा विजय सिंह जी व जयपुर नरेश आदि। एक बार आप जयपुर नरेश के निमन्त्रण पर शिष्यों सहित जयपुर को जा रहे थे, तो रास्ते में भादुगाँव में कुए के जल को गंगाजल के समान मीठा किया था। ऐसे ही आपकी महिमा सुनकर रेण के पास जावली गाँव का केसोरामजी जाट पुत्र की कामना लेकर आपने पास आया था, उसे पुत्र प्राप्ति का आशीर्वाद दिया था। समयानुसार केसोरामजी जाट को पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई थी।

इस प्रकार दिनों दिन बढ़ते प्रभाव को देखकर दिल्ली के बादशाह ने अपने दीवान मदली खान पठान को आपकी हत्या करने के लिए भेजा था। वह हत्या करने में विफल हुआ और ज्यों ही आपकी दृष्टि उन पर पड़ी तो वह आपके श्री चरणों में गिर गया तथा तलवार रख कर आपका शिष्य बन गया था। इसी तरह अजमेर मेड़ता के काजियों व मौलवियों द्वारा भेजे गए अत्याचारी व कुचक्री यवनों ने श्री दरियावजी महाराज के विरूद्ध षडयंत्र रचे थे। उन्होंने विष युक्त मिष्ठान जब महाराज श्री के सामने लाकर रखे थे, तभी आकाशवाणी द्वारा देवताओं ने उस मिष्ठान्न में मिले हुए विष को घोषित कर दिया था। ऐसे अनेक कुचक्र व अत्याचार महाराज श्री पर किए गए किन्तु सभी षडयंत्र नाकाम रहे थे। 

सांजु गांव के जाट का भाग्य उदय होनाः- श्रीमद् दरियावजी महाराज के शिष्य सांजुगाँव के श्री
मनसाराम जी मौदानी जी ने आपकी पधरावणी अपने यहाँ करवाई थी। किन्तु अतिभाव-प्रेम में वे तीनों ही भाई आपको प्रसाद कराना भूल गये थे। जब दरियाव जी महाराज वापिस रेण के लिए आ रहे थे तो रास्ते में एक जाट ने ताजा बाजरे का फूँक महाराज श्री व शिष्यों को जीमाया था। दरियाव जी महाराज ने फूँक का प्रसाद पाया और अति प्रसन्न हुए थे। पीछे मोदाणी परिवार को पता चला कि "हम लोगों ने महाराज श्री को प्रसाद भी नहीं जीमाया हैं। अतः प्रसाद लेकर वे रेण को आये थे तब श्री दरियाव श्री महाराज ने कहा -"प्रसाद पाने का पुण्य तो उस जाट को मिल गया है अतः आपको उस पुण्य का भागीदार बनना है तो रूपया पैसा लेकर जाओं और उस जाट को देकर के आओं।" मोदाणी परिवार के सदस्य पैसा लेकर जाट के पास गये और कहा कि महाराज श्री ने आपके द्वारा जो बाजरे के फूँक का प्रसाद पाया था, उस पुण्य के भागीदार आप हमें भी बनाओं और ये रूपये ले लो किन्तु वह जाट बहुत समझदार था। उसने कहा कि ये घाटे का सौदा मैं नहीं कर सकता हूँ मुझे आपका एक भी पैसा नही लेना हैं। उस जाट ने मोदाणी परिवार का एक भी पैसा नहीं लिया था, इसके फलस्वरूप वह जाट अगले जनम में उच्च कुल में जनम लेकर आचार्य श्री हरकाराम जी महाराज का शिष्य बनकर रेण रामस्नेही सम्प्रदाय के तीसरे आचार्य श्री रामकरण जी महाराज के नाम से प्रसिद्ध हुए थे। श्रीरामकरण जी महाराज का जन्म वि.स. 1836, भाद्र पद शुक्ला चतुर्दशी को श्री हरकारामजी महाराज के बड़े भ्राता श्री लिखमीचन्द जी सेठ (जैन श्रावक ) के यहाँ हुआ था। आपकी माताजी का नाम सारा बाई जी था। आपने सतोत्तर ( 77 ) वर्ष तक रेण की गादी संभाली थी। यथा:-

जन दरिया महाराज, आप सांजु में आया। 
निमस्कार कर जोड़, जाट जब शीश निवाया ।।1।।
भाव प्रेम रस रीत, प्रीत कर फूँक जीमाया। 
जन दरिया महाराज, आप तंदुल ज्यूँ पाया ।।2।। 
प्रसन्न भया महाराज, सभा में गिरा उचारी। 
नफो लीयो है जाट, बन्दगी कीनी भारी ।।3।। 
मोदाण्यां सुण बात, कह्यों अब कैसे कीजे। 
मन माग्यां सो दाम, चाल फेर उनको दीजे ।।4।। 
रूपया दाम सो लेर गया, जब तीनुं भाई। 
कही जाट को बात, दाय उनके नहीं आई ।।5।। 
म्हारे तो परताप, दास दरिया सा को भारी। 
मनसा भोजन मिले, राबड्यां दूध त्यारी ।।6।। 
फूंका का प्रसाद ते, भई बात इदकार। 
बडयो भाग उस जाट को, बड़ जितनों विसतार ।।7 ।। 
बडयो भाग बिस्तार, जनम उच्च कुलां में पायो। 
राम भजन के प्रताप सूं, जाट अमरापुर सिधायो।।8।। 

दिल्ली के मधुचन्द सेठ को जल में डूबने से बचाना :- श्री दरियाव जी महाराज का शिष्य श्री मधुचन्द जी जैन दिल्ली में रहते थे। वह एक दिन जमुना जी में नहाने के लिए गए थे। नहाते-नहाते वह गहरे जल में चले गये थे। तैरना उनको आता नहीं था अतः डूबने लगे थे। डूबते-डूबते उन्होंनें अपने गुरूदेव श्री दरियाव जी महाराज को आर्त भाव से पुकारा :- "करूणां करि पुकार, दास दरिया उबारो । मो अबला की लाज राखज्यों बिड़द तुम्हारो ।। उनकी आर्तभाव की पुकार सुनकर श्री दरियाव जी महाराज रेण राम सभा में से अन्तर्ध्यान हुए और दिल्ली में यमुना नदी में प्रकट होकर श्री मधुचन्द सेठ को बाहर करके पुनः राम सभा में प्रकट हो गये थे। उस समय श्री दरियाव जी महाराज के हाथ की बाहे पानी से भीगी हुई थी, तब शिष्यों ने पूछा कि - गुरूदेव आपकी यह इस
हाथ की बांह भीगी हुई क्यूँ हैं ? श्री दरियाव जी महाराज ने अपने शिष्यों से कहा- मधुचन्द सेठ को डुबते हुए को बचाने के लिए दिल्ली के पास यमुना नदी में गया था। यथा कलु काल परचो भयो, जाणे जग संसार जन दरिया परताप से, तिरियो साहुकार ।। सब शिष्य गुरूदेव की इस लीला को सुनकर अति प्रसन्न हुए और विश्वास पूर्वक राम भजन में लग गये थे।

इसी प्रकार श्रीमद् दरियाव जी महाराज के जीवन में बहुत सी दिव्य घटनाएँ घटी हैं। जैसे- शिष्य चतुर्दास जी के कटे हुए हाथ पुनः ठीक हो जाना, मेड़ता सीटि से रेण जाते समय श्री दरियाव जी महाराज के आगे भैरव द्वारा प्रकाश करना (सेवा रूप में ) फतेहचन्द ब्राह्मण के भोजन से दूध की धारा बहाना व राजसी भोजन से रक्त की धारा का बहना (यह घटना मेड़ता सिटी में घटि थी), शिष्य उदयराम जी की डाकुओं से रक्षा करने के लिए नोखा (मण्डी) के पास प्रकट होना तथा अकासर में शिष्या किस्तुरां बाई जी को दर्शन देना आदि। 

महानिर्वाण :- आचार्य श्री दरियाव जी महाराज ने अपने शिष्यों को राम भजन का आदेश दिया और स्वयं चौथे पद में स्थिति रहने लगे थे। उस समय में आपकी स्थिति परम हंसों जैसी दिखाई देती थी। शिष्यों ने समझ लिया कि - अब महाराज श्री अधिक समय तक इस धरा पर नहीं रहेगें। तदनुसार वि.सं. मार्गशीर्ष की पूर्णिमा की सवा पहर रात्रि बीतने पर महाराज श्री ध्यान मुद्रा में स्थित हो गए। उस समय आकाश मण्डल में भगवान श्री हरि ने अपना गरूड़ ध्वज युक्त विमान भेजा था। आप उस विमान में आरूढ़ हो गये थे। शिष्यों की विरह दशा, करूण क्रंदन्न को देखकर आपने उसी विमान में से राम भजन का आदेश फरमाया था और इस पावन वसून्धरा पर बयांसी वर्ष तीन मास व इक्कीस दिन रहें थे। आपके परम धाम जाते ही पृथ्वी पर सन्नाटा छा गया था।भक्तलोग लम्बे समय तक विरह में गलतान रहे थे।


Wednesday 7 December 2022

कुण जाणे दर्द हमारा, म्हारा बिछड़ीया राम प्यारा

कुण जाणे दर्द हमारा, म्हारा बिछड़ीया राम प्यारा ।। टेर ।।
 नाम उणा को दरिया, वे सुख सागर से भरिया। हम शरणे बांकी रहेता, माने राम भजन की कहता ।। 1 ।। 
हम दर्शन करने जाता, माने भर भर अमृत पाता। अब पूठ हमारी खाली, म्हारे शब्द कटारी साली ।। 2 ।। 
मोय बिछड़ियां दुःख दिया, म्हारे हिवड़े करवत बहिया। म्हारी अमृत गागर फूटी, म्हारे हीरां की लड़ टूटी । । 3 ।। 
गुरू दरिया मोक्ष सिधाया, म्हारा नैन उमट भर आया। मैं तो सब जग ढूँढण जाऊं, मैं वा सुरत कटासूं पाऊं ।। 4 ।। 
म्हारे तन बिच तालाबेली, जैसे जल बिन मीन दुहेली। कहे' सुखराम' सन्देशो, गुरू मिलिया जाय अन्देशो ।। 5 ।।

Monday 5 December 2022

श्री आचार्य प्रार्थना !! आचार्य श्री हरिनारायणजी बाबजी महाराज का प्रवचन

 श्री .श्री. 1008 आचार्य श्री हरिनारायणजी बाबजी महाराज का प्रवचन

  मिंगसर पुर्णिमा 2- 12- 1990

जगत्वंद्य, परम पुनीत, प्रात:स्मरणिय ,रामस्नेही सम्प्रदाय के आदि आचार्य जगद्गुरु श्री दरियाव महाराज का ये वार्षिक निर्वाण मोक्ष तिथि महोत्सव के उपलक्ष मे सत्संग का आयोजन किया गया है जो कि आचार्य श्री परम धाम पधारने के पश्चात परम्परा से मनाते आये है मना रहे हैं और भी मनाते रहेंगे। आचार्य श्री दरियाव महाराज के निर्वाण तिथी 232 वा वर्ष कि ये बरसी मनाई जा रही है। महाराज को धाम पधारे हुए 232 वर्ष हो गये तो रात्रि मे ये प्रार्थना की गई थी। 


श्री आचार्य प्रार्थना

गही टेक एकं, उभै अंक सारं, अहो निश ध्यानं।

रकारं मकारं छकै प्रेम छाकं, रीत्ता ठाम भरिया।।

 नमो देव दरिया, नमो देव दरिया ।। 1।।


उदे ब्रह्म वाणी, गुणा जीत भारी, जपे जाप अजपा।।

सदा ध्यान धारी, हुते शुंन बासी, जठे बास करिया ।

नमो देव दरिया, नमो देव दरिया।। 2।।


बड़े तत्व वादी, बिग्यानं, विदेहं नहिं काल जालं।

 निर्वाणं नरेहं, ऐसा ब्रह्म रूपी, जुरा नाहिं मरिया |

नमो देव दरिया, नमो देव दरिया ।। 3 ।।

आचार्य श्री दरियाव जी महाराज की यह प्रार्थना , रात्रि में इस पर प्रवचन चला था । थोड़ा बहुत जो महाराज कहते हैं गही टेक एकं उभै अंक सारं ग्रहण किया एक टेक ली एक को स्वीकार किया अनंत का बहिष्कार किया एक को अपनाया अनन्त का त्याग किया एक के साथ आत्मीयता जोड़ी और अनंत के साथ उपेक्षा भाव हुआ इसलिए एक के साथ प्रेम होता है मन अपना एक है संत कबीर ने कहा है - 

कबीरा मनवा एक है भावे जहां लगाय।

या तो हरि की भक्ति कर या विषया रस खाय ।।


संत कबीर ने कहा है कबीरा मनवा एक है भावे जहां लगाय जहां तू लगाना चाहता है वहां लगा मन एक है दो नहीं चाहे तू संसार को अपना ले संसार को स्वीकार कर ले अथवा राम को दोनों में से एक को  तुमको चुनना पड़ेगा एक के साथ में संबंध जोड़ना पड़ेगा दो घोड़े का असवार गिर जाता है नीचे पड़ जाता है बिखर बिखर जाता है , टूट टूट जाता है सुरक्षित नहीं पहुंच पाता इसलिए नही टेक एकं ही परमात्मा की टेक एक ही परमात्मा के साथ आत्मीयता एक ही प्रभु के साथ में संबंध जोड़ना होंगा और वो जोडना कैसा है?

इसलिए है कि जोड़ने में वास्तविकता है। प्रभु के साथ में प्रेम करने का जो उचित प्रभाव है प्रेम का जो संबंध है वो स्थाही है उसमें बनावटीपना नहीं है ,उसमें हानि नहीं है ,उसमें परिवर्तन नहीं है लाभ ही लाभ है फायदा ही फायदा है क्योंकि उसे अंक सारं यह सार है - "खलो सारे संसारे" संसार ये असार हैं । इस संसार में सार क्या है ? उभै अंक सारं राम का नाम जो है वह सार है ।बाकी सब असार है ।असार संसार में सार वस्तु को प्राप्त करने के लिए आचार्य श्री ने बार-बार प्रेरणा दी है क्या वह सार वस्तु को कितने समय के लिए ह्रदय में रखा जाए, कितने दिन तक उनको टिकाए रखें, कितने महीनों तक, कितने वर्षों और युगो तक वह हमारे अंतःकरण में बने रहे कब तक क्या कोई अवधि भगवत नाम जाप की क्या कोई अवधि होती है घड़ी दो घड़ी जाप कर लिया यह अवधि हुई ,घंटा दो घंटा जाप कर लिया यह परमात्मा की एक अवधि हुई लेकिन आचार्य श्री कहते हैं अवधी किसके साथ होती हैं व्यापार किसके साथ होता है जहां पर अपना फायदा देखते हैं तब तक वह उसके साथ में संबंध जुड़ा रहता है जब कोई घाटा हो जाता है हानि हो जाती है उससे संबंध विच्छेद कर लिया जाता है तो फिर एक प्रकार का बणिक हुआ  एक प्रकार की बनिया वृत्ति हुई यदि हम परमात्मा के साथ मैं एक घंटा भर का संबंध जोड़ा घंटाभर जाप किया, ध्यान किया 23 घंटे हम भगवान से अलग रह गये 23 घंटै हम भगवान से दुर रह गये तो फिर परमात्मा का ध्यान कैसे हुआ । इसलिए आचार्य श्री ने कहा है अहो निश ध्यानं घंटा दो घंटा नही सेकंड दो सेकंड नही मिनट दो मिनट नही क्या ?  अहो निश ध्यानं अहो नाम दिनका है निश नाम रात्रि का है। रात दिन ध्यान करना होंगा कौनसा ध्यान?  रकारं मकारं। रकार और मकार का ध्यान रात दिन करना होंगा तभी तो तुम्हारी एक सही टेक होंगी तभी तो तूम समझ पाओंगे उभै अंक सारं ये राम का नाम ये सार है। रात दिन का है

इसलिए संतो ने कहा है-

 रात दिवस का रोवना फेर पलक का नाय।

 रोवत रोवत मिल गया दादू साहब माय।।

 महात्मा फरमाते हैं कि यह ध्यान जो है परमात्मा के साथ में यह जो संबंध है प्रभु के साथ में जो जुड़ना है वह एक दिन के लिए नहीं है अथवा एक महीने  के लिए नहीं एक वर्ष के लिए नहीं रात दिवस का रोवणा फेर पलक का नाय रोवत रोवत मिल गया दादू साहब माय रात दिन का है । ऐसा नहीं एक दिन तुम रो लिए किसी के घर में अच्छा आदमी प्रेमी व्यक्ति चला गया एक दिन रो लिए बाहरे दिन या महीना कितने दिन तक आखिर में उनका रोना बंद होता है लेकिन यहां तो कहते हैं आहो निश रात दिन कोई गिनती नहीं है कोई संख्या नहीं है कि परमात्मा का इतना ध्यान करें यदि तुम संख्या गिनोगे संख्या का प्रमाण मानोगे तो फिर प्रभु के प्रेमी कहां हुए आचार्य श्री तो कहते है रात और दिन।

शबरी का प्रेम था शबरी के गुरु मतंग ऋषि परमधाम पधारे थे उस समय में शबरी से कहा - 'बेटी मेरा शरीर तो अब जाता है भगवान राम तुझे दर्शन देंगे लेकिन दस हजार वर्ष के बाद मे भगवत साक्षात्कार होंगा।'
शबरी बड़ी राम की प्रेमी थी उसको यह गिनती आती नहीं थी दस हजार वर्ष कितना होता है । प्रातः काल ही वह प्रतीक्षा करती दूसरे दिन प्रातःकाल ही वह सोचती भगवान राम आएंगे इसलिए वह पंथ बुहारती थी राह साफ करती थी भगवान राम के आगमन की प्रतीक्षा में रहती थी बड़े प्रेम से वह घड़िया दिन महीने वर्ष युग निकालें । आखिर भगवान राम आए दर्शन दिए शबरी के मन में कभी यह बोर नहीं हुआ कभी यह नहीं आया इतने वर्ष बीत गए है फिर भी भगवान नहीं आए । क्या भगवान नहीं आए? वह तो रोज ही आ सकते कल ही आ सकते ।इसे कहते हैं रात दिन ।इसलिए संत कहते हैं हे मेरे प्यारे प्रियतम तुम कब मिलोगे मैंने तो अपने आप को अर्पण कर दिया है मैंने कोई बचाया नहीं मैंने अपने आप की रक्षा नहीं की मैं तो आपके प्रेम में बलिदान हो चुका हूं मैं तो प्रभु आपके प्रेम में समर्पित हो चुका हूं ।अब बचा ही क्या है ? फिर कोई बचा हुआ शेष तुमको दिखता है तो तुम बता दो मैं क्या करूं यह प्रेमियों की भाषा है, यह बिरही जनों की बानियां है।
इसलिए मीरा ने कहा है -
मैं जान्यो नाहीं हरी से मिलन कैसे होय ।
हरी से मिलन कैसे होय प्रभु से मिलन कैसे होय ।।
मैंने नहीं जाना है तुमसे मिलन कैसे होगा, प्रभु तुम कैसे प्राप्त होंगे ?किस उपाय से? किस साधन से? किस तरीके से तुम प्रगट हो सकते हो ? हमने यह जाना नहीं है। मीरा की लगन रात दिन की है ।मीरा ने गिनती की है भावावेश में भले ही वो गिनती कर ली लेकिन मीरा की भावना असली, अनगिनत है उनका संकल्प अनगिनत है ।इसलिए वह कहती है तेरे लिए मैं सब कुछ करने के लिए तैयार हु तभी तो जुड़े हुए का मतलब क्या है ? हर प्रकार से जुड़ जाना सब प्रकार से सरंडर हो जाना ।सर्व भावेन भारत त्वमेव शरणम गच्छ भगवान कहते हैं सभी भावों से तू मेरी शरण में होजा तू चिंता मत कर इसलिए मीरा ने कहा है -
फाडूंगी चीज करूं गल कंथा
रहु बैरागन सोय
मैं जानू नहीं हरी से मिलन कैसे होय.........
चूड़ियां में फोडु मांग बिखेरू कजरा में डालूंगी धोय
मैं जानू नहीं हरी से मिलन कैसे होय..........
मीरा कि एक टेक थी। मीरा ने कहा हे मेरे प्यारे तूम किस तरीके से प्राप्त हो सकते हो? वो तरीका वो विधी तूम मुझे बता दो यदि तू सोचता है कि मैने चुडिया पहनी हुई है सिंदुर लगा हुआ है, मांग भी साबीत है। हो सकता है तू सोचता होंगा कि मीरा तुमने किसी और को अपनाया हो तो मैं चूड़ियां भी फोड़ सकती हूं और मांग भी बिखेर सकती हूं तू सोचता होगा काजल मीरा ने किसी अन्य के लिए लगाया हो तो मैं काजल भी धो सकती मेरे लिए तुम एक हो ।हो सकता है तुम्हारे लिए अनंत हो तुम सर्वसमर्थ सर्वशक्तिमान हो पर मेरे प्रियतम मेरे लिए तुम एक हो गही टेक एकं मैंने आपकी टेक ली है रात दिन मुझे बिरह सताता है कब मिलोगे? कब आओगे ? इसे कहते हैं अहो निश ध्यानं आचार्य श्री दरियाव जी महाराज ने अहो नीश कहां है रात दिन कहां है कितनी सुंदर बात कही है आज हम अपने मन को एक मिनट के लिए नहीं लगा सकते एक ओ मिनट के लिए तदाकार वृत्ति नहीं कर सकते लेकिन महापुरुष तो कहते हैं अहो निश रात दिन तुम लगाओ रात दिन के लिए कहते हैं ।

इसवास्ते आचार्य श्री ने कहा है -

ऐसी आरती निस दिन करिये
राम सुमिर भवसागर तिरिये

ये आरती तूम निस दिन करो कौन सी आरती ? दीपक में घी डालकर के ज्योति लगा कर के फिर आरती नहीं वह नहीं ।यह तो एक बाहरी प्रदर्शन प्रतीक है ।बाहरी चिन्ह है। निश दिन आरती कौनसी ? राम नाम की जो आरती हैं ।रात दिन जो तुम राम राम करते हो यह आरती हैं ।आरती का तात्पर्य आ+रती =आ माने समंतात रति माने रामेन सहयोग ।जो राम के साथ में योग है जो राम के साथ में सदा से जुड़ा हुआ है वह आरती है। यह जो रात दिन की आरती हैं अहो निश ध्यानं रकारं मकारं तभी तो प्रेम मे छलकता है तभी तो रीता ठाम भरता है तभी तो खाली बर्तन भरता है। ऐसी थोडी थोडी वर्षा होने से बर्तन नही भरेंगा छुटपुट छांटो से तलाया नही भरेंगी और थोडे बहुत पानी से कुछ होने वाला नहीं है और बहुत ज्यादा वर्षा होंगी तो तलाया भर जाएंगी पानी ऊपर से निकलेगा छलेंगी इसे छलकना कहते हैं ऐसे ही भक्तिमय जीवन है जिसका वह छकता रहता है जिसका वह छपता रहता है, प्रेम की वर्षा करता रहता है उनके जीवन में प्रेम की सिराएं फुटती रहती है प्रेम के स्रोत उमडते रहते हैं प्रेम की धाराएं बहती रहती हैं जोकि पास में गुजरने वाले व्यक्ति को भी बहा दे, पास में गुजरने वाले व्यक्ति को भी नहला दे उसे भी प्रेम रूपी पानी में डुबो दें उनके ह्रदय के भी तार जोड़ दें उनको चेतन कर दे यानी गीत सुना दे वह भी गीत गा ले ।गीत गाने के योग्य हो जाए पता नहीं कौन सा स्वर जो है निकल सकता है भक्ति का ऐसा संगीत है प्रेम का ऐसा अद्भुत प्रवाह है सब चक जाता है कितना सुंदर है यह छकने वाले लोग कितने महान होंगे कितने बहादुर होंगे ,कितने उदार ह्रदय होंगे जो आने वाले व्यक्तियों को वह भरते रहते कभी खाली का महसूस नहीं करते स्वयं कभी खाली नहीं होते भरे हुए रहते हैं परंतु किसी एक साधारण बर्तन में से पानी लिया जाता है तो वह बर्तन खाली होता है जिस बर्तन में दस बेलन पानी है अथवा दस लीटर पानी है चार लीटर पानी ले लिया जाए तो छह लिटर अवशेष रह जाता है लेकिन महान पुरुषों का जो ह्रदय है कितना वह मानसरोवर होगा कितना बड़ा होगा जो कि लोगों को भरते रहते हैं कभी खाली नहीं होते हैं जैसा कि आचार्य श्री ने कहा है रीता ठाम भरिया ठाम भर गया

जैसा कि मैंने कहा -
दरिया भरिया नाम से भर्या हिलोला लेत।
जो कोई प्यासा नाम का ताही को भर देत।।
महाराज श्री कहते हैं भरिया नाम से आचार्य श्री किस से भरे हुए थे ? राम के नाम से भरे हुए थे । छलक रहे थे वह उछल रहे थे ज्वारभाटा उमड़ रहा था शायद कोई भाग्यशाली ज्वारभाटा के सामने आ जाए और उसका भाग्य का अनुभव कर ले उसका भाग्य जागृत हो जाए तो वह भी पानी में मिल जाए सदा के लिए प्यास मिट जाए उसकी ।यह ज्वार भाटा किसका उमड़ता है ?प्रेम छके छाकं ,छके प्रेम छाकं यह उमड़ता है रिता ठाम भरा जाता है ।भरने के बाद खाली नहीं होता है ।जिसको दिया जाता है तो भी खाली नहीं होता है कम नहीं होता ।जैसे समुद्र में से कोई चिड़िया चोच भर के चली जाती हैं ।पानी भर के पानी की बूंद समुद्र में घाटा नहीं होता लाखो टन पानी भले ही चला जाए समुद्र में कोई कमी नहीं आती है ऐसे ही सद्गुरु के जीवन में कोई कमी नहीं आती है चाहे कितने ही शिष्य उनके साथ में जुड़े हुए हो लाखों और करोड़ों शिष्य उनसे शब्द ले उनसे आज्ञा ले ध्यान मार्ग अपनाए लेकिन सद्गुरु में कोई कमी नहीं रहती हैं क्योंकि वह छक्के हुए हैं प्रेम में भरे हुए हैं
इसवास्ते कहा है संतोने -
अनुभव वाणी संतदास या मदवा की गाज।
छाक्या बोले प्रेम से नहीं किसी की लाज।।

मदवा है मदवो की गर्जना है और मदवा छलकते हैं ।यहां पर छक्के प्रेम छाकं महाराजश्री ने अनुभव वाणी संतदास जी ये मदवो की गाज मदवा कौन होते हैं ?मधुशाला में जो मधु पी लेते हैं नशा पान कर लेते हैं उसे मदवा कहते हैं। वह होश में नहीं रहते हैं वह चेतना में नहीं रहते हैं कौन सी चेतना ?यह संसार की चेतना संसार का उन्हें ध्यान नहीं रहता है। वह मद में रहते हैं। छके हुए रहते हैं कोई पास में से गरीब गुजरता है तो उसे पूर्ति कर देते हैं उसे भी भर देते हैं।

संत भक्त प्रह्लाद ने भरा है जब भक्त प्रह्लाद श्रीमद् भागवत मे प्रसंग आता है। भक्त प्रह्लाद को बहुत दुःख दिया गया हिरण्य कश्यप ने बहुत तकलिफ दी सभी प्रकार के उपाय करने पर भी जब वो सक्सेस नही हुआ उसके बाद मे प्रह्लाद को स्कुल मे भेज दिया गया एक दिन प्रह्लाद ने मौका देखकर के जब गुरूजन कही बाहर गये हुए थे ऐसा अवसर देखकर के और बालकोसे कहा बच्चो मै तूम्हे एक बहुत सुंदर बात बताता हू भक्त प्रह्लाद ने कहा श्रीमद् भागवत मे प्रसंग आता है। छोटी अवस्था मे भजन कर लेना चाहिए बडे होने के बाद कोई भरोसा नही रहता है कब मनुष्य की मृत्यु आ सकती है ।ऐसे बहुत समय तक ज्ञान दिया। भक्त प्रह्लाद की भक्ति की जो धारा फुट पडी वो छलक रहे थे चारो ओर उनके सीराए फुट रही थी उन्होने किर्तन करना प्रारंभ किया
प्रह्लाद कहे लडको से बोलो राम राम राम बोलो राम राम राम
लडकोने राम राम करना प्रारंभ कर दिया चारो ओर आवाज निकलने लग गयी छलकने लगे उनके प्रेम भक्ति की धाराए कितने बच्चे बह गए उनमे जब वो छके थे उस समय हजारो की संख्या मे पढने वाले बच्चे सब नाचने कुदने लग गये इतना वो छकना होता है। आज हमारे जीवन में आज एक संत का प्रभाव नही पडता, महापुरूष का प्रभाव नही पडता जब की भक्तो का प्रभाव पडता है जहा वो निकलते है गुजरते है वहा भक्ति का वातावरण सबको पवित्र कर देता है इसे कहते है छलकना छलकते है उनकी भक्ति निकलती रहती है प्रेम निकलता रहता है। सारे बच्चे कुद पडे नाचने लगे डांस करने लगे नृत्य करने लगे कोई भी वहा पर आए और उनको छूआ प्रह्लाद को वो भी नाचने लगा किसी ने बच्चे को हाथ लगाया वो भी नाचने लगे इसे छलकना कहते हैं जब बर्तन भर जाता है और बर्तन भरने के बाद मे जब ज्यादा पानी हो जाता है तो सीमाओ को पार कर देता है पानी चारो ओर से उनकी छोर से निकलता रहता है उस समय मे पानी के नीकल पडती है पानी रह नही सकता छलकता है ऐसे ही महान पुरूषो के जीवन मे वो छलकते रहते हैं भक्ति की धाराए वो गीराते रहते है इसवास्ते आचार्य श्री कहते हैं छके प्रेम छाकं रीता ठाम भरिया वो ठाम रीता ठाम उसे भर दिया नमो देव दरिया, नमो देव दरिया ऐसे देव दरिया को नमष्कार करते हैं।

आचार्य श्री दरियावजी महाराज कैसे थे उसके विषय मे कहते हैं -
उदे ब्रह्म वाणी, गुणा जीत भारी
वो कैसे हुए? उदे ब्रह्म वाणी गुणा जीत भारी उनकी वाणी कैसी थी? उनकी वाणी मानो ब्रह्म की वाणी
ब्रह्म वाक्यं जनार्दनम
उनकी वाणी ब्रह्म ही समझ लिजीए महान पुरूषो की वाणी क्या है? भगवान की वाणी। हम महान पुरूषो की वाणी पर ध्यान नही देते हैं हम बाणी को बाणी मानते नही है क्योकि ऐसा हमारा एक्सपीरीयंस नही रहा इसमे मुल अज्ञान का कारण है सत्संग की कमी रही है जीस किसी व्यक्ति ने सतगुरू की वाणी को राम की वाणी मान लिया ब्रह्म की वाणी मान ली गुणा जीत भारी वो गुणो को जीत लिया उसने गुणो को पार कर लिया जीस वाणी पर द्रृढ विश्वास हो जाता है सतगुरु के वाणी के उपर सतगुरू की वाणी को ब्रह्म की वाणी नही मानोंगे तब तक कल्याण नही है इसवास्ते गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज ने रामायण में भगवान राम , राघवेन्द्र सरकार वाल्मिकी आश्रम मे पधारे भगवान राम ने वाल्मिकी को नमष्कार किया बैठ गये कुशल शेम वार्ता चली उसके बादमे निवेदन किया गया भगवान राम के द्वारा की प्रभु मै कहाँ रहु? कौनसी जगह रहु? मुझे ऐसा स्थान बता दो कहाँ रहु मै? उस समय मे राम की बाणी की अपेक्षा सतगुरू की बाणी गुरूधर्मियो के लिए इशारा किया गया है कि गुरूधर्मि कैसे माने?
तूम ते अधिक गुरू ही जीय जानी

सकल भाव सैवेही सन्मानी

तूम ते अधिक गुरू ही जीय जानी उस समय उन्होने कहा है की आपसे भी बढकर जो सतगुरू को मानते है ये बाणी है उनके ह्रदय में आप रहे तो यहा पर क्या कहा उदे ब्रह्म वाणी सतगुरू के अन्तहकरण मे ब्रह्म की वाणी का उदय हुआ ये किसकी बाणी हुई ब्रह्म की राम की बाणी
जो मैंने पहले आपको बात बताइए थी अनुभव वाणी संत दास या मदवा की गाज ये मदवो की गाज गर्जना है। मेघ गर्जना करता है किसके बल पर करता है गर्जना ? मेघ गर्जना करता है समुद्र के बल पर। पानी कहां से आया ? समुद्र से आया । तो यह ब्रह्म की बानी है। संत की जो बानी है वह ब्रह्म की वाणी है ।उदय हुई ब्रह्म की वाणी। ओ हो यह बानी संत के ह्रदय में प्रगट हुई और के नहीं ।आचार्य श्री दरियाव जी महाराज के ह्रदय में प्रगट हुई हैं । उदै ब्रह्म वाणी गुना जीत भारी गुणों को जीत गए वो त्रिगुण्ये विषये वेदा त्रिगुण्य भावार्जुन तीन गुण जो है तीन गुण से महाराजश्री विजय हुए ।उदय ब्रह्म वाणी जो वानी का प्राकट्य हुआ ब्रह्म की वाणी इसवास्ते सतगुरु की जो बानी है वह ब्रह्म की वाणी है ।जब तक हमारे अंतःकरण में इस बात की स्वीकारोक्ति नहीं हो जाएंगी हम अंगिकार नहीं कर लेंगे तब तक ब्रह्म का प्रभाव अपने जीवन में नहीं उतरेगा ।इस वास्ते सतगुरु की वाणी को ब्रह्म की वाणी माने उदै ब्रह्म वाणी गुनाजीत भारी जपे जाप अजप्पा सदा ध्यान धारी जपे जाप अजप्पा जाप अजप्पा जाप प्रकट हुआ है इसलिए संत कबीर ने कह दिया-

कबीरा माला ना जपु मुख से रटूह न राम।
मेरा सुमिरन हरि करें मैं पाऊं विश्राम।।

संत कबीर ने कहा है कबीरा माला ना जपु मुख से रटुह न राम मैं माला का जाप नहीं करता हूं और मुख से मैं राम-राम भी नहीं करता हूं क्योंकि अजप्पा जाप चालू हो गया है ।मेरा सुमिरन हरि करें मैं पाऊं विश्राम मेरा सुमिरन तो प्रभु करते हैं और मैं तो विश्राम करता हूं, रेस्ट कर रहा हूं ,रिटायरमेंट हो गया । अब तो रिटायरमेंट आदमी क्या करता है ? रेस्ट करता है। इसलिए मैं तो रेस्ट कर रहा हूं ।मदवा होते हैं ना छलकते रहते हैं उसे होश थोड़े ही रहता है। पागलों को होश नहीं रहता है ।असली साधु पागल होता है ।जब तक साधु पागल नहीं होता है तब तक वह असली माना नहीं जाता है ।असली संत होता है वह पागल होता है किससे पागल होता है ? किस दृष्टि से ?किस श्रेणी में पागल होता है ?किस सीमा में पागल होता है ?सीमा भी होती है ।एक हद होती हैं ।संसार की सीमा में पागल होता है वह ।संसार उसे पागल कहेंगे ।उसे अच्छा नहीं कहेंगे ।क्योंकि लोगों को बात अखरती हैं ।जब कबीर छलकने लगा उस समय लोग कहने लगे रे कबीर तूमने तो बर्बादी करदी घर बसाना था तुमने तो उजाड़ दिया। स्वयं का घर उजाडा और तेरा भी कोई संग करता है उसे भी तू उजाड रहा है ।संत कबीर ने कहा भाई मेरा तो एक ही काम है मैं लाय लगाता हूं ,घरों को उजाडता हूं, घरों को नष्ट करता हूं ,मटीया मीट करता हूं। मेरा तो एक ही काम है ।संसार वाले लोग घर बसाते हैं असली पागल संत घर को उजाड़ते हैं घर को मेटते हैं *कबीरा मैं मेरा घर जालिया लिया पलीता हाथ, औरा का भी जाल दु करें हमारा साथ।
कबीरा मैं मेरा घर जालिया लिया पलीता हाथ मैंने मेरा घर जलाया है ।हाथ में मसाल लिया है ।आग लगी हुई है ।और मेरा कोई संग करता है उनका भी मैं घर जलाने के लिए तैयार हूं ।कोई आए मेरे साथ करे मेरा तो एक काम जलाने का है। तो वह छलक रहे थे कौन उनके पास आए कौनसा घर जलाते हैं ?साधु होकर के वह घर जलाते हैं ।जिस घर में हमारा जन्म और मरण है। जिस घर में हम जन्म लेते हैं ।हमारा घर वासना का है ।वासना के कारण हमारा जन्म मरण हो रहा है। इस घर को वह जलाते हैं ।जब भजन करता है व्यक्ति महापुरुष उस समय में जब उनका घर जल जाता है जन्म नहीं होता है ।उस समय में यह मन कहता है मन कहता है अरे ऐ आत्मा तू मेरे घर को क्यों उजाडता है? मैं तो अभी रहना चाहता हूं वह कहता है। घर कैसे उजड़ा ? स्थुल शरीर जाने वाला है अलग दिख रहा है।

आचार्य श्री ने कहा - दरिया देखे ब्रह्म को न्यारा दिखे पिंड सूक्ष्म शरीर का अनुभव हो गया ।कारण शरीर खत्म हो गया तो घर तो खत्म हो चुका है ।अब जन्म नहीं होंगा । तो फिर यह मन कहता है - मैंने बसाई बस्तिया तुमने उजाड़ दी घर ही नहीं रहेगा तो फिर जन्म नहीं होगा ।इसलिए कहते हैं मैंने बसाई बस्तियां तुमने उजाड़ दी यह मन कहता है परंतु फिर भी कुछ बस्ती तो खंडर है तो तू रह ले इसमें तू निवास कर ।कुछ पल खराब गांव में गुजार ले ।गांव नाम घर का है ।कुछ पल तो तो गुजार इसमें ।अभी वह मस्ती लेता है। जब आदमी मरने के निकट हो जाता है तो भी वह सोचता है मैं कुछ दिन रहूं मरू नहीं दवाई करता है डॉक्टरों को बुलाता है लाखों रुपए खर्च करता है ऐसा कोई काम पड़ता है तो अमेरिका चला जाता है पैसे वाले लोग लेकिन यहां रहना चाहते हैं मरना नहीं चाहते। कुछ पल खराब गांव में गुजार ले ।बुड्ढा भी हो गया तो कुछ पल तो मैं यहां रहूं ।तो मन कहता है मैंने बसाई बसिया तुमने उजाड़ दी ।अरे आत्मा जीव तुमने हमारी बस्ती को उजाड़ दिया लेकिन फिर भी कुछ पल तो तू रहे ।संत कहते हैं नहीं अब तो नहीं रहना है। बुध्द भगवान को ज्ञान हो गया तो बुद्ध भगवान ने इस नक्षत्र इंन ग्रहो से कहा ओ ग्रहो ओ देवताओं अब मेरे लिए आपको घर नहीं बनाना पड़ेगा अब तुमको तकलीफ नहीं उठानी पड़ेगी ।कौन सा घर ? आगे जन्म लेना पड़ेगा पशु ,पक्षी, किट, पतंग ,मनुष्य कोई भी ।यह घर तो है और क्या है ।जब जन्म ही नहीं होगा तो घर कैसे बनाएंगे घर बनाने की आवश्यकता ही नहीं।
इसवास्ते आचार्य श्री दरियावजी महाराज कहते हैं आहो निश ध्यानं छके प्रेम छाकं उदै ब्रह्म वाणी वो ब्रह्म की वाणी उदय हुई है और गुनाजित भारी इन तीन गुणों पर विजय हुई गुणों को जीत लिया जपे जाप अजप्पा अजप्पा जाप किया सदा ध्यान धारी ध्यान धारी सदा ही ध्यान सतत लगातार

आठ पोहर चौसठ घड़ी मारी हेली नाम रहे दिल माय हेली

वो साधु जन राम हे मारी हेली नित डोलीजे लार
तो महाराज कहते हैं अजप्पा जाप सदा ही निरंतर
अनन्यचेताः सततं यो मां स्मरति नित्यशः तस्याह सुलभः कार्यो
भगवत गीता में भगवान कहते हैं अनन्यचेताः निरंतर लगातार कंटिन्यू जो मेरा चिंतन करता है तस्यह सुलभः उसके लिए मैं सुलभ हूं ,सस्ता हूं सहज ही मैं उसे प्राप्त हो जाता हूं ।वह परमात्मा सहज में ही प्राप्त हो जाता है ।बड़ा आनंद है कोई प्रेमी है पागल है ये मस्तियां है यह जीवन की पवित्र एकाइया है यह जीवन की पवित्र धाराएं हैं। शायद कोई आ जाए नहा ले तो वह भी जो है प्यासा बिचारा अपनी प्यास बुझा ले तो आचार्य श्री दरियाव जी महाराज की यह परंपरा की धारा परम धाम पधारने के बाद 232 वे वर्ष की बरसी है। इनके उपलक्ष में यह सत्संग का आयोजन रखा है आप सबको मालूम है ही तो इसी धारा में अपने को नहाना है पवित्र होना है अपने आप को भरना है क्योंकि हम लोगों का ठाम रीता है रीता ठाम भरिया ।खाली को भरा जाता है परंतु हम खाली है ही नहीं कैसे भरेंगे ?कैसे भरेंगे ?हम तो भरे हुए हैं संसार से ।संसार के वातावरण के अवगुण, संसार के दुर्गुण दुराचार अपने अंदर भरे हुए हैं खाली हो तो भरे खाली नहीं है क्या किया जाए कैसे भरे ?यहां तो बताया है रीता ठाम भरिया खाली हो उनको भरते हैं खाली भरा जाता है जब मिट्टी ज्यादा हो जाती है जलाशय तलय्या ज्यादा मिट्टी में पानी रहता नहीं है फिर मिट्टी को खाली करना पड़ता है मिट्टी को खोद खोद करके खाली करना पड़ता है तब जाकर के पानी भरता है ।हमारे अंतःकरण में बहुत सी बुराइयां बहुत से अवगुण भरे पड़े हैं कैसे भरेंगे भाई ? मुश्किल है मामला विचित्र माया है परंपरा की इसलिए समझना है। कब समझेंगे? जब सद्गुरु की बानी को ब्रह्म की बानी मान लेंगे ।यह ब्रह्म ही बोल रहा है ।सद्गुरु नहीं ब्रह्म ही बोल रहे हैं उदै ब्रह्म वाणी गुना जीत भारी दरियावजी महाराज ने कहां है यह ब्रह्म की वाणी है देख लो अपने अंतःकरण को तोल लो हमारी क्या स्थिति है हमारे अंतःकरण की क्या पोजीशन है तुम सब जानते हैं तो अब समय हो गया है इतना ही बोलेंगे।
गही टेक एकं ,उभै अंक सारं, अहो निश ध्यानं ।
रकारं मकारं, छकै प्रेम छाकं रीता ठाम भरिया ।।
नमो देव दरिया ,नमो देव दरिया

उदे ब्रह्म वाणी, गुणा जीत भारी, जपे जाप अजप्पा।
सदा ध्यान धारी, हुते शुंन बासी ,जठे बास करिया ।।
नमो देव दरिया ,नवो देव दरिया

आचार्य श्री की ये प्रार्थना अष्टग है जो इसकी चर्चा दोपहर में चली थी और कल शाम को भी तो, आचार्य श्री कितने महान और प्रभावशाली उच्च कोटि के महापुरुष एक अद्वितीय युगपुरुष महापुरुष हुए थे जिसके ह्रदय में ब्रह्म की बानी उत्पन्न हो गई जिनके ह्रदय में ब्रह्म प्रगट हुआ ब्रह्म प्रगट हो करके जो ब्रह्म की वाणी गुणा जित भारी और वो गुणों को जीत गए थे तीन गुण रजोगुण, सतोगुण, तमोगुण है तीनों गुणों के ऊपर विजय प्राप्त कर ली अजप्पा जाप ध्यान किया हुते शुंन बासी जठे बास करिया शुंन बासी जो है जिन्होंने ब्रह्मरंध्र में ध्यान करके परमात्मा का दसवा दरवाजा जो है योगी की आखरी मंजिल जिसे कहते हैं ध्यान करते करते योगी लोग आखरी मंजिल पर पहुंच जाते हैं उसे सुन्न कहते हैं हुते शुंन बासी जठे बास करिया तो आखरी मंजिल तक क्या है ? शुंन ब्रह्मरंध्र जैसे महाराज श्री ने कहा है -
दरिया सुन्न समाध की महीमा घनी अनंत।
पहुंचा सोही जानसी कोई कोई बिरला संत।
आचार्य श्री दरियाव महाराज कहते हैं की दरिया सुन्न समाध की महीमा घणी अनंत ।सुन्न समाध जो है उसकी महीमा अनंता अनंत है ।सुन्न किसे कहते हैं ? जहां कोई दृश्य पदार्थ नहीं, जहां कोई आकर मुर्त नहीं ,जहां कोई किसी प्रकार का दिखने वाला कोई पदार्थ नहीं ,उसे सुन्न कहते हैं ।आप लोगों को मालूम होंगा जब कभी कभी शरीर बीमार पड़ता है तो कोई ऐसी जगह है कि वह सुन्न पड़ जाती हैं सुन्न पड जाने के बाद में हम उस शरीर में कोई पेंसिल से अथवा सुई भी अडाते हैं तो दर्द नहीं होता है क्योंकि वह जगह सुन्न पड़ जाती है वहां दर्द महसूस नहीं होता है ।क्योकी सुन्न हो गई उसमें जीवत्व खत्म हो गया ,प्राणशक्ति का संचरण था वो खत्म हो गया ,खुन सप्लाई रुक गई इस वास्ते वह सुन्न हो गया क्योंकि वहां कोई कीटाणु नहीं रहे इसवास्ते दुखः और सुख का अनुभव खत्म हो गया। जैसे कई लोगों को पोलियो हो जाता है लकवा मार जाता है ऐसे लोगों के शरीर सुन्न हो जाते हैं। तो दबाया जाता है तो कहते हैं हमारे दर्द नहीं क्योंकि शरीर सुन हो गया तो कोई दर्द है नहीं ।जब शारीरिक स्थिति भी ऐसी हो सकती है एक बीमारी के कारण से तो वह तो परमपिता परमात्मा का ध्यान करके सुन्न करके वहा तो कोई दृश्य है ही नहीं ।वहां किसी प्रकार का अनुभव नहीं। ना सुख का अनुभव है ना दुःख का अनुभव है। लेकिन आश्चर्य , कहते हैं - दरिया सुन्न समाध की महीमा घनी अनंत
पहुंचा सोही जान सी, कोई कोई बिरला संत।।

जो पहुंच गए हैं वही जानेंगे बिरला संत ।तो यहां पर बताया गया है हुते सुंन बासी सुंन के अंदर निवास करने वाले आचार्य श्री ऐसे जो है महाराज उनको बार-बार नमस्कार किया जाता है

थाने नमो देव दरिया, नमो देव दरिया।

बडे तत्व वादी बिज्ञानं विदेहं और आचार्य श्री कैसे हैं बडे तत्व वादी हुए हैं बड़े महान तत्ववादी मामूली ,साधारण नहीं और वो कैसा तत्व है ? उनके बीज्ञानं विदेहं महाराज श्री दरियाव महाराज ऐसे हुए हैं वो विज्ञान को जानने वाले विज्ञान स्वरूप हुए हैं और वह विदेह देह नहीं ।जैसा कि आचार्य श्री ने कहा है दरिया देखे ब्रह्म को न्यारा दिखे पिंड इसलिए वह विदेह हुए हैं ।शरीर को जब देखता है तो शरीर अलग दिखता है और बिज्ञानं विज्ञान भरपूर है उनमें ।ज्ञान विज्ञान सहितम् ग्यात्वा मोक्षसे शुभा भगवत गीता करती है ज्ञान विज्ञान के सहित कोई जान लेता है वो अशुभो से छुटकारा पा लेता है उसे मोक्ष मिल सकती हैं तो महाराज कहते हैं बड़े तत्व वादी वह बहुत ही तत्ववादी है ।जैसे महाराज श्री की बाणी में आया है -
मतवादी जाने नहीं ततवादी की बात।
सूरज उगा उल्लवा गिने अंधारी रात।।

महाराज श्री कहते हैं वो तत्ववादी हुए हैं ।आचार्य श्री कैसे हुए ? तत्ववादी जब महाराज ने व्याख्या की है मतवादी और ततवादी की मतवादी जाने नहीं तत वादी की बात मत में जो बंधे रहते फसे रहते वो तत्व की बात को नहीं समझते हैं ।सूरज उगा ज्ञान का गिने अंधारी रात उल्लू के लिए अंधेरा है। सूर्य उदय हो गया तो भी उल्लू के लिए अंधेरा है ।ऐसे ही जो लोग गुरुमुखी नहीं है वह सब उल्लू है ।जिनका जीवन गुरुमुखी नहीं है गुरु भक्त नहीं है वह कैसे हैं ? उल्लू है ।वह मत में बंधे हैं वह तत्व वादों की बात नहीं जानते और अपने आप को वह इतना महान मानते हैं जैसा कि हम लोग महान हैं ,जैसे कि हम ज्ञानी हैं, हम ध्यानी हैं, हम बहुत जानकार हैं, हम ऐसे हैं लेकिन वह भले ही ऐसा मान ले हम लोग ऐसे हैं लेकिन वह मत में बंधे हैं वो तत्वादी नहीं है क्योंकि उनके जीवन में शांति नहीं है, उनके जीवन में कोई सुख नहीं है ,उनके जीवन में कोई सांसारिक समाधान नहीं है ,हर प्रकार की समस्याओं से वह लोग जुड़े हुए हैं समस्याओं से वह लोग संघर्षरत है ऐसी स्थिति में हम लोग कैसे मान ले कि वह लोग ततवादी हैं ।
ततवादी आदमी का जीवन परम पवित्र ,सरल होता है सर्वमई होता है ,सार्वजनिक होता है हर प्रकार से वह निर्दोष होते हैं ।ततवादी जो होते हैं ततवादी के अंदर किसी प्रकार का अहम नहीं रहता ततवादी के अंदर किसी प्रकार का अहंकार नहीं रहता, ततवादी सब जगह तत्व को देखते हैं ।तत्व कौन? राम उनका जीवन ऐसा होता है
सिया राम मय सब जग जानी
करहु प्रणाम जोर जुग पानी सिया राम मय सब जग जानी वो तत्व को जानते हैं तत्व को सब लोग नहीं जानते ।तत्व को महापुरुष जानते हैं। तत्व को किसने पिया ? संत दादू ,दरिया कबीर ने ।
संत कबीर ने कहा है -
निरंजन वन में साधु अकेला रमिता है
पर्वत ऊपर गहू बिहाई उनका दूध जमाता है
माखन माखन आप आरोगे जग को छाछ पिलाता है निरंजन वन में साधु अकेला रमता है माखन माखन आप अरोगे जग को छाछ पिलाता है ।तत्व कौन लेते हैं ? महापुरुष ।और जग को क्या मिलती है ? जग को छाछ मिलती है ।तो आचार्य श्री दरियाव जी महाराज तत्ववादी हुए हैं ।लेकिन मत में बंधने वाले लोग जो हैं मत में बंधते हैं उन्हें होश नहीं रहता है हम लोग क्या कर रहे हैं वह लोग ऐसा मानते हैं मैं ठीक करता हूं ।आचार्य श्री ने ऐसे लोगों के लिए कहा है कि वह सोचते हैं हम लोग बहुत पहुंचे हुए हैं लेकिन उन्होंने अभी तक एक कदम भी नहीं भरा है ।
दरिया गेला जगत को कैसे दीजिए सीख।
सौ कोसा चालन करें चाल न जाने बीस।।

दरिया गेला जगत को कैसे दीजे सिख। वह तो सोचते हैं मैं सौ कोस चलता हूं लेकिन बीस कोस भी नहीं चलते हैं ।चाहे मन में कोई कितना ही क्यों ना सोच ले कि मैं सब कुछ हूं होशियार हूं मैं सावधान हूं ,मैं तत्ववादी हूं लेकिन मत में बंधे हुए जो लोग होते हैं वह पूर्णतया ना तो अपने आप को जानते हैं और ना जगत को और न जगदीश को न परमात्मा को वह किसी को नहीं जानते।

एक बार मधुशाला में कुछ पागलों ने मधु पीली , मदिरापान कर लिया । मदिरापान करने वाले क्या होते हैं ? पागल होते हैं । पागल बन गए थे फिर वो दो चार जने मथुरा के तीर पर , जमुना के तीर पर मथुरा से उठ कर आए जहां नावे खड़ी थी । बड़ी सुंदर चांदनी रात थी ठंडी ठंडी हवा आ रही थी ।देखा यह बड़ी मस्ती है बड़ी मौज है अब तो नावे मिल गई चलो गोकुल चलना है ।तो वो नाव में सवार हो गए सवार हो गए तो खेने लगे नाव। खूब जो है उस डंडे को चलाया ।चलाते रहे चलाते रहे रात भर वह चलाते रहे ।लेकिन नाव वही की वही। चलाते चलाते थक गए तो नशा उतरा नशा उतरने के बाद में एक ने कहा रे भाई हम कितनी दूर आए पता तो लगाओ ।नशा उतर गया दूसरा हंसने लगा। कहा अरे हम तो वही हैं ।अरे देखे हम वही कैसे हैं रात भर हमने यह डंडे को चलाएं चलाते रहे फिर वही के वही कैसे रहे ।तो देखा गया तो वो जो रस्सा था वो वही बंदा था। नाव वही थी क्योंकि रस्सा खोला नहीं था ।नहीं खोलने से वह नाव वही की वही रही । रात भर चलाते रहे बिचारे चलाए तो क्या हुआ वह सोचने लगे हम बहुत कुछ पहुंचने लगे ।नशा जब उतरा अहंकार का उसके बाद में पता लगा हम तो वहीं के वहीं हैं ।ऐसे ही मत में बंधे वह सोचते हैं हम बहुत कुछ है जो गुरुबेमुखी होते हैं वह ऐसे होते हैं हम बहुत कुछ है परंतु उनको यह पता नहीं है हम लोग वही बंधे हुए हैं ।उसी मथुरा के घाट पर नाव रस्सी से बंधी हुई है ।हम आगे नहीं बढ़ पाए ऐसा वह लोग पहले नहीं सोचते ।कब सोचते हैं ? जब नशा उतरता है । ऐसे ही मानव के जीवन में जब तक यह अभिमान का नशा है जानकारी का या कोई वस्तु विशेष का तब तक वह सोचते हैं हम बहुत कुछ है ।अरे बहुत कुछ नहीं है ।तुम वही बंधे हुए हो ,वही तुम पढ़े हो ,तुम्हारी कोई प्रोग्रेस नहीं हुई है, तुम्हारी किसी प्रकार की उन्नति नहीं हुई है तुम वही के वही हो एक कदम भी तुम आगे नहीं बढ़ पाए और वास्तव में बात सही है ऐसे आचार्य श्री कहते हैं मत में जो बंधे हैं वह ततवादि की बात नहीं जानते सूर्य उदय हो जाता है तो भी उल्लू को लगता है अभी रात है ।तो यहां पर बताया है होते शुंन बासी बड़े तत्ववादी विज्ञानं विदेह महाराज श्री बहुत ही तत्ववादी हुए हैं और विज्ञान को ज्ञान विज्ञान से भरपूर हुए हैं और विदेह हुए हैं यदि वह विदेह नहीं होते महाराज श्री क्यों कहते सब कोई लोग अपनी जाति को मानते हैं अपनी जाति के साथ में घनिष्ठता रखते हैं जाति से जुड़े हुए रहते हैं लेकिन आचार्य श्री जाति से नहीं जुड़े थे यदि ऐसा होता तो वह क्यों कहते

जात हमारी ब्रह्म है मात पिता हे राम ।

गृह हमारा सुन्न मे अनहद में विश्राम।।

तो आचार्य श्री इसलिए विदेह राज है ।वो विदेह इसलिए हैं जात हमारी ब्रह्म है मात पिता है राम हमारी जाति क्या है ?ब्रह्म की जाति और मां-बाप कौन हैं ? राम जी महाराज गृह हमारा सुन्न मे अनहद में विश्राम हमारा घर कहां है ?सुन्न में ब्रह्मरंध्र में । हुते शुंन बासी ये बात आई थी पहले अनहद में विश्राम जहां कोई हद नहीं है ।
बड़े तत्व वादी, बिग्यानं ,विदेहं नहीं काल जालं।
निर्वाणं नरेहं वहां पर विदेह दरिया देखे ब्रह्म को तो न्यारा दिखे पिंड शरीर अलग दिखता है ।तो वहां ऐसी स्थिति है काल का जाल नहीं है ।मोक्ष रूप जो जीव हो जाता है और नहि काल जालं निर्वाणं नरेहं ,ऐसा ब्रह्म रूपी जुरा नाहिं मरिया नमो देव दरिया ,नमो देव दरिया
ऐसा ब्रह्म रूप हो गया फिर जुरा क्यों आएगा ?बुढ़ापा क्यों आएगा ?बुढ़ापा नहीं आएगा ।कोई अवस्था नहीं आएंगी। सारी अवस्थाओं से अतीत जीवन होता है। सारी घटनाओं से अलग जीवन होता है ।इसी प्रकार जो घटनाएं होती है संसार में होती है।जब संसार से व्यक्ति ऊपर उठ जाता है तो सभी इन घटनाओं से अतित जीवन होकर के व्यक्ति निर्भय निसंदेह, निसंकोच निर्दोष हो जाता है।

एक बार ऐसा हो गया एक आदमी रोने लगा उसका नाम था रामलाल ।बहुत रोया की मैं नहीं मेरा रामलाल कहां गया रे ?रामलाल कहां गया रे ?मैं रामलाल था ।अब रामलाल नहीं रहा ।देखो उनके मन में एक भ्रांति हो गई ।यह भ्रांति क्यों हुई ?धर्मशाला में वह रामलाल उतरा था और दूसरे लोग भी धर्मशाला में उतरे तो धर्मशाला में उतरे तो एक आदमी ने कहा तू रामलाल को दे दे ।उसने कहा मैं रामलाल हूं। कि तुम मेरे को दे दे।दे दिया रामलाल को तो कहां हां दे दिया तो रामलाल को तू दे देंगा तो दूसरा कोई आदमी आएगा उपस्थित हो जाएगा ।वो रामलाल को दूसरे को दे दिया ।वो दूसरा व्यक्ति खुद को रामलाल मानने लग गया ।तो मैं अब रामलाल हु ही नहीं । रामलाल तुमने दिया कैसे ? तू रामलाल है ना भाई ।कि नहीं मैंने तो दे दिया उनको। कह दिया कि ले मै अपने आपको तुमको देता हूं अब मैं नहीं हूं ।बहुत लोगों ने उनको समझाया लेकिन वह रोता रहा धीरे-धीरे जब बात समझ में आई तो उनका रोना मिटा। ऐसे ही हम अपने आप को जीव मान लिया कि मैं जीव हूं मैं दुखी हूं मैं दुखी हूं जब ज्ञान हो जाता है तो आदमी सुखी हो जाता है ऐसे महाराजश्री कि ये प्रार्थना है।
*अलेखं अभेखं, नरेखं न काया*
महाराज श्री यहां पर कह रहे हैं दरिया महाराज के बारे में अलेखं जो लेख में नहीं आता आचार्यश्री क्या है ? अलेख लेख में नहीं है। कैसे हैं वो?
*पानी सू रे झीणों*
*पवन सू रे पतलो*
*वो तो मुठिया में*
*ना ही समावे जिओ*
*वारी वारी रे शंकर अविनाशी*
*थारी कुदरत ने बलिहारी जिओ*
*वेद पुराण मुनि जन गावे*
*आ तो महीमा रे जग मे भारी जिओ*
*वारी वारी रे शंकर अविनाशी*
पानी सू रे पतलो पवन से झीणो और मूठीयां में नाही समावे आचार्य श्री दरियावजी महाराज कैसे हुए हैं ?अलेखं ।ऐसे हुए हैं जो कि पानी से पतले हैं और पवन से भी झीने हैं ।उनकी जो आत्मा है इस प्रकार से महान चेतना में, महान अनूता में और महान महिनता में पहुंच गई है ।जो पानी से पतलो पवन से झीणो मुठिया में नाहीं समावे ऐसे आचार्य श्री की आत्मा जो लिखने में भी नहीं आती हैं ।इतनी अगम अपार भी है जो कोई लेख में नहीं आती है इसलिए धर्मशास्त्र में आया है भगवान शिव के बारे में *तव तत्व न जानामि की महेश्वर*
*यादी शोशी महादेव तादीशाय नमो नमः*
के हम आपके तत्व को नहीं जानते हैं। आप कैसे हैं ?जैसे आप हैं वैसे हम आपको नमस्कार करते हैं ।तंव तत्व न जानामि हम आपके तत्व को नहीं जानते हैं ।आप जैसे हैं उसके लिए हम आपको नमस्कार करते हैं ।इसलिए वो अलेख है लेखनी में नहीं आवे ।अभेख है जो भेख भी नही है । भेख नाम है स्वरूप का वहां कोई स्वरूप नहीं कोई आकार नहीं है वहां कोई रेखा नहीं है ना कोई काया है ।वहां कुछ है ही नहीं ।जहां कोई जंगम नहीं है ।अभंगम नहीं है जहां भंग कभी नहीं होता है ।भंग नाम टुकड़ा होना ।जब परमात्मा की प्राप्ति हो जाती है तो जीव का टुकड़ा थोड़ी होता है । *अजुणी न आया* महाराज श्री दरियाव जी महाराज अवतार लिया तो जुनी में नहीं आए क्योंकि समुद्र में मिले थे दरिया में मिलने के कारण से दरिया नाम पड़ा आचार्य श्री ने किसी मां के गर्भ में जन्म नहीं लिया है उनके माता-पिता गीगा बाई और मनसारामजी समुद्र में गए थे भगवान द्वारकाधीश की प्रार्थना की गई तो वहां पर उन्होंने पुत्र को प्राप्त किया दरिया से प्राप्त होने के कारण से दरियालाल कहलाए इसलिए यहां पर बताया है *अलेखं ,अभेखं, नरेखं न काया मिले आप आपं ब्रह्मानंद परिया*
*नमो देव दरिया नमो देव दरिया*
मिले आप आपप कितनी सुंदर बात कही आप स्वयं ही आप में मिल गए खुद में खुद को मिलना परमात्मा स्वरुप जो जीव है परमात्मा में लीन हो जाता है उनकी स्मृति हो जाती है कि मैं वही हूं अपने आप मिल जाता है जब तक आदमी खुद को भुला है तब तक वह दुखी है अपने आप को याद कर लेता है अपने स्वरूप को पहचान लेता है तो वह आदमी सुखी हो जाता है इसलिए स्वरूप को पहचानना बहुत जरूरी है। आदमी अपने आप को भुला है तब तक वह दुखी है अपने आप को याद कर लेता है अपने स्वरूप को पहचान लेता है तो आदमी वह सुखी हो जाता है इसलिए स्वरूप को पहचानना बहुत जरूरी है।

एक बार ऐसा हो गया एक आदमी रोने लगा उसका नाम था रामलाल ।बहुत रोया की मैं नहीं मेरा रामलाल कहां गया रे ?रामलाल कहां गया रे ?मैं रामलाल था ।अब रामलाल नहीं रहा ।देखो उनके मन में एक भ्रांति हो गई ।यह भ्रांति क्यों हुई ?धर्मशाला में वह रामलाल उतरा था और दूसरे लोग भी धर्मशाला में उतरे तो धर्मशाला में उतरे तो एक आदमी ने कहा तू रामलाल को दे दे ।उसने कहा मैं रामलाल हूं। कि तुम मेरे को दे दे।दे दिया रामलाल को तो कहां हां दे दिया तो रामलाल को तू दे देंगा तो दूसरा कोई आदमी आएगा उपस्थित हो जाएगा ।वो रामलाल को दूसरे को दे दिया ।वो दूसरा व्यक्ति खुद को रामलाल मानने लग गया ।तो मैं अब रामलाल हु ही नहीं । रामलाल तुमने दिया कैसे ? तू रामलाल है ना भाई ।कि नहीं मैंने तो दे दिया उनको। कह दिया कि ले मै अपने आपको तुमको देता हूं अब मैं नहीं हूं ।बहुत लोगों ने उनको समझाया लेकिन वह रोता रहा धीरे-धीरे जब बात समझ में आई तो उनका रोना मिटा। ऐसे ही हम अपने आप को जीव मान लिया कि मैं जीव हूं मैं दुखी हूं मैं दुखी हूं जब ज्ञान हो जाता है तो आदमी सुखी हो जाता है ऐसे महाराजश्री कि ये प्रार्थना है।
*अलंगु अभंगु,अखंडं अछेपं अनातं अवातं*
महाराज श्री की महिमा को कोई लांग नहीं सकता ।महिमा का कोई पार नहीं है ।जो उनकी महिमा का पार पा सके और वो महिमा ऐसी है कभी बंद नहीं होती ।महिमा कभी घटती नहीं है। महिमा में कोई परिवर्तन नहीं होता ।महिमा में कोई विषमता नहीं मैं ।एक जैसी है सदा है नित्य थी नित्य है और नित्य रहेंगी जिसकी कोई छोत नहीं है। जहां कोई रूप नहीं रेख नहीं है। *अनातं अवातं*
अनातं मतलब ब्रह्म भाव आता याने जीव भाव तो महाराजश्री ब्रह्म हो गए थे। *अवातं* अवातं नाम है माया का जहां कोई माया का लेश नहीं है । *अभेतं* जहां कोई भेद नहीं होता *अखेपं* जहां लखने में नहीं होता ।माप में नहीं आती है चीज उसे अखेपं करते हैं ।
*रता ब्रह्म जापं सुरत शब्द धरिया*
*नमो देव दरिया नमो देव दरिया*
ब्रह्म जापं जो निरंतर लगातार जो है ब्रह्म के जाप में जो रत रहते हैं ऐसे आचार्य श्री दरियावजी महाराज को बार-बार नमस्कार है।
*अजातं अवातं*
जिनका जन्म नहीं हुआ है ।दरियावजी महाराज का जन्म कहां हुआ? समुद्र में हुआ। जन्म हुआ ही नही।
*आजातं अवातं ,अघातं अपानं, अमानं अपापं।*
*नितापं निधानं, अडोलं अतोलं* *ऐसो तत्व गरिया*
*नमो देव दरिया नमो देव दरिया*
जिनका कोई जन्म नहीं हुआ है। मां के गर्भ में आए नहीं वो तो जन्म कैसे ? इसलिए अजात है वो। सब जीवो का जन्म होता है ।प्राणी मात्र जन्म लेते हैं ।स्त्रि पुरुष के संपर्क से पैदा होते हैं ।उसे जन्म कहते हैं ।जातं कह सकते हैं, जन्म होना कर सकते हैं ।लेकिन आचार्य श्री दरियावजी महाराज का जन्म नहीं हुआ अवतार हुआ है दरिया में वह प्राप्त हुए हैं इसवास्ते उनका नाम दरिया रखा और वो अपानं है ।उनको कोई पा नहीं सकता ।पाना माने प्राप्त करना ।क्या प्राप्त ?कोई चीज है थोड़ी है जो प्राप्त करे कोई मुर्त है कोई चीज है देखै जब ।निराकार को क्या देखें ?क्या प्राप्त करना ?वो तो प्राप्त ही है इसलिए संत करते हैं
*मिला मिलाया मिल रहा कब देख्या न्यारा*।
*दादू भेख अनेक है परसेंगा प्यारा*।।
मिला मिलाया मिल रहा बुद्ध भगवान को ज्ञान हुआ तो कोई लोगों ने पूछा बुद्ध भगवान से बुद्ध भगवान आपने क्या पाया ?इतनी तपस्या की, इतना ध्यान किया ,तो आपने क्या पाया? तो बुद्ध भगवान ने कहा। खोया ही खोया कुछ नहीं पाया ।इतना दिन भजन किया आपने खोया पाया ही नहीं। कि नहीं मैंने कुछ नहीं पाया मैंने खोया है। तो बोले क्या खोया ?मैंने भेद को खो दिया मैंने मान अपमान खोया ,मैंने काम क्रोध लोभ खोया ,पाया क्या वह बस्तू मेरे पास थी वस्तु कोई पास नहीं होती और नए तरीके तौर से पाते तो वस्तु पाना कर सकते तुमने पाई और वह तो पाया हुआ ही था। क्या पाना फिर ?पाया कुछ नहीं मैंने वस्तु कोई नई होती और नए तौर-तरीके से पातें तो उसे पाना कह सकते ।भाई यह वस्तु तुमने पाई और वह तो पाया हुआ ही था ।क्या पाना फिर ? पाया कुछ नहीं मैंने खोया ही खोया है। मैंने जन्म मरण को खोया है और गंदी आदत को मैंने खोया, भ्रम और चिंताओं को मैंने खोया और पाया मैंने कुछ नहीं वह तो प्राप्त ही था प्राप्त को क्या पाना। बुद्ध भगवान को ज्ञान हुआ तब उन्होंने यह वाक्य लोगों से कहें ।लेकिन महाराजश्री कहते हैं अभिमानी जो व्यक्ति है अहंकारी जो व्यक्ति हैं मत में बंधा हुआ जो व्यक्ति हैं वह अपने विचारों पर यह सब बातें बड़ी सुंदर लगती है बड़ी पवित्र लगती है तो भी बातें जीवन में घटती नहीं ,जीवन में क्रांति क्यों नहीं आती है? इसका कारण क्या है ?इसका एक ही कारण है हम अपने विचारों को आगे रखते हैं यदि यह बात सद्गुरु की बात हम ह्रदय में धारण कर ले सतगुरु की बात को स्वीकार कर ले आदर देने लग जाए आज्ञा मानने लग जाए सद्गुरु की तो सब कुछ ठीक हो सकता है ।लेकिन हम अपने विचारों को आगे रखेंगे सोचेंगे बात ठीक कहते हैं या नहीं कहते हैं ?इस बात से हमारा कल्याण होगा या नहीं होगा? यह महाराज कहते हैं बात ठीक है या नहीं है ?अपने विचारों को आगे रखने वाले अपने विचारों से गुरु को मापने वाले अथवा विचारों से बात को तोलने वाले व्यक्ति का आज तक भला नहीं हुआ।

अमेरिका में एक कोई भाई था वो फौज में भर्ती हुआ ।ध्यान लगाकर सुने फौज में भर्ती हुआ तो पहले पहले अभ्यास एक्सरसाइज कराते हैं तो परेड कराते हैं। तो परेड कराई गई ।परेड में जो बोलते हैं ना बैठिए उठिए तो बोले लेफ्ट टर्न बाए मुड़े यह कहा तो वह खड़ा ही रहा उसका मास्टर देख रहा है तो मास्टर ने कहा भाई सब लेफ्ट टर्न हो गए और तू खड़ा ही रहा है ।उसने कहा मैं विचार करता हूं लेफ्ट होने में फायदा क्या है? नुकसान है या फायदा है ।मैं विचार कर रहा हूं ।उसने कहा रे मुर्ख कहीं का यहां पर तेरे विचारों से काम नहीं चलेगा यहां मेरे विचार काम आएंगे मैं तेरा मास्टर हूं ।तुझे नौकरी करनी है या नहीं करनी है? मैं कहूंगा वैसा होंगा या तू चाहेगा वैसा होगा ।मैंने कह दिया लेफ्ट टर्न तो क्यों नहीं घुमा तू ?उसने यह उत्तर दिया कि मैं विचार करता हूं कि घूमना ठीक है या नहीं है गुमना मेरे हित में है या नहीं है ।मैं विचार कर रहा था इसलिए मैं घुमा नहीं ।तो देखा साला ये आदमी ऐसा है इसका क्या किया जाए ?काफी कोशिश की देखा अब सिसमेंट कर देंगे तो अच्छा नहीं है नौकरी लगी हुई है बिचारे की। तो उसको रसोया बना दिया कि अब तू रसोया कर और क्या उसने कहा कि ठीक है रसोया बना ।तो सब्जी वगैरे करनी पड़ती ना तो सब्जी में मटर की फलीया दिए ।पाच सात किलो फलिया दी और उसने कहा ऐसा करना छोटे दाने एक तरफ बड़े दाने एक तरफ ध्यान रखना हो। अब कह दिया छोटे दाने एक तरफ बड़े दाने एक तरफ इसको निकाल लेना दो-तीन घंटे बीत गए। फिर मास्टर आया कहा सब्जी कर दी क्या रे? साग कर दिया क्या? उसने कहा साग कायका मै तो अभी विचार कर रहा हूं ।के रे मूर्ख अभी तू विचार ही करता है क्या ?विचार करता है कि आपने कहा था कि मटर के बड़े दाने एक तरफ और छोटे दाने एक तरफ तो मैंने सोचा छोटे दाने एक तरफ कर दूंगा बड़े दाने एक तरफ कर दूंगा लेकिन मीडियम साइज का दाना मैं कहां रखूं ?उसको कहां रखु ?यह सोच रहा था यह सोचते सोचते तीन घंटे बीत गए मैं कर नहीं पाया इतने में कोई नए आदमी ने आकर कहा इस आदमी से आप क्यों माथापच्ची करते हो? ये अपने विचारों का पक्का है और अपने विचार यह सब पर थोपता है दूसरे के विचारों को स्वीकार नहीं करता है आदर नहीं देता है यह आदमी। आप इससे क्यों माथापच्ची कर रहे हैं? उसने बताया है तीन साल के बाद में जब उसने किसी लड़की से शादी करने के लिए बात चली तो लड़की ने प्रतीक्षा की शादी की उसने विचारों में उसने तीन साल बिता दिए तीन साल के बाद में उस लड़की के पास में पहुंचा और शादी करूं कि नहीं करूं तेरे साथ तो वह आकर लड़की के पास कहने लगा मेरा विचार था तेरे साथ में शादी करने का लेकिन मेरा विचार नहीं है अब तु स्वतंत्र है जिसके साथ में तु शादी करना चाहती है कर ले ।तो उसने कहा अरे मूर्ख मेरे तीन बच्चे पैदा हो गए ।तीन बरस हो गए मैं तो शादी कर चुकी हूं। अब मैं तेरे साथ में शादी करूंगी क्या ?तो ऐसा मूर्ख आदमी है आप इसके साथ में क्यों माथा पच्ची करते हैं उस आदमी ने मास्टर से कहा फिर वह आदमी उसका क्या हुआ उसका भगवान जाने लेकिन ऐसे लोग होते हैं अपने विचारों में जो लगे रहते हैं अपने ही विचारों को जो प्रधान मानते हैं अपनी अकल को बड़ा मानते हैं ऐसे लोग गुरु की बात क्यों मानेंगे तो गुरु की बात नहीं मानेंगे तो वह अमेरिका वाले व्यक्ति जैसी बात हो गई कल्याण होगा क्या? कल्याण नहीं होंगा ।तो कहने का भाव यह है यह सब इतना होते हुए भी साधना के द्वारा सब हो सकता है जीवन में क्रांति घट सकती है लेकिन क्यों नहीं घटती है? कि हम लोग अपने विचारों में रह जाते हैं तो महाराज कहते हैं तुम अपने विचार छोड़ो।
*तज्यो ब्रह्म भेख, धर्यो एक तारं*
इस भ्रम को छोड़ दो धर्यो एक तारं एक तार एक तार माने लगातार
*एक एक को ध्याय कर, एक एक आराध।*
*एक एक से मिल रहे ,जा का नाम समाध।।*
एक एक को ध्याय कर एक एक आधार यहां पर आचार्य श्री के बारे में कहां है एक तार महाराज का एक ही तार था ।हम लोगों के कितने तार हैं एक तार है कितने तार जुड़े हुए हैं ।एक तार नहीं है हमारे एक तार किससे जुड़ गया एक पति से जुड़ा, एक भाई से ,एक माँ से एक बेटे से एक बाप से एक ब्याही से एक ब्याणजी से ।कितने तार जुड़े हुए हैं जब तक जीवन में एक तारा नहीं आएगा तब तक कल्याण नहीं होंगा ।बहुत तार है इसलिए भगवान राम ने कहा है-
*सब की ममता ताग बटोरी*
*और मम पद बांध मनेबरी डोरी*
मम पद बांध मने बरी डोरी मन के द्वारा वो डोरी बांधे तो आचार्य श्री के एक ही तार था, एक ही लक्ष्य था ,एक ही ध्यान था ,एक ही निष्ठा थी ,एक ही आधार था ।हमारे जीवन में पता नहीं कितने आधार है एक नहीं है इसलिए संत कबीर ने कहा -
*थी एक की भयी बहुत की* *झगड़ा होसी भारी*
*कहे कबीर जले किन संग*
*बहु पुरुषों की नारी*
थी एक की भई बहुत की झगड़ा होसी भारी एक की ही थी बहुत की हो गई तो वह किस को अपना पति कहेंगी? किसको कहेंगे? एक है तो कहे। ऐसे ही जीवन में एक गुरु धर्म नहीं है और अनंता अनंत हम लोग मानते हैं तो भी कल्याण नहीं होंगा इसलिए एकतारा करना पड़ेगा एक के साथ में निष्ठा बनानी पड़ेगी एक को स्वीकार करना पड़ेगा ।प्रेम एक के से रहता है दो से रहते ?दो से नहीं रहता है। लेकिन दूसरों की आलोचना भी नहीं दूसरों की निंदा भी नहीं करनी लेकिन मानना अपने एक को। इसलिए महाराज ने यहां पर बताया है ।
*धर्यो एक तार, किये बस पाचु पचीसुं विकारं*
पांचो को बस में कर लिया काम क्रोध लोभ महो । शब्द ,स्पर्श, रूप ,रस ,गंध ये तनमात्रा है।इन पांचों को बस में कर लिया महाराजश्री ने किए बस पाचु पचीसुं विकारं पच्चीस प्रकार का जो विकार है
*जितें व्दंद वादं ,तिहू ताप हरिया* तीनों प्रकार के ताप का तिपों को जो है हरण कर लिया ।नमो देव दरिया तीन प्रकार का ताप *दैहिक ,दैविक, भौतिक तापा*
*राम राज नहीं काहुई व्यापा*

देहीक, देवीक भौतिक ये तीन प्रकार के ताप आचार्य श्री के सामने यह तीन प्रकार के ताप भाग गए थे। ताप नहीं थे ।तो महाराज ने बताया ऐसा जो तत्व है अडोलं अतोलं जिसका कोई तोल नहीं कोई माप नहीं *जीते द्वंद वादं, तिहूं ताप हरिया नमो देव दरिया*

*भई जीत मोक्षं अनुभव ज्ञान स्वादी*
जीत हो गई और मोक्ष ,मोक्ष की प्राप्ति हो गई भाई जीत ।जितना कोई मामूली बात है क्या? लोग जीत के लिए क्या-क्या करते हैं ।कितना खर्चा कर देते हैं ।मर जाते हैं जित के लिए। अपने आप को जो है बलि चढ़ा देते हैं ।जित के लिए ।महाराज करते हैं -
*जो कुछ थी सोई बनी,*
*मिट गई खैचातान*
*चोर पलट कर सा भया*
*फिरी राम की आन*
जो कुछ थी सोई बनी मिट गई खैचातान चोर पलट कर सा भया शत्रु फिर मित्र भया हुआ राम का राज ।शत्रु से मित्र हो गया जीत हो गई राम का झंडा फिर गया ।इसलिए जीत हो गई भाई जीत जीत आखिर तक झूझना पड़ता है ।सती सुरा कितना लडता है । *सती जले सुरा भिड़े ,एक पोहर को काम ।*
*दोरो भजनो रामदास आठ पोहर को राम।।*
सती जले सुरा भिड़े एक पहर को काम ।सती जल जाती है पोहर भी नहीं लगता है पाच मिनट में और सुरा के एक सेकंद में गोली लगे मर गया बस दोरो भजनों रामदास आठ पोहर को राम। आठ पोहर तक भाई विजय राम राम करे जिंदगी भर तक समझ लेना विजय है ।इसवास्ते से संत करते हैं -
*पाकी खेती देखकर ,गरज्यो कहा किसान ।*
*अजोहु झोला पड़त है घर आवे तब जान।।*
पाकी खेती देखके गरज्यो कहां किसान ।किसान देखें अब मैं लखपति हो जाऊंगा कम से कम हमारे यहां 200 मन तिल हुई ।200 मन हुई तो कितने रुपए का हो जाता है भाई? ढाई सौ मन समझ लो 100 क्विंटल 100 क्विंटल कितने रुपए का होता है ? लाख से ज्यादा जाता होगा ।देढ़ लाख का होता है ।तो वह सोचता है डेढ़ लाख के मेरे दिल हो जाएगा ।पर पता नहीं भाई घाटा पड़ गया तो गोविंदाय नमो नमः हो जाई ।अजहु झोला पड़त है घर आवे तब जान ।घर आवे तब पता लगता है अब घर आ गया इसलिए झोला बहुत पड़ता है ।जीत होनी बहुत मुश्किल है ।इसवास्ते संत कहते हैं
*राम राम सब कोई कहे कहे के मोळा होय ।*
*पीळी पाटया किशनदास बिरला उतरे कोय।।*
राम राम सब कोई कहे कहे के मोळा होय। राम-राम तो सब कहते हैं पर थोड़ी दूर करें कुछ समय ,कुछ वर्ष के लिए करें फिर कहे राम-राम तो बहुत करा रामजी कना मिली आपाने ? पली मिलता अब आ बात थोड़ी रही कलयुग में ।पली सतयुग में संतारा जमाना था ।जब संताने मिलीया रे भाई ।अब कैना मिले ।वो मोला पन हो गयो। राम राम सब कोई कहे कहे के मोड़ा होय ।पीली पाट्या किशनदास बिरला उतरे कोय।पीली पाटिया भाई बिरला ही उतरे हर एक नहीं उतर सके ।
एक संत हा। संत हां जना एक वैश्या बड़ी बदमाश ही। बदमाश काई ज्ञानवान ही कोई कोई आदमी में की न की गुण हुवे। जना वैश्या संताने कहती महाराज थे मर्द हो कि नारी हो ?कई हो ?जना महाराज कहता ए गेली तू हमजे कोनी कई ?हु काई हूं ?तने दिखे कोनी ?काई हूं? जना वा कियो मैं आपने बात दुजी पूछु बाबजी। इ बात रो सार और है ।हाल थाने ठाई कोनी ? महाराज कया हां बाई अब समझ गयो बात कही जी की ।महाराज समझ तो गया आ गया कया तने उत्तर पछे कदी देउ ए। रोजाना हीं जावती वा महाराज केवता ओरी कदी देउ तने फेर सोचर देऊ तने काल। काले-काले करता महाराज बुड्ढा हो गया ।बुड्ढा हो गया और महाराज मर गया ।चलावा क्रिया लेगया मुसाना में ।मुसानामें ले गया भाई जना बा वेश्या देखी महाराज मर गया ।मेरा प्रश्न को उत्तर दिया कोनी ।दौड़ी बापड़ी कर्डी दौडी बात री पक्की ही ।पक्को रेवे जीको काम करें। दौड़ी जना लोग कियो हित जावे तू ?महाराज ने प्रश्न करण जाउ ।जना कई भाई कयो महाराज की गति हुवे तो नहीं हुएला। कटे बळे? कन्ने अग्नि संस्कार कर दिया और ईकी दृष्टि पड़ गई तो गति नहीं हुवेला। कई बुढा समझदार आदमी हा कया संता कने सब बराबर का है। जावन रे रस्ते करे।जीव रो भलो हुवे चोखो है जावण दो आपन रे कयी है। बा कियो मैं बिलकुल पुछु महाराज कभी झूठ नहीं बोलता ।महाराज केवता तेरे प्रश्न को उत्तर देउ। जना गई बा कन्ना जाय र पूछो कियो बाबजी थे मर्द हो की नारी हो ? महाराज तीन बार छाती भचेड़ी। मर गया था तो जीवित हो गया पाछा। तीन बार कियो अब मर्द हूं मैं ।इन रो मतलब काई हुयो ? मतलब मैं जिंदगी भर सही रह्यो निष्कलंक रह्यो ,अब मर्द हूं ।तो भाई कोई मामूली बात कोनी। अहंकार आ जावे त्यागरो। उठ बळ जावे मुंडा मे त्याग रो बढ जावे म हू ।ऐडो अहंकार बढ़ जावे तो वो गिरे के खत्म हो गया गिर गया ।ज्ञान को अभिमान हो जावे जना जाननु हाल ताई ज्ञान हुयो कोनी। ज्ञान को कभी अभिमान हुयो काई? ज्ञान में नम्रता हुए ।पद को अभिमान आ गयो, ज्ञान को आ गयो ,अथवा रुप को आ गयो अथवा धन को आ गयो ,परिवार को समझ लो किसी भी अहंकार आ गयो तो आदमी गिर गयो इसवास्ते जिंदगीभर एक जैसे रहे बिरला रेवे आचार्य श्री कयो जीत हुई बि जित्या करें।
*आये राज चरणा तिरे हंस केता*
आगे बात करते हैं राज चरणा *"राजते शोभित इति राज"*
राजा। आचार्य श्री की बहूत शोभा होती थी चारों तरफ इसलिए वो राजा बाजे । *तिरे हंस केता*
जो चरणों में आए दरियावजी महाराज के सारे हंसों का कल्याण हुआ जिवो का भला हुआ। अनंत जीवो को तारा महाराज ने
*किये आप जैसा, बड़े तत्व वेता*
आप जैसा बनाया ।ये महापुरुषों की विशेषता है लोग कोई अपने जैसा बनाते हैं? नहीं बनाते हैं ।अपने से छोटा करना चाहते हैं ।अरबपति होता है तो वो दूसरे को अरबपति देखना नहीं चाहता ।वो सोचता है मेरे से नीचे करोड़पति हो सकते हैं लखपति रह सकते हैं लेकिन अरबपति कोई नहीं होगा ।लेकिन एक महापुरुष ही ऐसे हैं जो अपने जैसे बनाते हैं और कोई अपने जैसा नहीं बनाता है ।अपने से छोटा रखेंगे मातीत रहेंगे वो पैसेवाले कहेंगे लेकिन यहां पर बताया है ।
*आये राज चरणा, तिरे हंस केता, किये आप जैसा।*
*बड़े तत्व वेता ,मिटे जन्म मरणं सर्वे काज सरिया।।*
*नमो देव दरिया, नमो देव दरिया*
*भई जीत मोक्षं, अनुभव ज्ञान स्वादी।* स्वाद लिया अनुभव ज्ञान का ।
*हुते संत आगे ईसा जो समाधि , सिंधो सिंध मेला निर्भय नाथ घुरिया ।*
महाराज श्री के जीवन चरित्र में आवे ईसा जो समाधि सिंधो सिंध मेला सिंधु सिंध म मिल गया ।कोई नदी समुद्र में मिल जाती है इसीप्रकार से नाद हुआ निर्भय नाद घूरिया ।
*अनंत ही बाजा बाजीया ए* *हेली म्हारी अनंत ही उगा सूर*
*रग रग बोले राम जी ए हेली म्हारी*
*भळकन लागा नुर*
अनंत ही बाजा बाजीया ए अनंत ही उगा सुर रग रग बोले राम जी ऐ भळकन लागा नुर। ऐसी स्थिति हुई भाई अनंत ही बाजा बाज्या कोई पार नहीं। आनंत ही सूर्य उदय हुए हैं और निर्भय नाथ घुरिया यानी जो है इस प्रकार से आवाज रोम-रोम में होने लग गई अजप्पा -जाप चालू हुआ।
*भुजंगी प्रयाप्तं,अहो निश गावै।*
ये भुजंगी संत जो है रात दिन जो गाते हैं ।
*लहै तत्व ज्ञानं ,अभै पद पावै* गानेवाले को भी जो है तत्व ज्ञान की प्राप्ति होती है ।
*मिले जीव शिवं, कटे कर्म करिया*
जीव को शिव भाव प्राप्त हो जाता है और किए हुए कर्म कट जाते हैं *नमो देव दरिया नमो देव दरिया* इस प्रकार से महाराज को नमस्कार किया गया ।
*थाने नमो रे नमो गुरु दरिया*
*थारी शरण किताई जीव तिरिया*

*तुम नाम रता ज्यु नामा*
*गुरु राका ज्यु नेह कामा* *थाने नमो नमो गुरु दरिया*

*तुम हिंदू तुरक निराली*
*गुरु काढी ज्ञान गिराली*
*थाने नमो नमो गुरु दरिया*

तो यहां पर बताया है ऐसे जो आचार्य श्री दरियावजी महाराज हुए हैं *मिले जीव शिवं कटे कर्म करिया नमो देव दरिया नमो देव दरिया*
ऐसे आचार्य श्री दरियाव जी महाराज को बार-बार नमस्कार है ।
तो टाइम हो गया इतना ही बोल कर के आज जागरण है आप लोगों को मालूम ही हैं। महाराज की निर्वाण मोक्ष तिथि के उपलक्ष में वार्षिक यह सम्मेलन किया जाता है किया जाता रहा है और कर रहे हैं और करते रहेंगे ।तो बहुत बढ़िया बात है आप लोग पधारे हो कोई दूर से कोई नजदीक से भी सभी भाग्यशाली हैं जो इस जगह पर जिन का आगमन हुआ है जिनके चरण पड़े हैं जिनको रहने का सौभाग्य प्राप्त हुआ है ।वह भाग्यशाली है क्योंकि महापुरुषों की जगह ऐसी है पता नहीं इस जगह पर कितने ही संतो ने ध्यान किया है कितने ही संतो ने तपस्या की है और आज भी लोग करते हैं इसवास्ते जगह पवित्र है और खूब अपने निष्ठा रखो। राम-राम करते रहो चलते फिरते, उठते बैठते, खाते पीते ।धर्म में एकनिष्ठ रहो ,दृढ़ता रखो खूब भजन करो आत्मीयता रखो ।जब तक आत्मीयता नहीं होंगी फिर निष्ठा की जागृति कैसे होंगी ।आत्मीयता नाम अपनापन अपने धर्म के प्रति अपनापन आत्मीयता मारो पन ।यह होना बहुत जरूरी है और यह नहीं तो कुछ भी नहीं।