Thursday 31 August 2017

अपारख का अंग

अपारख का अंग

अथ श्री  दरियावजी महाराज की दिव्य वाणीजी का " अपारख का अंग " प्रारंभ । राम !

हीरा हलाहल क्रोड़ का, जा का कौड़ी मौल ।
जन दरिया कीमत बिना, बरतै डाँवाँडोल (1) 

आचार्यश्री दरियावजी महाराज फरमाते हैं कि हीरा तो बहुत कीमती तथा करोड़ों रूपयों का है परन्तु जब यह हीरा किसी मूर्ख व्यक्ति के हाथ में आया तो वह हीरे की कीमत नहीं जानने के कारण उसका उपयोग नहीं कर सका । इसी प्रकार परमात्मा की सत्ता होने पर भी परमात्मा का महत्व नहीं जान पाने के कारण आज संसार नरक और चौरासी में जा रहा है । राम राम  !

हीरा लेकर जौहरी, गया गिंवारे देश ।
देखा जिन कंकर कहा, भीतर परख न लेश (2) 

आचार्यश्री दरियावजी महाराज फरमाते हैं कि एक बहुत बड़ा जौहरी बहुत ही कीमती हीरा लेकर किन्हीं मूर्खों के गाँव में पहुँचा ।उसने हीरा खोलकर उन्हें दिखाया तो वह मूर्ख कहने लगे कि यह तो  एक चमकीला पत्थर है क्योंकि उन्हें परख नहीं थी । महाराजश्री कहते हैं कि मुझे इस बात का आश्चर्य होता है तथा दुःख भी होता है कि प्रभु की सत्ता  वर्तमान होने पर भी लोग उस सत्ता को स्वीकार करके अपना कल्याण नहीं कर पा रहे हैं । राम राम!

दरिया हीरा क्रोड़ का, कीमत लखै न कोय ।
जबर मिले कोई जौहरी, तब ही पारख होय  (3) 

आचार्यश्री दरियावजी महाराज फरमाते हैं कि हीरा तो करोड़ों रुपयों का है परन्तु जब कोई जौहरी मिलता है , तब ही उसकी परीक्षा हो सकती है । इसी प्रकार जिस व्यक्ति के हृदय में भक्ति का अंकुर है वही महापुरुषों को पहचान सकते हैं । राम राम  !

आई पारख चेतन भया, मन दे लीना मोल ।
गाँठ बाँध भीतर धसा, मिट गई डाँवाँडोल (4) 

आचार्यश्री दरियावजी महाराज फरमाते हैं कि जब परीक्षा हुई, तब उस मूर्ख के हृदय में चेतनता आई तथा उसे हीरे के प्रति लगाव हुआ । तत्पश्चात उसने हीरे को एक  सुरक्षित स्थान पर रखकर ताला लगा दिया तथा करोड़पति बन गया । इसी प्रकार जब मानव को भगवत नाम के महत्व के विषय में ज्ञान हो जाता है, तब वह राम नाम रुपी हीरे संग्रह करके अत्यंत धनवान हो जाता है । राम राम!

कंकर बाँधा गाँठड़ी, कर हीरा का भाव ।
खोला कंकर नीसरा,झूठा यही सुभाव (5) 

आचार्यश्री दरियावजी महाराज फरमाते हैं कि आज वर्तमान में मानव समाज की दौड़ केवल अर्थसंग्रह को लेकर हो रही है । रात-दिन एक  करके आज हम यह कंकर ही इकट्ठे कर रहे हैं । परंतु मन में भले ही इन्हें हीरे मान लो परन्तु मरते समय यह सब कंकर हो जायेंगे । इस देव दुर्लभ मानव शरीर की महिमा केवल इसके सदुपयोग से ही है । राम राम!

अथ श्री दरियावजी महाराज की दिव्य वाणीजी का " अपारख का अंग " संपूर्ण हुआ । राम

आदि आचार्य श्री दरियाव जी महाराज एंव सदगुरुदेव आचार्य श्री हरिनारायण जी महाराज की प्रेरणा से श्री दरियाव जी महाराज की दिव्य वाणी को जन जन तक पहुंचाने के लिए वाणी जी को यहाँ डिजिटल उपकरणों पर लिख रहे है। लिखने में कुछ त्रुटि हुई हो क्षमा करे। कुछ सुधार की आवश्यकता हो तो ईमेल करे dariyavji@gmail.com .

डिजिटल रामस्नेही टीम को धन्येवाद।
दासानुदास
9042322241

Monday 28 August 2017

29 . शरीर के सदुपयोग से मोक्ष - लाभ ( मोक्ष -प्राप्ति )

29 . शरीर के सदुपयोग से मोक्ष - लाभ ( मोक्ष -प्राप्ति )
देव दुर्लभ मानव शरीर की महिमा केवल इसके सदुपयोग से ही  है । शरीर का सदुपयोग करने से मानव जीवन का परम लाभ ईश्वर प्राप्ति - मोक्ष है । वास्तव में हानि एवं लाभ ये दो ही मानव शरीर के विशेष पक्ष है तथा ये दोनों ही पक्ष शरीर के सदुपयोग एवं दुरुपयोग पर आश्रित है । मानव के निम्न आचरण उसके सदुपयोग पक्ष को घोतित करते है , जैसे राम भजन,ध्यान ,सत्संग, महापुरूषो का आदेश पालन, परोपकार ,दीन-दुखियों की सहायता व सेवा करना एवं देशभगति । इन सभी शुभ व पुण्य कर्मों को अपना परम् कर्तव्य समझकर प्राथमिकता के आधार पर इन्हें करने में ही मानव शरीर का महत्व व सदुपयोग है ओर इस प्रकार यह शरीर परम सुख ( मोक्ष ) का दाता बन जाता है । इसके विपरीत मानव का निम्न आचरण उसके दुरुपयोग पक्ष को प्रकट करता है , जैसे दूसरो से घृणा करना , धोखा देना ,तिरस्कार करना ,दुख देना ,दूसरो के अधिकार व धन को हड़पना । इन सभी दुष्यकर्मो से यह शरीर ही मनुष्यो को दुख ( नरक ) दाता बन जाता है । अतः इस देव दुर्लभ मानव शरीर के सदुपयोग से ही मोक्ष प्राप्त किया जा सकता है ।
राम बिना तोको ठौर नही रे, जह जावे तह काल ।
जन दरिया मन पलट जगत सु , अपना राम सम्भाल।।
"सागर के बिखरे मोती"
रेण पीठाधीश्वर " श्री हरिनारायण जी शास्त्री"

28 . इन्द्रियों की सदुपयोगिता ही मानव जीवन का महत्व है

28 . इन्द्रियों की सदुपयोगिता ही मानव जीवन का महत्व है
इन्द्रियों की सदुपयोगिता ही स्वर्ग सोपान है । जो वाणी भगवान के गुणों का गान करती है वही सच्ची वाणी है । वे ही हाथ सच्चे हे जो दान-पुण्य व भगवान की सेवा के लिए काम करते है , वही मन सच्चा है जो चराचर प्राणियों में निवास करने वाले ईश्वर का सतत स्मरण करता है और वही कान वास्तव में कान कहलाने के योग्य है जो ईश्वर की सुधामय कथाओं का श्रवण करते है ,वही सिर धन्य सिर है जो चराचर जगत को भगवान की चल अचल प्रतिमा समझ कर नमस्कार करते है,जो सर्वत्र भगवत विग्रह का दर्शन है वे नेत्र वास्तव में सार्थक नेत्र है । शरीर का जो भी अंग भगवान और भगत महापुरुषों की सेवा से अर्पित है वही शरीर इन्द्रिय धन्य है । यदि मानव आसक्ति वश उपरोक्त इंद्रियो द्वारा शास्त्र विपरीत कर्म करता है तो ऐसा व्यक्ति पृथवी पर भार रूप है अतः इन्द्रियों की सदुपयोगिता ही मानव जीवन का महत्व है ।
घर धंधे में पंच मुवा व,आठ पोहर बेकाम।
दरिया मूरख ना कहे , मुख सु कदे न राम ।।

" सागर के बिखरे मोती "
रेण पीठाधीश्वर " श्री हरिनारायण जी शास्त्री "

27.ईश्वर भजन ही सच्चा सुख का साधन है

27. " ईश्वर भजन ही सच्चा सुख का साधन है "
सांसारिक विषयो के प्रति वैराग्य से एवं ईश्वर चिंतन से पूण सुख की प्राप्ति होती है । वैराग्य के बिना ईश्वर भगति संभव नही है । धन संपत्ति कुटुम्ब एवं भोगों के विषयों का चिन्तन विषमय ( मृत्यु ) है । इनसे कभी भी सच्चे सुख की प्राप्ति नही होती है । राम नाम जप ओर ईश्वर की भगति के बिना जीवन मे कभी भी सुख और शांति का अनुभव नही होता है ।
संसार के जितने भी भोग प्रदार्थो सोना,चांदी आदि का सुख एवं इन्ही के साथ इन्द्रियो का भोग सुख भी यदि किसी एक ही व्यक्ति को भोग रूप से प्राप्त हो जावे तो भी ये समस्त भौतिक व  इन्द्रिय सुख उसे शांति प्रदान नही कर सकेंगे । जिस प्रकार अग्नि में डाली हुई घृत की आहुति अग्नि को ओर अधिक प्रज्वलित करती है इसी प्रकार भोग व तृष्णा की अग्नि बढ़ती ही जायेगी और इसप्रकार इस के सेवन से जीवन मे केवल तृष्णा व अशान्ति ही बढ़ेगी । ये सभी जड़ प्रदार्थ दुखदायक, असत्य एवं क्षणिक है । इसलिये महापुरूषो के सत्संग के द्वारा पवित्र विचार ,सद असद का ज्ञान प्राप्त करके मनुष्य ईश्वर आराधना करके शाश्वत सच्चे सुख की प्राप्ति कर सकता है अतः ईश्वर भजन ही सच्चे सुख का साधन है ।
जन दरिया एक राम भजन कर,भरम बसाना खोई ।
पारस परस भया लोह कंचन,बहुर न लोहा होई ।।
*सागर के बिखरे मोती*
रेण पीठाधीश्वर " श्री हरिनारायण जी शास्त्री "

26. यह मनुष्य शरीर मुक्ति का खुला द्वार है

26. यह मनुष्य शरीर मुक्ति का खुला द्वार है
अज्ञानी मनुष्य ममता वश अपने कुटुम्ब के भरण पोषण में ही सारी सुध-बुध खो बैठता है इसलिये उसे कभी भी शान्ति नही मिल सकती है यह मनुष्य शरीर मुक्ति का खुला हुआ द्वार है । मुक्ति के इस सुसाधन को पाकर भी जो मानव अपने जीवन के उद्देश्यो को भूलकर केवल अपनी घर गृहस्थी में फंसा रहता है वास्तव में वह बहुत ऊंचे तक चढ़ कर नीचे गिर रहा है । जो मनुष्य ईश्वर स्मरण व शुभ कार्य नही करते है केवल कौटुम्बिक ममता के कारण अहनिश अत्यन्त कठोर परिश्रम करके गृह ,पुत्र,मित्र ओर धन सम्पति संचय में संलग्न रहते है ,उन्हें अन्त में ये सब छोड़ देना पड़ता है तथा न चाहने पर भी विवश होकर घोर नरक में जाना पड़ता है । मनुष्य शरीर है तो अनित्य ही , मृत्यु इसके पीछे लगी रहती है परन्तु निस्पर्श जीवन से इसी परम साधन शरीर से परम पुरुषार्थ की प्राप्ति हो सकती है। अनेक जन्मों के बाद ये अत्यंत दुर्लभ मनुष्य शरीर पाकर बुद्धिमान मनुष्य को शीघ्र अति शीघ्र मृत्यु से पूर्व ही मोक्ष प्राप्ति का प्रयत्न कर लेना चाहिये । विषय भोग तो सभी योनियों में प्राप्त हो सकते है इसलिए भोगों के संग्रह में अमूल्य जीवन नही खोना चाहिये । इसप्रकार इस मनुष्य जीवन का मूल उद्देश्य मोक्ष ही है ।
" नाम बिन भरम करम नही छूटे "
जन दरिया अरपे दे आप,जरा रे मरण तब छूटे।
" सागर के बिखरे मोती "
रेण पीठाधीश्वर  " श्री  हरिनारायण जी शास्त्री "

Tuesday 22 August 2017

25 . शरीर का सदुपयोग करना ही अधिकार प्राप्त करना है

25 . शरीर का सदुपयोग करना ही अधिकार प्राप्त करना है
सम्पति के मद से लोग अनित्य शरीर को अपना मानकर गरीबो को सताते है । यह शरीर किसका है ,इस पर किसका अधिकार है ,क्या यह माता का है ? क्या यह पिता का है ? या यह अपना है ? पिता कहता है कि यह शरीर मेरा है ,मेरे वीर्य से उत्पन हुआ है । माता कहती है शरीर मेरा है,मेने नो मास पेट मे रखा व पालन पोषण कर बड़ा किया है । पत्नी कहती है शरीर मेरा है इसके साथ मेने शादी की है । अग्नि कहती है यदि शरीर पर माता, पिता और पत्नी का अधिकार है तो प्राण निकलने के पश्चात वे अपने पास नही रख कर बाहर क्यो निकलते है अतः इस शरीर पर मेरा ही अधिकार होने के कारण इसे लोग शमशान में लाकर मुझे सौपते है । इसलिए शरीर को अपना मानना मूर्खता है । शरीर के द्वारा प्राणी मात्र की सेवा कर उन्हें अभय देना ही अधिकार को प्राप्त करना है । ईश्वर ने बड़ी कृपा करके यह मानव शरीर दिया है इसलिए जो मनुष्य इसे प्राप्त कर अपना मन राम स्मरण भजन में नही लगता है  और ईश्वर की शरण नही लेता है उसका जीवन अत्यंत शोचनीय है । वह स्वयं अपने आप को धोखा दे रहा है । अतः शरीर का सदुपयोग करना ही अधिकार को प्राप्त करना है ।
दरिया देही गुरुमुखी , अविनासी का हाट। 
सन्मुख होय सौदा करे , सहजा खुले कपाट ।।
" सागर के बिखरे मोती "
रेण पीठाधीश्वर श्री हरिनारायण जी शास्त्री

24. समाज की सेवा करना ही पद का सदुपयोग करना है

24. समाज की सेवा करना ही पद का सदुपयोग करना है
जब किसी धार्मिक,सामाजिक एवं राजनेतिक नेता को समाज द्वारा उच्च पद एवं अधिकार प्रदान कर दिया जाता है तब उसका कर्तव्य हो जाता है कि वह समाज की भावनाओ का आदर करते हुए विनम्रता से अपना जीवन समाज के कल्याण के लिए समर्पित कर दे लेकिन यदि वह पद में दीन सामान्य जनता व विशिष्ठ लोगों की  भावना का तिरस्कार करके अपने पद को अन्याय अत्याचार पूर्वक बचाये रखना चाहता है, तथा आने दुराग्रह के कारण लाखो निरपराध लोगों के खून से होली खेलने में भी गर्व अनुभव करता है तो उसका यह पद निरर्थक है क्योंकि पद का सदूपयोग तो प्राणी मात्र की सेवा करके उन्हें प्रसन्न रखने में है।
*"सागर के बिखरे मोती"*
*रेण पीठाधीश्वर " श्री हरिनारायण जी शास्त्री"*

23 .संतोषी सदा ही सुखी है

23 .संतोषी सदा ही सुखी है
जीवन मे सद्गुण ओर दुर्गुण दोनों का ही समावेश है । लेकिन पारिवारिक ममता एवं धनेशना के कारण अवगुण सतत बढ़ते जाते है । अतः मानव को निष्प्रह बनकर अपने देवी गुणों के प्रभाव से अवगुणों पर विजय प्राप्त करने का निरंतर प्रयाश करते रहना चाहिये । मन के संकल्पों की त्याग से , काम को कामनाओं के त्याग से, क्रोध को क्षमा से , तथा तत्व के विचार से भय को जीत लेना चाहिए । अध्यात्म विचार से शोक ओर मोह पर ,संत महापुरुषो की उपासना से,दम्भ पर,मोन के द्वारा योग के विद्यानो पर, शरीर प्राण आदि को निश्चेष्ट कर के हिंसा पर विजय प्राप्त करनी चाहिए । जो सुख अपनी आत्मा में रमण करने वाले निष्कामी संतोषी पुरुष को मिलता है उस मनुष्य को भला कैसे मिल सकता है जो कामना ओर लोभ के लिए हाय हाय करता रहता है । जिसके मन मे संतोष है उसके लिए सर्वदा ओर सर्वत्र सब कहीं सुख ही सुख है अतः संतोषी सदा ही सुखी है ।
" संतोषः परम सुखं "
सेवाधर्म परम गहनों योगिनामपर्यगम्यम
"सागर के बिखरे मोती"
रेन पीठाधीश्वर " श्री हरिनारायण जी शास्त्री"

22 . महापुरुष दर्शन मात्र से ही पवित्र करते है

22 . महापुरुष दर्शन मात्र से ही पवित्र करते है
इस संसार मे शरीर को जन्म देने वाले माता पिता प्रथम गुरु है । इस के बाद उपनयन संस्कार विद्या अध्यन करवा कर सत्कर्मो  की शिक्षा देने वाला दूसरा गुरु है तदन्तर आध्यात्मिक क्षेत्र में ज्ञान उपदेश करके ईश्वर को प्राप्त करने वाला तीसरा गुरु है । तीसरा गुरु तो परमात्मा का हि स्वरूप होता है । स्वयं भगवान ही सतगुरू कर रूप में है , ऐसा पवित्र भाव ही शिष्य को उन्नति प्रदान कर मोक्ष का कारण बनता है ,केवल जलमय तीर्थ ही तीर्थ नही कहलाते है । और केवल मिटी या पत्थर - प्रस्तर प्रतिमाये ही देवता नही होती है । संत महापुरुष ही वास्तव में तीर्थ ओर देवता है क्योंकि तीर्थ एवं प्रतिमाओं का बहुत समय तक सेवन करने पर ये पवित्र करते है । महापुरुष तो तत्काल दर्शन मात्र से पवित्र कर देते है । अग्नि सूर्य चंद्रमा आदि देवताओं की उपशना करने पर भी ये पाप का पूरा पूरा नाश नही कर सकते ,क्योकि उपासना से भेद बुद्धि जा नाश नही होता वह तो ओर भी बढ़ती है । परंतु घड़ी दो घड़ी भी ज्ञानी महापुरूषो की सेवा की जाय तो वे सारे पाप मिटा देते है  क्योकि वे आध्यात्मिक ज्ञान सत्संग के द्वारा भेद बुद्धि का नाश कर देते  है । गुरु के कर्ज से मुक्त हाने के लिए सत शिष्यों के इतना ही कर्तव्य है कि वे विशुद्ध भाव से गुरु की आज्ञा का पालन कर अपना सब कुछ गुरुदेव की सेवा में समर्पित कर देते है ।
*गुरु गोविंद दोनों खड़े काके लागू पाय बलिहारी गुरु देव की गोविंद दियो बताया।।*
*दरिया सतगुरु भेटिया जा दिन सनाथ। श्रवणा सब्द सुनाय के मस्तक दीना हाथ ।।*
*"सागर के बिखरे मोती "*
*रेण पीठाधीश्वर " श्री हरिनारायण जी शास्त्री "*

21. सुख और दुख के स्वरूप को जानना ही सच्चा ज्ञान है

21. सुख और दुख के स्वरूप को जानना ही सच्चा ज्ञान है ।*
सुख और दुख मन का धर्म (स्वभाव) है । मानव अनादि काल से दुख की समस्या का समाधान पाने के लिये उपाय सोचता रहता है । निरन्तर सुख की चाहना मनुष्य का सहज स्वभाव है । वह सुख को शाशवत बना कर उसे अपने पास रखना चाहता है ।लेकिन दुख को एक क्षण के लिए भी नही चाहता है परन्तु उसकी यह इच्छा कभी पूरी नही होती है । इस असंभव को सम्भव बनाने के प्रयास में वह जीवन के अंतिम क्षण तक झुझता है सुख की मात्रा ओर स्थायित्व दोनों के प्रति व्यक्ति के मन मे मोह है । वैज्ञानिक भौतिक विज्ञान के द्वारा इस समस्या के समाधान में लगे हुए है । किंतु भारतीय संस्कृति चितन इसे स्वीकार नही करता है । भारतीय चिंतन ने सुख दुख को समस्याओं का सम्बंध मानव के मन से माना है  क्योकि उनकी दृष्टि से सुख और दुख का मूल केंद्र मनुष्य का अपना मन ही है । बाहरी साधन तो केवल थोड़ा संतोष प्रदान कर सकते है । नित्य जीव से अनित्य शरीर से संबंध जोड़कर दुख की सृष्टि की है अतः इस जीव ने परमात्मा तत्व में विलीन होकर तादात्मय भाव स्थापित कर लेने से ही सुख की उपलब्धि हो सकती है इस तरह सूख ओर दुख के स्वरूप को समझ लेना ही सच्चा ज्ञान है ।
*जीव जात से बिछुड़ा , धर पंच तत्व का भेष।दरिया निज धर आइया, पाया ब्राह्म अलेख।।*
*"मनः एव मनुष्याणं कारणः बन्ध मोक्षयोः"*
"सागर के बिखरे मोती"
रेण पीठाधीश्वर "श्री हरिनारायण जी शास्त्री"

Sunday 20 August 2017

20. भगवन्नाम से सारे प्राश्चित हो जाते है

20. भगवन्नाम से सारे प्राश्चित हो जाते है ।
मनुष्य मन वाणी और शरीर से(मनसा, वचसा,कर्मणा) पाप करता है । यदि वह इन पापो का इसी जन्म में प्रयश्चित न करले तो मृत्यु के पश्चात उसे अवश्य ही उन भयंकर यातना पूर्ण नरको में जाना पड़ता है जिनका स्मरण करने मात्र से ही शरीर के रोगटे खड़े हो जाते है । इसलिये बड़ी सावधानी ओर जागरूकता के साथ रोग एवं मृत्यु प्रप्ति से पूर्व ही शीघ्र अति शीघ्र पापो के भयंकर परिणामो पर विचार करके उनका प्रायश्चित अवश्य कर लेना चाहिये । व्रत दान व तीर्थो द्वारा किया गया प्रायश्चित सहयोगी कारण माने गए है परंतु पापो की जड़ लोभ आसक्ति का निवास भोग वासनाओ में रहने से तथा पापकर्मो की प्रवति के कारण मानव पुनः पाप कर्मों में लिप्त हो जाता है परंतु राम नाम का जाप करने से अंत करण पवित्र हो जाता है जिससे भोग वासनाओ का क्षय हो जाता है । भोग वासना रहित मानव  में पाप करने की प्रवत्ति सदा सदा के लिये नष्ट हो जाती है इस प्रकार भगवन्नाम से सारे प्रायश्चित हो जाते है ।
*दरिया सुमिरे राम को सहज तिमिर का नास । घट भीतर होय चांदना परम ज्योति प्रकाश ।।*
*"सागर के बिखरे मोती"*
*रेण पीठाधीश्वर " श्री हरिनारायण जी शास्त्री"*

19. संबंध की सार्थकता ममता में नही उपयोगिता में है ।

19. संबंध की सार्थकता ममता में नही उपयोगिता में है ।*
इस जीवन में जो मनुष्य अपने प्रिय संबंन्धी को भगवत भगति का उपदेश न देकर उसे मृत्यु - पाश (मृत्यु की फांसी) से नही छुड़ाता है , वह गुरु गुरु नही है , स्वजन स्वजन नही है ,पिता पिता नही है , माता माता नही है ,एवं पति पति नही है । सभी संबंधों का  धर्म (कर्तव्य) यही है कि आत्मीय जनो को माया मोह एवं दुर्गुणों से विमुख करके उन्हें भगवतभगति की ओर प्रेरित करने वाला ही सच्चा सुह्रद ,आत्मीय एवं हितेषी है । जीवन संबंधों की सार्थकता  ममता व आसक्ति में नही है अपितु इनकी सदुपयोगिता में है ।
*भव जन बहता जाय था , संशय मोह की बाढ़ ।*
*दरिया मोहि गुरु कृपा कर , पकड़ बाँह लिया काढा।।*
"सागर के बिखरे मोती"
रेण पीठाधीश्वर "श्री हरिनारायण जी महाराज"

18. साधना से भगवत्कृपा का दर्शन

18. साधना से भगवत्कृपा का दर्शन*
साधना भगति कभी भी निष्फल(व्यर्थ) नही होती है । साधक को भगति ओर भगवान को प्राप्त करने के लिये सदा ही ततपर रहना चाहिए । साधना को प्राणवत्त समझ कर साधना उपासना करने वाला व्यक्ति कभी भी अपने उद्देश्य राम स्मरण से विमुख नही होना चाहता । प्यासा आदमी जल की खोज करेगा और तबतक उसकी यह प्रकिया चलती रहेगी जब तक कि वह जल को प्राप्त नही कर लेता । सच्चे साधक की भी स्थति इसी प्रकार की होती है । प्रभु दीन बंधु करुणा निधान है । व्यक्ति छल कपट ओर झंझाल को त्याग कर जब भगति में लग जाता है । तभी उसे ईश्वर की आकाश करुणा को ज्ञान होता है तथा साधना राम स्मरण के महत्व को स्वीकार करता है पुरुषार्थ की सीमा तक साधना करने पर ही व्यक्ति में नम्रता का उदय होता है और तभी वह भागवत कृपा का अधिकारी बनता है । प्रभु पग पग पर भगत की साधना को सम्मान देते है अतः साधना से ही भगवत्कृपा का दर्शन होता है ।
*दरिया धन वे साधना, रहे राम लो लाय।*
*राम नाम बिन जीव को, काल निरन्तर खाय।।*
"सागर के बिखरे मोती"
रेण पीठाधीश्वर श्री हरिनारायण जी शास्त्री

17. निष्काम कर्म करने वाला ही योगी है:

17. निष्काम कर्म करने वाला ही योगी है:*
भगति ओर कर्म में अंतर नही है । ईश्वर को प्रसन्न करने के लिये किया गया कर्म ही भगति है लेकिन इस कर्म में स्वयं के लिए आसक्ति न हो। जो मनुष्य ईश्वर का चिन्तन करता हुआ कर्म करता है उसकी प्रत्येक क्रिया ईश्वर भगति ही कही जायेगी। सभी कर्म ईश्वर के अर्पण करने से मानव पाप रहित होकर कर्मो से स्वतंत्र होने लगता है। जो व्यक्ति कर्म फल ईश्वर के अर्पण करता है तो भगवान उसे अनन्त गुणा बना कर वापस दे देते है । व्यक्ति की प्रतियेक प्रवत्ति ईश्वर के साथ जुड़ी रहनी चाहिए । गृहस्थ चलाने हेतु नोकरी धंधा कुछ न कुछ साधन करना ही पड़ता है
परन्तु साथ ही साथ ईश्वर संबंध बनाए रखने से हृदय में पुनः निष्कामना आ जाती है  इस तरह गृहस्थ पारिवारिक बंधनो का ज्ञान हो जाने से उसमे अनासक्त  जीवन का परम लाभ प्राप्त होने लग जाता है। इन आचरणों गुणों से युक्त व्यक्ति सभी प्रकार के कर्म  बंधनों से स्वतंत्र होकर परम सुख का अनुभव करता है । ऐसा पवित्र जीवन जीने वाला सद्गृहस्थ घर बैठा ही योगी है अतः निष्काम कर्म करने वाला भी योगी है ।
*कर्मनियवधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन*
*हाथ काम मुख राम है हिरदे सांची प्रीत।*
*जन दरिया गृही साध की , यहि उत्तम रीत।।*
*"सागर के बिखरे मोती"*
*रेण पीठाधीश्वर श्री हरिनारायण जी शास्त्री*

16. अनुकुलता-प्रतिकूलता में सम रहना ही सुखी होना है।

16. अनुकुलता-प्रतिकूलता में सम रहना ही सुखी होना है।
आंखों से अंधा मानव अंधा नही है  किन्तु आंखे होते हुए भी जो मनुष्य काम ,क्रोध ,लोभ,मोह,मद की पट्टी के बंधन में आ जाता है वही अंधा है । जिनकी आंखों को लोभ,मोह,धन,वैभव ने बन्दी बना कर घेर लिया है वही धृतराष्ट्र है । अन्त काल मे धन,पैसा परिवार कोई भी साथ नही जाता है फिर भी मनुष्य इनके पीछे पीछे भगता रहता है । भौतिक प्रदार्थो का त्याग कर कही भी आनंद ढूंढने का प्रयास नही करता है । मनुष्य बड़े बड़े मनोरथों के पूल बंधता रहता है परन्तु वह यह जनता है कि देव(प्रारब्ध)ने इसे पहले ही नष्ट कर रखा है । यही कारण हे कि जब कभी प्रारब्ध के अनुकुल होने पर प्रयत्न सफल हो जाता है तो वह हर्ष से फूल उठता है तथा प्रारब्ध के प्रतिकूल होने पर जब विफल हो जाता है तो शोक ग्रस्त हो जाता है । मनुष्य को चाहिए कि चाहे सफलता मिले या विफलता ; दोनों के प्रति सम भाव रखकर अपना कर्तव्य कर्म करता रहे । फल प्रयत्न से नही देव प्ररेणा से मिलते है अतः अनुकुलत व प्रतिकूलता में सम रहना है सुखी होना है ।
*त्रिविधं नरकक्सयेदं द्वारं नाशनमात्मनः । कामः क्रोधस्तथालोभ , तसमदेतम त्रयं तयजेतम ।।*
सागर के बिखरे मोती
*रेण पीठाधीश्वर श्री हरिनारायण जी शास्त्री

15. सत्पुरुषों की उपासना से ही माया बन्धन टूटता है ।

15. सत्पुरुषों की उपासना से ही माया बन्धन टूटता है ।*
अज्ञानी मानव सांसारिक सुख-दुख आदि द्वन्दों में रमण करता है । वह यह बात बिल्कुल भूल गया कि ईश्वर ही उसके सच्चे प्रेमास्पद  है । जैसे कोई अनजान मनुष्य जल के लिऐ तालाब पर जाय और उसे उसी से पैदा हुए सिवार आदि घासों से आच्छादित(ढका हुआ) देख कर यह समझ ले कि यहाँ जल नही  है लेकिन सूर्य की किरणों से झूठ मुठ प्रतीत होने वाले जल के लिये मृग तृष्णा की ओर दौड़ पड़े वैसे ही मनुष्य ईश्वर की माया से छिपे रहने से ईश्वर को छोड़कर सुख कि आशा में सांसारिक विषयो में भटक रहा है । स्वपन में दिखने वाले जूठे प्रदार्थ के समान झूठे देह गेह ,पत्नी,पुत्र,धन और स्वजन आदि को सत्य समझ कर इन्ही के मोह में फसा हुआ है । जब जीवन के अंतिम दिनों में जीव का संसार से मुक्त होने का समय आता है तब इस अपरिहाय परिस्थिति में विवेकशील मनुष्य सत्पुरुषों की उपासना , उनका सानिध्य करने लग जाता हैं । जिससे उनकी चित्तवृत्ति सुध होकर ईश्वर में लग जाती है इस प्रकार सत्पुरुषों की उपासना से ही माया का बंधन टूटता है ।
मूढ़ काग समझे नही, मोह माया सेवे। 
चुन चुगावें कोयली, अपना कर लेवे।।

जतन जतन कर जोड़ ही दरिया हित चित्त लाय ।
 माया संग न चाल ही ,जावे नर छिटकाय।।
*सागर के बिखरे मोती*
*रेण पीठाधीश्वर श्री हरिनारायण जी शास्त्री*

14. सर्व गुण भगति के आश्रित:

14. सर्व गुण भगति के आश्रित:
मनुष्य अपने परिवार व समाज को ईश्वर का स्वरूप समझकर उनके साथ निष्काम भाव से समुचित धर्म का पालन करते हुए सेवा करे । निष्काम सेवा भाव से हृदय पवित्र होता है । पवित्र ह्रदय में सात्विक भावों की प्रबलता से मानव आत्म कल्याण के लिये आध्यात्मिक पथ प्रदर्शक महापुरुष की आवश्यकता समझकर उनका संग करता है । महापुरुषों के सत्संग से उसमे भगति का श्री गणेश होता है । *भगति महापुरुषों की कृपा से ही प्राप्त की जा सकती है।*
भगति जीवन मे परम सुख प्रदान करती है। ज्ञान विज्ञान आदि सभी गुण भगति के अधीन है । केवल राम ईश्वर की भगति करने से सारे गुण प्राप्त किये जा सकते है , जैसे वृक्ष के मूल को पकड़ लेने से वृक्ष की शाखाएं ,उपशाखाएँ, फूल फल पते आदि अवश्य उसके अंतरंग होने से उसमे समाविष्ट हो जाते है । इसीप्रकार सर्वगुण भगति के ही आश्रित है ।
*जन दरिया हरि भगति की , गुरा बताई बाट । भूला उझाड़ जाय था , नरक पड़न के घाट ।।*
*दरिया सतगुरु शब्द सो , मिट गई खेंचातान । भरम अंधेरा मिट गया , परसा पद निरबान ।।*
*"सागर के बिखरे मोती "*
*रेण पीठाधीश्वर " श्री हरिनारायण जी शास्त्री "*

13. आसुरी व्रति अविद्या को जितना ही पूतना को मारना है

13. आसुरी व्रति अविद्या को जितना ही पूतना को मारना है:*
6 दिन की आयु में ही भगवान कृष्ण ने पूतना को मारा । आयुर्वेद में पूतना नाम एक रोग का है । जिन बालको के माता-पिता उसके स्वास्थ्य का ध्यान रखते है वे बच्चे स्वस्थ होते है, उन्हें यह रोग नही होता । स्वस्थ बालक पूतना रोग को मार कर नष्ट कर देता है । यह रोग बालक के जन्म से 3 वर्ष तक होता है । ये तीन गुण ही तीन वर्ष के वाचक है इसका आध्यात्मिक अर्थ यह है कि जो व्यक्ति सतोगुण, रजोगुण, तमोगुण को जीत लेता है वही पूतना अविद्या रूपी घृणित मनोवृति को नष्ट करके उसे जीत लेता है । यह पूतना चतुर्दशी के दिन नंद के घर कृष्ण को मारने के लिये आई । अज्ञान भी पूतना ही है यह 14 स्थान ( पांच ज्ञानेंद्रिया ,पांच कर्मेन्द्रिया ,चार अंतःकरण ) पर अधिकार करती है । इन्हें जो सम दमादी साधना के द्वारा जीत लेता है वही पूतना अविद्या को मार सकता है उक्त कुवृत्तियों का नाश करके कृष्ण भगवान ने पूतना को मारा अतः आसुरी व्रति-अविद्या को जितना ही पूतना को मरना है ।
*जन दरिया एक राम भजन कर, भरम वासना खोई ।*
*पारस परस लोह भया कंचन,  बहुर न लोहा होई।।*
*"सागर के बिखरे मोती"*
*रेण पीठाधीश्वर "श्री हरिनारायण जी शास्त्री"*

12. इन्द्रियो को वश में करना ही सुखी होना है

12. इन्द्रियो को वश में करना ही सुखी होना है :*
संसार के सभी अभीपिस्त प्रिय विषय मनुष्य की कामनाओं को कभी भी पूर्ण करने में समर्थ नही है । इसलिए जो कुछ प्रारब्ध से मिल जाय उसी से संतुष्ट होकर रहने वाला पुरुष अपना जीवन सुख से व्यतीत करता है परन्तु अपनी इन्द्रियों को वश में नही रखने वाला तीनो लोकों का राज्य पाने पर भी दुखी रहता है क्योंकि उसके हृदय-मन में तृष्णा की आग धधकती रहती है । इंद्रियों के भोगों से संतुष्ट न होना ही जीव के जन्म मृत्यु के चक्कर मे गिरने का प्रमुख कारण है । जो कुछ प्राप्त हो जाय उसी में खुश होना ही मुक्ति का कारण है अतः इंद्रियों को वश में रखना ही सुखी होना है ।
*"दरिया मन को फेरिये , जामे बसे विकार"*
*"सागर के बिखरे मोती"*
*रेण पीठाधीश्वर "श्री हरिनारायण जी शास्त्री"*

11. सगुण राम की सुलभता

11. सगुण राम की सुलभता :
निराकार(अमूर्त) ईश्वर को मानने वाला योगी परमात्मा में तथा स्वयं के अभेदभाव अनुभव करने के कारण सर्वत्र ब्रह्म का साक्षात्कार करने लगता है अतः उसे किसी मूर्ति अथवा किसी प्रतीक की स्थूल उपकरणों से पूजा करने की कोई अपेक्षा आवश्यकता नही रहती है । उस तत्त्वज्ञ भक्त की प्रत्येक क्रिया ही पूजा है,वह मस्ती में पुकार उठता है, *है प्रभु! "यह शरीर आपका मन्दिर है,इसमें आत्मा के रूप में आप निवास करते हैं,* मेरा चलना ही परिक्रमा है,मुख से निकलने वाली प्रत्येक वाणी ही स्त्रोत का पाठ है,निद्रा ही समाधि की स्थति है,इस तरह में जितने भी कर्म करता हूं वे सब आपकी आराधना है ।
सगुण राम की उपासना सरल है । *ईश्वर गाय के सदृश है। भक्त बछड़ा बन कर उनका कृपारूपी दूध निकलता है तब बछड़े के माध्यम से वो दूध अन्य लोगो को भी प्राप्त हो जाता है।*निराकारी भक्त ब्रह्म के अस्तित्व के ज्ञान विस्तार द्वारा अपने को भले ही संतुष्ट कर दे किन्तु मानवीय जीवन की समस्याओं का समाधान पाने के लिये राम की करुणा को द्रवित करना होगा । *भक्त अपने भाव वत्स के द्वारा राम का कृपारूपी दूध पाने में सफल हो जाता है।* ब्रह्म निर्गुण से सर्गुण होकर ही भक्त की समस्यओं का समग्र समाधान करता है अतः निर्गुण की अपेक्षा सर्गुण सुलभ है।
*जन्म मरण सु रहित  है,खण्डे नही अखण्ड।*
*जन दरिया भज रामजी,जिन्हा रची ब्रहाण्ड।।*
*दरिया निरगुण नाम है, सरगुण  सतगुरु देव ।*
*ये सुमरावे राम को, वो है अलख अभेव।।*
*"सागर के बिखरे मोती"*
*रेण पीठाधीश्वर "श्री हरिनारायण जी शास्त्री"*

Wednesday 9 August 2017

चिन्तामणी का अंग / श्री दरियाव वाणी

चिन्तामणी का अंग 

अथ श्री दरियावजी महाराज की दिव्य वाणिजी का "चिन्तामणी का अंग " प्रारंभ । राम !

चिंतामणि चौकस चढ़ी, सही रंक के हाथ ।
ना काहू के सँग मिलै , ना काहू से बात (1) 

आचार्यश्री दरियावजी महाराज फरमाते हैं कि जब किसी गरीब व्यक्ति को चिन्तामणी प्राप्त हो जाती है , तो वह किसी का संग नहीं करता है । क्योंकि यदि लोगों को पता लग गया तो यह खबर राजा तक पहुंच जाएगी तथा राजा उससे चिन्तामणी छीन लेगा । इसी प्रकार जो परमात्मा रूपी चिंतामणि प्राप्त महापुरुष होते हैं वे जगत का संग नहीं करते हैं । राम राम!

दरिया चिंतामणि रतन, धरयो स्वान पै जाय ।
स्वान सूंघ कानैं भया, टूकां ही की चाय (2) 

आचार्यश्री दरियावजी महाराज फरमाते हैं कि जब यह चिंतामणी कुत्ते के सामने रखी गई तो कुत्ता बेचारा चिंतामणी के पास आया, उसे सूंघा तथा सूंघकर दूर हो गया  क्योंकि उसके मन में तो पेट भरने हेतु रोटी प्राप्त करने की ही इच्छा थी । जब तक परमात्मा की कीमत के विषय में हमें ज्ञान नहीं है, तब तक हम परमात्मा के नाम को स्वीकार नहीं कर रहे हैं । परन्तु जब सतगुरु की कृपा से भगवत नाम के विषय में जानकारी हो जायेगी, तब हम एक क्षण के लिए भी नाम को अपने हृदय से निकाल नहीं पायेंगे  । राम राम!

दरिया हीरा सहस दस, लख मण कंचन होय । 
चिंतामणी एकै भला, ता सम तुलै न कोय (3) 
आचार्यश्री दरियावजी महाराज फरमाते हैं कि हजारों की संख्या में हीरे हैं तथा कई लाख मन सोना है और चिंतामणी एक ही है , तथापि यह सारी संपति चिंतामणी की तुलना में नगण्य है । अतः महाराजश्री ने भगवत नाम को चिन्तामणी के समान बताया है । यदि आपने राम नाम का जाप कर लिया तो सब कुछ कर लिया । राम राम!

अथ श्री दरियावजी महाराज की दिव्य वाणीजी का चिंतामणी का अंग संपूर्ण हुआ । राम 

आदि आचार्य श्री दरियाव जी महाराज एंव सदगुरुदेव आचार्य श्री हरिनारायण जी महाराज की प्रेरणा से श्री दरियाव जी महाराज की दिव्य वाणी को जन जन तक पहुंचाने के लिए वाणी जी को यहाँ डिजिटल उपकरणों पर लिख रहे है। लिखने में कुछ त्रुटि हुई हो क्षमा करे। कुछ सुधार की आवश्यकता हो तो ईमेल करे dariyavji@gmail.com .

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साध का अंग / श्री दरियाव वाणी

साध का अंग

अथ श्री दरियावजी महाराज की दिव्य वाणीजी का साध का अंग प्रारंभ ।

दरिया लक्षण साध का, क्या गिरही क्या भेख ।
निःकपटी निसंक रहे, बाहर भीतर एक  (1)

आचार्यश्री दरियावजी महराज फरमाते हैं कि साधना करने वाले भेषधारी तथा गृहस्थी सभी साधकों को साधु कहते हैं । सच्चे साधु का तो यही लक्षण है कि वह सदा निष्कपटी और निःशंक रहता है तथा न ही कभी उसके मन में परमात्मा के प्रति किसी प्रकार का संशय उत्पन्न होता है । वह तो सदा बाहर भीतर एक रहता है । राम राम!

सतगुरु को परसा नहीं, सीखा शब्द सुहेत ।
दरिया कैसे नीपजै , तेह बिहुणा खेत (2)

आचार्यश्री दरियावजी महाराज फरमाते हैं कि सतगुरु के सानिध्य में नहीं आए तथा यूँ ही मनमुखी होकर राम-राम करने लग गये तो इससे कार्य की सिद्धि नहीं होगी । जिस प्रकार बिना तेह के अर्थात जब तक भूमी अंदर से गीली नहीं होती तब तक खेत में बीज नहीं ऊगता है । उसी प्रकार जिसने सतगुरु से हेत नहीं किया तथा शब्द से हेत कर लिया, उसका कभी कल्याण नहीं हो सकता । राम राम  !

सत्त शब्द सतगुरु मुखी, मत गयन्द मुख दन्त ।
यह तो तोड़ै पोल गढ़, वह तोड़ै करम अनन्त  (3) 

आचार्यश्री दरियावजी महाराज फरमाते हैं कि जिस प्रकार हाथी से लगे हुए हाथी के दांत बड़े बड़े गढ़ों की पोल को नष्ट कर देते हैं । उसी प्रकार सतगुरु से लगा हुआ शिष्य अनन्तानन्त कठिन कर्मों  को तोड़कर नष्ट कर देता है । राम राम  !

दाँत रहै हस्ती बिना, तो पोल न टूटे कोय ।
कै कर धारै कामिनी, कै खेलाराँ होय (4)

आचार्यश्री दरियावजी महाराज फरमाते हैं कि जो दाँत हाथी से अलग होता है , उसके तो केवल खिलोने अथवा स्त्रियों के हाथ के कंगन ही बन सकते हैं । उसके द्वारा पोल टूटनी तो असंभव है । उसी प्रकार आध्यात्मिक जीवन में साधक ऐसे ही मनमुखी होकर, सतगुरू का आश्रय लिये बिना ही साधना करता है तो उसे साधना में सफलता मिलनी असंभव है । राम राम!

साध कह्यो भगवन्त कह्यो, कहै ग्रन्थ और वेद ।
दरिया लहै न गुरू बिना, तत्त नाम का भेद (5)

आचार्यश्री दरियावजी महाराज फरमाते हैं कि मैं अकेला ही नहीं , सभी सन्त और भगवन्त अर्थात भगवान तथा ईश्वर कोटि के महापुरुष भी यही बात कहते हैं एवं वेदों तथा ग्रन्थों में भी  यही बात आती है कि सतगुरु के बिना राम नाम के तत्व का भेद प्राप्त नहीं होता है । अतः तत्व के विषय में समझने के लिए ही सतगुरु की आवश्यकता है ।राम राम  !

राजा बाँटै परगना, जो गढ़ को पति होय ।
सतगुरु बाँटै रामरस , पीवै बिरला कोय (6)

आचार्यश्री दरियावजी महाराज फरमाते हैं कि पुराने जमाने में जो शूरवीर किसी बहुत बड़े संकट से देश को उबार लेते थे , उनके ऊपर प्रसन्न होकर राजा उन्हें गाँव वगैरह ईनाम में देते थे । इसी प्रकार सतगुरु रामरस बाँटते हैं परन्तु कोई बिरले ही उसे पी सकते हैं । प्रत्येक व्यक्ति रामरस नहीं पी सकता । राम राम!

मतवादी जानै नहीं, ततवादी की बात ।
सूरज ऊगा उल्लवा , गिनै अंधारी रात (7)

आचार्यश्री दरियावजी महाराज फरमाते हैं कि जो व्यक्ति मत में बंधे हुए होते हैं, वे तत्ववादियों की बात नहीं जानते हैं । सूर्य उदय होने पर भी उल्लू तो यही समझता है कि अभी अंधेरी रात है । उल्लू बेचारा तो मत में बंधा हुआ अज्ञानी है । परमात्मा के प्यारे भक्त ही भगवत्कृपा से तत्व के गूढ़ रहस्य को जान सकते हैं । राम राम!

भीतर अंधारी भींत सो,बाहर ऊगा भान ।
जन दरिया कारज कहा , भीतर बहुली हान (8)

आचार्यश्री दरियावजी महाराज फरमाते हैं कि बाहर सूर्य उदय हो गया है परन्तु भीतर में अन्धकार है तो इससे कोई लाभ नहीं होगा । अतः भीतर से प्रकाश होना आवश्यक है। अन्धकार का तात्पर्य अंतःकरण में अज्ञान से है जिसे अधिक से अधिक राम नाम जाप द्वारा मिटाया जा सकता है । राम राम!

सीखत ज्ञानी ज्ञान गम, करै ब्रह्म की बात ।
दरिया बाहर  चाँदना , भीतर काली रात  (9) 

आचार्यश्री दरियावजी महाराज फरमाते हैं कि झूठे ब्रह्मज्ञानी वेदों के चार पांच महावाक्यों का वर्णन करते रहते हैं कि मैं ही ब्रह्म हूँ । अतः मुझे भजन-ध्यान और धर्म पुण्य करने की क्या आवश्यकता है । इस प्रकार से बाहर तो प्रकाश होगा परन्तु भीतर अन्धेरा होगा तो कल्याण संभव नहीं है । भीतर  में प्रकाश करने के लिए तो श्वासोश्वास नामजाप करना होगा । राम राम  !

बाहर कुछ समझै नहीं, जस रात अंधेरी होत ।
जन दरिया भय कुछ नहीं, भीतर जागै जोत (10) 
आचार्यश्री दरियावजी महाराज फरमाते हैं कि बाहर तो अंधेरा है परन्तु यदि अंदर में  प्रकाश है तो कोई भय की बात नहीं है । अर्थात आध्यात्मिक ज्ञान तो है परन्तु भौतिक ज्ञान नहीं है तो उसका कल्याण अवश्य हो जाएगा । अध्यात्म ज्ञान हेतु महापुरूषों का संग ही परम सुख का साधन है । राम राम !

अथ श्री दरियावजी महाराज की दिव्य वाणीजी का साध का अंग संपूर्ण हुआ । राम राम

आदि आचार्य श्री दरियाव जी महाराज एंव सदगुरुदेव आचार्य श्री हरिनारायण जी महाराज की प्रेरणा से श्री दरियाव जी महाराज की दिव्य वाणी को जन जन तक पहुंचाने के लिए वाणी जी को यहाँ डिजिटल उपकरणों पर लिख रहे है। लिखने में कुछ त्रुटि हुई हो क्षमा करे। कुछ सुधार की आवश्यकता हो तो ईमेल करे dariyavji@gmail.com .

डिजिटल रामस्नेही टीम को धन्येवाद।
दासानुदास
9042322241

Friday 4 August 2017

साध का अंग












10. ईश्वर कृपा के प्रभाव को मनाना ही उसके स्वरूप को जानना है:

10. ईश्वर कृपा के प्रभाव को मनाना ही उसके स्वरूप को जानना है:
जो मनुष्य सुख दुख रूप प्राप्त परिस्तिथियों में सुख से हर्षित नही होता है तथा दुख से भयभीत नही होता है; दोनों ही परिस्तिथियों को ईश्वर का प्रसाद (वरदान)मानकर प्रसन्न रहता है, ऐसा सम दृष्टि साधक जीवन मुक्त हटाना माना गया है। वह इस संसार मे भाग्यशाली है । ईश्वर बहुत दयालु है। पापी से पापी एवं अत्याचारी से अत्याचारी भी यदि ईश्वर की शरण मे पहुँचकर अपने अपराधों की क्षमा याचना करके भविष्य में अपराध न करने की शपथ ले लेता है तो भगवान उसके अपराधों को क्षमा करके उसे साधु रूप में स्वीकार कर अपना लेते है और शीघ्र ही उसके कल्याण करने की घोषणा कर देते है लेकिन खेद है कि  यदि अज्ञानी मानव कल्यानवरुणालय दयालु राम की शरण मे नही जाता तो यह उसका दुर्भाग्य ही कहा जायेगा लेकिन *यह दुर्भाग्य सतगुरु की कृपा से सौभाग्य में बदला जा सकता है*। सतगुरु ही दयालु राम की महिमा बताकर उसे दयालु राम की शरण मे पहुँच कर सुखी बना सकता है । अतः ईश्वर कृपा के प्रभाव को मनाना ही उनके स्वरूप को जानना है ।
*दरिया गुरु गरुवा मिला,कर्म किया सब रद्द। झूठा भ्रम छुड़ाय कर ,पकड़ाया सत शब्द।।*
*"सागर के बिखरे मोती"*
*रेण पीठाधीश्वर "श्री हरिनारायण जी शास्त्री"*
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9.नाद ब्रह्म-राम की सुंदरता:

9.नाद ब्रह्म-राम की सुंदरता:
भगति साधना में नाद (राम शब्द ब्रह्म) की बड़ी महिमा है । जब योगी यौगिक साधना -ध्यान योग द्वारा अहनिश (दिन-रात) आराधना साधना में लीन रहता है तब शब्द (नाद-ब्रह्म राम) कला की जागृति होती है तो उसे ध्यान साक्षात्कार काल में अनन्त अलौकिक दृश्य व जन तप स्वर्ग लोकों का दर्शन होता है । उसे करोड़ो सूर्यो के समान प्रकाश,अनन्त चंद्रमा की शीतलता व अनन्त आनन्द की अनुभूति होती है । जब अपनी वृत्ति (सूक्ष्म बुद्धि) से शब्द ब्रह्म के ध्यान काल में राम -राम शब्द सुषुम्ना नाड़ी में प्रवेश करता है तब सम्पूर्ण शरीर मे प्रेम, प्रकाश,ज्ञान की शिराये फूटने लगती है । योगी ब्रह्म की अलौकिक सुंदरता को देखकर,अनुभव करके सुखी हो जाता है और उसकी सारी सांसारिक आशाएं इच्छाएं,आकांक्षाए नष्ट हो जाती है इस तरह उसका चित ब्रह्मकार हो जाता है ।
*अनन्त ही चंदा उगिया, सूर्य कोटि परकास। बिन बादल बरषा घनी,छह ऋतु बारह मास ।।*
*दरिया सुंन्न समाध की , महिमा घनी अनन्त ।पहुँचा सोई जानसी , कोई कोई बिरला सन्त ।।*
*"दरिया नाद प्रकासिया, सो छवि कही न जाय"*
*"सागर के बिखरे मोती"*
*रेण पीठाधीश्वर "श्री हरिनारायण जी शास्त्री"*
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8.एक धर्म ही साथ जाता है:

8.एक धर्म ही साथ जाता है:
मानव का सच्चा हितैषी उसका धर्म अर्थात अच्छे बुरे कर्म है । मृत्युलोक में धर्म को ही सर्वोपरि समझकर उसे अपने आचरण में घटित करना चाहिये । इस संसार मे कभी कही कोई भी किसी के साथ सदा नही रह सकता है । जिनसे हम जुड़े हुए है उनसे एक दिन अवश्य ही छूटना पड़ेगा । जीव अकेला ही पैदा होता है और अकेला ही मर कर जाता है । अपनी करनी-धरनी(कर्तव्या कर्तव्य)का,पाप-पुण्य का फल भी अकेला ही भोगता है। यह मूर्ख जीव जिन्हें अपना समझकर अधर्म करके भी पालता- पोषता  है। वे ही प्राण,धन और पुत्र आदि इस जीव को असन्तुष्ट एवं विलाप करते हुए छोड़ कर चले जाते है। मृत्यु के समय केवल एक धर्म (अच्छे-बुरे कर्म) ही साथ जाता है। वास्तव में खेद तो इस बात का है कि आज मानव अपने संकीर्ण पारिवारिक बन्धन के कारण अपने धर्म से विमुख होकर अपना लौकिक स्वार्थ भी भूल गया है क्योंकि जिनके लिये वह अधर्म करता है वे तो उसे छोड़ ही देंगे । इस लिये उसे अपने जीवन मे कभी भी सुख-संतोष का अनुभव नही होगा और अंत मे अपने अधर्म से अर्जित पापों की गठरी मृत्यु से पूर्व ही अपने सिर पर लाद कर  स्वयं ही घोर नरक में जायेगा । इसलिये यह समझ जाना चाहिये कि यह दुनिया चार दिन की चांदनी है, सपने का खिलवाड़ है, जादू का तमाशा है और मनोराज्य मात्र है; अतः लोक परलोक बनाने हेतु मानव को चाहिये, कि वह सदा ही धर्म का आचरण करें ।
*मरना है रहना नही , जा में फेर न सार। जन दरिया भय मान कर,अपना राम संभाल।।*
*दरिया नर तन पाय कर ,किया न राम उचार । बोझ उतारन आइया, सो ले चले सिर भार ।।*
*"सागर के बिखरे मोती"*
*रेण पीठाधीश्वर "श्री हरिनारायण जी शास्त्री"*
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