23 .संतोषी सदा ही सुखी है
जीवन मे सद्गुण ओर दुर्गुण दोनों का ही समावेश है । लेकिन पारिवारिक ममता एवं धनेशना के कारण अवगुण सतत बढ़ते जाते है । अतः मानव को निष्प्रह बनकर अपने देवी गुणों के प्रभाव से अवगुणों पर विजय प्राप्त करने का निरंतर प्रयाश करते रहना चाहिये । मन के संकल्पों की त्याग से , काम को कामनाओं के त्याग से, क्रोध को क्षमा से , तथा तत्व के विचार से भय को जीत लेना चाहिए । अध्यात्म विचार से शोक ओर मोह पर ,संत महापुरुषो की उपासना से,दम्भ पर,मोन के द्वारा योग के विद्यानो पर, शरीर प्राण आदि को निश्चेष्ट कर के हिंसा पर विजय प्राप्त करनी चाहिए । जो सुख अपनी आत्मा में रमण करने वाले निष्कामी संतोषी पुरुष को मिलता है उस मनुष्य को भला कैसे मिल सकता है जो कामना ओर लोभ के लिए हाय हाय करता रहता है । जिसके मन मे संतोष है उसके लिए सर्वदा ओर सर्वत्र सब कहीं सुख ही सुख है अतः संतोषी सदा ही सुखी है ।
" संतोषः परम सुखं "
सेवाधर्म परम गहनों योगिनामपर्यगम्यम
सेवाधर्म परम गहनों योगिनामपर्यगम्यम
"सागर के बिखरे मोती"
रेन पीठाधीश्वर " श्री हरिनारायण जी शास्त्री"
रेन पीठाधीश्वर " श्री हरिनारायण जी शास्त्री"
No comments:
Post a Comment