Friday 4 August 2017

8.एक धर्म ही साथ जाता है:

8.एक धर्म ही साथ जाता है:
मानव का सच्चा हितैषी उसका धर्म अर्थात अच्छे बुरे कर्म है । मृत्युलोक में धर्म को ही सर्वोपरि समझकर उसे अपने आचरण में घटित करना चाहिये । इस संसार मे कभी कही कोई भी किसी के साथ सदा नही रह सकता है । जिनसे हम जुड़े हुए है उनसे एक दिन अवश्य ही छूटना पड़ेगा । जीव अकेला ही पैदा होता है और अकेला ही मर कर जाता है । अपनी करनी-धरनी(कर्तव्या कर्तव्य)का,पाप-पुण्य का फल भी अकेला ही भोगता है। यह मूर्ख जीव जिन्हें अपना समझकर अधर्म करके भी पालता- पोषता  है। वे ही प्राण,धन और पुत्र आदि इस जीव को असन्तुष्ट एवं विलाप करते हुए छोड़ कर चले जाते है। मृत्यु के समय केवल एक धर्म (अच्छे-बुरे कर्म) ही साथ जाता है। वास्तव में खेद तो इस बात का है कि आज मानव अपने संकीर्ण पारिवारिक बन्धन के कारण अपने धर्म से विमुख होकर अपना लौकिक स्वार्थ भी भूल गया है क्योंकि जिनके लिये वह अधर्म करता है वे तो उसे छोड़ ही देंगे । इस लिये उसे अपने जीवन मे कभी भी सुख-संतोष का अनुभव नही होगा और अंत मे अपने अधर्म से अर्जित पापों की गठरी मृत्यु से पूर्व ही अपने सिर पर लाद कर  स्वयं ही घोर नरक में जायेगा । इसलिये यह समझ जाना चाहिये कि यह दुनिया चार दिन की चांदनी है, सपने का खिलवाड़ है, जादू का तमाशा है और मनोराज्य मात्र है; अतः लोक परलोक बनाने हेतु मानव को चाहिये, कि वह सदा ही धर्म का आचरण करें ।
*मरना है रहना नही , जा में फेर न सार। जन दरिया भय मान कर,अपना राम संभाल।।*
*दरिया नर तन पाय कर ,किया न राम उचार । बोझ उतारन आइया, सो ले चले सिर भार ।।*
*"सागर के बिखरे मोती"*
*रेण पीठाधीश्वर "श्री हरिनारायण जी शास्त्री"*
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