25 . शरीर का सदुपयोग करना ही अधिकार प्राप्त करना है
सम्पति के मद से लोग अनित्य शरीर को अपना मानकर गरीबो को सताते है । यह शरीर किसका है ,इस पर किसका अधिकार है ,क्या यह माता का है ? क्या यह पिता का है ? या यह अपना है ? पिता कहता है कि यह शरीर मेरा है ,मेरे वीर्य से उत्पन हुआ है । माता कहती है शरीर मेरा है,मेने नो मास पेट मे रखा व पालन पोषण कर बड़ा किया है । पत्नी कहती है शरीर मेरा है इसके साथ मेने शादी की है । अग्नि कहती है यदि शरीर पर माता, पिता और पत्नी का अधिकार है तो प्राण निकलने के पश्चात वे अपने पास नही रख कर बाहर क्यो निकलते है अतः इस शरीर पर मेरा ही अधिकार होने के कारण इसे लोग शमशान में लाकर मुझे सौपते है । इसलिए शरीर को अपना मानना मूर्खता है । शरीर के द्वारा प्राणी मात्र की सेवा कर उन्हें अभय देना ही अधिकार को प्राप्त करना है । ईश्वर ने बड़ी कृपा करके यह मानव शरीर दिया है इसलिए जो मनुष्य इसे प्राप्त कर अपना मन राम स्मरण भजन में नही लगता है और ईश्वर की शरण नही लेता है उसका जीवन अत्यंत शोचनीय है । वह स्वयं अपने आप को धोखा दे रहा है । अतः शरीर का सदुपयोग करना ही अधिकार को प्राप्त करना है ।
दरिया देही गुरुमुखी , अविनासी का हाट।
सन्मुख होय सौदा करे , सहजा खुले कपाट ।।
" सागर के बिखरे मोती "
रेण पीठाधीश्वर श्री हरिनारायण जी शास्त्री
रेण पीठाधीश्वर श्री हरिनारायण जी शास्त्री
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