19. संबंध की सार्थकता ममता में नही उपयोगिता में है ।*
इस जीवन में जो मनुष्य अपने प्रिय संबंन्धी को भगवत भगति का उपदेश न देकर उसे मृत्यु - पाश (मृत्यु की फांसी) से नही छुड़ाता है , वह गुरु गुरु नही है , स्वजन स्वजन नही है ,पिता पिता नही है , माता माता नही है ,एवं पति पति नही है । सभी संबंधों का धर्म (कर्तव्य) यही है कि आत्मीय जनो को माया मोह एवं दुर्गुणों से विमुख करके उन्हें भगवतभगति की ओर प्रेरित करने वाला ही सच्चा सुह्रद ,आत्मीय एवं हितेषी है । जीवन संबंधों की सार्थकता ममता व आसक्ति में नही है अपितु इनकी सदुपयोगिता में है ।
*भव जन बहता जाय था , संशय मोह की बाढ़ ।*
*दरिया मोहि गुरु कृपा कर , पकड़ बाँह लिया काढा।।*
*दरिया मोहि गुरु कृपा कर , पकड़ बाँह लिया काढा।।*
"सागर के बिखरे मोती"
रेण पीठाधीश्वर "श्री हरिनारायण जी महाराज"
रेण पीठाधीश्वर "श्री हरिनारायण जी महाराज"
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