Wednesday 14 December 2022

श्रीमद्दरियावजी महाराज का संक्षिप्त जीवन चरित्र

श्रीमद्दरियावजी महाराज:-

 प्राकट्य :- श्रीमद्दरियाव जी महाराज का प्राकट्य वि.सं. 1733, भाद्रपद कृष्ण जन्माष्टमी को हुआ था। आपका प्राकट्य ऐसे समय में हुआ था, जब इस भारत देश पर मुगलों का अत्याचार हो रहा था। जबरन हिन्दुओं को मुसलमान बनाया जा रहा था और जो मुसलमान नहीं बनते थे उन पर "जजिया कर लगाया जाता था। हिन्दुओं के धार्मिक स्थान नष्ट-भ्रष्ट किये जाते थे। साधु महात्माओं को कठोर ताड़ना दी जाती थी। ऐसे विकट परिस्थिति में मानस की वह चौपाईयां स्मरण हो आती हैं कि 
 "जब-जब होड़ धरम के हानी। बाढ़हि असुर अधम अभियानी ।। 
 करहि अनिती जाइ नहिं बरनी। सींदहि विप्र धेनु सुर धरनी।।
  तब-तब प्रभु धरहि विविध शरीरा। हरहिं कृपानिधि सज्जन पीरा।।" 
 
ऐसे समय में डूबते हुए के लिए सहारा रूप श्रीमद्दरियाव जी महाराज का प्राकट्य हुआ था कि राजस्थान के पाली जिला के जैतारण तहसील में अनेक कुलीन हिन्दु जातीयाँ रहती थी, उन्हें भी जबरन तुर्क बनाने के पूरे प्रयास किये जाते थे और कई हिन्दुओं को मुसलमान बना दिया गया था। इसी घटनाक्रम के अनुसार धर्मनिष्ठ श्री मनसारम जी खत्री (वैश्य) व उनकी धर्म पत्नी श्रीमती गीगा बाई पर भी यवन होने का दबाव डाला गया था। आप दोनों ही पति-पत्नि बड़े ही धर्म निष्ठ थे, आपके कोई संतान नहीं थी। आपने मुसलमान बनने की अपेक्षा जैतारण का त्याग कर श्री वासुदेव भगवान की शरण में श्री द्वारिका जाना ही सर्वश्रेष्ठ समझा था। द्वारिका पहुँचकर आपने अपना सारा दुःखड़ा भगवान श्री द्वारिकाधीश जी के सामने प्रकट कर दिया था। एक तो घर में सन्तान नहीं थी और दूसरी घर से बाहर तुकों का बेरहमी अत्याचार था। अतः सब तरह से सर्वत्याग करके दोनों ही दम्पति भगवद् भजन में तल्लीन हो गये थे। उन दोनों के मन में सुक्ष्म फुरणा यह थी कि भगवान हमें ऐसी संतान दे कि वह हिन्दु धर्म व संस्कृति की रक्षा कर सके। ये दोनों ही पति-पत्नि कुछ महिनों तक भगवान से प्रार्थना करते थे और ध्यान भजन भी करते थे किन्तु जब उन्हें लगा कि भगवान के दरबार में उनकी प्रार्थना नहीं सुनी जा रही हैं, तब पूरी तरह से निराश होकर जल समाधि लने के लिए तत्पर हो गए थे। वे ज्यूँ ही जल समाधि लेने के लिए दरिया (सागर) के पास गये तो, उन्हें आकाशवाणी सुनाई पड़ी कि " शान्ति शान्ति शान्ति" । चकित दम्पति ने चारों ओर निहारा, उन्हें समुद्र की लहरों पर कमल पुष्प के ऊपर आकाश विद्युत सी आभायुक्त एक बालमूर्ति दुष्टिगोचर हुई। पति-पत्नि विस्मित व विह्वल होकर उस बाल स्वरूप की ओर दौड़ पड़े तथा उसे उठाकर अपने हृदय से लगा लिया था। बाल वात्सल्य के प्रेम में माता गीगा बाई जी तो अपनी सुध बुध ही खो बैठी। उनके ममत्व भरे स्तनों से दुग्ध की धारा प्रवाहित हो चली थी। देश की तत्कालीन दशा को पति-पत्नि थोड़ी देर के लिए भूल ही गए थे, किन्तु थोड़ी ही देर बाद ज्यूँ ही वे भौतिक चेतना में लौटे, तो उनके सामने देश में व्याप्त तत्कालीन अत्याचार पूर्ण परिस्थितियों ने उन्हें घर लिया था। वे सोचने लगे कि ईश्वर की कृपा से हमें बालक तो प्राप्त हो गया है किन्तु इसे कहाँ और कैसे सुरक्षित रखा जाय ? इसको पालने पोचने के लिए मारवाड़ तो जाना ही होगा, किन्तु वहाँ तो अत्याचार हो रहे है। ये पुनः अपनी विवशताओं के घेरे में लौट आए थे उन्होंने तय कर लिया कि ऐसी परिस्थितियों में जल समाधि ही लेना ठीक है वे कुछ समय के लिए बालक के स्नेहभाव से विरोहित होकर जल में समाधि के लिए प्रवेश कर ही रहे थे कि उसी समय पुनः आकाशवाणी हुई कि "आप बालक को लेकर स्वदेश लौट जाओ। ये ईश्वरीय प्रसाद आपके लिए मंगलदायी होगा संसार में इस बालक के द्वारा आपकी कीर्ति फैलेगी। इस बालक के द्वारा विश्वकल्याणकारी कार्य होंगे।"इस आकाशवाणी को सुनकर श्रीमनसारामजी खत्री व श्री गीगाबाईजी बालक को अपने साथ लेकर मारवाड़ जैतारण को आ गये थे। बालक का नाम दरियाव रखा था क्योंकि दरिया (सागर) से प्राप्त हुए थे इसीलिए सभी लोग बालक को दरियाव के नाम से पुकारने लगे। श्री दरियाव जी द्वितीया के चाँद की तरह बड़े होने लगे तो एक दिन माता गीगाबाईजी दरियाव जी को पालने में सुलाकर जल भरने के लिए तालाब पर गई थी। उनके जाने के कुछ देर बाद बालक के मुँह पर कुछ धूप आ गई। थोड़ी ही देर में बालक के शरीर पर धूप छा गई थी। अतः बालक की काया व मुँह को धूप की चिलाहट से बचाने के लिए ईश्वरीय प्रेरणावश एक नाग देवता कहीं से उत्तर आए और अपना फन फैलाकर बालक के ऊपर छायां करने लगे। जब माता गीगा बाई जी जल भरकर वापस आई तो बालक के ऊपर छायां किए नाग को देखकर हतप्रभ हो गई थी। थोड़ी ही देर में वह नाग चला गया। माता ने बालक दरियाव जी को गोदी में लिया और स्वस्थ देखकर प्रसन्न हुई। फिर बालक को लेकर माता पण्डित जी के पास बालक का भविष्य जानने के लिए गई। ज्योतिषी पण्डित ने अपने ज्योतिष ज्ञान के आधार पर बालक को अद्भुत महापुरूष बताया और भविष्यवाणी करते हुए कहा कि यह बालक आगे चलकर महापुरूष बनेगा। बहुत से दुःखी लोगों के कष्ट निवारण करेगा। दुनिया इन्हें पूजेगी।" ज्योतिष जी की भविष्यवाणी सिद्ध कि कुछ ही दिनों बाद बालक दरियाव जी महाराज अपनी बाल्य लीलाओं से सबको आनन्द विभोर करने लगे। आपका आकर्षण भगवान बालक कृष्ण की ही तरह था। आपके पिता रूई पीनने का काम करते थे। इसीलिए लोग इन्हें पीनाराजी भी कहते थे। जब से आपका पर्दापण घर में हुआ था, तब ही से आपके ऊपर आने वाली बाधाएँ दूर से ही टल जाती थी। यहाँ तक कि क्रूर हृदय वाले तुर्क भी आपके घर को देखकर ही बदल जाते थे और आप पर मेहरबान बन जाते थे। किन्तु आपके पोषक पिता श्री मनसाराम जी आपकी बाल लिलाओं का आनन्द मात्र सात साल ही ले सके अर्थात वि.सं. 1740 में उनका स्वर्गवास हो चुका था। तब माता गीगा बाई जी ने आपका पालन पोषण किया था।

श्रीदरियाव जी महाराज का रेण आगमन :- पति देव के परलोक गमन के बाद माता गीगा बाई जी ने सोचा कि अपने पीहर रेण में पिता श्री किशनजी के यहाँ जाना अच्छा रहेगा अतः वे अपने प्यारे पुत्र श्री दरियाव को लेकर रेण को आ गई थी। यह रेण ग्राम मेड़ता सीटि से पन्द्रह किलोमीटर दूर नागौर रोड़ पर उतर दिशा में हैं। रेण में अपने पिताजी के यहाँ माता श्री गीगाबाई जी अपना पुस्तैनी कार्य करती और रेण में ही रहने लगी थी। श्री किशन जी खत्री को भी मुसलमानों ने बलपूर्वक यवन बनाकर उनका नाम "कमीश यानि कमसेत जी" रख दिया था। किशनजी के कुछ अन्य परिजन भी मुसलमान बना दिये गये थे। श्री गीगा बाई जी के पीहर के लोग बालक दरियाव जी के प्राकट्य का वृतान्त सुनकर अति प्रसन्न हुए थे। कुछ ही समय बाद श्री दरियाव जी महाराज की अलौकिक शक्तिया रेण वासियों को दृष्टि गोचर होने लगी थी। सतगुरू कबीर साहेब व गुरुनानक जी की तरह इनके अलौकिक चमत्कारों से जनता प्रभावित होने लगी थी। एक बार आप बालकों के साथ खेल रहे थे, उसी समय काशी के दो पण्डित रेण से होकर गुजर रहे थे। ये पं. जोधपुर नरेश से मिलने के लिए जा रहे थे। उनकी दृष्टि अन्य बालकों के मध्य खेलते हुए बालक दरियाव जी पर पड़ी थी। वे बालक के आकर्षणी आभा मण्डल व ओजस्वी चेहरे को देखकर बहुत प्रभावित हुए थे। जैसे भगवान महादेव जी श्री रामजी के बाल रूप को देखकर चकित हुए थे, वे ही स्थिति इन पण्डितों की हो गयी थी। पण्डित जी माता गीगा बाईजी के पास गये और बालक को शिक्षित करने के लिए अपने साथ काशी ले जाने का प्रस्ताव रखा, तब माताजी ने बहुत सोच विचार कर अपने पिताजी की आज्ञा लेकर किशोर दरियावजी को उन पण्डितों के साथ काशीजी में शिक्षा पाने के लिए भेज दिया था। पण्डितों ने काशी जी में श्री दरियाव जी महाराज को शास्त्र अध्ययन कराना शुरू कर दिया था। कुशाग्र बुद्धि के धनी श्री दरियावजी ने थोड़े ही समय में पण्डितों द्वारा दी गई शिक्षा को अर्जित कर लिया था। आपने काशी निवास के दौरान - व्याकरण, वेद, श्रीमद्धभगवद गीता, श्रीमद् भागवत, उपनिषद तथा दर्शन शास्त्र व योग शास्त्र के सभी ग्रन्थों का अध्ययन कर लिया था। श्री दरियाव जी जैसे सुपात्र को शिक्षा देकर पण्डितों को बड़ा आनन्द आया और अपना जीवन सफल माना था।

सद्गुरु की प्राप्ति: काशीजी से विद्या प्राप्त कर आप सकुशल रेण पधार गये थे। एक दिन आप नित्य नियम के अनुसार श्रीमद भागवत जी का पाठ कर रहे थे कि - 
"रहुगणैः तत्तपसाः " आदि। इसी प्रसंग को पढ़ते समय आपकी दृष्टि गुरू महिमा पर अटक गई थी। श्री दरियाव जी महाराज को भीतर से प्रेरणा होने लगी कि -" अब मुझे सतगुरू धारण करना चाहिये।" इसी विचार में आप कुछ दिन तक खोये रहें। फिर आपने गुरू की खोज की, तब खटदर्शनीयों में कोई ऐसा महात्मा नहीं मिला जो आपको गुरू रूप में प्राप्त हो। आपने कई सन्यासी महात्माओं का भी दर्शनादि किये, परन्तु आत्मा ने गुरू धारण करने की स्वीकृति नहीं दी। किसी भी साधक का भाग्य, पुण्य, सुकृत आदि समर्थ सद्गुरू की ओर ही ले जाने की प्रेरणा करते है और यह सच भी है। कि- भाग्य के बिना समर्थ सद्गुरू नहीं मिलते है। कुछ दिन तक श्री दरियावजी महाराज की गुरू प्राप्ति करने की आकांक्षा बनी रही और आप कभी उदास हो जाते तो कभी विरह करने लगते । एक दिन स्वयं भगवान ने आपको प्रेरणा दी कि हे दरियाव! चिन्ता मत करो। अवश्य ही एक दिन प्रेम पुरूष जी आकर तुमको साधना का मार्ग प्रशस्त करेंगे।" उधर ब्रह्मज्ञानी महापुरूष श्री संतदास जी महाराज के शिष्य भजनानन्दी श्री प्रेमदास जी महाराज को भगवद प्रेरणा से यह संकल्प हुआ कि -' रेण नगर में जाकर महाभाग्यशाली साधकों को भजन करने का मार्ग प्रसस्त करों अतः भगवान का संकल्प सुनकर श्री प्रेमदास जी महाराज वि.सं. 1769 में भिक्षाटन करते हुए श्री दरियाव जी महाराज के निवास स्थान रेण में पधारे थें उन्होंने द्वार पर आकर बड़े ऊँचे स्वर से घोष किया कि -'रामराम'' रामनाम की रहस्यमयी ध्वनि श्री दरियाव जी महाराज के श्रवण से होती हुई हृदय तक प्रविष्ट कर गई। शीघ्र ही श्री दरियाव जी महाराज घर से बाहर निकल कर घरम तेजस्वी श्री प्रेमदास जी महाराज के श्री चरणों में गिर गए। श्री प्रेमदास जी महाराज ने उन्हें अपने हाथों से उठाया और धैर्य बन्धाया, तब दरियावजी महाराज ने आपका नाम सुनकर गुरू दीक्षा प्राप्त करने की प्रार्थना की थी। परम कृपालु संत श्री प्रेमदास जी महाराज ने दरियाव जी महाराज की जिज्ञासा को देखकर उन्हें गुरू मंत्र प्रदान किया और शीश पर हाथ रखकर भक्ति का आशीर्वाद दिया था। श्री दरियाव जी महाराज ने वि.स. 1769 कार्तिक शुक्ला एकादशी को गुरू दीक्षा प्राप्त की थी। गुरू दीक्षा प्राप्त करते ही श्री दरियाव जी महाराज के हृदय में राम-भक्ति का प्रवाह चलने लगा था, सुषुप्त शक्तियाँ जागृत हो गई थी। उसी दिन से श्री दरियाव जी महाराज ने अपना जीवन सनाथ (सफल ) माना था। यथा:-

" दरिया सतगुरु भेटिया, जां दिन जन्म सनाथ।
 श्रवणा शब्द सुनाय के, मस्तक दीना हाथ ।।" 
  सतगुरू प्रेमदास जी महाराज द्वारा गुरू दीक्षा प्राप्त कर श्री दरियाव जी महाराज ने राम नाम की तीव्र साधना करना आरम्भ कर दिया था। आपने वैखरी वाणी द्वारा जप करके प्रथम कोष व प्रथम केन्द्र मूल को शुद्ध कर लिया था, जब मूलबन्द शुद्ध होता है तो पशुबुद्धि निवृत होकर मानवता के गुण प्रगट होने लगते हैं कुछ समय बाद आपने मध्यमा में जप करके द्वितीय केन्द्र स्वाधिष्ठान को शुद्ध कर लिया था, जब स्वाधिष्ठान केन्द्र शुद्ध होता है तो बुद्धि कुशाग्र होकर प्रज्ञा में बदलने लगती हैं। थोड़े ही समय बाद आपने पश्यन्ति से जप करना शुरू कर दिया था, इस स्थिति में जाप होने से रिद्धि सिद्धियों का प्राकट्य होता है तथा तीन केन्द्र एक साथ विकसित होते है - मणिपुर केन्द्र, हृदय चक्र तथा विशुद्धाक्य चक्र । श्री दरियावजी महाराज ने तीव्र साधना करते हुए शब्द को परा में स्थिति किया था, इस स्थिति में अनाहत चक्र व आज्ञा चक्र खुल जाते है जिससे साधक की दिव्य दृष्टि खुलने लगती हैं। फिर दरियावजी महाराज ने सहस्रारचक्र को पार करते हुए परम सत्ता का साक्षात्कार कर लिया था । यथा :- 
  'जन दरिया जाय गगन में, परसा देव अनाद । 
  असुध बिसरी सुध भई, मिटिया वाद विवाद ।।
   श्रीमद् दरियावजी महाराज ने उक्त साधना का वर्णन अपनी अनुभव वाणी जी के "नाद परचा अंग" में किया हैं। आपके लिए यह साधना खेल मात्र रही, किन्तु आपने इस साधना का अनुसरण करके कलिकाल के असंख्य जीवों के कल्याण के लिए मार्ग बना दिया, जिससे आसानी से साधक इस पर चलकर अपने लक्ष्य परमात्मा की प्राप्ति कर सकता है।

श्रीमद दरियावजी महाराज ने परम तत्व का साक्षात्कार करने के बाद एक दिन सद्गुरू प्रेमदासजी महाराज को दण्डवत प्रणाम किया था। यथा:-


दरिया: सतगुरू दीन दयाल के, चरण निवायो शीश। 
प्रेम दास प्रसन्न भए, सुण रामस्नेही ईश ।।

तब गुरूजी ने आशीर्वाद देते हुए कहा :-

भेख तुम्हारा चालसी, सुन रामस्नेही बात।
 रामस्नेही धर्म के होगें तुम सिरताज ॥ 
 अनन्त जीवों को तारसी, यह मेरा आशीर्वाद ।
 राम स्नेही धर्म से, सुधरे सब काज ।।
 दरिया- राम स्नेही मुझको किया, प्रेम पुरूष महाराज।
  दरिया रग रग में धुन्न राम की, अखै सुन्नमें राज ।।

इस प्रकार सद्गुरू प्रेमदास जी महाराज ने श्री दरियाव जी महाराज को रामस्नेही सम्प्रदाय चलाने का आशीर्वाद दिया था। उसके बाद भी दरियाव जी महाराज निरन्तर राम भजन में लगे रहे। थे। उन्होंने रेण नगर के आस-पास कई जगह जहाँ एकान्त मिलता था वहीं साधना-तपस्या की थी जैसे :- रेणग्राम में स्थित रामसभागार, लाखोलाव सागर का तट जहाँ अभी राम धाम बना हुआ हैं, लाखासागर का बरगू, खेजड़ा जी (रेण से मेड़ता की तरफ कुछ मील दूर) आदि ।

श्रीमद् दरियावजी महाराज का गुरू जी के प्रति विशेष आदर भाव था। जब आपके गुरूजी ने विवाह कर लिया था, तब भी गुरू जी में दिव्य लीला का ही दर्शन किया था। इसीलिए गुरूजी का विशेष आशीर्वाद आप पर था। आप गुरू जी के श्री चरणों में हमेशा इस पद के द्वारा प्रार्थना करते ही रहते थे। जैसे :- 

पद :- 
मैं अरज करूँ गुरां थाने, चरणां में राखज्यों म्हानें ।।
हेलो प्रकट कहूँ चाहे छानें, म्हारी लाज शर्म सब थानें । । टेर ।। 
माता-पिता सुत भ्राता, सब स्वार्थ का है नाता। 
तारण तिरण गुरू दाता, चारों वेद गुण गाता ।।1।। 
भवसागर भरियों भारो, मोय सूजत नहीं किनारो।
 मैं डूब रहयो मंझधारों, गुरू घट में दया विचारो ।।2।।
 गुरू जग में लिया अवतारों, जीवां ने पार उतारो। 
मोय आयो भरोसो भारो, नहीं छोडूं शरणो तुम्हारो ॥3॥
तन मन धन सब थांरो, चाहे शीश काट लो म्हारो। 
जनदरिया दास पुकारो, चरणांरो चाकर थारो ।।4 ।। 

महाराज जी का आदेश पाकर आपने राम भक्ति का प्रचार-प्रसार करना शुरू कर दिया था। आपकी  सत्संग में धीरे-धीरे हजारों भक्त जन आने लगे थे। आपके दर्शन, सत्संग व आशीर्वाद से अनेकों भक्तों की मनोकामनाएँ पूर्ण होती थी। आपके जीवन में कई दिव्य घटनाएँ घटि थी, उन में से कुछ इस प्रकार है :-

पूर्णदास जी महाराज की देवी के कोप से रक्षा करना : श्री पूरणदासजी महाराज रेण के ही रहने वाले थे। ये दो भाई थे, दोनों ही देवी की पूजा करते थे। जब श्री दरियाव जी महाराज की महिमा सुनी तो, उनसे ज्ञान प्राप्त करने के लिए आए। तब श्री दरियावजी महाराज ने उनके हृदय की बात को जानकर कहा कि -" पूर्ण! तुम तो आन उपासना करता है।। आन उपासना करने वाले को नरक में जाना पड़ता है। देवी-देवता ये सब रामजी की माया है और माया की पूजा करने से मुक्ति नहीं होती है। हे पूर्ण ! मानव तन बड़ा ही दुर्लभ से प्राप्त होता है, इसे रामभजन के बिना व्यर्थ की आन उपासना में नहीं गमाना चाहिए।" इस प्रकार श्रीमद् दरियावजी महाराज की सतसंग सुनकर पूर्णदासजी अपने घर आये और भोजनादि करके सो गये। इस दिन उन्होनें देवी की धूप पूजा आरती आदी नहीं की। रात्री के समय देवी ने पूर्णदास जी पर बड़ा भारी प्रकोप किया और प्रगट होकर पूर्णदास जी को धमकाने लगी, डराने लगी। उसी समय सद्गुरू की महिमा जानकर श्री पूर्णदास जी महाराज ने श्री दरियाव जी महाराज को रक्षार्थ याद किया। उसी क्षण श्री दरियावजी महाराज प्रगट हुए और देवी महाराज का दर्शन करके प्रसन्न होकर चली गई। इधर श्री दरियावजी महाराज भी पुनः अपने धाम को आ गये। सुबह होते ही श्री पूर्णदास जी महाराज श्रीमद् दरियावजी महाराज की शरण में आ गये और आप बीती सुनाई। पूर्णदास जी की पूर्ण शरणागति का भाव देखकर महाराज ने उन्हें उसी प्रकार ध्यान योग का मार्ग बताया जैसे सद्गुरू कबीर साहेब ने धनी धर्मदास जी महाराज को बताया था। श्री पूर्णदास जी महाराज श्रीमद दरियाव जी महाराज के बहत्तर शिष्यों में से प्रथम शिष्य थे और उन्होंने राम भजन करके पूर्ण पद प्राप्त किया था। यथा

"प्रथम मिले दरियाव सु, पूरणदास जन जांण। 
राम मंत्र दरिया दियो, मिट गई खेचा ताण ।। 
पूरणदास परचे भये, सिर पे दरियादास।
कलह भरमना मिट गई, हिरदे नांव प्रकाश ॥ 
पूरणदास समरथ भये, सतगुरू के प्रताप।
रायण नगर के मायने, जप्या अजपा जाय।।

श्री पूर्णदासजी महाराज की महिमा करते हुए संत श्री रामदासजी महाराज कहते है कि-

पूरणदास प्रेमरस पीया सद्गुरु संग मिल जुग जुग जीया
अर्थात- पूर्णदास जी महाराज ने सद्गुरू की शरणागति लेकर राम भजन करके परमात्मा की प्राप्ति कर ली थी। श्री पूर्णदास जी महाराज ने मध्य प्रदेश के झॉकर नगर में शरीर का त्याग किया था। वहाँ आज भी उनकी समाधि हैं।

षडयंत्रकारियों के प्रयास विफल:- श्रीमद् दरियाव जी महाराज के दिव्य तेज व प्रभाव को देखकर बहुत से हिन्दू अपने धर्म में दृढ़ रहने लगे और यहाँ तक कि हिन्दुओं में से बने मुसलमान वे फिर से हिन्दु धर्म अपनाने लगे थे। श्री दरियाव जी महाराज के मामा के पुत्र भी मुसलमानों के पंजे से निकलकर राम भजन में लग गये थे फतहराज, कुशालीराम व हंसाराम ये मामा के पुत्र थे, इनमें फतहराज बाद में बेमुख हो गये थे। श्री मद् दरियाव जी महाराज का इतना प्रभाव बढ़ा कि मारवाड़ से राजा लोग भी आपकी शरणागति में आने लगे थे जैसे मारवाड़ के राजा बखतसिंह जी, जोधपुर के राजा विजय सिंह जी व जयपुर नरेश आदि। एक बार आप जयपुर नरेश के निमन्त्रण पर शिष्यों सहित जयपुर को जा रहे थे, तो रास्ते में भादुगाँव में कुए के जल को गंगाजल के समान मीठा किया था। ऐसे ही आपकी महिमा सुनकर रेण के पास जावली गाँव का केसोरामजी जाट पुत्र की कामना लेकर आपने पास आया था, उसे पुत्र प्राप्ति का आशीर्वाद दिया था। समयानुसार केसोरामजी जाट को पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई थी।

इस प्रकार दिनों दिन बढ़ते प्रभाव को देखकर दिल्ली के बादशाह ने अपने दीवान मदली खान पठान को आपकी हत्या करने के लिए भेजा था। वह हत्या करने में विफल हुआ और ज्यों ही आपकी दृष्टि उन पर पड़ी तो वह आपके श्री चरणों में गिर गया तथा तलवार रख कर आपका शिष्य बन गया था। इसी तरह अजमेर मेड़ता के काजियों व मौलवियों द्वारा भेजे गए अत्याचारी व कुचक्री यवनों ने श्री दरियावजी महाराज के विरूद्ध षडयंत्र रचे थे। उन्होंने विष युक्त मिष्ठान जब महाराज श्री के सामने लाकर रखे थे, तभी आकाशवाणी द्वारा देवताओं ने उस मिष्ठान्न में मिले हुए विष को घोषित कर दिया था। ऐसे अनेक कुचक्र व अत्याचार महाराज श्री पर किए गए किन्तु सभी षडयंत्र नाकाम रहे थे। 

सांजु गांव के जाट का भाग्य उदय होनाः- श्रीमद् दरियावजी महाराज के शिष्य सांजुगाँव के श्री
मनसाराम जी मौदानी जी ने आपकी पधरावणी अपने यहाँ करवाई थी। किन्तु अतिभाव-प्रेम में वे तीनों ही भाई आपको प्रसाद कराना भूल गये थे। जब दरियाव जी महाराज वापिस रेण के लिए आ रहे थे तो रास्ते में एक जाट ने ताजा बाजरे का फूँक महाराज श्री व शिष्यों को जीमाया था। दरियाव जी महाराज ने फूँक का प्रसाद पाया और अति प्रसन्न हुए थे। पीछे मोदाणी परिवार को पता चला कि "हम लोगों ने महाराज श्री को प्रसाद भी नहीं जीमाया हैं। अतः प्रसाद लेकर वे रेण को आये थे तब श्री दरियाव श्री महाराज ने कहा -"प्रसाद पाने का पुण्य तो उस जाट को मिल गया है अतः आपको उस पुण्य का भागीदार बनना है तो रूपया पैसा लेकर जाओं और उस जाट को देकर के आओं।" मोदाणी परिवार के सदस्य पैसा लेकर जाट के पास गये और कहा कि महाराज श्री ने आपके द्वारा जो बाजरे के फूँक का प्रसाद पाया था, उस पुण्य के भागीदार आप हमें भी बनाओं और ये रूपये ले लो किन्तु वह जाट बहुत समझदार था। उसने कहा कि ये घाटे का सौदा मैं नहीं कर सकता हूँ मुझे आपका एक भी पैसा नही लेना हैं। उस जाट ने मोदाणी परिवार का एक भी पैसा नहीं लिया था, इसके फलस्वरूप वह जाट अगले जनम में उच्च कुल में जनम लेकर आचार्य श्री हरकाराम जी महाराज का शिष्य बनकर रेण रामस्नेही सम्प्रदाय के तीसरे आचार्य श्री रामकरण जी महाराज के नाम से प्रसिद्ध हुए थे। श्रीरामकरण जी महाराज का जन्म वि.स. 1836, भाद्र पद शुक्ला चतुर्दशी को श्री हरकारामजी महाराज के बड़े भ्राता श्री लिखमीचन्द जी सेठ (जैन श्रावक ) के यहाँ हुआ था। आपकी माताजी का नाम सारा बाई जी था। आपने सतोत्तर ( 77 ) वर्ष तक रेण की गादी संभाली थी। यथा:-

जन दरिया महाराज, आप सांजु में आया। 
निमस्कार कर जोड़, जाट जब शीश निवाया ।।1।।
भाव प्रेम रस रीत, प्रीत कर फूँक जीमाया। 
जन दरिया महाराज, आप तंदुल ज्यूँ पाया ।।2।। 
प्रसन्न भया महाराज, सभा में गिरा उचारी। 
नफो लीयो है जाट, बन्दगी कीनी भारी ।।3।। 
मोदाण्यां सुण बात, कह्यों अब कैसे कीजे। 
मन माग्यां सो दाम, चाल फेर उनको दीजे ।।4।। 
रूपया दाम सो लेर गया, जब तीनुं भाई। 
कही जाट को बात, दाय उनके नहीं आई ।।5।। 
म्हारे तो परताप, दास दरिया सा को भारी। 
मनसा भोजन मिले, राबड्यां दूध त्यारी ।।6।। 
फूंका का प्रसाद ते, भई बात इदकार। 
बडयो भाग उस जाट को, बड़ जितनों विसतार ।।7 ।। 
बडयो भाग बिस्तार, जनम उच्च कुलां में पायो। 
राम भजन के प्रताप सूं, जाट अमरापुर सिधायो।।8।। 

दिल्ली के मधुचन्द सेठ को जल में डूबने से बचाना :- श्री दरियाव जी महाराज का शिष्य श्री मधुचन्द जी जैन दिल्ली में रहते थे। वह एक दिन जमुना जी में नहाने के लिए गए थे। नहाते-नहाते वह गहरे जल में चले गये थे। तैरना उनको आता नहीं था अतः डूबने लगे थे। डूबते-डूबते उन्होंनें अपने गुरूदेव श्री दरियाव जी महाराज को आर्त भाव से पुकारा :- "करूणां करि पुकार, दास दरिया उबारो । मो अबला की लाज राखज्यों बिड़द तुम्हारो ।। उनकी आर्तभाव की पुकार सुनकर श्री दरियाव जी महाराज रेण राम सभा में से अन्तर्ध्यान हुए और दिल्ली में यमुना नदी में प्रकट होकर श्री मधुचन्द सेठ को बाहर करके पुनः राम सभा में प्रकट हो गये थे। उस समय श्री दरियाव जी महाराज के हाथ की बाहे पानी से भीगी हुई थी, तब शिष्यों ने पूछा कि - गुरूदेव आपकी यह इस
हाथ की बांह भीगी हुई क्यूँ हैं ? श्री दरियाव जी महाराज ने अपने शिष्यों से कहा- मधुचन्द सेठ को डुबते हुए को बचाने के लिए दिल्ली के पास यमुना नदी में गया था। यथा कलु काल परचो भयो, जाणे जग संसार जन दरिया परताप से, तिरियो साहुकार ।। सब शिष्य गुरूदेव की इस लीला को सुनकर अति प्रसन्न हुए और विश्वास पूर्वक राम भजन में लग गये थे।

इसी प्रकार श्रीमद् दरियाव जी महाराज के जीवन में बहुत सी दिव्य घटनाएँ घटी हैं। जैसे- शिष्य चतुर्दास जी के कटे हुए हाथ पुनः ठीक हो जाना, मेड़ता सीटि से रेण जाते समय श्री दरियाव जी महाराज के आगे भैरव द्वारा प्रकाश करना (सेवा रूप में ) फतेहचन्द ब्राह्मण के भोजन से दूध की धारा बहाना व राजसी भोजन से रक्त की धारा का बहना (यह घटना मेड़ता सिटी में घटि थी), शिष्य उदयराम जी की डाकुओं से रक्षा करने के लिए नोखा (मण्डी) के पास प्रकट होना तथा अकासर में शिष्या किस्तुरां बाई जी को दर्शन देना आदि। 

महानिर्वाण :- आचार्य श्री दरियाव जी महाराज ने अपने शिष्यों को राम भजन का आदेश दिया और स्वयं चौथे पद में स्थिति रहने लगे थे। उस समय में आपकी स्थिति परम हंसों जैसी दिखाई देती थी। शिष्यों ने समझ लिया कि - अब महाराज श्री अधिक समय तक इस धरा पर नहीं रहेगें। तदनुसार वि.सं. मार्गशीर्ष की पूर्णिमा की सवा पहर रात्रि बीतने पर महाराज श्री ध्यान मुद्रा में स्थित हो गए। उस समय आकाश मण्डल में भगवान श्री हरि ने अपना गरूड़ ध्वज युक्त विमान भेजा था। आप उस विमान में आरूढ़ हो गये थे। शिष्यों की विरह दशा, करूण क्रंदन्न को देखकर आपने उसी विमान में से राम भजन का आदेश फरमाया था और इस पावन वसून्धरा पर बयांसी वर्ष तीन मास व इक्कीस दिन रहें थे। आपके परम धाम जाते ही पृथ्वी पर सन्नाटा छा गया था।भक्तलोग लम्बे समय तक विरह में गलतान रहे थे।


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