Tuesday 14 November 2017

53. दूसरो के लिये जीना सार्थक है :

53. दूसरो के लिये जीना सार्थक है :

जो सुख अपनी आत्मा में रमण करने वाले निष्कय, संतोषी पुरुषों को मिलता है वह उस मनुष्य को कैसे मिल सकता है जो कामना व भोगवश दूसरों का अधिकार छीनकर स्वयं पापकर्मो से संगृहीत धन द्वारा सुखी होना चाहता है । आध्यत्म विद्या द्वारा शोक और मोह पर, संतो की उपासना से दम्भ पर , मोन द्वारा योग (ईश्वर स्मरण) के विघ्नों पर और शरीर, प्राण आदि को वश में करके हिंसा पर विजय प्राप्त करनी चाहिये । जीवन वही सार्थक है जो दूसरों के लिये जिया जाये ।

*परोपकाराय संता विभूत:*

रेण पीठाधीश्वर "श्री हरिनारायण जी शास्त्री"
              *कर्त*
"सागर के बिखरे मोती"

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