Saturday 4 February 2023

व्यक्तित्व और कृतित्व:-


व्यक्तित्व और कृतित्व:-

श्रीमद्भगवदगीता में श्री कृष्ण कहते हैं कि जब-जब भी धर्म की हानि होती है तब-तब वे अवतार लेकर धर्म की पुनः स्थापना करते है। धर्म का क्षय होना शुरू होने पर अनेक संत महापुरूषों का भी अवतार धर्म के क्षय को रोकने के लिए होता है।

देश में औरगजेब जैसा क्रूर शासक हो गया था। उससे पूर्व के शासकों, बाबर, हूमायूं, अकबर, जहाँगीर, शहजाहां ने क्रमशः इतना आतंक फैलाया था कि भारत के राजा-महाराजाओं ने पहले तो तलवारें भांजी, किन्तु जब हारने लगे तो उन बाहदशाहों को पृथ्वीपति और पृथ्वीनाथ मान लिया। बादशाहों के साथ जब राजाओं ने अपने राज्यों ने अपने को निष्कंटक करने हेतु रोजी बेटी का व्यवहार शुरू कर दिया। धर्म तो धर्म की जगह सत्ता भोगने की लालसा ने लोगो

को कर्मच्युत कर दिया । यही कारण था कि भारत की ललनाओं को पाश्चात्य लोगों के हवस का

शिकार बनाया जाने लगा। सत्ता पर काबिज होने के बाद औरंगजेब ने जबरन धर्म परिर्वतन का

एक अभियान आरम्भ कर दिया। जीवित रहने का एक ही विकल्प था और वह धर्म परिवर्तन।

दूसरी तरफ हिन्दू धर्म में अपार विकृतियां आ गई थी। मूर्ति पूजा चरमसीमा पर थी। मूर्ति से भगवान के प्रक्टीकरण की आशा आम लोग लगाए बैठे थे किन्तु मूर्ति से भगवान प्रकट नहीं हो रहे थे। तंत्र-यंत्र ही नहीं अन्यान्येक ढ़ोगी लोग समाज और धर्म के ठेकेदार बन बैठे थे और अपना उल्लू सीधा कर रहे थे। धर्म भीरू जनता का हाल बहुत बुरा था। वह किंकर्तव्यविमूढ़ हो गई थी। धर्म में एक विकृति ओर आ गई थी, छूत-अछूत का इतना प्रचार प्रसार हुवा कि हिन्दू धर्म भी अनेक फिरकों में और पंथों में बंट गया था। इस प्रकार की व्यवस्था यदि कुछ समय और चली होती तो निश्चित ही हिन्दू धर्म समाप्त हो जाता किन्तु दैवीय शक्ति भी अपना काम कर रही थी। कई समाज सुधारकों और सन्त महापुरूषों का प्रदुर्भाव हुआ । जन्म अवतार हुए और धर्म में आई गिरावट को रोकने का प्रयास हुआ ।

अनकों संतो और भक्तों ने अवतार लेकर हिन्दुओं को ईश्वर एक है और मनुष्य मात्र भी एक ही है का सन्देश प्रचारित व प्रसारित किया। ऊंच-नीच के भेदभाव को समाप्त करने के प्रयास किए तथा पौंगा पंथ व ढ़ोग से दूर आम आदमी को दो अलग विचार धाराऐं दी। पहली व दूसरी निर्गुण विचार धाराऐं देश के धार्मिक जीवन में संचरण करने लगी। दोनों विचार धाराओं में भी अनेकानेक संत अवतरित हुए, उन्ही में से एक महापुरूष दरियावजी महाराज थे जिन्होने रामस्नेही सम्प्रदाय की स्थापना की ओर छत्तीस करोड़ देवी-देवताओं के जाल से मनुष्य मात्र | को निकालकर एक राम का नाम सुपर्द कर दिया। ढ़ोग से कही दूर मनुष्य को निर्गुण उपासना का मार्ग प्रशस्त किया ।

मारवाड़ देश के जैतारण निवासी खत्री वंशीय श्री मनसारामजी व उनकी पत्नी श्रीमति गीगाबाई निःसन्तान थे। सन्तान प्राप्ति के लिए तीर्थे की यात्रा करते-करते द्वारिका पहुंच गए वही पर समुद्र की लहरों में तैरते हुए बालक पर उनकी दृष्टि पड़ी और उन्होंने बालक को अपनी गोदी में रख कर स्तनपान कराना आरम्भ कर दिया व देवयोग से उनके स्तनों से दूध निकल आया। समुद्र को स्थानीय भाषा में दरिया कहा जाता है। अतः उसी समय उन्होने उस बालक का नाम दरियाव रख दिया । यह शुभ दिन भगवान कृष्ण का जन्म दिवस जन्माष्टमी विक्रम संवत 1733 था।

दरियावजी के बचपन की एक घटना सर्व विदित है कि दरियावजी को पालने में सुलाकर उनकी मां पानी लाने चली गई थी। उनके आने तक सूर्य की किरणों की धूप दरियावजी पर आ गई और उसे रोकने के लिए कहीं से एक बहुत बड़ा सांप फन फैलाकर बैठ गया था। गीगाबाई जब जल लेकर आई तो उन्हें भय हुआ कि सांप बालक को काट न ले किन्तु मां के आते ही सांप चला गया। दरियावजी की सात वर्ष की आयु विक्रम संवत् 1740 में उनके पिता श्री मनसाराम का स्वर्गवास हो गया। उनकी माता गीगाबाई 1741 में रेण आ गई। रेण गीगा बाई की जन्मस्थली पीहर था। व उनके पिता किशनजी खत्री यहां निवास करते थे।

मेड़ता पर मुसलमानों का अधिपत्य हो गया। और जबरदस्ती लोगों को इस्लाम में परिवर्तित किए जाने वाले लोगों में किशनजी खत्री भी थे। दरियावजी के नाना किशनजी को मुसलमान बनाकर उसका नाम खमीश रख दिया गया था। किशनजी के लगभग पूरे खानदान को ही ईस्लाम में परिवर्तित कर दिया था। किशनजी ने खमीश मुसलमान के रूप में रुई धुनने व पीनने का काम अपनी आजीविका के लिए आरम्भ कर दिया था। इसी कारण उन्हें पिंनारा कहा जाने लगा। पिंनारा को ही जुलाहा कहा जाता है। इन्ही वर्षे में काशी के दो पण्डित स्वरूपानन्दजी व शिवप्रसादजी जोधपुर आ रहे थे।

पण्डितों ने रेण में बालकों में खेलत हुए दरियावजी को देखा तो उनकी माता के पास गए। उन्होंने दरियावजी को अपने साथ अध्ययन के लिए काशी ले जाने का प्रस्ताव रखा जिसे सहज ही माता ने स्वीकार कर अध्ययन के लिए उनके साथ दरियावजी को विदा कर दिया।

अल्प समय में ही दरियावजी महाराज काशी में व्याकरण, वेद, उपनिषद् व गीता का अध्ययन कर पुनः रेण पधार गए किन्तु वे सैदव सदगुरू की खोज में रहते थे। इसी अविधि में प्रेमदासजी महाराज एक बार भिक्षाटन करते हुए दरियावजी महाराज के द्वार पर आ गए और राम नाम के उद्घोष से भिक्षा मांगी, इस ध्वनी से प्रभावित होकर दरियावजी महाराज तुरन्त बाहर आए और प्रेमदासजी महाराज को अपना गुरु बनाने का प्रस्ताव रखा। प्रेमदासजी महाराज रामानन्दजी की शिष्य परम्परा में उनके पश्चात नौवे उत्तराधिकारी थे। प्रेमदासजी महाराज ने कार्तिक शुक्ला एकादशी विक्रम संवत् १७६६ को राम नाम के मूल मंत्र के साथ अपना शिष्यत्व प्रदान किया। दरियावजी महाराज ने ब्रह्मचर्य धारण कर कैवल्य ज्ञान प्राप्त किया।

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