Saturday 4 February 2023

समाज कल्याण में रामस्नेही धर्म के आदि प्रवर्तक श्री दरियावजी महाराज की अहं भूमिका:-


समाज कल्याण में रामस्नेही धर्म के आदि प्रवर्तक श्री दरियावजी महाराज की अहं भूमिका:-

भारत माता अवतारों एवं ऋषि-मुनियों की पावन भूमि रही हैं। भारत में आध्यात्मवाद विश्व के अन्य देशों से कहीं अधिक हैं इसीलिए भारत देश विश्ववन्द्य और जगद्गुरू कहलाया । आदि काल से ही अवतारों और ऋषि-मुनियों ने भारतीयों के हृदय में आध्यात्मवाद और भक्ति की पावन धारा प्रवाहित की हैं। पौराणिक गाथाओं के अनुसार जगत जननी सीता पृथ्वी से तो महर्षि अगस्तय घट से उत्पन्न हुए थे। इसी प्रकार भगवान राम यज्ञ चरू की खीर से तो वैद्य धनवंतरी, लक्ष्मी, रम्भा आदि चौदह रत्न समुद्र से उत्पन्न हुए थे। ठीक इसी प्रकार रामस्नेही सम्प्रदाय के संस्थापक दरियाव महाराज भी पन्द्रहवें रत्न के रूप में दरिया (समुद्र) से उत्पन्न हुए थे।

जब राजपुताने में शाहजहां के पुत्र औरंगजेब के अत्याचार की सीमा चरम पर थी, हिन्दुओं का जबरन धर्म परिवर्तन कराया जा रहा था। धर्म को बचाने की महत्ती आवश्यकता थी तब दरियाव महाराज ने अवतार लेकर धर्म को संरक्षण प्रदान किया। उनके अवतार की कहानी बड़ी रोचक हैं। पाली जिले के जैतारण कस्बे में मनसाराम-गीगाबाई नाम से एक धर्मनिष्ठ दम्पत्ति निवास करता था। उनके कोई सन्तान नहीं थी। उस समय भारत में धर्मद्रोह और अत्याचार का बोलबाला था। यह निःसन्तान दम्पति जोड़ा कहीं भी सुरक्षित स्थान न पाकर द्वारिका की और चल पड़ा। वहां पहुँचकर उन्होंने अनन्यभाव से भगवद् भक्ति की तथा धर्म व संस्कृति की रक्षा के लिए उन्होंने ईश्वर से पुत्र प्राप्ति की कामना की। भगवानके दरबार में भी जब उनकी प्रार्थना नहीं सुनी जा रही थी तो वो सांसारिक जीवन से पूरी तरह निराश होकर समुद्र में जल समाधि के लिए तत्पर हुए। भगवान को शायद उनके मानस की ऐसी ही स्थिति की प्रतिक्षा थी।

जल समिधि ग्रहण करने के लिए समुद्र की गहराई में उतरते समय उन्हें दिव्यवाणी सुनाई दी, " तुम्हारी मनोकामनाएँ अवश्य पूर्ण होंगी। कल प्रातः ब्रहम मुहूत में इसी दरिया की लहरों पर कमल पुष्प में तैरती बाल विभूति प्राप्त होगी। ईश्वरीय विभूति द्वारा जगत में चारों और तुम्हारी कीर्ति फैलेगी। उस बालक द्वारा जगत के कल्याण हेतु कार्य होंगे। ”

यह दिव्य वरदान पाकर दम्पति ने जल समाधि का विचार त्याग दिया। अगले दिन ब्रह्म मुहूत में वे विस्मित भाव से अथाह दरिया की लहरों पर कमल पुष्प में विद्युत चमक -सी आभायुक्त एक बालमूर्ति उन्हें तैरती दिखाई दी। निःसंतान दम्पति ने तत्परता के साथ बालक को उठा- कर हृदय से लगा लिया। वात्सलय से विभोर दम्पति को कुछ पल तो पुत्र प्राप्ति की अगाध प्रसन्नता हुई लेकिन ततकालीन अत्याचारपूर्ण परिस्थिति का पुनः ध्यान आते ही उनके लिए बालक को सुरक्षित रखना एक समस्या बन गई। उस दम्पति ने सांसारिक जीवन से विरक्त होकर पुनः समुद्र की गहराईयों में उतरने लगे तभी उन्हे फिर से दिव्य वाणी सुनाई दी- " बाल विभूति को लेकर तुरन्त स्वदेश लौट जाओ। यह बालक डूबते धर्म की रक्षा करेगा "। यह दिव्य वरदान पाकर जलसमाधी का विचार त्याग मनसाराम गीगाबाई तुरन्त स्वदेश जैतारण लौट आए। इस प्रकार विक्रम संवत् 1733 भाद्रपद कृष्ण जन्माष्टमी के दिन निःसन्तान दम्पति को 'दरिया' से अमूल्य बाल निधि प्राप्त हुई, इसलिए बालक नाम 'दरियाव' रखा गया। वरदान के अनुसार, बालक दरियाव की अलौकिक शक्तियाँ उसके ननिहाल में रेणवासियों को उनकी बाल कीड़ाओं में दृष्टिगोचर होने लगी। एक बार की घटना हैं कि बालक दरियाव अपने बाल सखाओं के साथ खेल रहा था। तभी काशी के दो पण्डित रेण से होते हुए तत्कालीन जोधपुर नरेश से मिलने जा रहे थे। उनकी दृष्टि अन्य बालकों के संग खेल रहे बाल दरियाव पर पड़ी। वे बालक के तेजस्वरूप से अति प्रभावित हुए। पण्डितों ने गीगाबाई से इस तेजस्वी बालक को अपने साथ काशी ले जाकर सुशिक्षित करने की अनुमति चाही, जो उन्हें सहज ही मिल गई । इस प्रकार “गुरू गृह पढ़न को गए रघुराई अल्प काल विद्या सब पाई। " सिद्धान्त को चरितार्थ करते हुए थोड़े ही समय में व्याकरण, वेद, गीता, उपनिषद एवं सभी दर्शन- शास्त्रों का अध्यन कर दरियाव रेण लौट आए। अब उन्हें सद्गुरू की प्राप्ति के बारे में वह सोचते रहते । आखिर विक्रम संवत् 1769 में उनकी प्रेमदास महाराज से भेंट हुई। विक्रम संवत् 1769 कार्तिक शुक्ल एकादशी को प्रेमदास महाराज ने दरियाव महाराज को अपना शिष्य स्वीकार कर आशीर्वाद प्रादान किया ।

दरियाव महाराज महाराज बाल्यावस्था में ही अपने ननिहाल रेण आ गए जहां उनका लालन-पालन खत्री समाज में हुआ। उन्होंने रामस्नेही सम्प्रदाय की आधारशिला रखी। वे राम- धुन लगाय करते थे। रेण को ही उन्होंने तपःस्थली बनाया। कस्बे के लाखासागर के तट पर ईंटो से निर्मित चबुतरे पर विराजमान होकर वे तपसवा किया करते थे। कहा जाता है कि इस एकांत वन में लक्ष्मीजी, ब्रह्माजी, शिव, सनकादि, नारद जैसे देवादिदेव देवलोक से आकर दरियावजी महाराज से मिलते थे। अपने अनुयायियों को वे सदैव आदर्शो और सत्य आचारणों पर चलने के लिए उपदेश देते रहते थे। अनके अवतारित होने के समय भारत वर्ष में कर्मकाण्ड की कठोरता, बहुदेवापासना, आर्थिक विषमता, ऊँच-नीच का भेदभाव आदि अनेक कुप्रथाएँ एवं अत्याचार चरम पर थे। यहां के तात्कालिक शासक ( नरेश ) भी अपनी स्वर्ग से महान जन्मभूमि के गौरव को भूल चुके थे। विदेशी आक्रमणकारियों ने भी यहां के शासकों की फूट का लाभ उठाकार प्रजा का बलपूर्वक धर्म परिवर्तन करना शुरू कर दिया था। भारतीय समाज में सदियों से संस्कारित धार्मिक वर्चस्व के गढ़ भी धराशायी होने लगे। जनता भी अपने आप में असहाय महसूस करने लगी, ऐसे में दरियावजी ने धर्म पथ प्रदर्शित किया । उन्होंने पूर्ववर्ती संत कबीर, दादूदयाल आदि की भांतिनिर्गुण 'रामभक्ति' का प्रचार किया। उन्होंने जीव और ब्रह्म में कोई भेद नहीं माना। जीव मात्र में उन्होंने ब्रह्म की उपस्थिति का आभास किया।


अपनी कठोर साधना के कारण उन्होंने परमात्मा का आत्म साक्षात्कार किया। दरियाव महाराज ने 'नाम' उच्चारण को बड़ा महत्व दिया। उन्होंने ब्रह्म के प्रचलित अनेक नामों में से “राम” नाम को स्वीकार किया। इसके पीछे कारण यह था कि 'राम-नाम' को शिक्षित एवं अशिक्षित सभी लोग आसानी से उच्चारित कर सकते हैं। उन्होंने योग बल पर आत्म तत्व को परमात्म तत्व में विलीन करते हुए परमात्मा के संग तादात्म्य भाव स्थापित कर स्वानुभूति का वर्णन अपनी वाणी में प्रधानता के साथ किया है। उनकी ज्ञान रूपी ज्योति और आध्यात्म सत्ता तीनों लोकों में व्याप्त हैं। वे अपने तपोबल से अत्याचारियों एवं दुष्टों का हृदय परिवर्तित कर उनमें क्षमा, दया और करूणा की निर्मल धारा प्रवाहित कर हिंसा, अन्याय, अत्याचार, आदि की मनोवृत्ति को बदलने में समर्थ थें । यही कारण था कि उनके समक्ष बैठी शेरनी हिरनी को चाहती थी तो चूहा फूदक कर सांप के फन पर निर्भय होकर बैठ जाता था। उन्होंने अपने अपने तपोबल से कोटि-कोटि जीवों का उद्धार किया। ज्ञान, भक्ति व योग की त्रिवेणी की पुनीत निर्मल धारा ऊर्जा शक्ति के रूप में प्रवाहित होने के कारण उनके तपोस्थल चबूतरे की ईटे आज कलयुग में पानी पर तैरती हैं। रामस्नेही भक्त तो उन्हें समुद्र से प्राप्त 15 वाँ रत्न मानते हैं। दरियाव महाराज का "वाणी सहित्य" तो रामसेहियों के लिए संजीवनी ही हैं। उनकी वाणी में सत्संग के प्रभाव एवं सद्गुरू की महिमा का विस्तारपूर्वक वर्णन किया गया हैं।

दरियाव महाराज ने अपनी अलौकिक लीलाओं से जगत को चकित कर दिया। शिकारी द्वारा मारे गए मृग को जिंदा करना, कुओं के खारे जल को मीठा कर देना, भक्त उदयगिरि की पुकार पर लुटेरों से उसकी रक्षा करना आदि उनके अनेक पर्चे चर्चित है। यहीं नहीं, अनके तपस्थल चबूतरे की ईटे आज कलयुग में भी पानी पर तैरना उनकी आध्यात्म शक्ति का प्रत्यक्ष प्रमाण है। इन ईटो को वर्ष में तीन बार चैत्र, भद्रपद व मार्गशीर्ष की पूर्णिमा तिथि को सार्वजनिक रूप से हजारो श्रद्धालुओं की उपस्थिति में लाखासागर में तैरायी जाती हैं।

रेण स्थित रामधाम में दरियाव महाराज की पावन समाधि स्थित है। अखिल भारतीय रामनेही सम्प्रदाय की रेण पीठ के वर्तमान पीठाधीश्वर आचार्य हरिनारायण शास्त्री ने रामधाम में भक्तों एवं श्रद्धालुओं के ठहरने के लिए सैकड़ों कमरों का निर्माण कराया हैं। सत्संग हेतु पांच हजार लोगों के बैठाने की क्षमता वाले विशाल एवं अद्भुत सत्संग भवन का निर्माण कराया हैं। इसी प्रकार संगमरमर का सिंह द्वारा बनाया गया हैं। वहीं भीतरी द्वार का संगमरमर निर्माण जारी हैं। उन्होंने रामधाम का तो कायाकल्प किया ही हैं वे भारत भ्रमण कर सत्संग के माध्यम से भक्तों को आत्मकल्याण हेतु उपदेश प्रसारित कर रहे हैं।

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