यह दरिया की वीनती , तुम सेती महाराज ।
तुम भृंगी मैं कीट हूँ , मेरी तुमको लाज ॥
शब्दार्थ
- वीनती → विनती, प्रार्थना।
- महाराज → यहाँ सतगुरु के लिए आदरपूर्वक संबोधन।
- भृंगी → भौंरा (भृंग), जो कीट को अपने स्वरूप में बदल देता है।
- कीट → साधारण कीड़ा, यहाँ शिष्य का प्रतीक।
- लाज → जिम्मेदारी, मान और प्रतिष्ठा की रक्षा।
भावार्थ
आचार्यश्री कहते हैं कि हे गुरूदेव! मैं तो अज्ञान और दोषों से भरा हुआ एक साधारण कीट हूँ, और आप भृंग अर्थात् दिव्य गुणों वाले गुरु हैं। जैसे भृंग कीट को अपनी ध्वनि से अपने जैसा बना देता है, वैसे ही आपकी कृपा और आपके दिव्य शब्द से मैं भी आपके समान स्वरूप को प्राप्त कर सकता हूँ। इसलिए आप मुझे अपनी शरण में लेकर परिपूर्ण बना दीजिए।
व्याख्या
- इस दोहे में शिष्य की पूर्ण विनम्रता और आत्म-समर्पण प्रकट होता है।
- शिष्य स्वयं को नगण्य मानकर कहता है कि मैं तो एक छोटा-सा कीट हूँ।
- गुरु की तुलना भृंग (भौंरा) से की गई है, जो अपनी गूंज से कीट को बदल देता है।
- "मेरी तुमको लाज" का आशय यह है कि शिष्य को अपनी आत्मा के सुधार की चिंता नहीं है, वह इसे गुरु की जिम्मेदारी मानता है।
- यहाँ गुरु-शिष्य का सम्बन्ध केवल शिक्षा का नहीं बल्कि आत्मिक परिवर्तन का है।
- शिष्य का विश्वास है कि गुरु के शब्द और कृपा से उसका अज्ञान नष्ट होकर वह भी गुरु-जैसा स्वरूप धारण कर लेगा।
व्यवहारिक टिप्पणी
यह दोहा हमें यह सिखाता है कि—
- सच्चा शिष्य अपने दोषों और अज्ञान को स्वीकार करता है और उन्हें गुरु के सामने समर्पित कर देता है।
- गुरु की शरण में जाना और पूरी निष्ठा से उन्हें समर्पित होना ही साधना की असली शुरुआत है।
- जब शिष्य अपनी "लाज" (अर्थात अपने उद्धार की जिम्मेदारी) गुरु को सौंप देता है, तभी गुरु उस पर कृपा कर उसे दिव्य बना देते हैं।
- यह शिष्य का आत्मविश्वास और गुरु पर अटूट भरोसा दर्शाता है।