अपने गुरुदेव का गुरुपद यह ब्रह्मा, विष्णु, महेश से भी ऊँचा पद है। *गुरु साक्षात् परब्रह्म हैं।* ब्रह्माजी ने तो बाहर का शरीर दिया *किंतु गुरुदेव ने हमको ज्ञान का वपु (शरीर) दिया।* विष्णु जी बाहर के शरीर का पालन करते हैं *लेकिन गुरुदेव हमारे ज्ञान को पुष्ट करते हैं। हमारे “मैं” को, हमारे चैतन्य वपु को ब्रह्ममय उपदेश दे के पुष्ट करते हैं।* शिवजी तो बाहर के ‘कचरा (मलिनता भरे) शरीर’ को मारकर नये की परम्परा में ले जाते हैं। *लेकिन गुरु जी तो जन्म-जन्मांतर के संस्कारों की सफाई करके हमें शुद्ध स्वरूप में जगाते हैं।* तो गुरुदेव ब्रह्मा-विष्णु-महेश की नाईं हमारे अंदर इतना परिवर्तन करते हैं फिर भी रूकते नहीं, *गुरुदेव तो अपने स्वरूप का दान दे देते हैं- ‘जो मैं हूँ वह तू है।’* तो ब्रह्म-परमात्मा से अपने को अभिन्न अनुभव करना यह गुरु तत्त्व का प्रसाद पाना है।
कहाँ तो अनंत ब्रह्मांडनायक परमेश्वर और कहाँ एक हाड़-मांस के शरीर में रहने वाला चेतन लेकिन ‘शरीर मैं हूँ’ यह भ्रांति मिटते ही *अनंत ब्रह्मांडनायक के साथ एका करा देते हैं गुरुदेव*
*ऐसे गुरुदेव को मेरा दण्डवत कोटि कोटि नमन, नमन !*
*राम जी राम*
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