Monday 2 May 2016

सुरातन का अंग श्री दरियाव दिव्य वाणी



श्री दरियावजी महाराज का सूरातन का अंग :-  

इष्टी स्वाँगी बहु मिले, हिरसी मिले अनन्त।
दरिया ऐसा ना मिला, राम रता कोई सन्त ।।
इस संसारमें अपने अपने इष्ठों को, अपने प्रियजनों को चाहने वाले
तथा तरह तरह के स्वांग बनाकर जीवन यापन करने वाले और अकारण
 ही हर्षित-प्रसन्न होने वाले असंख्य लोग मिले है लेकिन मुझें इसी बात
का दुख है कि इतना प्रयास करने पर भी मुझे अभी तक राम भक्त
 ईश्वर भक्त सच्चा साधु नहीं मिला है । वास्तव में उच्चकोटि के 
 साधू सन्त दुर्लभ होते है।

पंडित ज्ञानी बहू मिले ,
वेद ज्ञान परवीन।
 दरिया ऐसा ना मिला ,
राम नाम लवलीन।।

आचार्य श्री दरियाव जी महाराज फरमाते है मुझे अनेक पण्डित और ज्ञानी मिले, वेदो के ज्ञान में पूर्ण अनेक विद्वान् भी मिले, लेकिन मुझे अभी तक अहर्निंश राम नाम में लवलीन
(तल्लीन) रहने वाला कोई भी सच्चा भक्त नही मिला है।


वक्ता श्रोता बहु मिले, करते खेंचा तान ।
दरिया ऐसा ना मिला, जो सन्मुख झेले बान ।।

इस जीवन से मुझे तरह-तरह की व्यर्थ की बाते करने वाले और
सुनने वाले अनेक लोग मिले है । ये सभी अपने अपने इष्ट और अपने
विचारों को श्रेष्ठ बताने का प्रयास, श्रोताओ के सामने करते रहते है 
लेकिन मुझे अभी तक बातों के स्थान पर काम करने वाला सच्चा शुर
नही मिला है । केवल सच्चा शुर ही शत्रु के सम्मुख रहकर उसके बाणों 
 के प्रहार को सहन करता है । वास्तव में ऐसे शूर के समान ही सच्चा
भक्त , भक्ति से आने वाली बाधाओं को सहन करके निरन्तर राम नाम
 जाप भगवत् भक्ति के लक्ष्य की प्राप्त की और अग्रसर होता रहता है।


दरिया बान गुरुदेव का, बेध भरम विकार।
बाहर घाव दिखे नहीं, भीतर भया सिमार।।

महाराज श्री कह रहे कि मेरे गुरुदेव के शब्द रूपी बाण ने ह्रदय
पर अपने प्रभाव से मेरे सब अवगुण दूर कर दिये है बाण का घाव
शरीर के बाहर दिखाई देता है परन्तु मेरे गुरु के शब्द रूपी बाण का जो
भयानक धाव मेरे हदय पर हुआ है, गुरु के शब्दों का जो प्रभाव मेरे 
हृदय पर पड़ा है, वह घाव-वह प्रभाव किसी को दिखाई नही दे रहा है।
वास्तव में गुरु के सत् शब्दों का मेरे हदय पर अपार प्रभाव हुआ है।

दरिया बाण गुरुदेव का,कोई झेले शुर सधिर।
लागत ही व्यापे सही,रोम रोम में पीर।।
जिस प्रकार युद्व में कोई धीरज रखने वाला शुर ही बाण के प्रहार 
को सहन कर सकता है उसी प्रकार सतगुरु के शब्दरूपी बाण के प्रहार
को केवल सच्चा भक्त ही सहन करता है ,सच्चा धीर भक्त ही गुरु के
शब्दों से प्रभावित होता है और उसे अपने रोम रोम में शब्द का प्रभाव
अनुभव होने लगता है । 


।। सोई घाव तन पर लगै, उठ सम्भाले साज ।
। । चोट सहारे सब्द की, सो सूरा सिरताज।।
शूरों में सिरताज कौन है, इसकी बहुत ही सुन्दर शब्दों में व्याख्या 
करते हुए कहते है कि सच्चा शूर शरीर पर घाव होते ही अपने
साजबाज़-अस्त्रशस्त्र सम्भाल लेता है । वास्तव में सच्चा भक्त गुरु के
शब्दों से प्रभावित होकर अपने राम नाम जाप भक्ति के सच्चे लक्ष्ये को
प्राप्त करने में लग जाता है और धीरे धीरे भक्तो का सिरताज बन
जाता है ।


चोट सहे उर सेल की, मुख ज्यों का त्यों नूर ।।
चोट सहारे शब्द की , दरिया सांचा सूर।।

युद्ध में शुर के ह्रदय में बाण की चोट लगने पर भी मुख के तेज
 (चमक) में कोई कमी नहीं आती है ।जो भक्त गुरु के शब्द  से प्रभावित 
 होकर सच्चे मन से भक्ति में लगकर अपना लक्ष्य पूरा कर लेता है , वही भक्त भक्ति के क्षेत्र में सच्चा सुरवीर है।


दरिया प्रेमी आत्मा, आवै सतगुरु संग।
सतगुरु सेती सब्द ले, मिले सब्द के रंग।।



आचार्यश्री दरियाव जी महाराज आत्मा के विषय में कह रहे हैं कि जो राम जी 
महाराज से प्रेम रखवाली आत्मा होती है, वह सद्गुरु का संग करती
 है तथा सतगुरु से शब्द लेकर शब्द के रंग में मिल जाती है।
   जब कोई भक्ति सतगुरु से शब्द लेकर बहुत अधिक अर्थात 7 
   या 8 घंटा ध्यान करता है तो उसका शरीर मृतक की भांति सुन हो जाता 
   है तथा केवल नाड़ियां चलती है । सब्द रंग में इतना रंग जाता है कि 
   उसे अपना शरीर का ध्यान नहीं रहता है । उस समय ध्यान काल 
   में विभिन्न प्रकार की अद्भुत आवाजों को सुनकर साधक भयभीत हो 
   जाता है अब तो मैं मर जाऊंगा । ऐसी स्थिति में सद्गुरु ही उसे धीरज 
   बंधाते हैं की यह तो ध्यान योग से बहुत शुभ लक्षण हैं । इसे कहते 
   हैं शब्द के रंग में रंग जाना। अतः साधक को दृढ़तापूर्वक साधना 
   करते रहना चाहिए तथा जीवन में प्रतिकूल परिस्थिति की ओर ध्यान
    नहीं देते हुए उन परिस्थितियों को अनुकूल मान लेना चाहिए । 
    क्योंकि जो व्यक्ति दृढ़ता रखता है , वही वास्तव में परमात्मा की 
    प्राप्ति कर सकता है।


दरिया सूरा गुरुमुखी, सहै सब्द का घाव ।। 
लागत ही सुध बीसरे, भूले आन सुभाव।।

गुरुमुखी होकर, गुरु के शब्दों से प्रभावित होकर भक्ति में लग
जाने वाला भक्त ही सच्चा शूर हैं । वह गुरु के शब्दों का हदयपर प्रभाव
होते ही अपनी सुध बुध खो देता है और उसके स्वभाव आचरण में
परिवर्तन हो जाता है । भक्ति मे लीन रहना ही उसका स्वभाव बन जाता है ।

भया उजाला गैब का, दौड़े देख पतंग ।
दरिया आपा मेटकर, मिले अगनी के रंग।।

पतंगा, किसी अनजान स्थान से आनेवाले प्रकाश की ओर दौड़ता 
है । यद्यपि उसे प्रकाश के विषय में कोई ज्ञान नहीं रहता, तथापि वह
अपना अस्तित्व मिटाकर अग्नि के रंग में मिल जाता है क्योंकि वह तो 
प्रकाश का प्रेमी होता है।


दरिया प्रेमी आत्मा, राम नाम धन पाया ।
निरधन था धनवन्त हुवा, भूला घर आया ।।

आचार्य श्री कहते है कि प्रेमी आत्मा ने रामनाम रूपी घन प्राप्त 
 कर लिया तथा उस धन का भंडार इतना विशाल था कि साधक निर्धन 
 से धनवान बन गया । पहले वह भूला भटका हुआ जंगलों मे घूम रहा 
था परन्तु अब उसने असली घर को प्राप्त कर लिया है तथा सच्चे धन
का संग्रह करना आरम्भ कर दिया है । सच्चा धन क्या ?
।। मेने राम रत्न धन पायो।।


सूरा खेत बुहारिया, सतगुरु के विश्वास ।
सिर ले सोंपा राम को, नहीं जीवन की आस।।
खेत अर्थात ऱणांगण । लडाई के मैदान को बुहारने का तात्पर्य यह 
है कि शत्रुओं का मुकाबला करके उन्हें धराशायी कर दे तथा मैदान को 
अपने हस्तगत कर ले । इसी प्रकार हमरि इस अंत: करण रूपी मैदान में
भी काम, क्रोध,लोभ,मोह इत्यादि शत्रुओं ने अधिकार कर लिया है ।
यदि हम इन्हें परास्त करना चाहते है तो हमें सतगुरु का विश्वास तो
करना ही होगा।


आपने कभी भगवान को देखा नहीं है तथा न ही भगवान ने कभी
आपको ऐसा निदेश दिया है कि यह मनुष्य शरीर बहुत ही अनमोल है 
तथा तू नामजाप करके इसका उपयोग कर ले । भगवान ने तो कभी
स्वप्न में भी हमें ऐसा नहीं कहा है । ऐसा उपदेश तो हमें केवल सतगुरु 
ही देते है । अत: सतगुरु भगवान से भी बढकर हुए । अत: सतगुरु का
 विश्वास तो मानना ही पडेगा ।


दरिया खेत बुहारिया, चढा दई की गोदं।
कायर काँपै खड़बड़े, सूरा के मन मोद।।

दई अर्थात देहीं अर्थात आत्मा । देह अर्थात शरीर तथा देही अर्थात
शरीर के अंदर निवास करने वाले परमात्मा । महाराज़ श्री कहते है कि मैने
अपनी आत्मा को अर्थात स्वयं को परमात्मा की गोद में सौप दिया है।
यह भक्त की अभिलाषा है । भक्त का यह पक्का निश्चय है कि
है प्रभु ! मैने मेरे जीवन को पूर्णत: आपके चरणों में समर्पित कर दिया
है । अब चाहे जीवन में सुख आए अथवा दु:ख आए इसकी मुझे कोई
चिंता नहीं है । मेरी तो केवल कामना है कि प्रत्येक परिस्थिति में मेरा
मन आपके श्रीचरणों में लगा रहे । आचार्य श्री कहते है कि इस प्रकार
की दृढ़ता केवल शुरवीरों के मन में होती है।



सूर वीर साँची दसा, भीतर साँचा सूत।
पूठ फिरै नहीं मुख मुड़े, राम तना रजपूत।।

युद्ध क्षेत्र में जब शत्रुपक्ष की ओर से गोलियां आती है, तब कायर
तो भयभीत होकर भाग जाते है क्योंकि वे अवरसवादी होते है । परन्तु
जो शुरवीर होते है वे गोलियों के सामने सीना तानकर खड़े हो जाते
है तथा शत्रुओं से लोहा लेकर उनका संहार करते रहते है । इसी प्रकार
यह जीवन भी एक संघर्ष है । यह संसार एक युद्ध क्षेत्र है तथा प्रत्येक
मानव एक सैनिक है । अत: अब आजीवन हमें जूझना है । हमारे जीवन
में जो कठिनाइयाँ तथा चुनौतियों है इनका सामना करते हुए हमें आगे
बढ़ना है । परन्तु इस युद्ध क्षेत्र में काम-क्रोध रूपी शत्रु हमसे संघर्ष कर
रहे है । यहि हम इन शत्रुओं से पराजित हो गए तो हम कायर बन जाएंगे
तथा भगवान के राज्य में हमारा कोई आदर नहीं होगा । अत: यदि प्रभु
का प्यारा बनना है तो सदा ही इन शत्रुओं के साथ संघर्ष करते रहो और
उन्हें परास्त करो । 

साध सूर का एक अंग, मना न भावै झूठ।
साध न छाँडै राम को, रन में फिरे न पूठ।।

आचार्य श्री ने संत का तथा शूरवीर का एक ही स्वभाव बताया
है । शूरवीर कभी रणांगण में पीठ नहीं दिखाता है । वह तो सदा ही
शत्रुओं का संहार करता हुआ आगे बढ़ता रहता है । उसी प्रकार साधु
कभी राम को नहीं छोड़ता है । भगवद भक्त तो सदा ही कर्मो का सामना
करता हुआ बढ़ता रहता है । चाहे उसे अपने जीवन का बलिदान करना
पडे परन्तु वह अपने प्यारे प्रभु को कभी नहीं छोड़ेगा । 

शूरवीर की सभा में, कायर बैठे आय ।
सूरातन आवै नही, कोटि भाँति समूझाय।।

शूरवीर की सभा मैं, जो कोई बैठे सूर।
 सुनत बात सूख ऊपजै, चढै सवाया नूर।।

आचार्य श्री कहने है कि शूरवीरों की सभा में जब कोई कायर
आकर बैठता है तथा जब वह उस सभा में देश रक्षा तथा समाज रक्षा
जैसे किसी बहुत बड़े कार्य विषय की चर्चा सुनता है तब वह कायर
ऐसे बड़े बड़े मृत्युवत कार्यो को देखकर घबरा जाता है । उसे भिन्न भिन्न 
प्रकार से उदाहरण देकर समझाया जाए तो भी वह समझ नहीं पाता है
क्योंकि उसके हदय में कायरता ने घर कर लिया है । उसी प्रकार जो
व्यक्ति भक्ति से पीछे हटते है वे कायर है । वैदिक काल से ही महापुरुष
हमे समझाते आए है । यहि हमने उन महापुरुषों की बात मान ली होती
तो आज यह संसार नहीं होता । सभी भगवत् स्वरूप होकर भगवत्
धाम में विराजित होते । परन्तु आज भी यह संसार विद्यमान है तथा
बढ़ता ही जा रहा है । इसका अर्थ यह है कि हमने उन महापुरुषों की
बात नहीं मानी तथा हमारे जीवन में कायरता का स्थान है । इस प्रकार
से आचार्यश्री कहते है कि सभा के अंदर कितने ही शूरवीर उस कायर
को भांति-भांति से समझाते है परन्तु वह नही समझता है ।
इसके विपरीत्त शूरवीरों की सभा में कोई शूरवीर आकर बैठता है
तो वह शूरवीरता को चर्चा सुनकर बड़ा ही प्रसन्न होता है तथा उसको
सवाया नूर चढता जाता है अर्थात् शक्ति सवाई होती जाती है ।


















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