Friday, 27 May 2016

बिरह का अंग।। श्री दरियाव दिव्य वाणी जी

बिरह का अंग
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दरिया हरि किरपा करी,बिरह दिया पठाय।
यह बिरहा मेरे साध को,सोता लिया जगाय॥
बिरह वियापी देह में,किया निरन्तर बास।
तालाबेली जीव मे,सिसके साँस उसाँस॥
कहा हाल तेरे दास का,निस दिन दुख मे जाँहि।
पिव सेती परचो नहीं,बिरह सतावै माँहि॥
दरिया बिरही साध का,तन पीला मन सूख।
रैन न आवे नींदडी,दिवस नी लागै भूख॥
बिरहन पिउ के कारने,ढूढँन बन खण्ड जाय।
निस बीती पिउ ना मिला,दरद रहा लिपटाय॥
बिरहन का घर विरह मे,ता घट लोहू न माँस।
अपने साहिब कराने,सिसके साँसोसाँस॥
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