Sunday 8 January 2017

अथ श्री दरियावजी महाराज की दिव्य वाणीजी का सतगुरु का अंग

अथ श्री दरियावजी महाराज की दिव्य वाणीजी - सतगुरु का अंग                       
नमो राम परब्रह्मजी , सतगुरु संत आधार ।
जन दरिया वन्दन करै , पल पल बारम्बार  (1)                               
नमो नमो हरि गुरु नमो , नमो नमो सब सन्त । 
जन दरिया वन्दन करै , नमो नमो भगवंत (2)                            
जब वाणी का श्रीगणेश हुआ , तब सर्वप्रथम महाराजश्री ने मंगलाचरण किया है । मंगलाचरण अर्थात मंगल है आचरण जिसके । अतः महाराजश्री राम को नमस्कार करते हैं, सतगुरु को नमस्कार करते हैं, तथा सभी सन्तों को नमस्कार करते हैं । आचार्यश्री कहते हैं - सतगुरु संत आधार । जीवन में सतगुरु ही आधार है ।
दरिया सतगुरु भेंटिया , जा दिन जन्म सनाथ ।
श्रवना शब्द सुनाय के, मस्तक दीना हाथ (3)                   
     
आचार्य श्री दरियावजी महाराज कह रहे हैं कि सतगुरु से भेंट होते ही मेरे अंदर की विशेषताएं बढ़ती गई तथा आध्यात्मिक जीवन की उपलब्धियां अभिवृद्धि को प्राप्त होती गई । सतगुरु से भेंट हुई तो मेरा जन्म सनाथ हुआ । उसी दिन मेरे जन्म का श्रीगणेश हुआ ।
सतगुरु दाता मुक्ति का, दरिया प्रेम दयाल ।
किरपा कर चरणों लिया, मेटा  सकल जंजाल  (4)               
महाराजश्री कहते हैं कि सतगुरु मुक्ति के दाता अर्थात मोक्ष को देने वाले हैं । सत् परमात्मा का नाम है तथा जो सत्य से जुड़कर सत्यस्वरूप हो गए हैं,  उन्हीं का नाम सतगुरु है ।
अन्तर थो बहु जन्म को , सतगुरु भाँग्यो आय । 
दरिया पति से रूठनो , अब कर प्रीति बनाय (5) 
आचार्य श्री दरियावजी महाराज कहते हैं कि जीव से परमात्मा की दूरी बहुत जन्मों की है । यह बहुत जन्मों का अन्तराल सतगुरु ही पूरा कर सकते हैं । इसलिए महाराजश्री कहते हैं कि परमात्मा रूठे हुए हैं । रूठे हुए परमात्मा को मनाओ अर्थात रूठे हुए परमात्मा से प्रीति करले, उनसे पवित्र संबंध जोड़ ले ।
जन दरिया हरि भक्ति की, गुरां बताई बाट ।
भूला ऊजड़ जाय था, नरक पड़न के घाट  (6) 
                               
आचार्यश्री कह रहे हैं कि सतगुरु ने हमें हरि भक्ति की बाट बताई । मैं तो भूलकर ऊजड़ रास्ते पर जा रहा था  । परंतु सतगुरु के कथनानुसार चलने से मेरे मन मेंं जिस भगवत प्राप्ति का लक्ष्य था वह पूरा हो गया ।
दरिया सतगुरु शब्द सौं , मिट गई खैंचा तान ।
भरम अंधेरा मिट गया, परसा पद निर्वान (7)    
                         
महाराजश्री कहते हैं कि सतगुरु के शब्द से मेरी खींचातानी मिट गई ।  सतगुरु ने कृपा करके मुझे दुनियादारी के विषय में समझा दिया । अंधकार को छोड़कर प्रकाश की ओर चलने का रास्ता दिखा दिया जिससे परमपद की प्राप्ति होती है ।
दरिया सतगुरु शब्द की, लागी चोट सुठौड़ ।
चंचल सो निस्चल भया , मिट गई मन की दौड़ (8) 
                            
 आचार्यश्री दरियावजी महाराज कहते हैं कि सतगुरु ने कृपा करके मेरे सही स्थान पर चोट मारी, जिससे मेरी सारी चंचलता नष्ट हो गई और मैं निश्चल हो गया । साथ ही मेरे मन की दौड़ भी मिट गई ।
डूबत रहा भव सिंधु में, लोभ मोह की धार ।
दरिया गुरु तैरू मिला,  कर दिया परले पार  (9)   
                          
महाराजश्री  कह रहे हैं कि मैं सतगुरु ज्ञान के बिना संसार रूपी सागर में डूब रहा था तथा लोभ और मोह की धारा में बह रहा था । मुझे गुरु तैरू मिला और उन्होंने मुझे संसार सागर से पार कर दिया ।
दरिया गुरु गरूवा मिला, कर्म किया सब रद्द ।
झूठा भर्म छुड़ाय कर,  पकड़ाया सत शब्द  (10)
                  
महाराजश्री कहते हैं कि राम का नाम ही सत् शब्द है । गुरूदेव ने मुझसे झूठा भ्रम छुड़वा लिया तथा मुझे सत् शब्द पकड़ा दिया । इस दुनिया को भ्रम अर्थात असत्य मान लिया जाय तो व्यक्ति सुखी हो जाए ।
दरिया मिरतक देख कर, सतगुरु कीनि रींझ ।
नाम संजीवन मोहिं दिया, तीन लोक को बीज  (11) 
                                    
आचार्यश्री कह रहे हैं कि मुझे मरा हुआ देख कर सतगुरु ने संजीवनी बूटी दी अर्थात शब्द दिया । अपात्र पर कृपा करना, उसे ही "रींझ " कहते हैं । इसलिए महाराजश्री कहते हैं कि सतगुरु ने मुझ पर रीझ कर तीन लोक का बीज दे दिया ।
तीन लोक को बीज है, ररो ममो दोई अंक ।
दरिया तन मन अर्प के, पीछे होय निसंक (12)
                                
महाराजश्री कह रहे हैं कि रकार और  मकार यही तीन लोक का बीज है । गुरूदेव ने मुझे राम नाम रूपी संजीवनी  बूंटी दी । उपदेश उन्हे ही लगता है, जो सतगुरु के चरणों मे समर्पित हो जाता है ।
जन दरिया गुरूदेवजी , सब विधि दई बताय ।
जो चाहो निजधाम को , तो सांस उँसासौं ध्याय (13)   
                     
 आचार्यश्री दरियावजी महाराज कहते है कि यदि तुम्हारी इच्छा अपना कल्याण करने की है और अभी मोक्ष की प्राप्ति करना चाहते हो तो एक ही लक्ष्य बना लो । ऐसा निश्चय हो जाने से सांसो साँस में निरंतर राम राम ध्यान आरंभ हो जाता है ।
जन दरिया सतगुरु मिला, कोई पुरूवले पुन्न ।
जड़ पलट चेतन किया, आन मिलाया सुन्न (14)
                       
 आचार्यश्री दरियावजी महाराज कहते हैं कि मुझे पूर्वजन्म के पुण्य से सतगुरु मिले हैं । सतगुरु ने मैरे जड़वत शरीर को चेतन कर दिया तथा प्राणों को सुन्न में मिला दिया ।
दरिया सतगुरु शब्द सौं,  गत मत पलटै अंग ।
करम काल मन का मिटा , हरि भज भये सुरंग  (15)
              
आचार्यश्री कह रहे हैं कि सतगुरु के शब्द से मेरी बुद्धि एवं कर्म में परिवर्तन हुआ । मेरे मन में जो कर्म और काल था,  वह मिट गया अर्थात समाप्त हो गया । जिससे प्रभु की भक्ति और प्रेम का मेरे अंतःकरण में प्राकट्य हुआ ।
नहीं था राम रहीम का , मैं मतहीन अजान ।
दरिया सुध बुध ज्ञान दे ,सतगुरु किया सुजान (16)

आचार्यश्री कहते हैं कि मैं राम और रहीम किसी का भी नहीं था । ईश्वर के प्रति मेरी आस्था नहीं थी ।ऐसे अयोग्य व्यक्ति के ऊपर भी सतगुरु ने कृपा करके मुझे सुजान अर्थात जागृत कर दिया ।
सोता था बहु जन्म का , सतगुरु दिया जगाय ।
जन दरिया गुरू शब्द सौं, सब दुख गये बिलाय (17) 
                    
आचार्यश्री कहते हैं कि मैं बहुत जन्मों  से सोया हुआ था । सतगुरु ने मुझ पर कृपा करके मुझे जगाया तथा सतगुरु के शब्द से मेरे सारे दुख मिट गए ।
सतगुरु शब्दाँ मिट गया, दरिया संसय सोग ।
औसद दे हरि नाम का, तन मन किया निरोग  (18)
                               
आचार्यश्री ने कहा है कि सतगुरु के राम नाम भक्ति का शब्द सुनते ही मेरे संशयरूपी सब रोग मिट गए हैं । अब उन्होंने ईश भक्ति का शब्द सुनाकर मेरे तन मन को पूर्ण स्वस्थ कर दिया है ।
दरिया सतगुरु कृपा करि , शब्द लगाया एक ।
लागत ही चेतन भया , नेत्तर खुला अनेक  (19) 
                           
महाराजश्री कहते हैं कि सतगुरु के एक ही शब्द से शिष्य के सारे ज्ञान के दरवाजे खुल गये अर्थात सतगुरु ने रोम रोम के अंदर ज्योति के द्वार खोल दिये ।
दरिया गुरु पूरा मिला, नाम दिखाया नूर ।
निसा गई सुख ऊपजा , किया निसाना दूर  (20)
                               
 महाराजश्री कहते हैं कि मुझे पूरा गुरु मिला । गुरूदेव ने हमें तीनों गुणों से अतीत कर दिया । परमात्मा का नाम अंतःकरण में प्रकट हुआ तथा विश्वास हुआ कि मुझे सतगुरु अवश्य तारेंगे।
रंजी शास्त्र ज्ञान की, अंग रही लिपटाय ।
सतगुरु एकहि शब्द से, दीन्ही तुरत उड़ाय (21)
                                      
आचार्यश्री कहते हैं कि मेरे शरीर के ऊपर ज्ञान की रंजी लगी हुई थी अर्थात शास्त्रीय ज्ञान का अभिमान था । गुरूदेव के एक ही शब्द से मेरी सारी शास्त्रीय रंजी उड़ गई ।
शब्द गहा सुख ऊपजा, गया अंदेशा मोहि ।
सतगुरु ने कृपा करि, खिड़की दीनी खोहि (22)

महाराजश्री कह रहे हैं कि मैंने सतगुरू का शब्द को ग्रहण करके ह्रदय में उतार लिया जिससे मेरा परमात्मा के प्रति संशय चला गया ।  सतगुरु की कृपा से परमात्मा के विषय मेंं जानकर हम उनके स्वरूप में अटल स्थिर हो गये ।
जैसे सतगुरु तुम करी , मुझसे कछु न होय ।
विष भांडे विष काढ कर , दिया अमीरस मोय (23) 
                             
आचार्यश्री कहते हैं हे सतगुरुदेव ! आपने मेरे लिए बहुत किया है, परन्तु इसके बदले मैं आपको कुछ नहीं दे सकता । हमारा शरीर जहर से भरा हुआ बर्तन है गुरूदेव ने जहर निकाल कर मुझे राम नाम रूपी अमृत दिया है ।
गुरु आये घन गरज कर , अन्तर कृपा उपाय ।
तपना से शीतल किया, सोता लिया जगाय (24) 
                            
 महाराजश्री कहते हैं कि तपन के कारण मैं झुलस रहा था परन्तु गुरूदेव ने गरजकर मेरे ऊपर वर्षा कर दी तथा मुझे शीतल  (शान्त) बना दिया ।
गुरु आये घन गरज कर, शब्द किया प्रकाश ।
बीज पड़ा था भूमि में, भई फूल फल आस (25)
                         
महाराजश्री कहते हैं कि जब सांसोसांस राम राम करते हैं, तब शब्द गतिमान होकर ऊर्ध्वदिशा की और प्रेरित होकर आज्ञाचक्र में पहुंचता है । उसके पश्चात शब्द ब्रह्मरंध्र में पहुंचता है । श्वासोच्छवास की टक्कर लगने से शब्द रचना होती है तथा उस प्रकाश में  परमात्मा का प्राकट्य होता है ।
गुरु आये घन गरज कर, करम कड़ी सब खेर ।
भरम बीज सब भूनिया , ऊग न सक्के फेर  (26) 
                      
 महाराजश्री कहते हैं कि सतगुरु की गर्जना ने कर्मों को जलाकर राख कर दिया । बीज जलने के पश्चात ऊगता नहीं है ।हमारा जन्म किसी प्रकार की इच्छा या वासना मन में रहने से होता है । परमात्मा प्राप्ति की इच्छा हो जाने पर कर्म रूपी बीज जलकर नष्ट हो जाते हैं ।
साध सुधारै शिष्य को, दे दे अपना अंग ।
दरिया संगत कीट की, पलटि सो भया भिरंग  (27)
                 
आचार्यश्री कह रहे हैं कि सतगुरु शिष्य को शब्द के द्वारा पैदा करते हैं । भँवरा कीड़े को मिट्टी के घर के अंदर डाल देता है तथा उसके पश्चात उस कीड़े के ऊपर आवाज करता हुआ मंडराता रहता है जिससे कीड़ा भँवरे के समान ही  हो जाता है ।
यह दरिया की वीनती , तुम सेती महाराज ।
तुम भृंगी मैं कीट हूँ , मेरी तुमको लाज  (28)

आचार्यश्री कहते हैं कि हे गुरूदेव!  मैं तो एक कीड़ा हूँ तथा आप भँवरे के समान हैं । आप मुझे अपनी शरण में लेकर अपना अलौकिक शब्द सुनाएंगे तो वह शब्द मेरे हृदय में अंकित हो जाएगा । जिसे मैं कभी नहीं भूलूंगा ।
बिक्ख छुड़ावै चाह कर , अमृत देवै हाथ ।
जन दरिया नित कीजिए,  उन संतन का साथ (29)

  भगवद्स्वरूप महापुरूष एवं  सतगुरु विष को छुड़ाकर हमें  अमृत देकर सुखी तथा अमर बनाते हैं । इसीलिए जो जहर छुड़ाकर अमृत देते हैं ऐसे महापुरुषों का संग करने के लिए आचार्यश्री ने प्रेरणा दी है ।
उन संतन के साथ से, जिवड़ा पावै जक्ख ।
दरिया ऐसे साध के, चित चरणों में रक्ख (30)
                           
 महाराजश्री कहते हैं कि ऐसे संतों का साथ करने से जीव को आराम मिलता है तथा परमात्मा के नाम का नशा चढ़ जाता है । ऐसे महापुरूषों के चरणों मेंं  चित रखने वाला जीव सदा-सदा के लिए कृत-कृत हो सकता है तथा आनंदस्वरूप ब्रह्म को प्राप्त करके स्वंय भी आनंदरूप  हो सकता है ।
बाड़ी में है नागरी , पान देशांतर जाय ।
जो वहाँ सूखे बेलड़ी , तो पान यहां बिनसाय (31)
पान बेल से बीछुड़ै , परदेसां रस देत ।
जन दरिया हरिया रहै , उस हरी बेल के हेत (32)
                                  
आचार्यश्री कहते हैं कि नागर बेल बाड़ी में बोयीजाती है तथा इसका पालन पोषण एक बच्चे की भांति बहुत ही सुरक्षित ढंग से किया जाता है । नागर  बेल के पत्ते खाने के काम आते हैं तथा दूर दूर तक चले जाते हैं फिर भी वे पत्ते सूखते नहीं है क्योंकि वह बेल वहीं से अपनी दृष्टि तथा मानसिक भावों से उन पत्तों का पोषण करती रहती है ।
कुंजी परदेसों फिरै , अंड धरै घर माहिं ।
निस दिन राखै हेत मेंं, ता सों बिनसै नाहिं (33)  
                                   
 महाराजश्री कहते हैं कि कुरजा पक्षी बड़े -बड़े जलाशय अथवा सागर के किनारे अंडे देकर भोजन की तलाश में हजारों कोस दूर चला जाता है, परन्तु कुरजा का मन उन्ही अंडों में रहता है जिससे अंडा परिपक्व हो कर  फूट जाता है तथा अपना हेत स्नेह बच्चे में रखने के कारण उसका पालन पोषण  होता रहता है । इसी प्रकार सतगुरु   दूर देशांतर बैठे हुए भी अपनी भावना रूपी किरणों के द्वारा शिष्य का आध्यात्मिक विकास करते रहते हैं ।
अनड़ अंड को डाल दे , अंतर राखै हेत ।
पाक फूट परीपक होवै , खैंच आप दिस लेत (34)
     
आचार्यश्री कहते हैं कि अनहल पक्षी आकाश में ही घूमता रहता है एवं आकाश में ही अंडा देता है । जब अंडा आकाश से नीचे आता है तब अनहल पक्षी की अंडे में ही सुरति के कारण पृथ्वी पर नहीं गिरता तथा आकाश मार्ग में ही फूटकर बच्चा बाहर निकलआता है । इसी प्रकार परमात्मा को प्राप्त करने के लिए इस पक्षी की भांति अपना ध्यान सदा ही प्रभु के चरणों मेंं लगाए रखना चाहिए ।
अनड़ बसै आकाश में, नीची सुरत निवास ।
ऐसे साधू जगत में, सुरत शिखर पिउ पास  (35)  
                    
 महाराजश्री कहते हैं कि अनहल पक्षी आकाश में उड़ता रहता है किन्तु उसकी सूरत नीचे गिरने वाले अंडे मेंं ही रहती है ।ऐसे ही संत जगत मेंं रहते हुए भी अपनी सुरत , ब्रह्मरंध्र में रखते हैं । उसी प्रकार आप भी केवल परमात्मा की और ध्यान देंगे तो साध्य की प्राप्ति सहज ही हो जाएगी ।
कोयल आले मूढ़ के, धरै आपना अंड ।
निस दिन राखै हेत में, तिन से पड़े न खंड  (36)                                      
मूढ़ काग समझै नहीं, मोह माया सेवै ।
चून चुगावै कोयली , अपना कर लेवै (37) 
                                                
आचार्यश्री कहते हैं कि कौआ कोयल से इर्ष्या करने के कारण कोयल के घोंसले में रखे उसके अंडे फोड़कर नष्ट कर देता है । परन्तु कोयल बहुत ही चतुर होती है । जब कौआ अपने घोंसले में नहीं रहता है,तब कोयल अपने अंडे उसके नीड़ में डाल देती है और बदले में उसके अंडों को लाकर अपने घोंसले में रख देती है । मूर्ख कौआ उन्हें  कोयल के अंडे समझ कर  अपने ही अंडे नष्ट कर देता है लेकिन कोयल दूर से ही अपने अंडों पर ध्यानाकर्षण रखती है जिससे अंडे परिपक्व हो कर उसमे से बच्चे बाहर निकल आते हैं तथा कोयल बच्चों लेकर भाग जाती है । इसी प्रकार से आपकी सूरत परमात्मा में लगी रहने से संसार आपके लक्ष्य तथा साधना में कुठाराघात करने में सफल नहीं हो सकेगा ।
चौमासे ऋतु जानकर , पृथ्वी को जल देत ।
कबहू आवे ऋतु बिना,  उस चात्रिक के हेत  (38)  
                             
 महाराजश्री कहते हैं कि पपीहा के हेत को देखकर मेघ ऊपर बरसता है क्योंकि मेघ को पता है कि यह मुझे चाह रहा है ।पपीहा धरती पर गिरे हुए पानी को नहीं पीता है  ।  यदि मैं इसके ऊपर नहीं बरसूंगा तो इसके प्राण पखेरू उड़ जाऐंगे । इसीप्रकार से शिष्य के भावों को देखकर सतगुरु उस पर अर्पित हो जाते है ।
घनहर बरषै आय कर , देख पपीहा चाव ।
जिमी दरिया सतगुरु चवै , देख मांहिला भाव (39) 
                           
 महाराजश्री कह रहे हैं कि पपीहा की इच्छा को देखते हुए मेघ गर्जना करते हुए बरसने लग जाते हैं । इसी प्रकार शिष्य के अन्दर के भावों को देखकर सतगुरु भी गर्जना करते हुए बरस जाते हैं । राम!
महाप्रताप सिर पर तपै , किरपा रस पीऊं ।
दरिया बच्चा कच्छ गुरु, जोये ही जीऊं (40) 

आचार्यश्री कह रहे हैं कि सतगुरु की महान कृपाशक्ति मेरे सिर पर तप रही है तथा मैं उनकी कृपा रूपी रस का पान कर रहा हूं । सतगुरुदेव कछुए के समान तथा मैं कछुए के बच्चे के समान हूं । कछुए का बच्चा जल से बाहर रहने पर भी कछुआ जल के अंदर से दृष्टि फेंकने से बच्चे का स्वतः पालन होता रहता है । इसी प्रकार सतगुरु की दृष्टि से शिष्य भी आध्यात्मिक जगत में आगे बढ़ता रहता है । राम!
जन दरिया गुरूदेवजी, ऐसे किया निहाल ।
जैसे सूखी बेलड़ी, बरस किया हरियाल (41)
  आचार्यश्री दरियावजी महाराज कह रहे हैं कि सतगुरु ने कृपा करके मुझे कृत-कृत कर दिया । गर्मी की तपन से प्यासी बेल सूख गयी थी परन्तु तभी वर्षा होने से बेल पुनः हरी हो गयी । आचार्यश्री कह रहे हैं कि मैं सांसारिक दुखों की तपन से दग्ध हो रहा था तभी सतगुरु ने मेरे ऊपर प्रेम रूपी वर्षा करके हरियाला अर्थात प्रभु पद का अधिकारी बना दिया । राम!
  सतगुरु सा दाता नहीं, नहीं नाम सरीखा देव ।
  शिष सुमिरन सांचा करै , हो जाय अलख अभेव (42)

   आचार्यश्री कहते हैं कि सतगुरु के समान संसार में कोई दानी नहीं है तथा भगवत नाम के समान कलियुग मेें कोई देवता नहीं है । यदि शिष्य सच्चा सुमिरण करता है तो वह स्वयं ईश्वर बन जाता है । इस प्रकार से सतगुरु शिष्य को स्वयं से भी महान बना देते हैं । राम!
  जन दरिया सतगुरु करी , राम नाम की रीझ ।
  अमृत बूठा शब्द का,ऊगा पूरब बीज (43)

  महाराजश्री कहते हैं कि गुरुदेव ने मेरे ऊपर राम नाम की रींझ कर दी ।सतगुरु ने अमृत रूपी शब्द की वर्षा की जिससे पूर्व जन्म में किए गए भजन के कारण इस जन्म में भी भक्ति का अंकुर पैदा हो गया । राम!
  सतगुरु बरषै शब्द जल , पर-उपकार विचारि ।
  दरिया सूखी अवनी पर, रहै निवाना वारि (44)

  महाराजश्री कहते हैं कि सतगुरु परोपकार करने की दृष्टि से ही शब्द रूपी जल बरसाते हैं । सूखी हुई धरती सदा ही इन्द्र से मिलने को आतुर रहती है । परन्तु जल तो केवल निवाना अर्थात जलाशय में ही स्थिर रह सकता है । राम!
  सतगुरु के इक रोम पर, वारू बेर अनन्त ।
  अमृत ले मुख में दियो , राम नाम निज तंत (45)

   महाराजश्री कह रहे हैं कि मैं सतगुरु के प्रति बलिदान हो जाऊँ, तब भी मैं उनसे उऋण नहीं हो सकता । गुरूदेव ने हमें आध्यात्मिक जीवन का जो लाभ दिया है उसके बदले हमारे पास कोई वस्तु नहीं है जिसे हम आपके चरणों में भेंट कर सकें । राम!
सतगुरु वृक्ष समान है ,  फल से प्रीति न कोय ।
फल तरू से लागो रहै , रस पी परिपक्व होय  (46)
    महाराजश्री ने सतगुरु को वृक्ष के समान तथा शिष्य को फल के समान बताया है । वृक्ष  के ऊपर फल चिपका रहता है तो वह उस वृक्ष से रस ले-लेकर स्वंय की पुष्टि करता रहता है तथा परिपक्व हो कर मीठा रसदार बन जाता है । राम!
 सतगुरु पारस की कनी , दीरग दीसे नाहिं ।
 जन दरिया षट् दरब धन , सब आया उन माहिं  (47)
   
         महाराजश्री कहते हैं किसतगुरु पारस की कनी है । पारस के गर्भ में अपार धन भरा पड़ा है । ऐसे ही सतगुरु का स्वरूप छोटा-सा दिखता है परन्तु उनके अन्दर महान आध्यात्मिक धन भरा हुआ है । सतगुरु अलौकिक शब्द के द्वारा शिष्य को स्पर्श करते हैं तथा वह शिष्य सोना बन जाते है । यही नहीं, सतगुरु तो शिष्य को पारस भी बना देते हैं ।राम!
मीन तड़पती जल बिना, सागर मांहि समाय ।
जन दरिया ऐसी करी , गुरु कृपा मोहिं आय (48)

महाराजश्री कहते हैं कि जिस प्रकार से मछली पानी के बिना तड़पती है । मैं भी मछली की ही भाँति तड़प रहा था । परन्तु गुरूदेव ने मुझ पर कृपा करके मुझे आध्यात्मिक भक्ति रूपी जल पिला दिया , जिससे मेरी प्यास शांत हो गई । राम!
भवजल बहता जाय था, संसय मोह की बाढ।
दरिया मोहिं गुरु कृपा कर ,पकड़ बांह लिया काढ़ (49)

  आचार्यश्री दरियावजी महाराज कह रहे हैं कि इस भवसागर- संसार में संशय और मोह की बाढ़ आई हुई थी, जिसके अंदर मैं बहता जा रहा था । परन्तु सतगुरुदेव ने मुझ पर कृपा करके मुझे हाथ पकड़कर बाहर निकाल दिया तथा जीवन की सही स्थिति आध्यात्मिक वाद मेें लाकर खड़ा कर दिया । अतः सतगुरु ही मुक्ति के माध्यम हैं । राम !
 
  अथ श्री दरियावजी महाराज की दिव्य वाणीजी का सतगुरु का अंग संपूर्ण ।राम राम!

आदि आचार्य श्री दरियाव जी महाराज एंव सदगुरुदेव आचार्य श्री हरिनारायण जी महाराज की प्रेरणा से श्री दरियाव जी महाराज की दिव्य वाणी को जन जन तक पहुंचाने के लिए वाणी जी को यहाँ डिजिटल उपकरणों पर लिख रहे है। लिखने में कुछ त्रुटि हुई हो क्षमा करे। कुछ सुधार की आवश्यकता हो तो ईमेल करे dariyavji@gmail.com . डिजिटल रामस्नेही टीम को धन्येवाद।

दासानुदास
गोवत्स राधेश्याम रावोरिया
9042322241

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