Friday 23 September 2016

राम-सुमिरन दरिया ने परमात्मा की प्राप्ति के लिए राम- सुमिरन को महत्व दिया है।

राम-सुमिरन दरिया ने परमात्मा की प्राप्ति के लिए राम- सुमिरन को महत्व दिया है। राम- स्मरण से ही कर्म व भ्रम का विनाश संभव है। अतः अन्य सभी आशाओं का परित्याग कर केवल रामस्मरण पर बल देना चाहिए --""दरिया सुमिरै राम को दूजी आस निवारि।''राम- स्मरण करने वाला ही श्रेष्ठ है। जिस घट ( शरीर, हृदय ) में राम- स्मरण नहीं होता, उसे दरिया घट नहीं ""मरघट'' कहते हैं।सब ग्रंथों का अर्थ ( प्रयोजन ) और सब बातों की एक बात है --""राम- सुमिरन''सकल ग्रंथ का अर्थ है, सकल बात की बात।दरिया सुमिरन राम का, कर लीजै दिन रात।।-- सुमिरन का अंगदरिया साहब की मान्यता है कि सब धर्मों का मूल राम- नाम है और रामस्मरण के अभावमें चौरासी लाख योनियों में बार- बार भटकना पड़ेगा, अतः प्रेम एवं भक्तिसंयुत हृदय से राम का सुमिरन करते रहना चाहिए, लेकिन यह रामस्मरण भी गुरु द्वारा निर्देशित विधि- विशेष से संपन्न होना चाहिए। केवल मुख से राम- राम करने से रामप्राप्ति नहीं हो सकती। उस राम- शब्द यानि नाद का प्रकाशित होना अनिवार्य है, तभी ""ब्रह्म परचै'' संभव हे। शब्द- सूरति का योग ही ब्रह्म का साक्षात्कार है,निर्वाण है, जिसे सदुरु सुलभ बनाता है। सुरति यानि चित्तवृति का राम शब्द में अबोध रुप से समाहित होना ही सुरति- शब्द योग है।इसलिए जब तक शरीर में सांस चल रहा है, तब तक राम- स्मरण कर लेना चाहिए, इस अवसर को व्यर्थ नहीं खोना है, क्योंकि यह शरीर तो मिट्टी के कच्चे ""करवा'' की तरह है, जिसके विनष्ट होने में कोई देर नहीं लगती --दरिया काया कारवी मौसर है दिन चारि।जब लग सांस शरीर में तब लग राम संभारि।।-- सुमिरन का अंगराम- सुमिरन में ही मनुष्य देह की सार्थकता है, वरन् पशु व मनुष्य में अंतर ही क्या!राम नाम नहीं हिरदै धरा, जैसे पसुवा तेसै नरा।जन दरिया जिन राम न ध्याया, पसुआ ही ज्यों जनम गंवाया।।-- दरिया वाणी पदगुरु प्रदत्त निरंतर राम- स्मरण की साधना से धीरे- धीरे एक स्थिति ऐसी आती है, जिसमें ""राम'' शब्द भी लोप हो जाता है, केवल ररंकार ध्वनि ही शेष रहती है। क्षरअक्षर में परिवर्तित हो जाता है, यह ध्वनि ही निरति है। यही ""पर- भाव'' है और इसी ""पर- भाव'' में भाव अर्थात् सुरति का लय हो जाता है अर्थात भाव व ""पर- भाव'' परस्पर मिलकर एकाकार हो जाते हैं, यही निर्वाण है, यही समाधि है --एक एक तो ध्याय कर, एक एक आराध।एक- एक से मिल रहा, जाका नाम समाध।।-- ब्रह्म परचै का अंगयही सगुण का निर्गुण में विलय है, यही संतों का सुरति- निरति परिचय है और चौथे पद ( निर्वाण) में निवास की स्थिति है। यही जीव का शिव से मिलन है, आत्मा का परमात्मा से परिचय है, यही वेदान्तियों की त्रिपुटी से रहित निर्विकल्प समाधि है। यहाँ सुख- दुख, राग- द्वेष, चंद- सूर, पानी- पावक आदि किसी प्रकार के द्वन्द्व का अस्तित्व नहीं। यही संतों का निज घर में प्रवेश होना है, यही अलख ब्रह्म की उपलब्धि है, यही बिछुड़े जीव का अपने मूल उद्रम ( जात ) से मिलन है, यही बूंद का समुद्र में विलीनीकरण है, यही अनंत जन्मों की बिछुड़ी मछली का सागर में समाना है। इस सुरत- निरति की एकाकारिता से ही जन्म- मरण का संकट सदा- सदा के लिए मिट जाता है। यही सुरति- निरति परिचय संत दरिया का साधन भी है और साध्य भी। परंतु इस समाधि की स्थिति की प्राप्त करने के लिए प्रक्रिया- विशेष से गुजरना पड़ता है। वह प्रक्रिया- विधि- सद्रुरु सिखलाता है, इसलिए संत- मत में सद्रुरु की महत्ता स्वीकार की गई है।इस प्रक्रिया में गुरु- प्रदत्त ""राम'' शब्द की स्थिति सबसे पहले रसना में, फिर कण्ठ में , कण्ठ से हृदय तथा हृदय से नाभि में होती है। नाभि में शब्द- परिचय के साथ सारे विवादों का निराकरण भी शुरु हो गया है और प्रेम की किरणे प्रस्फुटिक होने लगती हें। इसलिए संतों द्वारा नाभि का स्मरण अति उत्तम कहा गया है। नाभि से शब्द गुह्यद्वार में प्रवेश करता हुआ मेरुदण्डकी २१ मणियों का छेदन कर ( औघट घट लांघ ) सुषुम्ना ( बंकनाल ) के रास्ते ऊर्ध्वगति को प्राप्त होता हुआ त्रिकुटी के संधिस्थल पर पहुँच जाता है। यहाँ अनादिदेव का स्पर्श होता है औरउसके साथ ही सभी वाद- विवादों का अंत हो जाता है। यहाँ निरंतर अमृत झरता रहता है। इस अमृत के मधुर- पान से अनुभव ज्ञान उत्पन्न होता है। यहाँ सुख की सरिता का निरंतर प्रवाह प्रवहमान होता रहता है। परंतु दरिया का प्राप्य इस सुखमय त्रिकुटी प्रदेश से भी श्रेष्ठ है, क्योंति दरिया का मानना है --दरिया त्रिकुटी महल में, भई उदासी मोय।जहाँ सुख है तहं दुख सही, रवि जहं रजनी होय।।-- नाद परचै का अंगयद्यपि त्रिकुटी तक पहुँचना भी बिरले संतों का काम है, फिर भी निर्वाण अर्थात् ब्रह्मपद तो उससे और आगे की वस्तु है --दरिया त्रिकुटी हद लग, कोई पहुँचे संत सयान।आगे अनहद ब्रह्म है, निराधार निर्बान।।निर्वाण को प्राप्त करने हेतु सुन्न- समाधि की आवश्यकता है और शून्य समाधि ( निर्विकल्प समाधि ) के लिए सुरति को उलट कर केवल ब्रह्म की आराधना में लगाना पड़ता है, अर्थात् उन्मनी अवस्था प्राप्त करनी पड़ती है --सुरत उलट आठों पहर, करत ब्रह्म आराध।दरिया तब ही देखिये, लागी सुन्न समाध।।भक्ति की महत्तादरिया का योग भक्ति का प्राबल्य है। इसीलिये तो उनकी वाणी में एक भक्त की सी विनम्रता है और भक्ति की याचना भी --जो धुनिया तो भी मैं राम तुम्हारा।अधम कमीन जाति मतिहीना, तुम तो हो सिरताज हमारा।मैं नांही मेहनत का लोभी, बख्सो मौज भक्ति निज पाऊँ।।-- दरिया बाणी पदइनकी रचना में एक भक्त का सा तीव्र विरह है, तड़प है, मिलन की तालाबेली है, बिछड़न का दर्द है --बिरहन पिव के कारण ढूंढ़न वन खण्ड जाय।नित बीती पिव ना मिल्या दरद रहा लिपटाय।।बिरहन का धर बिरह में , ता घट लोहु न माँस।।अपने साहिब कारण सिसके सांसी सांस।।-- बिरह का अंगभक्त दरिया की कोई इच्छा नहीं, उसकी इच्छा धणी के हुकुम की अनुगामिनी है --मच्छी पंछी साध का दरिया मारग नांहि।इच्छा चालै आपणी हुकुम धणी के मांहि।।-- उपदेश का अंगभक्त व भगवान् का संबंध दासी- स्वामी का संबंध बताते हुए दरिया, स्वामी की आज्ञाको ही शिरोधार्य मानता है --साहिब में राम हैं मैं उनकी दासी।जो बान्या सो बन रहा आज्ञा अबिनासी।।-- दिरया बाणी पददरिया ने तो स्पष्टतः योग को पिपीलिका- मार्ग की संज्ञा देकर उसकी कष्टसाध्यता के विरुद्ध भक्ति को विहंगम- मार्ग बतलाकर उसकी सहजता पर बल दिया है --सांख योग पपील गति विघन पड़ै बहु आय।बाबल लागै गिर पड़ै मंजिल न पहुँचे जाय।।भक्तिसार बिहंग गति जहं इच्छा तहं जाय।श्री सतगुर इच्छा करैं बिघन न ब्यापै ताय।।

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