है कोई संत राम अनुरागी। जाकी सुरत साहब से लागी।
अरस परश पिवके रंग राती, होय रही पतिब्रता!!१!!
दुतुयां भाव कछु नहीं समझै, ज्यों समुंद समानी सलिता!!२!!
मीन जाय कर समुंद समानी, जहं देखै जहं पानी।
अरस परश पिवके रंग राती, होय रही पतिब्रता!!१!!
दुतुयां भाव कछु नहीं समझै, ज्यों समुंद समानी सलिता!!२!!
मीन जाय कर समुंद समानी, जहं देखै जहं पानी।
काल कीर का जाल न पहुंचै, निर्भय ठौर लुभानी!!३!!
बांवन चंदन भौंरा पहुंचा,जहं बैठे तहं गंदा।
बांवन चंदन भौंरा पहुंचा,जहं बैठे तहं गंदा।
उड़ना छोड़ के थिर हो बैठा, निश दिन करत अनंदा!!४!!
जन दरिया इक राम भजन कर, भरम बासना खोई।
जन दरिया इक राम भजन कर, भरम बासना खोई।
पारस परस भया लोहू कंचन, बहुर न लोहा होई!!५!!
यह पद संत दरियाव जी द्वारा राम भक्ति पर केंद्रित एक आध्यात्मिक और प्रेरणादायक भजन है। इसका अर्थ इस प्रकार है:
1 .राम अनुरागी सन्त साधक वह होते हैं, जिनका मन भगवान (राम) के प्रति अनुरक्त हो। उनकी दृष्टि हमेशा ईश्वर की ओर लगी रहती है। वे संसार के मोह से परे होकर, परमात्मा की प्रेममय सुरत में डूबे रहते हैं। यह अवस्था पतिव्रता नारी की भांति होती है, जो अपने पति के अलावा किसी और की ओर ध्यान नहीं देती।
2.
ऐसे संत द्वैत (दुतुयां) का विचार नहीं रखते, अर्थात दो के भाव को नहीं मानते। वे आत्मा और परमात्मा को एक मानते हैं, जैसे नदी समुंदर में मिलकर अपनी अलग पहचान खो देती है।
3.
जैसे मछली पानी के बिना नहीं रह सकती और जहां भी पानी देखती है, वहीं जीवन पाती है। उसी प्रकार संत राम भक्ति में डूबे रहते हैं। उनकी आत्मा काल के भय से मुक्त होती है और उन्हें निर्भय, मोह-मुक्त स्थान मिलता है।
4.
जैसे भौंरा चंदन पर पहुंचकर उसकी सुगंध में लीन हो जाता है और उड़ना छोड़ स्थिर हो जाता है। वह वहीं बैठकर आनंद अनुभव करता है। संत भी राम भक्ति में लीन होकर इस आनंदमय स्थिति को प्राप्त करते हैं।
5.
दरियाव जी महाराज कहते की एक राम जी का भजन सुमिरन कर अपनी सभी भ्रमित वासनाओं को समाप्त कर देता है। जैसे लोहे को पारस के स्पर्श से सोना बना दिया जाता है, और वह फिर कभी लोहा नहीं बनता। इसी प्रकार साधक राम भक्ति में लीन होकर अपने सांसारिक स्वरूप को त्याग देते हैं और दिव्यता को प्राप्त कर लेते हैं।
यह भजन भक्ति और ईश्वर की आराधना का महत्व दर्शाता है।