Tuesday, 24 December 2024

है कोई संत राम अनुरागी। जाकी सुरत साहब से लागी।

है कोई संत राम अनुरागी। जाकी सुरत साहब से लागी।
अरस परश पिवके रंग राती, होय रही पतिब्रता!!१!!
दुतुयां भाव कछु नहीं समझै, ज्यों समुंद समानी सलिता!!२!!
मीन जाय कर समुंद समानी, जहं देखै जहं पानी। 
काल कीर का जाल न पहुंचै, निर्भय ठौर लुभानी!!३!!
बांवन चंदन भौंरा पहुंचा,जहं बैठे तहं गंदा। 
उड़ना छोड़ के थिर हो बैठा, निश दिन करत अनंदा!!४!!
जन दरिया इक राम भजन कर, भरम बासना खोई। 
पारस परस भया लोहू कंचन, बहुर न लोहा होई!!५!!



यह पद संत दरियाव जी द्वारा राम भक्ति पर केंद्रित एक आध्यात्मिक और प्रेरणादायक भजन है। इसका अर्थ इस प्रकार है:

1 .राम अनुरागी सन्त साधक वह होते हैं, जिनका मन भगवान (राम) के प्रति अनुरक्त हो। उनकी दृष्टि हमेशा ईश्वर की ओर लगी रहती है। वे संसार के मोह से परे होकर, परमात्मा की प्रेममय सुरत में डूबे रहते हैं। यह अवस्था पतिव्रता नारी की भांति होती है, जो अपने पति के अलावा किसी और की ओर ध्यान नहीं देती।

2.
ऐसे संत द्वैत (दुतुयां) का विचार नहीं रखते, अर्थात दो के भाव को नहीं मानते। वे आत्मा और परमात्मा को एक मानते हैं, जैसे नदी समुंदर में मिलकर अपनी अलग पहचान खो देती है।

3.
जैसे मछली पानी के बिना नहीं रह सकती और जहां भी पानी देखती है, वहीं जीवन पाती है। उसी प्रकार संत राम भक्ति में डूबे रहते हैं। उनकी आत्मा काल के भय से मुक्त होती है और उन्हें निर्भय, मोह-मुक्त स्थान मिलता है।

4.
जैसे भौंरा चंदन पर पहुंचकर उसकी सुगंध में लीन हो जाता है और उड़ना छोड़ स्थिर हो जाता है। वह वहीं बैठकर आनंद अनुभव करता है। संत भी राम भक्ति में लीन होकर इस आनंदमय स्थिति को प्राप्त करते हैं।

5.
दरियाव जी महाराज कहते की एक राम जी का भजन सुमिरन कर  अपनी सभी भ्रमित वासनाओं को समाप्त कर देता है। जैसे लोहे को पारस के स्पर्श से सोना बना दिया जाता है, और वह फिर कभी लोहा नहीं बनता। इसी प्रकार साधक राम भक्ति में लीन होकर अपने सांसारिक स्वरूप को त्याग देते हैं और दिव्यता को प्राप्त कर लेते हैं।

यह भजन भक्ति और ईश्वर की आराधना का महत्व दर्शाता है।

अमृत नीका कहै सब कोई, पीये बिना अमर नही होई!!

अमृत नीका कहै सब कोई, पीये बिना अमर नही होई!!१!!
कोई कहै अमृत बसै पाताला, नाग लोग क्यों ग्रासै काला!!२!!
कोई कहै अमृत समुद्र मांहि, बड़वा अगिन क्यों सोखत तांहि!!३!!
कोई कहै अमृत शशि में बासा, घटै बढै़ क्यों होइ है नाशा!!४!!
कोई कहै अमृत सुरंगा मांहि, देव पियें क्यों खिर खिर जांहि!!५!!
सब अमृत बातों की बाता, अमृत है संतन के साथा!!६!!
'दरिया' अमृत नाम अनंता, जा को पी-पी अमर भये संता!!७!!


यह रचना संत दरिया साहब की वाणी है, जिसमें अमृत के विभिन्न संदर्भों के माध्यम से वह आध्यात्मिक अमृत का महत्व समझा रहे हैं।

भावार्थ:

1. पहला दोहा
अमृत के बारे में सब कहते हैं कि वह बहुत उत्तम है, लेकिन वास्तविकता यह है कि उसे पीने (अंतर में अनुभव करने) के बिना अमरता नहीं मिल सकती।


2. दूसरा दोहा
कुछ लोग कहते हैं कि अमृत पाताल में है, लेकिन यदि ऐसा है तो नागलोक में काल (मृत्यु) क्यों व्याप्त है?


3. तीसरा दोहा
कुछ कहते हैं कि अमृत समुद्र में है, पर यदि ऐसा होता तो समुद्र की बड़वा अग्नि उसे क्यों सोख लेती?


4. चौथा दोहा
कुछ मानते हैं कि अमृत चंद्रमा में है, लेकिन चंद्रमा घटता-बढ़ता है और उसका भी नाश हो जाता है, फिर वह अमरत्व कैसे देगा?


5. पांचवा दोहा
कुछ लोग कहते हैं कि अमृत स्वर्ग (देवलोक) में है और देवता उसे पीते हैं, परंतु देवताओं को भी खीर-खीर (क्षीण होकर) मृत्यु का सामना करना पड़ता है।


6. छठा दोहा
दरअसल, इन सब बातों में वास्तविकता नहीं है। असली अमृत वह है, जो संतों के साथ है, अर्थात संतों की वाणी और उनका ज्ञान ही असली अमृत है।


7. सातवां दोहा
संत दरिया कहते हैं कि यह अमृत परमात्मा का अनंत नाम है। इसे पी-पीकर (स्मरण और अनुभव करके) संत अमर हो गए हैं।



सार:

यह वाणी बताती है कि भौतिक जगत में जिस अमृत की चर्चा होती है, वह मिथ्या है। असली अमृत आत्मा के लिए ईश्वर का नाम और उसका सच्चा ज्ञान है, जो मृत्यु से परे अमरत्व प्रदान करता है। यह संतों की संगति और साधना से ही प्राप्त होता है।


कहा कहूं मेरे पिउ की बात

कहा कहूं मेरे पिउ की बात, जोरे कहूं सोई अंग सुहात!!
जब में रही थी कन्या क्वारी,तब मेरे करम होता सिर भारी!!१!!
जब मेरी पिउ से मनसा दौड़ी, सत गुरू आन सगाई जोड़ी!!२!!
तब मै पिउ का मंगल गाया, जब मेरा स्वामी ब्याहन आया!!३!!
हथलेवा दे बैठी संगा, तब मोहिं लीनी बांये अंगा!!४!!
जन 'दरिया' कहै मिट गई दूती, आपो अरप पीव संग सूती!!



यह काव्य रचना संत दरिया साहब की वाणी से है, जो उनके भक्ति और समर्पण के भाव को दर्शाती है। इसमें एक साधक द्वारा अपने आत्मिक अनुभव और परमात्मा के प्रति पूर्ण समर्पण को सुंदर रूप में व्यक्त किया गया है।

भावार्थ:

1. पहला दोहा
साधक कहता है कि अपने परमात्मा (पिउ - प्रियतम) की बात को मैं कैसे कहूं? जब भी उसकी चर्चा करता हूं, वह मुझे और प्रिय लगता है।


2. दूसरा दोहा
जब मैं इस संसार में अनजानी (कन्या, अज्ञान अवस्था) थी, तब मेरे कर्मों का बोझ मेरे सिर पर था। लेकिन जब मेरे मन ने अपने परमात्मा से जुड़ने की चाह की, तो सतगुरु ने मुझे उनसे मिलाने का मार्ग दिखाया।


3. तीसरा दोहा
जब मेरा परमात्मा मेरे जीवन में आया (आध्यात्मिक ज्ञान का प्रकाश हुआ), तब मैंने उसके गुण गाने शुरू किए। यह आत्मा और परमात्मा का मिलन (ब्याह) था।


4. चौथा दोहा
परमात्मा ने जब मुझे अपना बनाया, तो उसने मुझे अपने संग ले लिया। उसने मुझे अपनाकर अपने दिव्य प्रेम में समर्पित कर दिया।


5. पांचवा दोहा
संत दरिया कहते हैं कि अब मेरे भीतर द्वैत का भाव समाप्त हो गया है। मैं अपने आप को पूरी तरह से परमात्मा को अर्पित कर चुकी हूं और उन्हीं में लीन हो गई हूं।

यह रचना एकता, समर्पण और ईश्वर के प्रति प्रेम का अद्भुत चित्रण है।