कहा कहूं मेरे पिउ की बात, जोरे कहूं सोई अंग सुहात!!
जब में रही थी कन्या क्वारी,तब मेरे करम होता सिर भारी!!१!!
जब मेरी पिउ से मनसा दौड़ी, सत गुरू आन सगाई जोड़ी!!२!!
तब मै पिउ का मंगल गाया, जब मेरा स्वामी ब्याहन आया!!३!!
हथलेवा दे बैठी संगा, तब मोहिं लीनी बांये अंगा!!४!!
जन 'दरिया' कहै मिट गई दूती, आपो अरप पीव संग सूती!!
यह काव्य रचना संत दरिया साहब की वाणी से है, जो उनके भक्ति और समर्पण के भाव को दर्शाती है। इसमें एक साधक द्वारा अपने आत्मिक अनुभव और परमात्मा के प्रति पूर्ण समर्पण को सुंदर रूप में व्यक्त किया गया है।
भावार्थ:
1. पहला दोहा
साधक कहता है कि अपने परमात्मा (पिउ - प्रियतम) की बात को मैं कैसे कहूं? जब भी उसकी चर्चा करता हूं, वह मुझे और प्रिय लगता है।
2. दूसरा दोहा
जब मैं इस संसार में अनजानी (कन्या, अज्ञान अवस्था) थी, तब मेरे कर्मों का बोझ मेरे सिर पर था। लेकिन जब मेरे मन ने अपने परमात्मा से जुड़ने की चाह की, तो सतगुरु ने मुझे उनसे मिलाने का मार्ग दिखाया।
3. तीसरा दोहा
जब मेरा परमात्मा मेरे जीवन में आया (आध्यात्मिक ज्ञान का प्रकाश हुआ), तब मैंने उसके गुण गाने शुरू किए। यह आत्मा और परमात्मा का मिलन (ब्याह) था।
4. चौथा दोहा
परमात्मा ने जब मुझे अपना बनाया, तो उसने मुझे अपने संग ले लिया। उसने मुझे अपनाकर अपने दिव्य प्रेम में समर्पित कर दिया।
5. पांचवा दोहा
संत दरिया कहते हैं कि अब मेरे भीतर द्वैत का भाव समाप्त हो गया है। मैं अपने आप को पूरी तरह से परमात्मा को अर्पित कर चुकी हूं और उन्हीं में लीन हो गई हूं।
यह रचना एकता, समर्पण और ईश्वर के प्रति प्रेम का अद्भुत चित्रण है।
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