Tuesday, 25 November 2025

बाड़ी में है नागरी ।। श्री दरियाव वाणी

बाड़ी में है नागरी , पान देशांतर जाय ।

जो वहाँ सूखे बेलड़ी , तो पान यहां बिनसाय ।।

पान बेल से बीछुड़ै , परदेसां रस देत ।

जन दरिया हरिया रहै , उस हरी बेल के हेत।।


 शब्दार्थ

  • नागरी (नागर बेल) → पान की बेल
  • बाड़ी → घर का बगीचा
  • देशांतर जाय → दूर देशों तक पहुँच जाती है
  • सूखे बेलड़ी → यदि बेल सूख जाए
  • बिनसाय → मुरझा जाना, रस खो देना
  • बीछुड़ै → अलग हो जाना, टूट जाना
  • परदेसां → दूर स्थानों में
  • रस देत → रस, स्वाद, जीवन-शक्ति देना
  • हरी बेल → जीवित, सजीव, पोषण देने वाली मूल बेल

भावार्थ

आचार्यश्री बताते हैं कि नागर बेल (पान की बेल) घर की बाड़ी में रहती है, लेकिन उसके पत्तों को कई बार दूर-दूर तक भेजा जाता है।
भले ही पत्ते देशांतर चले जाएँ, फिर भी वे सूखते नहीं, क्योंकि बेल की जीवदर्शनी शक्ति और भावात्मक संबंध उनके भीतर रस बनाए रखता है।

इसी प्रकार, जब साधक सतगुरु की बेल से जुड़ा रहता है — भले वह संसार रूपी परदेस में रह रहा हो — फिर भी गुरु की कृपा और ध्यान उसका मन हराभरा, रसयुक्त और आनंदमय बनाए रखते हैं।


विस्तृत व्याख्या

पहला दोहा :

नागर बेल की उपमा

  • नागर बेल को अत्यंत सावधानी और प्रेम से उगाया जाता है, ठीक वैसे ही जैसे गुरु अपने शिष्य का पालन-पोषण करते हैं।
  • पान के पत्ते बेल से दूर चले जाएँ, फिर भी उनमें ताजगी रहती है, क्योंकि बेल और पत्ते में भाव-संबंध बना रहता है।
  • लेकिन यदि बेल स्वयं ही सूख जाए, तो कोई भी पत्ता जीवित नहीं रह सकता।

दूसरा दोहा :

“पान बेल से बीछुड़ै, परदेसां रस देत”

  • पान का पत्ता बेल से अलग होकर भी रस देता है, क्योंकि उसकी जड़ में प्राप्त शक्ति उसके भीतर बनी रहती है।
  • उसी तरह शिष्य संसार में रहते हुए भी भक्ति, शांति और प्रेम बाँट सकता है —
    यदि उसका संबंध सतगुरु की हरी बेल (गुरु-कृपा) से अब भी जुड़ा हो।

“जन दरिया हरिया रहै, उस हरी बेल के हेत”

  • संत दरियावजी कहते हैं कि साधक सतगुरु के प्रेम और कृपा के कारण हराभरा रहता है —
    उसका मन नहीं सूखता, भक्ति नहीं टूटती, और जीवन में रस बना रहता है।

👉 जैसे पान की बेल अपने पत्तों का पोषण करती है, वैसे ही सतगुरु अपने शिष्यों को दूर बैठकर भी अपनी कृपा-धारा से सींचते रहते हैं।


टिप्पणी

इन दोनों दोहों में गुरु–शिष्य संबंध को अत्यंत सुंदर प्रतिकों से समझाया गया है 

जब तक शिष्य अपने मन की डोरी गुरु से जोड़े रखता है, तब तक संसार की दूरी, कठिनाई या परिस्थितियाँ उसे सूखा नहीं सकती।
वह भक्ति से, प्रेम से, शांति से भरपूर बना रहता है।


Sunday, 9 November 2025

उन संतन के साथ से ।। श्री दरियाव वाणी


उन संतन के साथ से, जिवड़ा पावै जक्ख ।
दरिया ऐसे साध के, चित चरणों में रक्ख ॥


शब्दार्थ

  • संतन के साथ से → सतगुरु और संतों की संगति से।
  • जिवड़ा → जीव, प्राणी, साधक।
  • पावै जक्ख → विश्राम, ठहराव, आनंद, आत्मिक शांति प्राप्त करता है।
  • साध → संत, महापुरुष, सद्गुरु।
  • चित चरणों में रक्ख → मन और हृदय को संतों के चरणों में स्थिर रखना, श्रद्धा और भक्ति रखना।

 भावार्थ

महाराजश्री कहते हैं कि जब जीव संत-महापुरुषों की संगति करता है, तब उसके भीतर की बेचैनी और दुःख समाप्त हो जाते हैं, और उसे आत्मिक शांति तथा आनंद की अनुभूति होती है।
संत-संग से जीव के भीतर नाम और भक्ति का नशा चढ़ जाता है, जिससे वह सदा आनंदमय हो जाता है।
जो साधक अपने मन को संतों के चरणों में स्थिर रखता है, वह अंततः परम आनंदस्वरूप ब्रह्म को प्राप्त कर लेता है।


 व्याख्या

  • संत-संगति की शक्ति: संतों के संग से मनुष्य का मन निर्मल और शांत होता है। उनकी उपस्थिति से मन में भक्ति और प्रेम की भावना जाग्रत होती है।
  • “जिवड़ा पावै जक्ख” का अर्थ है — आत्मा को गहरी विश्रांति मिलना, जैसे थका हुआ पथिक किसी शीतल छाया में विश्राम पाता है।
  • भक्ति का नशा: जब साधक संतों के निकट रहता है, तो उनकी वाणी, नाम-स्मरण और ध्यान की प्रभावशाली लहरें उसके भीतर प्रवेश करती हैं। इससे संसार का मोह उतर जाता है और परमात्मा के प्रेम का नशा चढ़ जाता है।
  • चित चरणों में रखना: यहाँ “चरण” केवल पैर नहीं, बल्कि संतों के उपदेश, मार्ग और आदर्श का प्रतीक हैं। जो साधक अपने मन को गुरु की वाणी और मर्यादा में स्थिर रखता है, वह कभी भटकता नहीं।
  • ऐसे संतों की संगति से जीव ब्रह्मानंद (आनंदस्वरूप ईश्वर) को प्राप्त करता है और स्वयं भी आनंदमय हो जाता है।

टिप्पणी

यह दोहा हमें यह सिखाता है कि —

  1. संतों की संगति से जीवन में शांति, स्थिरता और दिव्य आनंद का अनुभव होता है।
  2. संसार का सच्चा सुख बाहर नहीं, बल्कि गुरु-संगति में मिलती आत्मिक शांति में है।
  3. जो अपने मन को सद्गुरु के चरणों में टिकाए रखता है, वह संसार के सभी बंधनों से मुक्त होकर आनंदस्वरूप बन जाता है।

🌼 संक्षेप में:
संत-संग वह पवित्र स्थान है जहाँ आत्मा को विश्राम मिलता है, मन को ठहराव, और जीवन को दिशा।
गुरु की संगति ही वह पुल है जो जीव को अज्ञान से उठाकर आनंदस्वरूप ब्रह्म तक पहुँचा देती है।