Friday, 5 September 2025

बिक्ख छुड़ावै चाह कर ।। Sri Dariyav Vani


बिक्ख छुड़ावै चाह कर , अमृत देवै हाथ ।
जन दरिया नित कीजिए, उन संतन का साथ ॥

शब्दार्थ

  • बिक्ख → विष, यहाँ मोह, क्रोध, लोभ, वासनाएँ और अज्ञान।
  • छुड़ावै → छुड़ाते हैं, दूर करते हैं।
  • चाह कर → चाह और वासनाओं से मुक्ति दिलाकर।
  • अमृत → परमात्मा का नाम, शांति और अमरत्व का ज्ञान।
  • देवै हाथ → अपने हाथों से प्रदान करना, सहज उपलब्ध कराना।
  • संतन का साथ → संतों और सतगुरु की संगति।

भावार्थ

आचार्यश्री कहते हैं कि संत महापुरुष और सतगुरु हमारे जीवन से वासनाओं और मोह रूपी विष को निकालकर हमें अमृत रूपी नाम, भक्ति और मुक्ति का ज्ञान देते हैं। वे मनुष्य को नश्वर दुःखों से मुक्त करके अमरत्व और आनंद प्रदान करते हैं। इसलिए ऐसे सतगुरु-संतों का संग निरंतर करना चाहिए।

व्याख्या

  • जीवन में मोह, क्रोध, लोभ और वासनाएँ हमारे लिए विष के समान हैं, जो धीरे-धीरे आत्मा को नष्ट करते हैं।
  • संत और सतगुरु इन विषों को अपनी कृपा और उपदेश से निकालते हैं।
  • वे हमें रामनाम रूपी अमृत का पान कराते हैं, जो आत्मा को अमर, स्वस्थ और आनंदमय बना देता है।
  • "देवै हाथ" यह सूचित करता है कि यह अमृत दूर नहीं, बल्कि सतगुरु की कृपा से सरल और सहज रूप में प्राप्त होता है।
  • आचार्यश्री हमें शिक्षा देते हैं कि ऐसे महापुरुषों का संग करना ही सबसे बड़ा पुण्य और कल्याणकारी कार्य है।

व्यवहारिक टिप्पणी

यह दोहा हमें प्रेरणा देता है कि—

  • संतों और सतगुरुओं की संगति में ही जीवन का सच्चा कल्याण है।
  • यदि हम विष रूपी इच्छाओं और वासनाओं में फँसे रहेंगे, तो जीवन दुखमय होगा।
  • परंतु संतों का संग हमें उस विष से मुक्त कर अमृत प्रदान करता है।
  • इसलिए साधक को चाहिए कि वह नित्य संतों का स्मरण और संग करे, क्योंकि वही जीवन की सबसे बड़ी संपत्ति है।


Wednesday, 3 September 2025

यह दरिया की वीनती।।श्री दरियाव वाणी


यह दरिया की वीनती , तुम सेती महाराज ।
तुम भृंगी मैं कीट हूँ , मेरी तुमको लाज ॥


 शब्दार्थ

  • वीनती → विनती, प्रार्थना।
  • महाराज → यहाँ सतगुरु के लिए आदरपूर्वक संबोधन।
  • भृंगी → भौंरा (भृंग), जो कीट को अपने स्वरूप में बदल देता है।
  • कीट → साधारण कीड़ा, यहाँ शिष्य का प्रतीक।
  • लाज → जिम्मेदारी, मान और प्रतिष्ठा की रक्षा।

भावार्थ

आचार्यश्री कहते हैं कि हे गुरूदेव! मैं तो अज्ञान और दोषों से भरा हुआ एक साधारण कीट हूँ, और आप भृंग अर्थात् दिव्य गुणों वाले गुरु हैं। जैसे भृंग कीट को अपनी ध्वनि से अपने जैसा बना देता है, वैसे ही आपकी कृपा और आपके दिव्य शब्द से मैं भी आपके समान स्वरूप को प्राप्त कर सकता हूँ। इसलिए आप मुझे अपनी शरण में लेकर परिपूर्ण बना दीजिए।


व्याख्या

  • इस दोहे में शिष्य की पूर्ण विनम्रता और आत्म-समर्पण प्रकट होता है।
  • शिष्य स्वयं को नगण्य मानकर कहता है कि मैं तो एक छोटा-सा कीट हूँ।
  • गुरु की तुलना भृंग (भौंरा) से की गई है, जो अपनी गूंज से कीट को बदल देता है।
  • "मेरी तुमको लाज" का आशय यह है कि शिष्य को अपनी आत्मा के सुधार की चिंता नहीं है, वह इसे गुरु की जिम्मेदारी मानता है।
  • यहाँ गुरु-शिष्य का सम्बन्ध केवल शिक्षा का नहीं बल्कि आत्मिक परिवर्तन का है।
  • शिष्य का विश्वास है कि गुरु के शब्द और कृपा से उसका अज्ञान नष्ट होकर वह भी गुरु-जैसा स्वरूप धारण कर लेगा।

व्यवहारिक टिप्पणी

यह दोहा हमें यह सिखाता है कि—

  • सच्चा शिष्य अपने दोषों और अज्ञान को स्वीकार करता है और उन्हें गुरु के सामने समर्पित कर देता है।
  • गुरु की शरण में जाना और पूरी निष्ठा से उन्हें समर्पित होना ही साधना की असली शुरुआत है।
  • जब शिष्य अपनी "लाज" (अर्थात अपने उद्धार की जिम्मेदारी) गुरु को सौंप देता है, तभी गुरु उस पर कृपा कर उसे दिव्य बना देते हैं।
  • यह शिष्य का आत्मविश्वास और गुरु पर अटूट भरोसा दर्शाता है।


Saturday, 30 August 2025

साध सुधारै शिष्य को।। श्री दरियाव दिव्य वाणी जी


साध सुधारै शिष्य को, दे दे अपना अंग ।
दरिया संगत कीट की, पलटि सो भया भिरंग ॥


शब्दार्थ

  • साध सुधारै शिष्य को → सतगुरु शिष्य को सुधारते हैं, उसका आत्मिक निर्माण करते हैं।
  • दे दे अपना अंग → अपने स्वरूप और गुण शिष्य को प्रदान करते हैं।
  • दरिया → संत दरियावजी।
  • संगत कीट की → कीट-भृंग की संगति का दृष्टांत।
  • भिरंग → भौंरा, जो कीट को अपने समान बना देता है।

भावार्थ

आचार्यश्री बताते हैं कि जैसे भौंरा किसी कीट को अपने पास रखकर निरंतर गुनगुनाता है, और धीरे-धीरे वह कीट भौंरे के स्वरूप को प्राप्त कर लेता है, वैसे ही सतगुरु की संगति और वाणी शिष्य को बदल देती है। सतगुरु अपने अंग अर्थात् स्वरूप, गुण और शक्ति शिष्य को देकर उसे अपने जैसा बना देते हैं।


व्याख्या

  • शिष्य साधारण मनुष्य रूप में गुरु के पास आता है, जिसमें अज्ञान, वासनाएँ और दोष होते हैं।
  • गुरु अपने वचन, ध्यान और कृपा से शिष्य को बार-बार जगाते हैं, ठीक वैसे ही जैसे भौंरा गुनगुनाता है।
  • धीरे-धीरे शिष्य का मन बदलने लगता है, वह गुरु की धारा में ढलने लगता है।
  • अंततः शिष्य का स्वभाव और स्वरूप गुरु जैसा हो जाता है –
    • अज्ञान नष्ट हो जाता है।
    • विवेक और भक्ति उत्पन्न होती है।
    • आत्मा अपने मूल स्वरूप को पहचानने लगती है।
  • यहाँ "दे दे अपना अंग" का आशय यह है कि सतगुरु शिष्य को अपने जैसी चेतना और ज्ञान से भर देते हैं।
  • कीट-भृंग की उपमा से यह सिद्ध किया गया है कि संगति का प्रभाव जीवन को पूरी तरह बदल सकता है

व्यवहारिक टिप्पणी

यह दोहा हमें यह सिखाता है कि—

  • जैसे संगति का असर होता है, वैसे ही सतगुरु की संगति साधक के जीवन को दिव्य बना देती है।
  • यदि मनुष्य सतगुरु के पास जाकर सच्चे भाव से बैठता है और उनकी वाणी को धारण करता है, तो वह भी धीरे-धीरे गुरु जैसा हो जाता है।
  • गुरु शिष्य को केवल उपदेश ही नहीं देते, बल्कि अपनी आत्मिक शक्ति का संचार भी उसमें करते हैं।
  • यह प्रक्रिया धैर्य और समर्पण से पूरी होती है, जैसे कीट को भौंरा समय देकर बदलता है।


Friday, 29 August 2025

गुरु आये घन गरज कर।। Sri Dariyav Vani


गुरु आये घन गरज कर, करम कड़ी सब खेर ।
भरम बीज सब भूनिया, ऊग न सक्के फेर ॥


 शब्दार्थ

  • गुरु आये → सतगुरु का प्रकट होना।
  • घन गरज कर → बादल की गर्जना समान प्रबल उपदेश देना।
  • करम कड़ी सब खेर → कठोर कर्म-बन्धनों को तोड़ डाला।
  • भरम बीज सब भूनिया → मोह-माया और अज्ञान के बीज जला दिए।
  • ऊग न सक्के फेर → वे बीज फिर कभी अंकुरित नहीं हो सकते।

 भावार्थ

महाराजश्री कहते हैं कि जब सतगुरु अपने प्रखर वचन और कृपा से साधक के हृदय में उतरते हैं, तब वे अज्ञान और कर्मबंधन के बीज को जलाकर नष्ट कर देते हैं। जैसे जला हुआ बीज कभी अंकुरित नहीं हो सकता, वैसे ही गुरु-कृपा से भस्म हुए कर्म दोबारा फल देने में असमर्थ हो जाते हैं।


व्याख्या

  • हमारे जन्म और मृत्यु का चक्र कर्म और वासनाओं के कारण चलता रहता है।
  • जब तक मन में इच्छाएँ और मोह का बीज है, तब तक आत्मा पुनः-पुनः जन्म लेती रहती है।
  • सतगुरु की वाणी "घन गरज" की तरह होती है, जो साधक को भीतर से झकझोर देती है और भरम (भ्रम), मोह और अज्ञान को भस्म कर देती है।
  • इस अवस्था में साधक का जीवन पूर्णत: बदल जाता है—
    • कर्म-बंधन का नाश हो जाता है।
    • मोह-माया की जड़ कट जाती है।
    • आत्मा परमात्मा की ओर अग्रसर होती है।
  • जैसे बीज को भून देने पर उसमें जीवनशक्ति नहीं रहती, वैसे ही गुरु-प्रसाद से कर्म-बीज निष्क्रिय हो जाते हैं और साधक को पुनर्जन्म का भय नहीं रहता।

व्यवहारिक टिप्पणी

यह दोहा हमें प्रेरणा देता है कि—

  • गुरु-कृपा और नाम-स्मरण से अज्ञान और मोह के बीज जल जाते हैं।
  • जब साधक का लक्ष्य केवल परमात्मा-प्राप्ति रह जाता है, तब संसारिक इच्छाएँ और वासनाएँ स्वतः समाप्त हो जाती हैं।
  • यही अवस्था मुक्ति (मोक्ष) की ओर पहला कदम है।

जैसे जला हुआ बीज फिर अंकुरित नहीं होता, वैसे ही सतगुरु की कृपा से जला हुआ कर्म-संचय हमें दोबारा संसार में बाँध नहीं सकता।


Thursday, 28 August 2025

गुरु आये घन गरज कर ।। श्री दरियाव वाणी


गुरु आये घन गरज कर, शब्द किया प्रकाश ।
बीज पड़ा था भूमि में, भई फूल फल आस ॥


 शब्दार्थ

  • गुरु आये → सतगुरु का प्रकट होना, शिष्य के जीवन में आगमन।
  • घन गरज कर → मेघ की गड़गड़ाहट की तरह सशक्त वाणी से।
  • शब्द किया प्रकाश → नाम-शब्द का प्रकाश किया, शब्दज्ञान दिया।
  • बीज पड़ा था भूमि में → आत्मा रूपी बीज, जो अज्ञान की मिट्टी में पड़ा हुआ था।
  • भई फूल फल आस → बीज अंकुरित होकर फूल-फल की आशा बनी; आत्मिक जीवन में विकास और फल प्राप्ति की संभावना बनी।

 भावार्थ

महाराजश्री कहते हैं कि जब सच्चे सतगुरु की कृपा से नाम-शब्द का प्रकाश हृदय में प्रकट होता है, तब आत्मा रूपी बीज अंकुरित होकर आगे फल-फूल देने लगता है। जिस प्रकार बिना सूर्य और जल के बीज निष्क्रिय पड़ा रहता है, वैसे ही गुरु-कृपा के बिना आत्मा सुप्त अवस्था में रहती है। गुरु-वाणी (शब्द) ही वह ज्योति है जो भीतर चेतना का द्वार खोल देती है और आत्मा में ईश्वर दर्शन की आशा जाग्रत होती है।


व्याख्या

इस दोहे में आत्मिक जीवन की उन्नति को बीज, फूल और फल के प्रतीक द्वारा समझाया गया है।

  • जब तक बीज मिट्टी में दबा रहता है, उसमें जीवन की संभावना तो होती है पर प्रकट नहीं होती। उसी प्रकार आत्मा में अनंत शक्ति छिपी होती है, पर अज्ञान के कारण वह सुप्त पड़ी रहती है।
  • गुरु के "घन गरज कर" उपदेश और शब्द-प्रकाश से बीज अंकुरित होता है। यहाँ "शब्द" का अर्थ है—राम नाम, सुरति-शब्द-योग और गुरु वाणी
  • जैसे वर्षा के बाद धरती से अंकुर फूटते हैं, वैसे ही गुरु-प्रेरणा से साधक के भीतर ईश्वर-स्मरण का अंकुर फूटता है।
  • "भई फूल फल आस" का आशय है कि गुरु-कृपा से साधक का जीवन फूलों-सा सुगंधित और फलों-सा मधुर हो जाता है, और परमात्मा-साक्षात्कार की आशा जागती है।

व्यवहारिक टिप्पणी

हम सबके भीतर आध्यात्मिक बीज मौजूद है, लेकिन वह निष्क्रिय पड़ा रहता है। जब सच्चे गुरु की वाणी और नाम-शब्द का प्रकाश मिलता है, तभी यह बीज अंकुरित होकर साधना, भक्ति और ज्ञान की ओर बढ़ता है।

  • फूल = भक्ति, प्रेम और आनंद।
  • फल = आत्म-साक्षात्कार और मुक्ति।

इसलिए यह दोहा हमें याद दिलाता है कि गुरु की वाणी को गंभीरता से सुनना और जीवन में उतारना ही हमारे भीतर के बीज को पल्लवित करने का उपाय है।


Wednesday, 27 August 2025

गुरु आये घन गरज कर।। श्री दरियाव वाणी


गुरु आये घन गरज कर , अन्तर कृपा उपाय ।
तपना से शीतल किया, सोता लिया जगाय ॥


 शब्दार्थ

  • गुरु आये → सतगुरु प्रकट हुए, जीवन में उपस्थित हुए।
  • घन गरज कर → मेघ की तरह गरजते हुए, प्रभावी वाणी के साथ।
  • अन्तर कृपा उपाय → भीतर (हृदय में) करुणा और कृपा का उपाय किया।
  • तपना → तपिश, दुखों और वासनाओं की जलन।
  • शीतल किया → ठंडक दी, शांत बनाया।
  • सोता → अज्ञान की नींद में पड़ा जीव।
  • जगाय → जाग्रत किया, चेतना में लाया।

 भावार्थ

महाराजश्री कहते हैं कि जब मैं संसारिक मोह-माया, वासनाओं और दुःख की तपिश से जल रहा था, तब मेरे जीवन में सतगुरु का आगमन हुआ। गुरुदेव की प्रभावशाली वाणी (गरज) ने मेरे हृदय को भेद दिया और कृपा-वर्षा से मुझे शीतलता प्रदान की। अनेक जन्मों से मैं अज्ञान की नींद में सोया था, सतगुरु ने मुझे जगा दिया और आत्मज्ञान की ओर मोड़ दिया।


 व्याख्या

इस दोहे में सतगुरु की कृपा को बरसते बादल के समान बताया गया है। जिस प्रकार तपती हुई धरती वर्षा से हरी-भरी हो जाती है, उसी प्रकार संसार की तपिश में जलता हुआ जीव सतगुरु के वचन और कृपा से शान्त हो जाता है।

  • "घन गरज कर" का आशय है कि गुरु का उपदेश केवल मधुर ही नहीं होता, कभी-कभी वह झकझोरने वाला भी होता है, ताकि शिष्य की नींद टूटे।
  • "तपना" हमारे मन की अशान्ति, वासनाएँ और मोह हैं।
  • "शीतल किया" से तात्पर्य है कि गुरु ने हमें परमात्मा के नाम से जोड़ा, जिससे हृदय में शांति और आनन्द का अनुभव हुआ।
  • "सोता लिया जगाय" का अर्थ है कि जो जीव अनादि काल से आत्मज्ञान से दूर सोया हुआ था, गुरु ने उसे जाग्रत कर दिया।

 व्यवहारिक टिप्पणी

आज भी मनुष्य चिंता, तनाव, इच्छाओं और मोह की तपिश से पीड़ित है। हमें लगता है कि धन, पद या सुविधा से यह तपिश दूर हो जाएगी, लेकिन असली शांति भीतर से आती है। जब सच्चे गुरु की वाणी और मार्गदर्शन हमारे जीवन में प्रवेश करता है, तभी हृदय शीतल होता है और सच्ची जागृति मिलती है। इस दोहे का संदेश यही है कि जीवन की तपन को दूर करने का उपाय केवल सतगुरु की कृपा और उनके उपदेश का अनुसरण है।


Tuesday, 26 August 2025

जैसे सतगुरु तुम करी ।। श्री दरियाव वाणी


जैसे सतगुरु तुम करी , मुझसे कछु न होय ।
विष भांडे विष काढ कर , दिया अमीरस मोय ॥ 


❖ शब्दार्थ

  • जैसे सतगुरु तुम करी = जैसा उपकार आपने किया
  • मुझसे कछु न होय = मैं उसका प्रतिदान करने में असमर्थ हूँ
  • विष भांडे = शरीररूपी बर्तन जो वासनाओं और अज्ञान से भरा है
  • विष काढ कर = उस जहर (अज्ञान, वासनाएँ, विकार) को दूर करके
  • अमीरस = राम-नाम रूपी अमृतरस, जीवनदायी अमृत

❖ भावार्थ

आचार्यश्री कहते हैं – हे सतगुरुदेव! आपने मेरे लिए बहुत उपकार किया है, परन्तु इसके बदले मैं आपको कुछ भी लौटा नहीं सकता। यह शरीर मानो ज़हर से भरा हुआ बर्तन था। गुरूदेव ने उस ज़हर को निकालकर मुझे राम-नाम रूपी अमृत का पान कराया।


❖ व्याख्या

  • सतगुरु का उपकार अनंत और अप्रतिदेय है। शिष्य चाहे कितना भी प्रयास करे, गुरु की दया का ऋण कभी चुका नहीं सकता।
  • मनुष्य का शरीर और मन जब तक विकारों, अहंकार और अज्ञान से भरे रहते हैं, तब तक वह विष के पात्र के समान है।
  • गुरु ही उस विष को निकालकर साधक को नाम-रस का अमृत प्रदान करते हैं, जिससे उसका जीवन पवित्र और आनंदमय हो जाता है।
  • यहाँ यह भी संदेश है कि आत्मिक यात्रा में सब कुछ गुरु की कृपा से संभव होता है, न कि शिष्य के बल से।

❖ टिप्पणी

यह दोहा हमें यह सिखाता है कि —

  1. गुरु कृपा ही सबसे बड़ा धन है, जिसका उपकार कोई साधक नहीं चुका सकता।
  2. हमारा मन और शरीर तब तक विषमय है जब तक उसमें गुरु का नाम और उपदेश न उतरे।
  3. राम-नाम रूपी अमृत ही वह औषधि है जो जीवन को न केवल शुद्ध करता है बल्कि अमर आनंद से भर देता है।