Saturday, 31 October 2015

सत्संग/सन्तों की वाणी/सुविचार

राम जी राम
राम राम बोलो

सुमिरण का अंग(श्री दरियाव दिव्य वाणी)

दरिया सुमिरै राम को, कर्म भर्म सब चूर ।
निस तारा सहजे मिटे, जो उगे निर्मल सूर।
महाराजश्री कहते है कि ईश्वर का स्मरण करने से कर्म और भर्म
का चुरा हो जाता है अर्थात ये जलकर नष्ट हो जाते है । सूर्य उदय होने
के पश्चात् रात्रि, तारा,नक्षत्र तथा ग्रह सब नष्ट हो जाते है । प्रकाश से
कोई कह कि तू हमे अंधेरे का परिचय करवा दे तो क्या प्रकाश अंधरे
का परिचय करवा सकता है ? प्रकाश के सामने तो अंधेरा टिकता ही ,
नहीं है तो वह केसे अंधेरे के विषय मैं वर्णन करेगा । इसी प्रकार सूर्य
ने कभी रात्रि को देखा नहीं है क्योंकि सूर्य को देखकर रात्रि टिक नहीं
पाती है । इसी प्रकार नाम स्मरण करनेवाली नाम प्रेमी के सामने कर्म की
दाल नहीं गलती है । यदि कर्म आते भी है तो उसे महसूस नहीं होता
है क्योंकि वह तो प्रभु के भजन में लीन रहता है । उसे तो यह पता ही
नहीं है कि विघ्न क्या है तथा प्रतिकूल परिस्थितियों क्या है ? वह तो
उन परिस्थितियों में भी प्रभु का ही दर्शन करता है । ऐसे प्रभु के प्यारे
भक्तजनों के लिए ही कहा है।
"योगक्षेमं वहाम्यहम्"

सत्संग /सुविचार

Friday, 30 October 2015

श्री राम और राममन्त्र : तात्पर्य

श्री राम और राममन्त्र : तात्पर्य
-------------------------

वास्तव में राम अनादि ब्रह्म ही हैं। अनेकानेक संतों ने निर्गुण राम को अपने आराध्य रूप में प्रतिष्ठित किया है। राम नाम के इस अत्यंत प्रभावी एवं विलक्षण दिव्य बीज मंत्र को सगुणोपासक मनुष्यों में प्रतिष्ठित करने के लिए दाशरथि राम का पृथ्वी पर अवतरण हुआ है। कबीरदास जी ने कहा है – आत्मा और राम एक है-

' आतम राम अवर नहिं दूजा।'

राम नाम कबीर का बीज मंत्र है। राम नाम को उन्होंने अजपाजप कहा है। यह एक चिकित्सा विज्ञान आधारित सत्य है कि हम २4 घंटों में लगभग २१६०० श्वास भीतर लेते हैं और २१६००  बाहर निकालते हैं। इसका संकेत कबीरदास जी ने इस उक्ति में किया है–

' सहस्र इक्कीस छह सै धागा, निहचल नाकै पोवै।'

मनुष्य २१६०० धागे नाक के सूक्ष्म द्वार में पिरोता रहता है। अर्थात प्रत्येक श्वास - प्रश्वास में वह राम का स्मरण करता रहता है।

राम शब्द का अर्थ है – 'रमंति इति रामः' जो रोम-रोम में रहता है, जो समूचे ब्रह्मांड में रमण करता है वही राम हैं।
इसी तरह कहा गया है –

'रमन्ते योगिनो यस्मिन स रामः'

अर्थात् योगीजन जिसमें रमण करते हैं वही राम हैं।

इसी तरह ब्रह्मवैवर्त पुराण में कहा गया है –

' राम शब्दो विश्ववचनो, मश्वापीश्वर वाचकः'

अर्थात् ‘रा’ शब्द परिपूर्णता का बोधक है और ‘म’ परमेश्वर वाचक है। चाहे निर्गुण ब्रह्म हो या दाशरथि राम हो, विशिष्ट तथ्य यह है कि राम शब्द एक महामंत्र है। वैज्ञानिकों के अनुसार मंत्रों का चयन ध्वनि विज्ञान को आधार मानकर किया गया है।

राम मन्त्र का अर्थ
---------------

' राम ' स्वतः मूलतः अपने आप में पूर्ण मन्त्र है।

'र', 'अ' और 'म', इन तीनों अक्षरों के योग से 'राम' मंत्र बनता है। यही राम रसायन है। 'र' अग्निवाचक है। 'अ' बीज मंत्र है। 'म' का अर्थ है ज्ञान। यह मंत्र पापों को जलाता है, किंतु पुण्य को सुरक्षित रखता है और ज्ञान प्रदान करता है। हम चाहते हैं कि पुण्य सुरक्षित रहें, सिर्फ पापों का नाश हो। 'अ' मंत्र जोड़ देने से अग्नि केवल पाप कर्मो का दहन कर पाती है और हमारे शुभ और सात्विक कर्मो को सुरक्षित करती है। 'म' का उच्चारण करने से ज्ञान की उत्पत्ति होती है। हमें अपने स्वरूप का भान हो जाता है। इसलिए हम र, अ और म को जोड़कर एक मंत्र बना लेते हैं-राम। 'म' अभीष्ट होने पर भी यदि हम 'र' और 'अ' का उच्चारण नहीं करेंगे तो अभीष्ट की प्राप्ति नहीं होगी।
राम सिर्फ एक नाम नहीं अपितु एक मंत्र है, जिसका नित्य स्मरण करने से सभी दु:खों से मुक्ति मिल जाती है। राम शब्द का अर्थ है- मनोहर, विलक्षण, चमत्कारी, पापियों का नाश करने वाला व भवसागर से मुक्त करने वाला। रामचरित मानस के बालकांड में एक प्रसंग में लिखा है –
नहिं कलि करम न भगति बिबेकू।
राम नाम अवलंबन एकू।।
अर्थात कलयुग में न तो कर्म का भरोसा है, न भक्ति का और न ज्ञान का। सिर्फ राम नाम ही एकमात्र सहारा हैं।

स्कंदपुराण में भी राम नाम की महिमा का गुणगान किया गया
है –
रामेति द्वयक्षरजप: सर्वपापापनोदक:।
गच्छन्तिष्ठन् शयनो वा मनुजो रामकीर्तनात्।।
इड निर्वर्तितो याति चान्ते हरिगणो भवेत्।
               –स्कंदपुराण/नागरखंड

अर्थात यह दो अक्षरों का मंत्र(राम) जपे जाने पर समस्त पापों का नाश हो जाता है। चलते, बैठते, सोते या किसी भी अवस्था में जो मनुष्य राम नाम का कीर्तन करता है, वह यहां कृतकार्य होकर जाता है और अंत में भगवान विष्णु का पार्षद बनता है।

"राम रामेति रामेति रमे रामे
मनोरमे ।
सहस्र  नाम तत्तुल्यं राम नाम वरानने ।।"

           

Thursday, 29 October 2015

रामस्नेही सम्प्रदाय के आदि आचार्य श्री दरियावजी महाराज

सन्त दरियाजी :
इनका जन्म जैतारण में १६७६ ई० में हुआ था। इनके गुरु का नाम प्रेमदास जी था। इन्होंने कठोर साधना करने के बाद अपने विचारों का प्रचार किया। उन्होंने गुरु को सर्वोपरि देवता मानते हुए कहा कि गुरु भक्ति के माध्यम से ही मोक्ष प्राप्त किया जा सकता है। भक्ति के समस्त साधनों एवं कर्मकाण्डों में इन्होंने राम के नाम को जपना ही सर्वश्रेष्ठ बतलाया तथा पुनर्जन्म के बन्धनों से मुक्ति पाने का सर्वश्रेष्ठ साधन माना।
उन्होंने राम शब्द में हिन्दू - मुस्लिम की समन्वय की भावना का प्रतीक बताया। उन्होंने कहा कि "रा"शब्द तो स्वयं भगवान राम का प्रतीक है, जबकि 'म' शब्द मुहम्मद साहब का प्रतीक है। उन्होंने कहा कि गृहस्थ जीवन जीने वाला व्यक्ति भी कपट रहित साधना करते हुए मोक्ष प्राप्त कर सकता है। इसके लिए गृहस्थ जीवन का त्याग करना आवश्यक नहीं है। दरियाजी ने बताया है कि किस प्रकार व्यक्ति निरन्तर राम नाम का जप कर ब्रह्म में लीन हो सकता है।

सन्त दरियावजी ने समाज में प्रचलित आडम्बरों, रुढियों एवं अंधविश्वासों का भी विरोध किया उनका मानना था कि तीर्थ यात्रा, स्नान, जप, तप, व्रत, उपवास तथा हाध में माला लेने मात्र से ब्रह्म को प्राप्त नहीं किया जा सकता। वे मूर्ति पूजा तथा वर्ण पूजा के घोर विरोधी थे। उन्होंने कहा कि इन्द्रिय सुख दु:खदायी है, अत: लोगों को चाहिए कि वे राम नाम का स्मरण करते रहें। उनका मानना था कि वेद, पुराण आदि भ्रमित करने वाले हैं। इस प्रकार दरियावजी ने राम भक्ती का अनुपम प्रचार किया।


Wednesday, 21 October 2015

@@ साध का अंग @@ श्री दरियाव जी महाराज की दिव्य वाणी जी

पुराणे जमाने में जो शूरवीर किसी बहुत बड़े संकट से देश को
उबार  लेते थे,उनके ऊपर प्रसन्न होकर राजा उन्हें गांव वगैरे इनाम
देते थे । इसी प्रकार सतगुरु रामरस बांटते है परन्तु कोई बिरले हीं उसे
पी सकते है । प्रत्येक व्यक्ति रामरस नहीं पी सकता । आज हमें भारतीय
संस्कृति का सुंदर वातावरण प्राप्त हुआ है तथा महापुरुषों का अति दुर्लभ
संग भी प्राप्त हो गया है तथापि यदि हम ऐसे सुंदर अवसर को खो देते
है तो हमांरे समान दूसरा कोन दुर्भागी होगा । आचार्य श्री कहते है कि
जिन लोगों को आध्यात्मिक जीवन के प्रति विश्वास नहीं है, जिनकी
महापुरुषों के प्रति श्रद्धा नहीं है तथा जिनकी धर्म के प्रति आस्था नहीं
है,ऐसे लोग मत में बंधे हुए है । जो व्यक्ति अपने मत की बात को
सर्वोपरि मानकर प्राथमिकता देता है तथा शास्त्र और संतों की बात की
अवहेलना करके अहंकार करता है, उसे ही मतवादी कहते हैं

Thursday, 8 October 2015

रामस्नेही संत किसनदासजी

संत किसनदासजी


रामस्नेही संप्रदाय के संत कवि


रामस्नेही संप्रदाय के प्रवर्त्तक सन्त दरियावजी थे। उनका प्रादुर्भाव 18 वीं शताब्दी में हुआ। रेण- रामस्नेही संप्रदाय में शुरु से ही गुरु- शिष्य की परंपरा चलती अंायी है। नागौर जिले में रामस्नेही संप्रदाय की परंपरा संत दरियावजी से आरंभ होती है। ंसंत दरियावजी के इन निष्पक्ष व्यवहार एवं लोक हितपरक उपदेशों से प्रभावित होकर इनके अनेक शिष्य बने, जिन्होंने राजस्थान के विभिन्न नगरों व कस्बों में रामस्नेही-पंथ का प्रचार व प्रसार करने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की। इनके शिष्यों में संत किसनदासजी अतिप्रसिद्ध हुए।



संत किसनदासजी दरियावजी साहब के चार प्रमुख शिष्यों में से एक हैं। इनका जन्म वि.सं. 1746 माघ शुक्ला 5 को हुआ। इनके पिता का नाम दासाराम तथा माता का नाम महीदेवी था। ये मेघवंशी (मेघवाल ) थे। इनकी जन्म भूमि व साधना स्थली टांकला ( नागौर ) थी। ये बहुत ही त्यागी, संतोषी तथा कोमल प्रवृत्ति के संत माने जाते थे। कुछ वर्ष तक गृहस्थ जीवन व्यतीत करने के पश्चात् इन्होंने वि.1773 वैशाख शुक्ल 11 को दरियाव साहब से दीक्षा ली।



इनके 21 शिष्य थे। खेड़ापा के संत दयालुदास ने अपनी भक्तमाल में इनके आत्मदृष्टा 13 शिष्यों का जिक्र किया है, जिसके नाम हैं -1. हेमदास, 2. खेतसी, 3.गोरधनदास, 4. हरिदास ( चाडी), 5. मेघोदास ( चाडी), 6. हरकिशन 7. बुधाराम, 8. लाडूराम, 9. भैरुदास, 10. सांवलदास, 11. टीकूदास, 12. शोभाराम, 13. दूधाराम। इन शिष्य परंपरा में अनेक साहित्यकार हुए हैं। कुछ प्रमुख संत- साहित्यकारों को इस सारणी के माध्यम से दिखलाया जा रहा है। कई पीढियों तक यह शिष्य- परंपरा चलती रही।



संत दयालुदास ने किसनदास के बारे में लिखा है कि ये संसार में रहते हुए भी जल में कमल की तरह निर्लिप्त थे तथा घट में ही अघटा ( निराकार परमात्मा ) का प्रकाश देखने वाले सिद्ध पुरुष थे - 



भगत अंश परगट भए, किसनदास महाराज धिन।

पदम गुलाब स फूल, जनम जग जल सूं न्यारा।
सीपां आस आकास, समंद अप मिलै न खारा।।
प्रगट रामप्रताप, अघट घट भया प्रकासा।
अनुभव अगम उदोत, ब्रह्म परचे तत भासा।।
मारुधर पावन करी, गाँव टूंकले बास जन।
भगत अंश परगट भए, किसनदास महाराज धिन।। -- भक्तमाल/ छंद 437 



किसनदास की रचना का एक उदाहरण दिया जा रहा है - 



ऐसे जन दरियावजी, किसना मिलिया मोहि।।1।।

बाणी कर काहाणी कही, भगति पिछाणी नांहि।
किसना गुरु बिन ले चल्या स्वारथ नरकां मांहि।।2।।
किसना जग फूल्यों फिरै झूठा सुख की आस।
ऐसों जग में जीवणों ज्यूं पाणी मांहि पतास।।3।।
बेग बुढापो आवसी सुध- बुध जासी छूट।
किसनदास काया नगर जम ले जासी लूट।।4।।
दिवस गमायो भटकतां रात गमाई सोय।
किसनदास इस जीव को भलो कहां से होय।।5।।
कुसंग कदै न कीजिये संत कहत है टेर।
जैसे संगत काग की उड़ती मरी बटेर।।6।।
उज्जल चित उज्जल दसा, मुख का इमृत बैण।
किसनदास वे नित मिलो, रामसनेही सैण।।7।।
दया धरम संतोष सत सील सबूरी सार।
किसनदास या दास गति सहजां मोख दुवार।।8।।
निसरया किस कारणे, करता है, क्या काम।
घर का हुआ न घाट का, धोबी हंदा स्वान।।9।।

इनका बाणी साहित्य श्लोक परिमाण लगभग 4000 है। जिनमें ग्रंथ 14, चौपाई 914, साखी 664, कवित्त 14, चंद्रायण 11, कुण्डलिया 15, हरजस 22, आरती 2 हैं।

विक्रम सं. 1825 आषाढ़ 7 को टांकला में इनका निधन हो गया।