Friday 31 May 2024

अनन्त श्री स्वामीजी प्रेमदासजी •• महाराज की अनुभव गिरा •• भाग-2

कोइज पीवे प्रेमरस, जपे अजप्पा जाप । 
पीवेजो सेवक प्रेमदास, जन सन्तदास परताप ।।

दुष्ट अभागीजीव के, राम न आवे दाय। 
ये भी सच्चा प्रेमजी (खर), मिश्रीसे मर जाय۱۱

रामनाम मुख से कहे, सिकल विकल होय मन । 
स्वाद न आवे प्रेमजी, कोरो चाब्या अन्न 

कोरो काचो चाब के, उपर पीवे पाणि। 
दुहागण पर प्रेमजी, है राजा की राणि।।

बाहर क्या दिखलाइये, जो अन्दर पाया। 
मन में राजी प्रेमजी, गुंगे गुल खाया।।

प्रेम गुपत्ता नाम जप, बाहर बके बलाय । 
उपर डाला बिजको, जीव जन्तु चुग जाय।।

निंदा नहीं निनाण है, सो सुण जाणो कोय। 
खेत निन्दाणा प्रेमजी, सिट्टा मोटा होय।।

हंसा तो मोती चुगे, सर्व विलासी काग। 
प्रेम रता रिह नाम से, त्याग जीसा वैराग।।

जैसे श्वास सुनारकी, दे एक सरीखी फूंक।
 इसो भजन कर प्रेमजी, मिलसी राम अचुक।।

राम नाम की प्रेमजी, मोडी पडी परख । 
आराध्य सु आवीया, ज्यू डाकण के जरख्ख।।

प्रेम सिपाही नाम का, तत बांधी तलवार। 
कनक कामिनी जीत के, मुजरो है महाराज।।

अलख शब्द कोई जन लखे, ता बिच भेद अथाह ।
 बचती है एक प्रेमदास, काया बिच कथाह।।

प्रेम बकण दे जगत क, तु काहे बोले ।
 माटी केरा ढगळ सु, सोना क्यो तोले।।

निद्रा आई प्रेमजी, सोटा माऱ्या दोय।
 राम भजन की भीड है, जाय शहर में सोय।।

जोगी जंगम सेवडा, शेख सन्यासी स्वांग । 
समझे क्यो कर प्रेमजी, जब कुए पड गई भांग।।

तस्कर को देख्या नही, नही तस्कर पाया। 
बिन देख्याही प्रेमजी, कुत्ता बोबाया।।

प्रेमदास कहता नही, कहता है ओरे। 
ज्यु तुंबा दरियावमे, उबकत है जोरे।।

गंगा गया न गोमती, पढ्यान वेद पुराण । 
भोले भाले प्रेमजी पद पाया निर्वाण।।


।। चौपाई ।।

बैरागी सो मन बैरागी, आशा तृष्णा सब को त्यागी।
 राम रता पर निन्दा त्यागी, प्रेम कहे सोसत बैरागी ।।

।। छंद सवैया ।।

सोहीअतीत न चिन्त रहे, रिध मांग के खाय मसान मे सोना। चोर चिकारकी भीती न लागत, हेरी जोवो घर का चहु कोना ।। और अमल्ल का त्याग करे, पुनी राम अमल्ल करे दिन दुना प्रेम कहे गजराज ज्यू घुमत, कौन लखे गत देश बिहुना ।

|| सवैया ।।

है जग मे सतसंग बडो, सतसंगत से परमेश्वर पावे। 
संगत है सुख को निधी सागर, संगत वेद पुराण मे गावे ।।
 संगत सो फळ और कछु नही, जो चावे साही बण आवे ।
 संगत की महिमा जो महातम, प्रेम कहे बरण्यो नहीं जावे ।।





अनन्त श्री स्वामीजी प्रेमदासजी •• महाराज की अनुभव गिरा ••

अनन्त श्री स्वामीजी प्रेमदासजी 
•• महाराज की अनुभव गिरा ••

।। छन्द (गगर निसाणी) ।।

प्रादुर्भाव वि. सम्वत १७१९ अगहन सुदी ९ मंगलवार दिक्षा सम्वत १७४६ चैत्र शुक्ल ८, मोक्ष सम्वत १८०६ फाल्गुन कृष्ण ७ मु. खींयासर बिकाने राजस्थान

गुरु परमात्मा नित नमो, पुनि तिहु काल के सन्त ।
जन प्रेम उमय कर वन्दना, भगवत कला अनन्त।।

राम नाम सत शब्द हमारा, रट रट राम रमावन्दा । 
राम नाम सबको सुखदाई, सुख ही सुख उपजावन्दा।।

राम नाम का निश्चय सारु, जल पर शिला तिरावन्दा ।
 राम नाम प्रल्हाद पुकारे, कंचन ताय तपावन्दा।।

राम ही देव देवरा राम ही, राम ही कथा सुनावन्दा । 
राम ही बाहर राम ही भीतर, राम ही मन परचान्दा ।।

राम ही राम रटो मेरे प्राणी, राम रतन धन लावन्दा । 
राम नाम से मन खुशीयाली, रामो राम खिलावन्दा।।

धरण गगन बिच भया उजाला, ब्रम्हअगन पर जालन्दा । 
काम क्रोध रिपुजाल सकलअघ, भागे सबही सालन्दा।।

सुख सागर हसादा आगर, मोती चून चुगावन्दा।
काग कुचाली भया मराली, क्या क्या काम कमावन्दा।।

कहता सूरा बूझे पूरा, उलटा पवन चढावन्दा।
अष्ट कवल दल चक्र फिरंदा लिव लग जोग कमावन्दा।।

सुर को फेर पवन को बन्दे, उणमुण ताली लावन्दा । 
जोगी जोग जाग जत पुरा, सुखदेव वचन सुणावन्दा।।

आसत हे नारात भी नाही, सिध आपा बिसरावन्दा । 
जोगी जाण जुगत उतकरणा, तन गढ पटा लिखावन्दा।।

सोहं सासा अजब तमाशा, अमर ज्योत दिखलावन्दा ।
 काला पिला साह सफेदी, मुंग भरण दिखलावदा।।

एसा दरसे नुरा बरसे, माहे बिज भल लावन्दा।
डण्ड सुर सुद पिछमदी घाटी, बंकनाल होय आवन्दा।।

तूं तूं करत तुम्हारा जन्तर, रुण झुण घोर लगावन्दा। 
पंग बिन निरत करे एक पातर, बिन रसना गुण गावन्दा।।

त्रिकुटी छाजे अनहद बाजे, कर बिन ताल बजावन्दा। 
पाच पचीसों मिल्या अखाडे, भर भर प्याला पावन्दा।।

मन मतवाला भया विलाला, निज पद माय समावन्दा। 
भवर गुंजालु बुठा बालु, इस विध अलख लखावन्दा।।

सुर और चंद्र मिले एक ठाई, मिलकर अमी चवावन्दा । 
ब्रम्ह कृपालु खुलीया तालु, जाप अजप्पा ध्यावन्दा।।

सुन्न शिखर गढ काया नगरी, हुकमा हुकम चलावन्दा।
 उलटी नाल उमंगे सेजा, जहाआकाश भरावन्दा।।

सुखमण गंगा खलके सेजा, गगन महल गरणावन्दा । 
परापरी अणहद के आगे, रंरकार ठहरावन्दा।।

तू ही राम निरंजन तूही, अण अक्षर दिखलावन्दा । 
तू ही मका मदीना तू ही, मुल्ला बाग सुनावन्दा।।

एको एक सकल घट भीतर, एको एक कहावन्दा । 
दोय कहे सो दो जग जासी, हुय कर भूत बिलावन्दा।।

खेचर भूचर चाचर उणमून, अगोचर ज्ञान सुनावन्दा ।
 पाचू मुद्रा आतमज्ञानी, पर बिन हंस उडावन्दा।।

मै बलीजाऊ सतगुरु चरणा जिन ये भेद बतावन्दा। 
प्रेमदास सू भया दिवाना मै बंदा उस साहिंदा।।

सतपुरुषारे भोग लागे

सतपुरुषारे भोग लागे,

शब्द अनाहद घंटा बाजे ।

प्रेम प्रीती से करी है रसोई,

अमृत भोजन पारस होई

कंचन झारी सुकृत थाळ, 

जीमन बैठे राम दयाल

पाय प्रसाद जल आचमन कीनो, 

महापरसाद दास कू दीनो

दास एक कणका भर लीनो, 

ताते काळ भयो आधीनो

कहे कबीर हम भये सनाथ, 

जब सतगुरु मस्तक धरिया हाथ।।