कोइज पीवे प्रेमरस, जपे अजप्पा जाप ।
पीवेजो सेवक प्रेमदास, जन सन्तदास परताप ।।
दुष्ट अभागीजीव के, राम न आवे दाय।
ये भी सच्चा प्रेमजी (खर), मिश्रीसे मर जाय۱۱
रामनाम मुख से कहे, सिकल विकल होय मन ।
स्वाद न आवे प्रेमजी, कोरो चाब्या अन्न ॥
कोरो काचो चाब के, उपर पीवे पाणि।
दुहागण पर प्रेमजी, है राजा की राणि।।
बाहर क्या दिखलाइये, जो अन्दर पाया।
मन में राजी प्रेमजी, गुंगे गुल खाया।।
प्रेम गुपत्ता नाम जप, बाहर बके बलाय ।
उपर डाला बिजको, जीव जन्तु चुग जाय।।
निंदा नहीं निनाण है, सो सुण जाणो कोय।
खेत निन्दाणा प्रेमजी, सिट्टा मोटा होय।।
हंसा तो मोती चुगे, सर्व विलासी काग।
प्रेम रता रिह नाम से, त्याग जीसा वैराग।।
जैसे श्वास सुनारकी, दे एक सरीखी फूंक।
इसो भजन कर प्रेमजी, मिलसी राम अचुक।।
राम नाम की प्रेमजी, मोडी पडी परख ।
आराध्य सु आवीया, ज्यू डाकण के जरख्ख।।
प्रेम सिपाही नाम का, तत बांधी तलवार।
कनक कामिनी जीत के, मुजरो है महाराज।।
अलख शब्द कोई जन लखे, ता बिच भेद अथाह ।
बचती है एक प्रेमदास, काया बिच कथाह।।
प्रेम बकण दे जगत क, तु काहे बोले ।
माटी केरा ढगळ सु, सोना क्यो तोले।।
निद्रा आई प्रेमजी, सोटा माऱ्या दोय।
राम भजन की भीड है, जाय शहर में सोय।।
जोगी जंगम सेवडा, शेख सन्यासी स्वांग ।
समझे क्यो कर प्रेमजी, जब कुए पड गई भांग।।
तस्कर को देख्या नही, नही तस्कर पाया।
बिन देख्याही प्रेमजी, कुत्ता बोबाया।।
प्रेमदास कहता नही, कहता है ओरे।
ज्यु तुंबा दरियावमे, उबकत है जोरे।।
गंगा गया न गोमती, पढ्यान वेद पुराण ।
भोले भाले प्रेमजी पद पाया निर्वाण।।
।। चौपाई ।।
बैरागी सो मन बैरागी, आशा तृष्णा सब को त्यागी।
राम रता पर निन्दा त्यागी, प्रेम कहे सोसत बैरागी ।।
।। छंद सवैया ।।
सोहीअतीत न चिन्त रहे, रिध मांग के खाय मसान मे सोना। चोर चिकारकी भीती न लागत, हेरी जोवो घर का चहु कोना ।। और अमल्ल का त्याग करे, पुनी राम अमल्ल करे दिन दुना प्रेम कहे गजराज ज्यू घुमत, कौन लखे गत देश बिहुना ।
|| सवैया ।।
है जग मे सतसंग बडो, सतसंगत से परमेश्वर पावे।
संगत है सुख को निधी सागर, संगत वेद पुराण मे गावे ।।
संगत सो फळ और कछु नही, जो चावे साही बण आवे ।
संगत की महिमा जो महातम, प्रेम कहे बरण्यो नहीं जावे ।।
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