Friday 31 May 2024

अनन्त श्री स्वामीजी प्रेमदासजी •• महाराज की अनुभव गिरा ••

अनन्त श्री स्वामीजी प्रेमदासजी 
•• महाराज की अनुभव गिरा ••

।। छन्द (गगर निसाणी) ।।

प्रादुर्भाव वि. सम्वत १७१९ अगहन सुदी ९ मंगलवार दिक्षा सम्वत १७४६ चैत्र शुक्ल ८, मोक्ष सम्वत १८०६ फाल्गुन कृष्ण ७ मु. खींयासर बिकाने राजस्थान

गुरु परमात्मा नित नमो, पुनि तिहु काल के सन्त ।
जन प्रेम उमय कर वन्दना, भगवत कला अनन्त।।

राम नाम सत शब्द हमारा, रट रट राम रमावन्दा । 
राम नाम सबको सुखदाई, सुख ही सुख उपजावन्दा।।

राम नाम का निश्चय सारु, जल पर शिला तिरावन्दा ।
 राम नाम प्रल्हाद पुकारे, कंचन ताय तपावन्दा।।

राम ही देव देवरा राम ही, राम ही कथा सुनावन्दा । 
राम ही बाहर राम ही भीतर, राम ही मन परचान्दा ।।

राम ही राम रटो मेरे प्राणी, राम रतन धन लावन्दा । 
राम नाम से मन खुशीयाली, रामो राम खिलावन्दा।।

धरण गगन बिच भया उजाला, ब्रम्हअगन पर जालन्दा । 
काम क्रोध रिपुजाल सकलअघ, भागे सबही सालन्दा।।

सुख सागर हसादा आगर, मोती चून चुगावन्दा।
काग कुचाली भया मराली, क्या क्या काम कमावन्दा।।

कहता सूरा बूझे पूरा, उलटा पवन चढावन्दा।
अष्ट कवल दल चक्र फिरंदा लिव लग जोग कमावन्दा।।

सुर को फेर पवन को बन्दे, उणमुण ताली लावन्दा । 
जोगी जोग जाग जत पुरा, सुखदेव वचन सुणावन्दा।।

आसत हे नारात भी नाही, सिध आपा बिसरावन्दा । 
जोगी जाण जुगत उतकरणा, तन गढ पटा लिखावन्दा।।

सोहं सासा अजब तमाशा, अमर ज्योत दिखलावन्दा ।
 काला पिला साह सफेदी, मुंग भरण दिखलावदा।।

एसा दरसे नुरा बरसे, माहे बिज भल लावन्दा।
डण्ड सुर सुद पिछमदी घाटी, बंकनाल होय आवन्दा।।

तूं तूं करत तुम्हारा जन्तर, रुण झुण घोर लगावन्दा। 
पंग बिन निरत करे एक पातर, बिन रसना गुण गावन्दा।।

त्रिकुटी छाजे अनहद बाजे, कर बिन ताल बजावन्दा। 
पाच पचीसों मिल्या अखाडे, भर भर प्याला पावन्दा।।

मन मतवाला भया विलाला, निज पद माय समावन्दा। 
भवर गुंजालु बुठा बालु, इस विध अलख लखावन्दा।।

सुर और चंद्र मिले एक ठाई, मिलकर अमी चवावन्दा । 
ब्रम्ह कृपालु खुलीया तालु, जाप अजप्पा ध्यावन्दा।।

सुन्न शिखर गढ काया नगरी, हुकमा हुकम चलावन्दा।
 उलटी नाल उमंगे सेजा, जहाआकाश भरावन्दा।।

सुखमण गंगा खलके सेजा, गगन महल गरणावन्दा । 
परापरी अणहद के आगे, रंरकार ठहरावन्दा।।

तू ही राम निरंजन तूही, अण अक्षर दिखलावन्दा । 
तू ही मका मदीना तू ही, मुल्ला बाग सुनावन्दा।।

एको एक सकल घट भीतर, एको एक कहावन्दा । 
दोय कहे सो दो जग जासी, हुय कर भूत बिलावन्दा।।

खेचर भूचर चाचर उणमून, अगोचर ज्ञान सुनावन्दा ।
 पाचू मुद्रा आतमज्ञानी, पर बिन हंस उडावन्दा।।

मै बलीजाऊ सतगुरु चरणा जिन ये भेद बतावन्दा। 
प्रेमदास सू भया दिवाना मै बंदा उस साहिंदा।।

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