Tuesday 7 June 2016

साध का अंग।।श्री दरियाव वाणी

-: अथ श्री दरियावजी महाराज का श्री साध का अंग :-      
   
दरिया लच्छन साध का, क्या गिरही क्या भेख !
नि:कपटी निरसंक रहे, बाहर भीतर एक (१)
सतगुरू को परसा नहीं, सीखा सब्द सुहेत !
दरिया कैसे नीपजेै, तेह-बिहूना खेत (२)
सत्त शब्द सत गुरमुखी, मत गजंद मुख दंत !
यह तो तोड़ेै पौल गढ़, वह तोड़े करम अनन्त (३)
दाँत रहै हस्ती बिना, तो पौल न टूटे कोय !
कै कर धारे कामिनी, कै खेलाराँ होय (४)
साध कह्यो भगवंत कहयो, कहै ग्रंथ और वेद !
दरिया लहै न गुरू बिना, तत्त नाम का भेद (५)
राजा बाँटै परगना, जो गढ़ को पति होय !
सतगुरू बाँटे राम रस, पीवै बिरला कोय (६)
मतवादी जानै नहीं, ततवादी की बात !
सूरज ऊगा उल्लुवा, गिनै अंधारी रात (७)
भीतर अंधारी भीत सी, बाहर ऊगा भान !
जन दरिया कारज कहा, भीतर बहुली हान (८)
सीखत ग्यानी ग्यान गम,करै ब्रह्म की बात !
दरिया बाहर चाँदना, भीतर काली रात (९)
बाहर कुछ समझै नहीं, जस रात अंधेरी होत !
जन दरिया भय कुछ नहीं, जो भीतर जागै जोत (१०)
-: इति श्री दरियावजी महाराज का श्री साध का अंग संपूर्ण :-

No comments:

Post a Comment