Wednesday 15 June 2016

साध का अंग !! श्री दरियाव वाणी जी

-: अथ श्री दरियावजी महाराज का श्री साध का अंग :-       
    
दरिया लच्छन साध का, क्या गिरही क्या भेख ! 
नि:कपटी निरसंक रहे, बाहर भीतर एक (१) 
सतगुरू को परसा नहीं, सीखा सब्द सुहेत ! 
दरिया कैसे नीपजेै, तेह-बिहूना खेत (२)
सत्त शब्द सत गुरमुखी, मत गजंद मुख दंत ! 
यह तो तोड़ेै पौल गढ़, वह तोड़े करम अनन्त (३)
दाँत रहै हस्ती बिना, तो पौल न टूटे कोय !
कै कर धारे कामिनी, कै खेलाराँ होय (४)
साध कह्यो भगवंत कहयो, कहै ग्रंथ और वेद ! 
दरिया लहै न गुरू बिना, तत्त नाम का भेद (५)
राजा बाँटै परगना, जो गढ़ को पति होय ! 
सतगुरू बाँटे राम रस, पीवै बिरला कोय (६)
मतवादी जानै नहीं, ततवादी की बात ! 
सूरज ऊगा उल्लुवा, गिनै अंधारी रात (७) 
भीतर अंधारी भीत सी, बाहर ऊगा भान ! 
जन दरिया कारज कहा, भीतर बहुली हान (८)
सीखत ग्यानी ग्यान गम,करै ब्रह्म की बात ! 
दरिया बाहर चाँदना, भीतर काली रात (९) 
बाहर कुछ समझै नहीं, जस रात अंधेरी होत ! 
जन दरिया भय कुछ नहीं, जो भीतर जागै जोत (१०)

-: इति श्री दरियावजी महाराज का श्री साध का अंग संपूर्ण :-









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