Monday 13 June 2016

उपदेश का अंग।।श्री दरियाव दिव्य वाणी जी


-: श्री दरियावजी महाराज का अथ श्री उपदेश का अंग :-    

जन दरिया उपदेश दे, जा के भीतर चाय ! 
नातर गैला जगत से, बक बक मरेै बलाय (१)
दरिया बहु बकवाद तज, कर अनहद से नेह ! 
औंधा कलसा ऊपरे, कहां बरसावेै मेह (२).    
बिरही प्रेमी मोम दिल, जन दरिया नि:काम ! 
आसिक दिल दीदार का, जासे कहिये राम (३).  
जन दरिया उपदेश दे, (जाके) भीतर प्रेम सधीर ! 
गाहक होय कोई हींग का,(जाको) कहां दिखावैे हीर (४)
दरिया गैला जगत से, समझ औ मुख से बोल ! 
नाम रतन की गाँठड़ी, गाहक बिन मत खोल (५) 
दरिया गैला जगत को, क्या कीजै समझाय ! 
चलना है दिस उतर को, दक्षिण दिस को जाय (६) 
दरिया गैला जगत को, कैसे दीजै सीख ! 
सौ कोसाँ चालन करै, चाल ना जानेै बीस (७) 
दरिया गैला जगत को, कैसे दीजेै हेत ! 
जो सौ बेरा छानिये, तौहू रेत की रेत (८)
दरिया गैला जगत को, क्या कीजै सुलझाय ! 
सुलझाया सुलझे नहीं, फिर सुलझ सुलझ उलझाय (९)
दरिया गैला जगत को, क्या कीजै समझाय ! 
रोग नीसरे देह में, पत्थर पूजन जाय (१०)  
भेड़ गती संसार की, हारिया गिनै न हाड़ ! 
देखा देखी परबत चढेै, देखा देखी खाड़ (११)  
दरिया सौ अंधा बिचै, एक सुझाको जाय ! 
वह तो बात देखी कहेै, वा के नाहीं दाय (१२)
दरिया सारा अंध को, कहै देख देख कछु देख ! 
अंध कहेै सूझै नहीं, कोई पूरबला लेख (१३) 
कंचन कंचन ही सदा, काँच काँच सो काँच ! 
दरिया झूठ सो झूठ है, साँच साँच सो साँच (१४)   
जन दरिया निज साँच का, साँचा ही व्यौहार ! 
झूठ झूठ ही नीवडे़ै ! जा में फेर ना सार (१५)  
दरिया साँच न संचरेै, जब घर घालेै झूठ ! 
साँच आन परगट हुआ, जब झूठ दिखावेै पूठ (१६)
जन दरिया इस झूठ की, डागल ऊपर दौड़ ! 
साँच दौड़ चौगान में, सो संताँ सिर मौर (१७) 
कानों सुनी सो झूठ सब, आँखों देखी साँच ! 
दरिया देखे जानिये, यह कंचन यह काँच (१८) 
साध पुरूष देखी कहेै, सुनी कहै नहिं कोय ! 
कानों सुनी सो झूठ सब, देखी साँची होय (१९)
दरिया आगे साँच के, झूठ किती इक बात ! 
जैसे ऊगे भान के, रात अंधारी जात (२०)
दरिया साँचा राम है, और सकल ही झूठ ! 
सनमुख रहिये राम से, दे सबही को पूठ (२१) 
दरिया साँचा राम है,फिर साँचा है संत ! 
वह तो दाता मुक्ति का, वह मुख नाम कहंत (२२)
दरिया हरि दरियाव की, साध चहूँ दिस नहर ! 
संग रहैे सोई पियैे, नहिं फिरे तृषाया बहर (२३) 
साध सरोवर राम जल, राग द्वेष कछु नाहीं ! 
दरिया पीवै प्रीत कर, सो तिरपत हो जाहि (२४)
दरिया हरि गुन गाय के, बहुता अंग शरीर ! 
बलिहारी उस अंग की, खेंचा निकसे क्षीर (२५) 
साधू जल का एक अंग, बरतै सहज सुभाव ! 
ऊँची दिसा न संचरै ! निवन जहाँ ढलकाव (२६)
दरिया नाके पौल के, इक पंछी आवैे जाय ! 
ऐसे साधु जगत में, बरतैं सहज सुभाय (२७) 
मच्छी पंछी साध का, दरिया मारग नाहीं ! 
अपनी इच्छा से चलेैं, हुकम धनी के माहिं (२८) 
साधु चन्दन बावना, (जाके) एक राम की आस ! 
जन दरिया इक राम बिन, सब जग आक पलास (२९)
-: इति श्री दरियावजी महाराज का उपदेश का अंग संपूर्ण :-




























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