-: श्री दरियावजी महाराज का अथ श्री उपदेश का अंग :-
जन दरिया उपदेश दे, जा के भीतर चाय !
नातर गैला जगत से, बक बक मरेै बलाय (१)
दरिया बहु बकवाद तज, कर अनहद से नेह !
औंधा कलसा ऊपरे, कहां बरसावेै मेह (२).
बिरही प्रेमी मोम दिल, जन दरिया नि:काम !
आसिक दिल दीदार का, जासे कहिये राम (३).
जन दरिया उपदेश दे, (जाके) भीतर प्रेम सधीर !
गाहक होय कोई हींग का,(जाको) कहां दिखावैे हीर (४)
दरिया गैला जगत से, समझ औ मुख से बोल !
नाम रतन की गाँठड़ी, गाहक बिन मत खोल (५)
दरिया गैला जगत को, क्या कीजै समझाय !
चलना है दिस उतर को, दक्षिण दिस को जाय (६)
दरिया गैला जगत को, कैसे दीजै सीख !
सौ कोसाँ चालन करै, चाल ना जानेै बीस (७)
दरिया गैला जगत को, कैसे दीजेै हेत !
जो सौ बेरा छानिये, तौहू रेत की रेत (८)
दरिया गैला जगत को, क्या कीजै सुलझाय !
सुलझाया सुलझे नहीं, फिर सुलझ सुलझ उलझाय (९)
दरिया गैला जगत को, क्या कीजै समझाय !
रोग नीसरे देह में, पत्थर पूजन जाय (१०)
भेड़ गती संसार की, हारिया गिनै न हाड़ !
देखा देखी परबत चढेै, देखा देखी खाड़ (११)
दरिया सौ अंधा बिचै, एक सुझाको जाय !
वह तो बात देखी कहेै, वा के नाहीं दाय (१२)
दरिया सारा अंध को, कहै देख देख कछु देख !
अंध कहेै सूझै नहीं, कोई पूरबला लेख (१३)
कंचन कंचन ही सदा, काँच काँच सो काँच !
दरिया झूठ सो झूठ है, साँच साँच सो साँच (१४)
जन दरिया निज साँच का, साँचा ही व्यौहार !
झूठ झूठ ही नीवडे़ै ! जा में फेर ना सार (१५)
दरिया साँच न संचरेै, जब घर घालेै झूठ !
साँच आन परगट हुआ, जब झूठ दिखावेै पूठ (१६)
जन दरिया इस झूठ की, डागल ऊपर दौड़ !
साँच दौड़ चौगान में, सो संताँ सिर मौर (१७)
कानों सुनी सो झूठ सब, आँखों देखी साँच !
दरिया देखे जानिये, यह कंचन यह काँच (१८)
साध पुरूष देखी कहेै, सुनी कहै नहिं कोय !
कानों सुनी सो झूठ सब, देखी साँची होय (१९)
दरिया आगे साँच के, झूठ किती इक बात !
जैसे ऊगे भान के, रात अंधारी जात (२०)
दरिया साँचा राम है, और सकल ही झूठ !
सनमुख रहिये राम से, दे सबही को पूठ (२१)
दरिया साँचा राम है,फिर साँचा है संत !
वह तो दाता मुक्ति का, वह मुख नाम कहंत (२२)
दरिया हरि दरियाव की, साध चहूँ दिस नहर !
संग रहैे सोई पियैे, नहिं फिरे तृषाया बहर (२३)
साध सरोवर राम जल, राग द्वेष कछु नाहीं !
दरिया पीवै प्रीत कर, सो तिरपत हो जाहि (२४)
दरिया हरि गुन गाय के, बहुता अंग शरीर !
बलिहारी उस अंग की, खेंचा निकसे क्षीर (२५)
साधू जल का एक अंग, बरतै सहज सुभाव !
ऊँची दिसा न संचरै ! निवन जहाँ ढलकाव (२६)
दरिया नाके पौल के, इक पंछी आवैे जाय !
ऐसे साधु जगत में, बरतैं सहज सुभाय (२७)
मच्छी पंछी साध का, दरिया मारग नाहीं !
अपनी इच्छा से चलेैं, हुकम धनी के माहिं (२८)
साधु चन्दन बावना, (जाके) एक राम की आस !
जन दरिया इक राम बिन, सब जग आक पलास (२९)
-: इति श्री दरियावजी महाराज का उपदेश का अंग संपूर्ण :-
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