Tuesday, 29 April 2025
संत दरियावजी महाराज द्वारा सेठ मधुचंद की रक्षा और दरियागंज की उत्पत्ति
Thursday, 24 April 2025
सूरत शब्द योग
Friday, 18 April 2025
उपदेश: मनुष्य और परमात्मा का संबंध
उपदेश: मनुष्य और परमात्मा का संबंध
मनुष्य के समक्ष सदा से यह प्रश्न रहा है कि क्या परमात्मा वास्तव में है? यदि है, तो उससे मिलन कैसे संभव है? इस विषय पर अनेक ग्रंथ और पुस्तकें लिखी गई हैं, परंतु केवल संत महात्मा ही इस गूढ़ प्रश्न का सही उत्तर दे सकते हैं, क्योंकि वे स्वयं परमात्मा से मिलन कर चुके होते हैं। उनका अनुभव प्रत्यक्ष प्रमाण होता है।
संतों का कहना है कि जब से जीव इस सृष्टि में आया है, वह परमात्मा की तलाश में इधर-उधर भटक रहा है, जबकि परमात्मा तो उसके भीतर ही विद्यमान है। संत महात्मा न केवल यह सिद्ध करते हैं कि परमात्मा है, बल्कि यह भी बताते हैं कि वह एक ही है। यहाँ "एक" का तात्पर्य संख्या से नहीं, बल्कि उसके अद्वैत स्वरूप से है — वह ही सत्य है, वही सब कुछ है, उसके सिवा और कोई नहीं।
दरियाव साहिब की वाणी में परमात्मा
संत दरियाव साहिब ने अपनी वाणी की शुरुआत प्रभु की वंदना से की है, जिसे उन्होंने 'ब्रह्म' या 'परब्रह्म' कहा:
"नमो राम पर ब्रह्माजी सतगुरु संत आधार।
जन दरिया बंदन करे पल पल बारम्बार ।।"
अपने जीवन के अंतिम चरण में जब प्रभु से उनका मिलन हुआ, तब वे प्रेम में निमग्न होकर कहते हैं:
"सोई कंत कबीर का, दादू का महाराज।
सब संतन का बलमा, दरिया का सिरताज।
तीन लोक चौदह भवन, दरिया देख्या जोय ।
एक राम सरीखा राम है, इसा न दूजा कोय।।"
यह वही परमात्मा है जो कबीर का स्वामी था, दादू का प्रियतम था, और सभी संतों का इष्ट है। वही दरियाव साहिब का सिरताज है — तीनों लोकों का स्वामी।
परमात्मा का दर्शन और अनुभव
उन्होंने प्रभु को उस निर्गुण, निराकार रूप में अनुभव किया, जो इंद्रियों की पकड़ से परे है। वह सृष्टिकर्ता है, जो हर कण में व्याप्त है। उसका कोई आदि, मध्य या अंत नहीं है। दरिया साहिब कहते हैं:
"आदि अंत मध्य नहीं, जग को कोई पार।
मनुष्य जीवन का उद्देश्य
दरियाव साहिब ने मनुष्य जीवन को एक यात्रा बताया है। इस यात्रा का उद्देश्य है आत्मा का परमात्मा से मिलन। यह दुर्लभ मानव जीवन बार-बार जन्म मरण के चक्र से गुजरकर प्राप्त हुआ है। उन्होंने कहा:
शरीर पंचतत्वों से बना है, और इस जीवन का उद्देश्य है अपने कर्मों का बोझ उतारकर आत्मा को परमात्मा में विलीन करना।
सतगुरु का महत्व
परमात्मा तक पहुंचने के लिए एक मार्गदर्शक की आवश्यकता होती है — और वही हैं सतगुरु। दरिया साहिब कहते हैं:
"साधु मेरे सतगुरु भेद बताया, टेट राम निकट ही पाया।
सतगुरु मिलें तो अर्थ बतावे, जीव ब्रह्म का मेला।"
सतगुरु वह होते हैं जिन्होंने स्वयं परमात्मा से मिलन कर लिया होता है। वे मार्ग दिखाते हैं, शब्द का अभ्यास कराते हैं और अंतर्मुखी यात्रा में साथ देते हैं।
" सतगुरु दाता, मुक्ति का दरिया प्रेम दयाल।
कृपा कर चरणों लिया, मेटा सकल जंजाल।"
सच्चे साधु की पहचान
दरिया साहिब सच्चे साधु की पहचान बताते हुए कहते हैं:
"दरिया लक्षण साधु, बाहर भीतर एक।
रहनी करनी साध की, एक राम की टेक।"
सच्चा साधु सांसारिक व्यवहार करता हुआ भी अंतर्मुखी भक्ति में लीन रहता है। वह मायामोह से परे होता है और सदैव राम नाम में स्थित होता है।
संदेश
दरिया साहिब का उपदेश है कि यह मानव जीवन एक अमूल्य अवसर है — इसे संसार के भौतिक सुखों में न गंवाकर परमात्मा की भक्ति में लगाएं। उन्होंने स्वयं के अनुभव से बताया कि सतगुरु की कृपा से ही परमात्मा से मिलन संभव है। उन्होंने कहा:
"दरिया गुरु पूरा मिला, नाम दिखाया नूर।
निसा गई सुख ऊपजा , किया निसाना दूर।।
Thursday, 17 April 2025
दरियावजी महाराज का प्राकट्य रामस्नेही सम्प्रदाय का उद्गम
दरियावजी महाराज का प्राकट्य रामस्नेही सम्प्रदाय का उद्गम
कर्मन्दिनां विश्वजनीन रामस्नेही जगद्धिश्रुत सम्प्रदाय ।
तपोबल वोक्ष्य न यस्य केवा भवन्ति मग्ना भुवि विस्मयाष्धौ ।।
नमो राम पर ब्रह्माजी सतगुरु संत आधार।
जन दरिया बंदन करे पल पल बारम्बार ।।
धर्मप्रदान भारत देश संत सती तथा शूरवीरों का तपोस्थल रहा है। जब जब देश समाज वह धर्म पर आपत्तियां आई तब तब अनन्त कोटी ब्रह्माण्ड नायक ईश्वर की विभूतियां ईश्वर प्रेरणा से भारत देश में अवतरित होती रही है। योग साधना भारत की विश्व को सर्वश्रेष्ठ देन है। अनादिकाल से इस पुण्य भूमि पर महान् योगनिष्ठ महात्मा अवतरित होते रहे हैं। सोभाग्य से इस युग के महान् तपस्वी गूठतम योग तत्वों के ज्ञाता आत्मदर्शी अनन्त विभूषित महात्माओं तथा संतों का जन्म होता रहा है।
भारत पुण्यमय एवं पावन भूमि है। संत महापुरुषों के जप-तप एवं साधना से यह भूमि पवित्र हो गई है, इसलिए भारत माता संत महात्माओं की अमर भूमि है। पूरे विश्व में विख्यात यह भारत एक सत प्राण व ईश्वरीय कृत अवतरित देश के रूप में विख्यात है। भारत का नाम पूरे विश्व में संतों का आर्विभाव एवं संतत्व भावनाओं से प्रेरित देश के रूप में रहा है। संतों की कठोर तप व तपस्या के कारण ही यहां की धरती पावनहै। भारत के चराचर में ईश्वर निवास करते हैं। यहां पर ईश्वर संत के रूप में बार-बार जन्म लेते हैं।
भारत धर्मप्रधान देश रहा है। इसलिए भारत में अध्यात्मवाद का प्रभाव विश्व के सभी देशों से बहुत अधिक है। प्राचीन काल से ही यहां के ऋषी-मुनी यहां के निवासियों के हृदय में अध्यात्मवाद एवं भक्ति की पावनधारा प्रवाहित करते रहे हैं, लेकिन मध्ययुग में देश की राजनैतिक परिस्थितियां, विशेषकर बाह्य आक्रांताओं द्वारा इस देश पर अपना शासन स्थापित कर लेने के पश्चात यहां का जनजीवन अस्त-व्यस्त व आशंका का वातावरण व्याप्त हो गया था। ऐसे विषम परिस्थितियों में भक्त और देशवासियों के दुखद हृदय से कुसंगति से बचने के लिए भारतीय जनता ने परमात्मा से रक्षा की गुहार की।
हे सन्त प्यार के दीप जगत में नूर फैलाते हैं।
सदा चली आई है रीत, सभी को गले लगाते हैं।।
"भक्त और भगवान एक ही है।"
इस वाक्य को चरितार्थ करने हेतु भगवान स्वयं भक्तों के रूप में धरती पर अवतरित होकर धर्म, समाज तथा देश की रक्षा करते हैं, इसी विषय के कारक कोटि महापुरुष भगवत प्रेरणा से धर्म की रक्षा हेतु मरुधर प्रान्त मारवाड़ में अवतरित हुए। वाणी में कहा भी है-
"जम जालम के तापसे, हंसा करी पुकार।
सुखियां साहिब आविया, ले जन की अवतार ।।"
उपर्युक्त साखी के अनुसार स्वयं भगवान विभूति रूप में अनन्त विभूषित श्री दरियावजी महाराज अवतरित हुए, अपने धर्म और आस्था के प्रभाव से लाखों लोगों को आत्मज्ञान देकर 'राम' शब्द (नाद ब्रह्म) उपासना के माध्यम से कृतार्थ किया। श्री दरियावजी महाराज के भक्ति का प्रभाव सूर्य के प्रकाश की तरह पूरे विश्व में फैलने लगा। महाराजश्री की अनुठी साधना से राजा-महाराजा भी इनकी शिष्यता स्वीकार कर शरण में आकर शान्ति की अनुभूति करने लगे।
प्रकट भये दरिया सा दाता, जान कलयुग में व्याख्ता।
भरतखण्ड मरूधर की माही, देश एक जैतारण जाही
जन्म धर अवनि पर आये, गगन सूं पुष्पन झलाये द्वारिका नगरी में कमल में खिलाकर,पधारे हमारे दरिया सा दाता
पण्डित देख पुराण को सकल समझाय राजा,
परजा, बादशाह, नीवै पैगम्बर आय धरेणा चरणो में माथा
ऐसे विषम परिस्थिति में रामस्नेही संप्रदाय के प्रवर्तक अनन्त श्री विभूषित श्री दरियावजी महाराज के प्राकट्य वि. स. 1733 कृष्ण जन्माष्टी के दिन द्वारकापूरी (गुजरात) के द्वारका सागर में कमल के पुष्प पर हुआ। दरियाव से प्राप्त होने के कारण आचार्य श्री को दरियाव नाम से पुकारा जाने लगा।
पौराणिक गाथाओं से पता चलता है कि महापुरुषों का जन्म प्रायः रहस्यमय व दिव्य ढंग से होता है। असाधारण परिस्थिति में ही असाधारण महामानव जन्म लेते हैं।
एक बात यह भी सत्य है कि भक्त और भगवान सदा अजन्मा ही होते हैं। भले ही इनका अवतरण किन्ही परिस्थिति में कैसे ही हो। शिशुकाल जैतारण (राजस्थान) में व्यतीत हुआ। लालन-पालन माँ गीगाबाई तथा पिता मनसारामजी ने किया। पिता के मृत्यु के बाद दरियाव साहब रेण में अपेन नाना किशनचंद्रजी खत्री के यहाँ आये।
आये हो ब्रह्म लोक दरिया सा महाराज दरिया तूम हो दीन बन्धु हीतकारी, मैं दुखिया शरण तिहारी।
काटो जन्म मरण के फेरे रेण धाम के दरिया मेरे ।।
दरियाव महाराज के प्राकट्य के समय देश में बहु देवोपासना, कर्मकांड की कठोरता, आर्थिक विषमता, ऊँच नीच के भेदभाव आदि अनेक प्रकार के उत्पीड़न चरम सीमा पर पहुंचे हुए थे। तभी बाहरी आक्रमक कारियों ने यहां के राजाओं की फूट का लाभ उठाकर अपना शासन पूर्ण रूप से स्थापित किया और प्रजा काधर्म परिवर्तन करना प्रारंभ कर दिया।
जन्म मरण सू रहित है, खण्डे नहीं अखण्ड।
जन दरिया भजराम जी, जिन्हा रची ब्रह्माण्ड ।।
संक्रामक काल की इसी स्थिति में निराश उत्पीडित, शोषित, कर्तव्य-विमूढ एवं दिशाविहिन भारतीय जनता का श्री दरियावजी महाराज ने पथ प्रदर्शन किया, क्योंकि लोगों को असहाय और दुःखी देखकर सच्चे साधु का हृदय द्रवित हो जाता है। द्रवणशीलता के कारण ही सच्चासाधु अपनी व्यक्तिगत
साधना की अपेक्षा लोक कल्याण को अधिक महत्व देता है। अपने इसी उच्चकोटी के साधु स्वभाव के कारण ही श्री दरियावजी महाराज ने आतंकित व संत्रस्त भारतीय जनता को जीवन में सुख और शान्ति प्राप्त करने के लिये तथा मानव जीवन को सार्थक बनाने के उद्देश से रामभक्ति (भगवद्भक्ति) की महिमा बताई। जन भावना का आदर करके ही सगुण ब्रह्म को माता तथा निर्गुण ब्रह्म पिता के रूप में स्वीकार कर समन्वयवादी उदार दृष्टि कोण अपनाया है।
भागवत, संस्कृत, गीता, वेद धुन निस वासर करता।
हिन्दी पारसी न्यारी, विद्या पद हिरदा में धारी ।।
आचार्य श्री दरियावजी महाराज थोड़े ही समय में काशी निवास कर व्याकरण, वेद, गीता, उपनिषद एवं सभी दर्शन शास्त्रों का अध्ययन किया। एक दिन आचार्य श्री नित्यनियम के अनुसार श्रीमद् भागवत व उपनिषदों का पाठ कर रहे थे। "रहुगणैः तत्तपसाः" आदि।
तभी उनकी दृष्टि गुरु-महिमा विषय पर अटक कर रह गई। उन्हें उसी समय सद्गुरु बनाने की प्रेरणा प्राप्त हुई। जैसा कि नियम है- अन्तर्यामी भगवान सत्य-संकल्प को अवश्य पूरा करते हैं-वह पुरा हुआ। महाराज श्री की स्थिति गुरु के वियोग में विरहिणी जैसी हो चुकी थी। वे घंटो बैठकर सतगुरु का चिन्तन करते थे। वे सोचते रहते थे कि कब भगवत प्राप्त पुरुष क्षोत्रिय ब्रह्मनिष्ठा महापुरुष मिलेंगे ?
गगन गिरा वाणी भई, बोल्या श्री भगवान।
प्रेम पुरुष मिलसी अब तोकूँ कहो हमारो मान ।।
अतः भगवान की प्रेरणा से प्रेमदासजी महाराज वि. सं. 1769 में भिक्षाटन करते हुए महाराज श्री के निवास स्थान पर पधारे। उन्होंने दरियाव महाराज के द्वार पर आकर बड़े घोष के साथ 'राम' कहा। राम की रहस्यमयी ध्वनि दरियाव महाराज के श्रवणों से होती हुई अन्दर तक प्रविष्ट हो गई। शीघ्र ही दरियाव महाप्रभू घर से निकलकर प्रेमदासजी महाराज के चरणों में गिर गए औरआत्म निवेदन किया। सन्तों का तो यह स्वभाव ही होता कि वे जिज्ञासु व प्रणव जनों को अपनाते है। वि. सं. 1769 कार्तिक शुक्ला एकादशी के दिन प्रेमदासजी महाराज ने दरियावजी महाराज का 'राम' नाम का तारक मंत्र प्रदान कर शिष्यत्व प्रदान किया।
सतगुरु दीन दयाल के, चरण नवायो शीश। प्रेमदास प्रसन्न भए, सुण रामस्नेही ईश ।। भेख तुम्हारा चालसी, सुन रामस्नेही बात। रामस्नेही धर्म के, होंगे तुम सिरताज ।।
"दरिया सतगुरु भेंटिया जा दिन जन्म सनाथ,
श्रवणा शब्द सुनायके, मस्तक दीना हाथ।"
सतगुरु के उपदेशानुसार श्री दरियाव महाप्रभु अखंड ब्रह्मचर्य व्रत धारण कर सूरत शब्द योग से राम भजन करने लगे। इस प्रकार महाप्रभू कंठ, हृदय, नाभि, मुलाधार, बंक, मेरू, त्रिकुटी, दशावाँद्दार, शुन्य व महाशुन्य से परे जीवाभास को हटाकर कैवल्य ज्ञान को प्राप्त हुए।
दरिया सुमिरै राम को, आठ पहर आराध।
रसना मैं रस उपजे, मिश्री जैसा स्वाद ।।
आचार्य श्री दरियावजी महाराज के यों तो हजारों शिष्य थे किन्तु इनमें ज्ञानी-ध्यानी शिरू 72 ही थे, 9 शिष्याएं भी प्रधान थी। आचार्य श्री के प्रायः सभी शिष्य महान व्यक्तित्व वाले, पराक्रमी, चमत्कारी तथा उन जैसी ही श्रद्धा व भक्ति से सम्पन्न थे। महाराज श्री अपने शिष्यों पर सदैव कड़ी दृष्टि रखते थे तथा कड़ाई से नियमों का पालन कराया करते थे। वे सदैव उन्हें आदर्शा, सत्य आचरण पर चलने के लिए प्रेरित करते रहते थे। उनके द्वारा बताए गए कुछ नियम इस प्रकार हैं:-
अहिंसा, ब्रह्मचर्य, शुद्ध आचरण, अक्रोध, दृष्ट-संग त्याग, सर्व दुर्व्यस्न त्याग, निर्गुण राम, आत्मानुसंधान, सुरत शब्द योग, गमनागमन, लोकों से परे केवल ब्रह्म आदि। वे इनका उपदेश करते थे। इस प्रकार आचार्य श्री के इन उपदेशों से हजारों नर-नारियों का कल्याण हुआ।
तत्व निष्ठ तथा धर्म रक्षक स्वभाव ।।
जन दरिया सतगुरु मिला, कोई पुरूवले पुन्न ।।
जड़ पलट चेतन किया, आन मिल्या सुन्न ।।
श्री दरियावजी महाराज के अनेक शिष्यों में गुरु कृपा पात्र 8 शिष्य प्रधान माने जाते है। वे है-
श्री पूरणदासजी, श्री किशनदासजी, श्री सुखरामदासजी, श्री नानकदासजी, श्री हरकारामजी, श्री टेमदासजी, श्री बृजभानजी, श्री उदयरामजी।
दरिया तपस्या कृत ईटे रामनाम की है सार।
जो आज भी तैरती है, लाखा सागर में सदाबहार ।।
आचार्य श्री की वाणियों की संख्या लगभग एक लाख थी। महाराजश्री द्वारा दिव्य वाणी से भरे हुए दिव्य लोकोपकारी संदेशों को किसी विषम परिस्थिति में लाखासागर में प्रवाहित किए जाने से शिष्य समुदाय को अपार कष्ट हुआ। उनके जीवन-चरित्र को लिखने के लिए उनके शिष्यों को जितनी वाणियाँ कण्ठस्थ रही उन्हीं के आधार पर सामग्री संकलित कर उन्होंने जनकल्याण के लिए लिपिबद्ध कर लिया। अनकी संख्या साखी शब्दों में अनुष्टुप श्लोक परिमाण से लगभग 700 है।
संसार में संयोग-वियोग का चक्र तो अनादिकाल से चला आ रहा है। प्रकृति के नियम सबके लिए एक से है। शरीर सबका नारायण है। परन्तु महापुरुषों की पुनीत वाणी जनकल्याणार्थ अजर-अमर होती है। वाणी ही महापुरुषों की अमर श्री विग्रह है। जैसे श्रीमद् भागवत और गीता स्वयं कृष्ण सशरीर है।
महान विभूतियों का अवतरण जिस उद्देश्य से धराधाम पर होता है। उसकी पूर्ति होने पर वे ऐहिलौकिक लीला संवरण कर लेते है। ऐसे ही महापुरुषों की श्रेणी में श्री दरियावजी महाराज अग्रगण्य है। आचार्य श्री की सभी शिष्य मण्डली उनकी सेवा में उपस्थित थी। उनके अन्तिम सारगर्भित प्रवचन उनके महाप्रयाण की सूचना दे रहे थे।
"कुण जाणे दरद हमारा, म्हारा बिछड्या रामप्यारा।
जन दरिया धाम सिधारा म्हारा नैन उमड़ भर आया ।।
वि. सं. 1815 मार्गशीर्ष की पूर्णिमा की सवा पहर रात बितने पर महाराज श्री ध्यान मुद्रा में स्थित हो गए। एक बार तो शिष्य समुदाय के करूण क्रदन से आकाश भर गया किन्तु दूसरे ही क्षण आचार्य श्री के उपदेश से सान्त्वना पाकर नाम जप करने लगे। आचार्य श्री ने इस परम पावन वसुन्धरा पर 82 वर्ष तीन मास व इक्कीस दिन, राम नाम भक्ति का महाकल्पवृक्ष लगाकर बाइसवें दिन सवा पहर रजनी बीतने पर ध्यान मुद्रा में स्थित होकर इस भौतिक शरीर का त्याग कर दिया और कैवल्य धाम प्राप्त किया :-
दाता गुरु दरियाव सही, गुरुदेव हमारा।
राम राम सुमिराय, पतित को पार उतारा।
राम नाम सुमिरण दिया, दिया भक्ति हरी भाव,
आठ पहर बिसरो मती, यो कहै गुरु दरियाव ।।
महाराज श्री के जीवन की घटनाएँ ऐ से एक बदकर व लोकोपकारी है।
भक्तों और महात्माओं का अवतार तो जनकल्याण के लिए ही होता है। जिन महापुरुषों ने मानव-धर्म की सुखी जड़ों को हरा किया उनमें आचार्य श्री का विशेष स्थान है। मारवाड़ देश में धर्म संकट के समय विचलित हिन्दू समाज को धीरज बँधाकर तथा लाखों हिन्दुओं को विधर्मियों के पंजों से छुड़ाकर स्वधर्म में स्थिर करने का महान कार्य महाप्रभू दरियाव महाराज के द्वारा सम्पन्न हुआ। वे जीवन पर्यन्त भगवद् भक्ति का प्रचार करते रहे और रामस्नेही धर्म के मूलाचार्य बन कर डूबते हुए स्वधर्म रूपी जहाज के केवट बन गए।
आचार्य महाप्रभु के पश्चात जो भी आचार्य हुए, वे सभी बड़े वीतरागी, भजनानंदी, निष्ठावान, विद्वान व कार्यकुशल महापुरुष हुए। जिनमें श्री हरकारामजी महाराज, श्री रामकरणजी महाराज, श्री भगवतदासजी महाराज, श्री रामगोपालजी महाराज, श्री क्षमाराजी महाराज, श्री बलरामदासजी महाराज
,श्री प. पू. हरिनारायणजी महाराज
तथा विद्यमान पीठाधीश श्री सज्जनरामजी महाराज।
लाखो लाव सीर सागर, त्रिवेणी समान है।
याही में अडसठ तीरथ, अठारह पुराण है।।
रामधाम रेण में जनकल्याणार्थ गतिविधियाँ चलती रही है। यह धाम लाखासागर नामक तालाब के किनारे बसा हुआ है। श्री दरियावजी महाराज की वाणीजी की लाख साखियाँ जल में विसर्जित करदी गई थी। एक लाख वाणी विसर्जन के कारण उक्त सरोवर का नाम 'लाखासागर' पड़ा था। रामस्नेही भक्त इन सरोवर के जल का गंगा जल की भांति रोज प्राशन करते है, जो अत्यंत पवित्र एवं शुद्ध है। इसे गंगा जल से भी बढ़ कर परम पवित्र त्रितापहारी तीर्थ भक्तगण मानते हैं:
दरिया जैसी तुम करि वैसा, करि ना कोई नाम अमीरस मोह दियो, तीन लोक को बीज ।
इतना नाम जपो; इतना नाम जपो।की जपने की हद कर दो,
इतने सबल बन जाओ कि स्वयं यमराज के पन्ने भी रद कर दो ।।
इस प्रकार दरियावजी महाराज ने अवतार लेकर भारतवर्ष की जनता को रामनाम की महिमा का गुणगान कराया सभी भक्तों को इस अथाह भवसागर से पार उतरने की विधि बताई है। श्री दरियावजी महाराज ने अपने जीवन को राममय बनाकर तथा सभी शिष्यों को अपनी सखियों से तथा अपनी दिव्य वाणियों से सभी का जीवन धन्य कर दिया। दरियाव धाम को रामस्नेहीयों का उद्गम स्थल माना गया। सभी लोग रेणधाम और दरियावजी महाराज की ओर आकृर्षित होने लगे।