Thursday 7 July 2016

श्री दरियावजी महाराज का अथ श्री भेष का अंग :-

-:  श्री दरियावजी महाराज का अथ श्री भेष का अंग :-          
 दरिया काटी भेष सब, भीतर धात न प्रेम ! 
कली लगावै कपट की,नाम धरावै हेम (१) 
दरिया काँचे दूध का, बानो सो बन जाय !
दूध फाट काँजी भई, तहं गुन कहाँ समाय (२)
दरिया काँजी भेष है, फाड़े काँचा दूध ! 
अड़ंग बड़ंग कर आत्मा, मेटै साँची सूध (३)
 बाहर बाटै बहत है, दरिया जगत औ भेष ! 
 तू बहता संग मत बहै, रहता साहब देख (४)
दरिया बिल्ली गुरू किया, उज्जल बगु को देख ! 
जैसे को तैसा मिला, ऐसा जगत और भेष (५)
चौकी बैठी काल की, दरिया कलु के भेष ! 
इन सबही को पूठ दे, सनमुख साहिब देख(६)
दरिया संगत भेष की, हुई मिटावे साँट !
 परदा घालैे राम बिच, करदे बारह बाट (७) 
 दरिया स्वाँगी भेष का, आगा पाछा अंग ! 
 जैसे कपड़ा पास बिन, लागत नाहीं रंग (८)
दरिया संगी साध का, अंतर प्रेम प्रकास ! 
राम भजे साँचे मते, दूजे धुंध निकास (९)
प्रथम हम   यों जानते, स्वाँग धरैे सो साध ! 
सतगुरू से परचा भया, दीसे मोटा विराध (१०)
दरिया संगी स्वाँग का, जा का विकल सरीर ! 
मतलब देखै आप का, नहीं जानै पर पीर (११) 
दरिया साध और स्वाँग का, क्रोड. कोस का बीच ! 
राम रता साँचा मता, स्वाँग काल की कीच (१२)
दरिया परसै साध को, तो उपजै साँची सीख ! 
जो कोई परसै भेष को, ताहि मंगावै भीख (१३)
साध स्वाँग में आँतरा,जैसा दिवस औ रात ! 
इनके आसा जगत की, उनको राम सुहात (१४)
साध स्वाँग अस आँतरा,जेता झूठ और साँच !
 मोती मोती फेर बहु, इक कंचन इक काँच (१५)
  साध स्वाँग अस आँतरा, जम कामी नि:काम ! 
  भेष रता ते भीख में, नाम रता ते राम (१६)
भेष बिजूका नाम का, कायर को डरपाय ! 
दरिया सिंहा ना डरेै, जहाँ नाम तहँ जाय (१७) 
भेष बिजूका नाम का, देखत डरै कुरंग !
दरिया सिंहा ना डरै, भीतर निर्भय अंग (१८)
तन पर भेष बनाय के, मकर पकड. भया सूर ! 
संग लगाया लग रहेै, दूर किया होय दूर (१९) 
दरिया ऐषा भेष है, जैसा अड़वा खेत ! 
बाहर चेतन की रहन, भीतर जड्ड अचेत (२०)
स्वाँग कहै मैं पेट भराऊँ, डहकाऊँ संसार ! 
राम नाम जाने बिना, बोरूं काली धार (२१) 
दरिया सब जग आँधरा, सूझ न काज अकाज ! 
भेष रता अंधा सबै, अंधाई का राज (२२)
माला फेरे क्या भया, मन फाटेै कर भार ! 
दरिया मन को फेरिये, जामें बसे विकार (२३) 
जो मन फेरै राम दिस, कल विष नासै धोय ! 
दरिया माला फेरते, लोग दिखावा होय (२४)
कंठी माला काठ की, तिलक गार का होय ! 
जन दरिया निज नाम बिन, पार न पहुँचैे कोय (२५)
  पाँच सात साखी कही, पद गाया दस दोय ! 
  दरिया कारज ना सरै, पेट भराई होय (२६)
  साँख जोग पपील गति, विघन पडे़ बहु आय !
   बावल लागेै गिर पड़े, मंजिल न पहुँचेै जाय (२७) 
   भक्ति सार बिहंग गति, जहँ इच्छा तहँ जाय ! 
   श्री सतगुरू रक्षा तरे, विघन न व्यापै ताय (२८) 

-: इति श्री दरियावजी महाराज का भेष का अंग संपूर्ण:-



























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