Tuesday, 24 December 2024

है कोई संत राम अनुरागी। जाकी सुरत साहब से लागी।

है कोई संत राम अनुरागी। जाकी सुरत साहब से लागी।
अरस परश पिवके रंग राती, होय रही पतिब्रता!!१!!
दुतुयां भाव कछु नहीं समझै, ज्यों समुंद समानी सलिता!!२!!
मीन जाय कर समुंद समानी, जहं देखै जहं पानी। 
काल कीर का जाल न पहुंचै, निर्भय ठौर लुभानी!!३!!
बांवन चंदन भौंरा पहुंचा,जहं बैठे तहं गंदा। 
उड़ना छोड़ के थिर हो बैठा, निश दिन करत अनंदा!!४!!
जन दरिया इक राम भजन कर, भरम बासना खोई। 
पारस परस भया लोहू कंचन, बहुर न लोहा होई!!५!!



यह पद संत दरियाव जी द्वारा राम भक्ति पर केंद्रित एक आध्यात्मिक और प्रेरणादायक भजन है। इसका अर्थ इस प्रकार है:

1 .राम अनुरागी सन्त साधक वह होते हैं, जिनका मन भगवान (राम) के प्रति अनुरक्त हो। उनकी दृष्टि हमेशा ईश्वर की ओर लगी रहती है। वे संसार के मोह से परे होकर, परमात्मा की प्रेममय सुरत में डूबे रहते हैं। यह अवस्था पतिव्रता नारी की भांति होती है, जो अपने पति के अलावा किसी और की ओर ध्यान नहीं देती।

2.
ऐसे संत द्वैत (दुतुयां) का विचार नहीं रखते, अर्थात दो के भाव को नहीं मानते। वे आत्मा और परमात्मा को एक मानते हैं, जैसे नदी समुंदर में मिलकर अपनी अलग पहचान खो देती है।

3.
जैसे मछली पानी के बिना नहीं रह सकती और जहां भी पानी देखती है, वहीं जीवन पाती है। उसी प्रकार संत राम भक्ति में डूबे रहते हैं। उनकी आत्मा काल के भय से मुक्त होती है और उन्हें निर्भय, मोह-मुक्त स्थान मिलता है।

4.
जैसे भौंरा चंदन पर पहुंचकर उसकी सुगंध में लीन हो जाता है और उड़ना छोड़ स्थिर हो जाता है। वह वहीं बैठकर आनंद अनुभव करता है। संत भी राम भक्ति में लीन होकर इस आनंदमय स्थिति को प्राप्त करते हैं।

5.
दरियाव जी महाराज कहते की एक राम जी का भजन सुमिरन कर  अपनी सभी भ्रमित वासनाओं को समाप्त कर देता है। जैसे लोहे को पारस के स्पर्श से सोना बना दिया जाता है, और वह फिर कभी लोहा नहीं बनता। इसी प्रकार साधक राम भक्ति में लीन होकर अपने सांसारिक स्वरूप को त्याग देते हैं और दिव्यता को प्राप्त कर लेते हैं।

यह भजन भक्ति और ईश्वर की आराधना का महत्व दर्शाता है।

अमृत नीका कहै सब कोई, पीये बिना अमर नही होई!!

अमृत नीका कहै सब कोई, पीये बिना अमर नही होई!!१!!
कोई कहै अमृत बसै पाताला, नाग लोग क्यों ग्रासै काला!!२!!
कोई कहै अमृत समुद्र मांहि, बड़वा अगिन क्यों सोखत तांहि!!३!!
कोई कहै अमृत शशि में बासा, घटै बढै़ क्यों होइ है नाशा!!४!!
कोई कहै अमृत सुरंगा मांहि, देव पियें क्यों खिर खिर जांहि!!५!!
सब अमृत बातों की बाता, अमृत है संतन के साथा!!६!!
'दरिया' अमृत नाम अनंता, जा को पी-पी अमर भये संता!!७!!


यह रचना संत दरिया साहब की वाणी है, जिसमें अमृत के विभिन्न संदर्भों के माध्यम से वह आध्यात्मिक अमृत का महत्व समझा रहे हैं।

भावार्थ:

1. पहला दोहा
अमृत के बारे में सब कहते हैं कि वह बहुत उत्तम है, लेकिन वास्तविकता यह है कि उसे पीने (अंतर में अनुभव करने) के बिना अमरता नहीं मिल सकती।


2. दूसरा दोहा
कुछ लोग कहते हैं कि अमृत पाताल में है, लेकिन यदि ऐसा है तो नागलोक में काल (मृत्यु) क्यों व्याप्त है?


3. तीसरा दोहा
कुछ कहते हैं कि अमृत समुद्र में है, पर यदि ऐसा होता तो समुद्र की बड़वा अग्नि उसे क्यों सोख लेती?


4. चौथा दोहा
कुछ मानते हैं कि अमृत चंद्रमा में है, लेकिन चंद्रमा घटता-बढ़ता है और उसका भी नाश हो जाता है, फिर वह अमरत्व कैसे देगा?


5. पांचवा दोहा
कुछ लोग कहते हैं कि अमृत स्वर्ग (देवलोक) में है और देवता उसे पीते हैं, परंतु देवताओं को भी खीर-खीर (क्षीण होकर) मृत्यु का सामना करना पड़ता है।


6. छठा दोहा
दरअसल, इन सब बातों में वास्तविकता नहीं है। असली अमृत वह है, जो संतों के साथ है, अर्थात संतों की वाणी और उनका ज्ञान ही असली अमृत है।


7. सातवां दोहा
संत दरिया कहते हैं कि यह अमृत परमात्मा का अनंत नाम है। इसे पी-पीकर (स्मरण और अनुभव करके) संत अमर हो गए हैं।



सार:

यह वाणी बताती है कि भौतिक जगत में जिस अमृत की चर्चा होती है, वह मिथ्या है। असली अमृत आत्मा के लिए ईश्वर का नाम और उसका सच्चा ज्ञान है, जो मृत्यु से परे अमरत्व प्रदान करता है। यह संतों की संगति और साधना से ही प्राप्त होता है।


कहा कहूं मेरे पिउ की बात

कहा कहूं मेरे पिउ की बात, जोरे कहूं सोई अंग सुहात!!
जब में रही थी कन्या क्वारी,तब मेरे करम होता सिर भारी!!१!!
जब मेरी पिउ से मनसा दौड़ी, सत गुरू आन सगाई जोड़ी!!२!!
तब मै पिउ का मंगल गाया, जब मेरा स्वामी ब्याहन आया!!३!!
हथलेवा दे बैठी संगा, तब मोहिं लीनी बांये अंगा!!४!!
जन 'दरिया' कहै मिट गई दूती, आपो अरप पीव संग सूती!!



यह काव्य रचना संत दरिया साहब की वाणी से है, जो उनके भक्ति और समर्पण के भाव को दर्शाती है। इसमें एक साधक द्वारा अपने आत्मिक अनुभव और परमात्मा के प्रति पूर्ण समर्पण को सुंदर रूप में व्यक्त किया गया है।

भावार्थ:

1. पहला दोहा
साधक कहता है कि अपने परमात्मा (पिउ - प्रियतम) की बात को मैं कैसे कहूं? जब भी उसकी चर्चा करता हूं, वह मुझे और प्रिय लगता है।


2. दूसरा दोहा
जब मैं इस संसार में अनजानी (कन्या, अज्ञान अवस्था) थी, तब मेरे कर्मों का बोझ मेरे सिर पर था। लेकिन जब मेरे मन ने अपने परमात्मा से जुड़ने की चाह की, तो सतगुरु ने मुझे उनसे मिलाने का मार्ग दिखाया।


3. तीसरा दोहा
जब मेरा परमात्मा मेरे जीवन में आया (आध्यात्मिक ज्ञान का प्रकाश हुआ), तब मैंने उसके गुण गाने शुरू किए। यह आत्मा और परमात्मा का मिलन (ब्याह) था।


4. चौथा दोहा
परमात्मा ने जब मुझे अपना बनाया, तो उसने मुझे अपने संग ले लिया। उसने मुझे अपनाकर अपने दिव्य प्रेम में समर्पित कर दिया।


5. पांचवा दोहा
संत दरिया कहते हैं कि अब मेरे भीतर द्वैत का भाव समाप्त हो गया है। मैं अपने आप को पूरी तरह से परमात्मा को अर्पित कर चुकी हूं और उन्हीं में लीन हो गई हूं।

यह रचना एकता, समर्पण और ईश्वर के प्रति प्रेम का अद्भुत चित्रण है।

Thursday, 21 November 2024

संत दरियावजी महाराज का संक्षिप्त जीवन परिचय


संत दरियावजी का जीवन परिचय

जन्म: 1676 ई., द्वारिका पुरी

गुरु: प्रेमदास जी महाराज


संत दरियावजी अपने समय के महान संत, समाज सुधारक और राम भक्ति के प्रचारक थे। उन्होंने कठोर साधना और ज्ञान प्राप्ति के बाद अपने विचारों का प्रचार किया। उनके उपदेश सरल, गहन और मानवता के लिए प्रेरणादायक हैं।


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संत दरियावजी की शिक्षाएं और विचार

1. गुरु का महत्व

उन्होंने गुरु को सर्वोच्च देवता बताया और कहा कि गुरु भक्ति के माध्यम से ही मोक्ष प्राप्त किया जा सकता है।

गुरु की भक्ति और शिक्षाओं पर अमल करना आवश्यक है।


2. राम नाम की महिमा

राम के नाम का जप मोक्ष प्राप्ति का सर्वोत्तम साधन है।

उन्होंने राम शब्द को हिंदू-मुस्लिम एकता का प्रतीक बताया:

"रा" – भगवान राम का प्रतीक।

"म" – पैगंबर मुहम्मद का प्रतीक।



3. गृहस्थ जीवन और मोक्ष

उन्होंने कहा कि मोक्ष प्राप्त करने के लिए गृहस्थ जीवन छोड़ने की आवश्यकता नहीं है।

कपट रहित साधना और राम नाम के जप से गृहस्थ व्यक्ति भी ब्रह्म में लीन हो सकता है।


4. सामाजिक आडंबर और अंधविश्वास का विरोध

संत दरियावजी ने तीर्थ यात्रा, व्रत, उपवास, और मूर्ति पूजा को मोक्ष प्राप्ति के लिए अनावश्यक बताया।

उनका मानना था कि ब्रह्म की प्राप्ति कर्मकांडों से नहीं, बल्कि सच्ची भक्ति और साधना से होती है।

उन्होंने वर्ण व्यवस्था, धार्मिक पाखंड और इंद्रिय सुखों की आलोचना की।


5. राम नाम और ब्रह्मलीनता

उन्होंने राम नाम का निरंतर जप करने और साधना के माध्यम से ब्रह्म में लीन होने का मार्ग बताया।

उनका दृष्टिकोण यह था कि व्यक्ति को सभी सांसारिक भ्रमों से मुक्त होकर आत्मज्ञान प्राप्त करना चाहिए।



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संत दरियावजी का समाज सुधार में योगदान

उन्होंने समाज में व्याप्त रूढ़ियों, धार्मिक पाखंड, और अंधविश्वासों का खुलकर विरोध किया।

उनका उद्देश्य मानवता को एकजुट करना और सच्चे ईश्वर की ओर प्रेरित करना था।

उनके विचारों में समानता, सरलता, और भक्ति का संदेश है।



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निष्कर्ष

संत दरियावजी महाराज ने अपने जीवन और उपदेशों के माध्यम से भक्ति, मानवता, और धर्म का सच्चा मार्ग दिखाया। उन्होंने राम भक्ति और गुरु महिमा का प्रचार करते हुए समाज में एकता, समानता और सच्चाई की भावना जगाई। उनकी शिक्षाएं आज भी प्रासंगिक हैं और मानवता को सही दिशा प्रदान करती हैं।


श्री दरियाव वाणी

दरियाव वाणी संत दरियाव जी द्वारा रचित एक प्रसिद्ध आध्यात्मिक साहित्य है। संत दरियाव जी 17वीं शताब्दी के संत-कवि और निर्गुण भक्ति परंपरा के प्रचारक थे। उनका मुख्य उद्देश्य समाज में व्याप्त अंधविश्वास, पाखंड, और सामाजिक बुराइयों को दूर करना और भक्ति के सरल और सच्चे मार्ग को दिखाना था।

दरियाव वाणी में उनकी शिक्षाओं, उपदेशों, और कविताओं का संग्रह है। इसमें आध्यात्मिक ज्ञान, ईश्वर के प्रति भक्ति, सत्य, और मानवता के मार्ग पर चलने का संदेश मिलता है।


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दरियाव वाणी का मुख्य संदेश

1. निर्गुण भक्ति

संत दरियाव जी निर्गुण ईश्वर के उपासक थे। उनका मानना था कि ईश्वर निराकार और सर्वव्यापक है।

उन्होंने मूर्तिपूजा और बाहरी आडंबरों का विरोध किया।



2. सत्य और साधगी

जीवन में सच्चाई और साधगी अपनाने का उपदेश दिया।

उन्होंने कहा कि सत्य ही परम धर्म है, और इसका पालन करने से ही मुक्ति संभव है।



3. भ्रांतियों और अंधविश्वास का विरोध

उन्होंने जाति-पांति, धार्मिक पाखंड और दिखावे का खंडन किया।

उनकी वाणी में समाज को समानता और भाईचारे का संदेश दिया गया।



4. अध्यात्म और आत्मा का ज्ञान

उन्होंने आत्मा को सर्वोच्च बताया और इसे शुद्ध करने के लिए ध्यान और साधना पर जोर दिया।

आत्मा और परमात्मा के मिलन को ही जीवन का अंतिम लक्ष्य बताया।



5. प्रेम और करुणा

उनकी वाणी प्रेम, दया, और करुणा के महत्व को समझाती है।

उन्होंने मानवता को धर्म से ऊपर रखा।





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दरियाव वाणी का महत्व

यह वाणी भारतीय संत परंपरा की समृद्ध धरोहर है।

समाज सुधार और आध्यात्मिक जागृति के लिए इसे एक महत्वपूर्ण ग्रंथ माना जाता है।

इसकी रचनाएं सरल और प्रभावशाली हैं, जो हर वर्ग के व्यक्ति के लिए समझने योग्य हैं।



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निष्कर्ष

दरियाव वाणी मानवता, सत्य, और आध्यात्मिकता का प्रतीक है। यह हमें सिखाती है कि जीवन में ईश्वर को पाने के लिए सच्चाई, साधगी, और प्रेम का मार्ग अपनाना चाहिए। संत दरियाव जी का यह साहित्य आज भी समाज को सही दिशा दिखाने और आध्यात्मिक विकास में सहायक है।

Friday, 31 May 2024

अनन्त श्री स्वामीजी प्रेमदासजी •• महाराज की अनुभव गिरा •• भाग-2

कोइज पीवे प्रेमरस, जपे अजप्पा जाप । 
पीवेजो सेवक प्रेमदास, जन सन्तदास परताप ।।

दुष्ट अभागीजीव के, राम न आवे दाय। 
ये भी सच्चा प्रेमजी (खर), मिश्रीसे मर जाय۱۱

रामनाम मुख से कहे, सिकल विकल होय मन । 
स्वाद न आवे प्रेमजी, कोरो चाब्या अन्न 

कोरो काचो चाब के, उपर पीवे पाणि। 
दुहागण पर प्रेमजी, है राजा की राणि।।

बाहर क्या दिखलाइये, जो अन्दर पाया। 
मन में राजी प्रेमजी, गुंगे गुल खाया।।

प्रेम गुपत्ता नाम जप, बाहर बके बलाय । 
उपर डाला बिजको, जीव जन्तु चुग जाय।।

निंदा नहीं निनाण है, सो सुण जाणो कोय। 
खेत निन्दाणा प्रेमजी, सिट्टा मोटा होय।।

हंसा तो मोती चुगे, सर्व विलासी काग। 
प्रेम रता रिह नाम से, त्याग जीसा वैराग।।

जैसे श्वास सुनारकी, दे एक सरीखी फूंक।
 इसो भजन कर प्रेमजी, मिलसी राम अचुक।।

राम नाम की प्रेमजी, मोडी पडी परख । 
आराध्य सु आवीया, ज्यू डाकण के जरख्ख।।

प्रेम सिपाही नाम का, तत बांधी तलवार। 
कनक कामिनी जीत के, मुजरो है महाराज।।

अलख शब्द कोई जन लखे, ता बिच भेद अथाह ।
 बचती है एक प्रेमदास, काया बिच कथाह।।

प्रेम बकण दे जगत क, तु काहे बोले ।
 माटी केरा ढगळ सु, सोना क्यो तोले।।

निद्रा आई प्रेमजी, सोटा माऱ्या दोय।
 राम भजन की भीड है, जाय शहर में सोय।।

जोगी जंगम सेवडा, शेख सन्यासी स्वांग । 
समझे क्यो कर प्रेमजी, जब कुए पड गई भांग।।

तस्कर को देख्या नही, नही तस्कर पाया। 
बिन देख्याही प्रेमजी, कुत्ता बोबाया।।

प्रेमदास कहता नही, कहता है ओरे। 
ज्यु तुंबा दरियावमे, उबकत है जोरे।।

गंगा गया न गोमती, पढ्यान वेद पुराण । 
भोले भाले प्रेमजी पद पाया निर्वाण।।


।। चौपाई ।।

बैरागी सो मन बैरागी, आशा तृष्णा सब को त्यागी।
 राम रता पर निन्दा त्यागी, प्रेम कहे सोसत बैरागी ।।

।। छंद सवैया ।।

सोहीअतीत न चिन्त रहे, रिध मांग के खाय मसान मे सोना। चोर चिकारकी भीती न लागत, हेरी जोवो घर का चहु कोना ।। और अमल्ल का त्याग करे, पुनी राम अमल्ल करे दिन दुना प्रेम कहे गजराज ज्यू घुमत, कौन लखे गत देश बिहुना ।

|| सवैया ।।

है जग मे सतसंग बडो, सतसंगत से परमेश्वर पावे। 
संगत है सुख को निधी सागर, संगत वेद पुराण मे गावे ।।
 संगत सो फळ और कछु नही, जो चावे साही बण आवे ।
 संगत की महिमा जो महातम, प्रेम कहे बरण्यो नहीं जावे ।।





अनन्त श्री स्वामीजी प्रेमदासजी •• महाराज की अनुभव गिरा ••

अनन्त श्री स्वामीजी प्रेमदासजी 
•• महाराज की अनुभव गिरा ••

।। छन्द (गगर निसाणी) ।।

प्रादुर्भाव वि. सम्वत १७१९ अगहन सुदी ९ मंगलवार दिक्षा सम्वत १७४६ चैत्र शुक्ल ८, मोक्ष सम्वत १८०६ फाल्गुन कृष्ण ७ मु. खींयासर बिकाने राजस्थान

गुरु परमात्मा नित नमो, पुनि तिहु काल के सन्त ।
जन प्रेम उमय कर वन्दना, भगवत कला अनन्त।।

राम नाम सत शब्द हमारा, रट रट राम रमावन्दा । 
राम नाम सबको सुखदाई, सुख ही सुख उपजावन्दा।।

राम नाम का निश्चय सारु, जल पर शिला तिरावन्दा ।
 राम नाम प्रल्हाद पुकारे, कंचन ताय तपावन्दा।।

राम ही देव देवरा राम ही, राम ही कथा सुनावन्दा । 
राम ही बाहर राम ही भीतर, राम ही मन परचान्दा ।।

राम ही राम रटो मेरे प्राणी, राम रतन धन लावन्दा । 
राम नाम से मन खुशीयाली, रामो राम खिलावन्दा।।

धरण गगन बिच भया उजाला, ब्रम्हअगन पर जालन्दा । 
काम क्रोध रिपुजाल सकलअघ, भागे सबही सालन्दा।।

सुख सागर हसादा आगर, मोती चून चुगावन्दा।
काग कुचाली भया मराली, क्या क्या काम कमावन्दा।।

कहता सूरा बूझे पूरा, उलटा पवन चढावन्दा।
अष्ट कवल दल चक्र फिरंदा लिव लग जोग कमावन्दा।।

सुर को फेर पवन को बन्दे, उणमुण ताली लावन्दा । 
जोगी जोग जाग जत पुरा, सुखदेव वचन सुणावन्दा।।

आसत हे नारात भी नाही, सिध आपा बिसरावन्दा । 
जोगी जाण जुगत उतकरणा, तन गढ पटा लिखावन्दा।।

सोहं सासा अजब तमाशा, अमर ज्योत दिखलावन्दा ।
 काला पिला साह सफेदी, मुंग भरण दिखलावदा।।

एसा दरसे नुरा बरसे, माहे बिज भल लावन्दा।
डण्ड सुर सुद पिछमदी घाटी, बंकनाल होय आवन्दा।।

तूं तूं करत तुम्हारा जन्तर, रुण झुण घोर लगावन्दा। 
पंग बिन निरत करे एक पातर, बिन रसना गुण गावन्दा।।

त्रिकुटी छाजे अनहद बाजे, कर बिन ताल बजावन्दा। 
पाच पचीसों मिल्या अखाडे, भर भर प्याला पावन्दा।।

मन मतवाला भया विलाला, निज पद माय समावन्दा। 
भवर गुंजालु बुठा बालु, इस विध अलख लखावन्दा।।

सुर और चंद्र मिले एक ठाई, मिलकर अमी चवावन्दा । 
ब्रम्ह कृपालु खुलीया तालु, जाप अजप्पा ध्यावन्दा।।

सुन्न शिखर गढ काया नगरी, हुकमा हुकम चलावन्दा।
 उलटी नाल उमंगे सेजा, जहाआकाश भरावन्दा।।

सुखमण गंगा खलके सेजा, गगन महल गरणावन्दा । 
परापरी अणहद के आगे, रंरकार ठहरावन्दा।।

तू ही राम निरंजन तूही, अण अक्षर दिखलावन्दा । 
तू ही मका मदीना तू ही, मुल्ला बाग सुनावन्दा।।

एको एक सकल घट भीतर, एको एक कहावन्दा । 
दोय कहे सो दो जग जासी, हुय कर भूत बिलावन्दा।।

खेचर भूचर चाचर उणमून, अगोचर ज्ञान सुनावन्दा ।
 पाचू मुद्रा आतमज्ञानी, पर बिन हंस उडावन्दा।।

मै बलीजाऊ सतगुरु चरणा जिन ये भेद बतावन्दा। 
प्रेमदास सू भया दिवाना मै बंदा उस साहिंदा।।

सतपुरुषारे भोग लागे

सतपुरुषारे भोग लागे,

शब्द अनाहद घंटा बाजे ।

प्रेम प्रीती से करी है रसोई,

अमृत भोजन पारस होई

कंचन झारी सुकृत थाळ, 

जीमन बैठे राम दयाल

पाय प्रसाद जल आचमन कीनो, 

महापरसाद दास कू दीनो

दास एक कणका भर लीनो, 

ताते काळ भयो आधीनो

कहे कबीर हम भये सनाथ, 

जब सतगुरु मस्तक धरिया हाथ।।

Wednesday, 14 February 2024

संत श्री किशनदास जी महाराज का संक्षिप्त जीवन चरित्र


संत श्री किशन दास जी महाराज का जन्म वि.सं. 1746, माघ सुद्धि बसंत पंचमी को टाँकला गाँव में हुआ था। ये टाँकला गाँव नागौर से जोधपुर रोड़ पर तीस किलोमीटर दूरी पर है। आपके पिता का नाम श्री दीसाराम जी मेघवाल तथा माता का नाम महीदेवी था। श्री किसनदास जी मं. ने अनन्त विभूषि श्रीमद् दरियाव जी मं. से गुरू दीक्षा ली थी। दीक्षा लेकर आप राम भजन में लग गये थे। वैसे तो आप एक सद्‌गृहस्थ का जीवन यापन कर रामभजन करते थे। आपने ज्यादातर साधना टाँकला से एक मील दूर अपने ही खेत में खेजड़ी के वृक्ष के नीचे की थी। आप साधना काल के बीच बीच में सद्गुरू दरियाव जी मं. का दर्शन-पर्सण करने के लिए रेण राम धाम में जाया करते थे। आपने सद्गुरू की महिमा करते हुए कहा:- 

'सतगुरू' जन दरियाव सही, मन मान्या मेरे। 

सूरवीर सत बैण, कहो कुण पूठा फेरे ।। 

निराकार आकार बिच, जन दरिया का वास। 

अगम आगोचर गम किया, देख्या किसनेदास।।" 

रामरचिया जीव आयके, चौरासी दुःख पाय। 

किसना गुरू की महर सूं., सहज मुक्त हो जाय।।" 


श्री किसनदास जी महाराज का तपतेज व साधना इतनी ऊंची स्थिति में थी कि बड़े-बड़े योगी-महापुरूष उनका दर्शन करने आते थे जैसे-गोरख नाथ जी भरतरी जी, गोपीचन्द्र जी आदि। यथा:-

"किशनदास गोरख मिल्या, बोल्या अणभै बाण।

 राम राम निशदिन रटे, निर्भय चढ़े निरबाण।। 

भरतरी तेरी कंचन बरणीदेह, मरद महबूबथा। 

नैण नासिका कान, सूरत में खूब था ।।

 सिर पर खांगी पाग, बदन मुख भलहले। 

गल मोत्यां की माल, झगा मग झलझले ।।

राज पाट राणी तजी, संतों साहिब काज। 

जन किसनदास धिन्न भरतरी, चढ़िया नाम जहाज ।।"

 इसी प्रकार मक्का के पाँच पीर श्री किसन दास जी मं. की महिमा सुनकर दर्शन करने के लिए आये थे। उस समय महाराज श्री भजन ध्यान में विराजे हुए थे तब पीर अपने चमत्कारी ढोलिये जो जमीन से पाँच - छः फिट ऊपर अधर ही चलता था। उस पर से उतर कर आसपास घूमने फिरने चले गये थे। कुछ समय पश्चात् पीर वापिस आकर महाराज श्री से मिले तथा बातचीत की। बातचीत करने के बाद जब पीर रवाना होने लगे तो पहले की तरह ढोलिया जमीन से अधर नहीं हुआ था। चमत्कारी पीरों ने अपनी चमत्कारी मंत्र शक्ति से ढोलिये को जमीन से अधर करके चलाने की खूब कोशिश की किन्तु सफल नहीं हुए और आखिर में हार कर ढोलिये को वहीं छोड़कर खाली हाथ जाना पड़ा तथा साथ ही उनके चमत्कार का घमण्ड भी चूर-चूर हो गया था। श्री किसनदास जी मं. ने ध्यानावस्था में सब जान लिया था कि पीरों ने भैरव को वश में कर रखा था। जिससे पाँचों पीर ढोलियें पर बैठ जाते और भैरव देवीशक्ति से उस पलंग (ढोलिये) को सिर पर रख कर चलता था तथा भैंरू किसी को दिखायी नहीं देता था जिसके कारण पीरों का चमत्कार दिखायी देता था। श्री किशनदास जी महाराज को भैरव पर दया आयी और उसे पीरों के बन्धन से मुक्त कर दिया था। उस समय भैरव श्री किशन दास जी मं. का शिष्य बन गया था। यथाः -

'किसन के भैंरू शिष्य साता। मुण्डवे दूदो हरि राता।।' 

पीरों द्वारा छोड़े गये उस ढोलिये को महाराज श्री ने अपने हाथों से बुनकर दुबारा नये सिरे से तैयार किया तथा अपने दैनिक जीवन में उपयोग किया करते थे। 


लकड़ी की छड़ीः एक समय श्री किशनदास जी मं. बैलगाड़ी से कोलायत जा रहे थे। मार्ग में एक रात्रि को केलणसर गाँव में रूके थे। रात्रि के समय केलणसर गाँव के ठाकुर का कँवर तथा उसके दो तीन साथियों ने मिलकर बैलगाड़ी के दो बैलों में से एक बैल को चुराकर एक छप्पर में छिपा दिया था। सुबह जब किशन दास जी महाराज रवाना होने के लिए बैलगाड़ी के पास गये तो वहाँ एक ही बैल था और दूसरा बैल इधर उधर ढूँढने पर कहीं भी नहीं मिला था। तब महाराज श्री 'केलणसर 'गाँव के ठाकुर के पास गये और बैल चुराये जाने की बात कही तथा बैल ढूँढने के लिए कहा, तब ठाकुर ने महाराज की बात पर ध्यान न देकर उपेक्षापूर्वक वचनों में कहा कि - दूसरा बैल भी खो देगा। यहाँ कोई बैल नहीं है तब महाराज श्री ने बैलगाड़ी में एक तरफ बैल जोता तथा दूसरी तरफ बैल की जगह अपने हाथ में रखने वाली लकड़ी को लगाकर बैलगाड़ी को चलाकर गाँव की सीमा से बाहर ले आ गये थे। थोड़े ही समय पश्चात अचानक बैल खुलकर महाराज श्री के पास आ गया तथा जहाँ बैल को छिपाया गया था उस छप्पर में आग लग गयी व ठाकुर के कंवर व उसके साथी मेणा व भावरी के पेट में दर्द हुआ व थोड़ी ही देर में उनके प्राण पंखेरू उड़ गये। जब ठाकुर को पता चला तो वह बहुत ही घबराया और अपनी माताजी से जाकर सब हाल कह सुनाया तथा आग्रह किया कि अब आप ही महाराज श्री से जाकर माफी मांगों, मेरे से बहुत बड़ी गलती हो गयी हैं। मैं तो अब महाराज श्री के सामने नहीं जा सकता हूँ। तब ठाकुर की माजीसा ने महाराज श्री के सामने जाकर माफी मांगते हुए प्रार्थना की कि हमारे पुत्र व पौत्र से बहुत बड़ा अपराध हो गया है। आप संत है हम पर दया करके हमें माफ करें। तब महाराज श्री ने दया करके उन लोगों को शान्ति प्रदान की थी।


पखाल के पानी का दूध हो जाना:- एक बार किशनदास जी मं. नागौर पधारे और हाकम के नोहरे जो वर्तमान समय में रामपोल की जगह है, वहाँ दरवाजे के पास विराजे थे। वहाँ पाडे पर पानी से भरी पखाल लिए पखाली आया तो महाराज श्री ने पखाली से पूछा कि किसके यहाँ पानी की पखाल ले जा रहे हो ? तब पखाली ने कहा कि "मैं हाकम साहब के नोहरे में पानी की पखाल खाली करने ले जा रहा हूँ। तब महाराज श्री ने पखाली को हाकम साहब से एक लोटा दूध लाने के लिए कहा। पखाली ने हाकम के पास जाकर महाराज श्री के द्वारा एक लोटा दूध मांगे जाने की बात कही। इस पर हाकम ने कहा कि "संत हो गये फिर भी दूध चाहिये ?" इतनी ही अगर दूध की जरूरत है तो, हाकम ने पखाली के पाडे की ओर हाथ से इशारा करते हुए कहा कि - महाराज से कहना कि जितना भी दूध चाहिये उतना इस पाडे से दुह लेना। पखाली ने वापस जाकर महाराजश्री को हाकम की कटाक्ष भरी बात कही, तब महाराजश्री ने पखाली को पखाल पानी से भर कर लाने को कहा। तुरन्त पखाली पानी से भर कर पखाल लेकर महाराज श्री के पास आया तब महाराज श्री ने पखाल पर हाथ रखा और हाथ रखते ही पखाल के पानी का दूध बन गया तथा पखाली से कहा अब इसे हाकम साहब के पास ले जाओ। पखाली दूध से भरी पखाल को लेकर हाकम साहब के पास गया और हाकम से पूछा कि पखाला कहाँ खाली करूँ ? तब हाकम ने पखाली को डाँटा व कहा कि तुम्हारा दिमाग खराब हो गया क्या ? तब पखाली ने हाकम साहब को महाराज श्री द्वारा भिजवायी दूध से भरी पखाल की सब बात कहें दी। उस समय हाकम ने उठकर स्वयं अपनी आँखों से दूध से भरी पखाल को देखा तो घबराकर हक्का-बक्का सा हो गया और दौड़ता - हाँफता हुआ आकर श्री किशनदास जी महाराज के श्री चरणों में गिर गया तथा उसने अपनी गलती की माफी मांगी तथा अनुनय-विनय करके कहा कि आप आदेश दें कि मैं आपकी क्या सेवा करूँ ? आप आदेश फरमा ओ तो पूरा नागौर ताम्र पत्र पर लिखकर आपके श्री चरणों में भेंट कर दूँ।" तब महाराज श्री ने कहा कि एक लौटा दूध तो दे नहीं पाये और अब पूरा नागौर देने की बात कर रहे हो।" हाकम ने महाराज श्री से विशेष आग्रह किया कि कुछ तो आपको स्वीकार करना ही होगा, हाकम के ज्यादा आग्रह करने पर महाराज श्री ने हाकम की प्रार्थना को स्वीकार करते हुए कहा कि "यह नोहरा राम प्रेमी भक्तों के सत्संग भजन हेतु दे दो, तब हाकम ने तुरन्त वह नोहरा महाराजश्री को अर्पित कर दिया था जो वर्तमान में श्री किशनदास जी महाराज की रामपोल के नाम से नागौर शहर में प्रसिद्ध है।


 नागौर में नया दरवाजा के निमार्ण का प्रसंग: एक बार श्री किशनदास जी महाराज नागौर रामपोल जो हाकम के द्वारा भेंट जगह पर सत्संग कर रहे थे। उस समय महाराजा श्री बख्तसिंह जी किशनदास जी मं. के दर्शन करने आये थे। महाराज की महिमा के बारे में सुनकर श्री बख्तसिंह जी के मन में परीक्षा करने की भावना जगी और महाराज श्री से कहा कि मुझे कल जोधपुर प्रस्थान करना है तो नागौर के कौन से दरवाजे से निकलूँगा तब महाराज श्री ने कागज पर दरवाजे का नाम लिखकर कागज को बन्द करके राजा साहब को दे दिया और कहा कि जिस किसी भी दरवाजा से निकलना हो निकल जाना और दरवाजे से बाहर निकलने के बाद इस कागज को खोलकर पढ़ लेना।

राजा साहब महाराज श्री की सत्संग करके रात्रि शयन के लिए अपने निवास स्थान किले में चले गये। वहाँ राजा ने विचार किया कि किशनदास जी महाराज ने नागौर शहर के दरवाजों में से किसी एक दरवाजे का तो नाम लिखा ही होगा। ऐसा सोचकर राजा साहब ने रातो रात अपने आदमियों को एक अलग से नया दरवाजा बनाने का आदेश दिया जो सुबह तक बन जाना चाहिये। दूसरे दिन सुबह राजा साहब अपने दलबल के साथ नये दरवाजे से बाहर निकलकर कागज को खोलकर पढ़ा तो उस कागज में "नया दरवाजा' ही लिखा हुआ था, जिसे पढ़कर राजा साहब चकित हो गये और उनका हृदय महाराज श्री के प्रति श्रद्धाभाव से भर गया था। वास्तव में तार्किक लोक महाराज श्री को बिना चमत्कार के पहचान नहीं पाये थे।

टॉकला के ठाकुर का द्रोहभाव का प्रसंग :- सामंत काल में मारवाड़ के गाँव सामन्तों के नाम से जाने जाते थे। श्री किसनदास जी सं. की प्रसिद्धि के कारण टाँकला गाँव श्री किशनदास का टाँकला के नाम से जाना जाने लगा। टाँकला-ठाकुर जब कभी बाहर जाते तो उनकों अपने नाम की जगह श्री किसनदास जी महाराज का टॉकला का वाक्य बार-बार जहाँ-तहाँ सर्वत्र सुनना पड़ता था तो टाँकला के ठाकुर साहब व मन ही मन में कुढ कर रहे जाते और विचार करते कि " मै बारह गांवों का धणी जागीरदार हूँ और इतने बड़े गाँव का ठाकुर हूँ फिर भी मेरे ही गाँव को मेरे नाम से न बोलकर किसी अन्य के नाम से बोला जाना यह कैसे सहन किया जाय ? इस प्रकार काफी समय से टाँकला ठाकुर मन ही मन में जलता रहता था। "विनाश काले विपरितेन बुद्धि" के अनुसार एक बार ठाकुर को विपरित बुद्धि सवार हो गई और ठाकुर ने विचार किया कि "न रहे बाँस न बजे बाँसुरी " अर्थात् महाराज श्री को मैं जान से मार डालूँ तो टाँकला का नाम मेरे ही नाम से बोला जाने लगेगा। ठाकर ने श्री किशनदास जी मं. को जान से मारने के लिए एकान्त का मौका खोजना शुरू कर दिया था। श्री किशनदास जी मं. टाँकला से नागौर सत्संग करने के लिए पैदल जाते थे। एक बार जब महाराज टाँकला से नागौर जाने के लिए रवाना हुए तो ठाकुर ने महाराज श्री के पीछे घोड़ी दौड़ाकर पीछा किया, किन्तु घोड़ी को खूब तेज दौड़ाने के बावजूद भी घोड़ी सवार ठाकुर व श्री किशनदास जी मं. के बीच एक निश्चित अन्तर का फासला बना रहा जो नागौर पहुँचने तक न तो घटा और नहीं बढ़ा। इस प्रकार ठाकुर श्री किशनदास जी मं. के पास पहुँचने में असफल रहा था। रात्रि को महाराज रामपोल में सत्संग करके दूसरे दिन सुबह टाँकला के लिए नागौर से रवाना हुए, तब ठाकर ने भी दुबारा महाराज का पीछा किया किन्तु पहले की तरह इस बार भी वहीं निश्चित दूरी का अन्तर तो बना ही रहा। इस बारे में महाराज ने अपनी वाणी जी में कहा है कि 

"आगे पीछे रामजी, सदा करे प्रतिपाल। 

किशनदास निजसंत के, रक्षक राम दयाल।।"

 इतना कुछहोते हुए भी ठाकुर समझ नहीं पाया था और नादान बनकर छोड़ी को निर्दयीतापूर्वक दौड़ाना शुरू किया और तेज दौड़ायी ओर तेज दौड़ायी, आखिर में टाँकला गाँव के तालाब के किनारे पहुँचने पर घोड़ी बेचारी गिर पड़ी और मर गयी। घोड़ी के गिरने की आवाज को सुनकर महाराज ने पीछे मुड़कर देखा तो घोड़ी तो मर चुकी थी और ठाकुर घोड़ी के पास खड़ा था। तब महाराज ने ठाकुर को कहा कि - बैर तो तेरा मुझसे था, इस बिचारि घोड़ी को निर्दयतापूर्वक दौड़ाकर क्यों मारा ? महाराज श्री ने ठाकुर को कहा कि अब बोल क्या चाहता है ? किन्तु ठाकुर को अब भी सद्बुद्धि नहीं आयी क्योंकि -


"होनहार भावी, प्रबल, बिसर जात सब सुध। जैसी होनी होत है, तैसी उपजत बुध ।।" श्री किशनदास जी महाराज ने तो ठाकुर को कहा- क्या चाहता है ? लेकिन ठाकुर ने परमार्थ का कुछ भी नहीं मांगकर कहा कि "मुझे इस समय यानी जेठ-आषाठ का महिना था कि केवल फूँक व मतीरा चाहिए।। " ठाकुर ने सोचा कि इस समय ये फूंक व मतिरा तो कहाँ से लायेगें और नहीं लायेगें तो मैं इन पर कोप कर इन्हें दण्ड दूँगा कि "झुठा ही महाराज बनकर फिरता है।" किन्तु महाराज तो समरथ थे अतः उसी समय में अपनी झोली में से फूंक का सींटा ठाकुर को हाथ में दिया और मतिरा निकाल कर कहा- "तूने मतीरा मांगा है अतः ना तो कोई तेरा वंश रहेगा और नहीं मेरी गादी पर कोई महन्त बैठेगा।" इस प्रकार महाराज के वचनों से टाँकला ठाकुर के सात पीढ़ी तक कोई वंश नहीं चला अर्थात् दत्तक पुत्र लेकर ही ठाकुर बैठाते रहें तथा श्री किशनदास जी म. के पीछे भी कोई गादी पर विराजमान नहीं हुआ। तालाब के किनारे जिस जगह घोड़ी मरी थी उस जगह आज भी घोड़ी की यादगार में चबुतरा बनाया हुआ है। 

किशनदास जी म. का बिखणियाँ गाँव में अन्तिम सत्संग : एक बार संत श्री किशनदास जी महाराज सत्संग करने के लिए रेणधाम से आगे डंगाणा की तरफ बिखणियाँ गाँव में पाँच गृहस्थी भाई शिष्यों के यहाँ गये थे। विखणिया में कुछ दिन सत्संग के लिए हेमदास जी के यहाँ ठहरे थे। हेमदास जी व उनके पाँचों ही भाई रामनामी भक्त कहलाते थे। इनमें हेमदास जी मं. की स्थिति बहुत ऊँची थी। यथा - 

"हेमदास हरिका हितकारी। सतशबद से प्रीति पियारी ।। (133, भक्तमाल)" श्रीकिशनदास जी महाराज ने अपने भजन के बल से देख लिया कि अब यह शरीर ओर अधिक समय तक नहीं रहेगा अतः टाँकला चल देना चाहिए। उस समय महाराज ने हेमदास जी आदि पाँचों भाईयों से कहा कि अब हम टाँकला जाना चाहते है। तब हेमजी आदि ने बिखणियाँ ठाकुर साहब से कोई साधन मांगा था, किन्तु ठाकर ने महाराज को बिखणियाँ गाँव में ही शरीर छूटे व महाराज श्री का यहीं पर स्मारक बने, इस प्रकार की लालशावश होकर कोई भी साधन देने से इन्कार कर दिया था। फिर भी महाराज ने टाँकला पधारने की ही इच्छा व्यक्त की, तब अन्य सभी भक्तों ने महाराज को पालकी में बिठा कर टाँकला के लिए प्रस्थान कर दिया था। रास्ते में रेणधाम में विश्राम किया था, फिर टाँकला पधारे। तीन दिन तक टाँकला में अपने निवास स्थान-साल में आप विराजे रहे तब तक हेमदास जी आदि ने आपके आदेशानुसार आपके सारे शिष्यों को टाँकला बुला लिया था। सब शिष्यों में से एक खेताराम जी मं. नहीं आ पाये थे बाकी के सब शिष्यों को अन्तिम उपदेश देकर आप वि.सं. 1825 आषाढ कृष्ण सप्तमी को महानिर्वाण को प्राप्त हो गये थे। अन्तिम संस्कार होने के बाद जब शिष्य श्री खेताराम जी मं. आये तो वे बहुत व्याकुल हो गये और बहुत विरह की थी। तब श्री किसनदास जी महाराज ने पुनः दर्शन दिया था और सान्त्वना देकर फिर अन्तर्ध्यान हो गये थे श्री किसनदास जी महाराज के अनेक समर्पित शिष्य हुए थे जिसमें प्रमुख ये है :- संत श्री हेमदास जी महाराज (बिखाणियाँ), संत श्री हरिदास जी मं. (चाडी), संत श्री मेघोदास जी मं. (चाडी), संत श्री बुधसागर जी महाराज (खाबड़ी याणा-डेह), संत श्री खेताराम जी म. ( टाँकला), साध्वी श्री साराबाई जी (नागौर), संत श्री शोभारामजी (टाँकला) संत श्री रामूराम जी मं. (टाँकला) संत श्री हरिराय जी मं. (जयपुर), छः शिष्य नौसर गाँव में हुए - (हरि जी कृष्ण जी लघु हेम जी, लादू जी, चन्दाराम जी व बखताराम जी इस प्रकार संत श्री किशनदास जी मं. के शिष्यें तथा इन शिष्यों की शाखाएँ भी बढ़ती ही रही है