उपदेश का अंग
अथ श्री दरियावजी महाराज की दिव्य वाणीजी का " उपदेश का अंग " प्रारंभ । राम जी राम !
जन दरिया उपदेश दे, जा के भीतर चाय ।
नातर गैला जगत से, बक बक मरै बलाय (1)
आचार्यश्री दरियावजी महाराज फरमाते हैं कि उपदेश उसे ही देना चाहिए, जिसके हृदय में उपदेश सुनने की तथा उसे धारण करने की चाहत (इच्छा ) हो । जिसकी परमात्मा के प्रति आस्था और भावना हो, उसे ही ध्यान बताना चाहिए, अन्यथा कर्महीनों को उपदेश देने से कोई लाभ नहीं होता है । महाराजश्री आगे कहते हैं कि इस विवेकहीन जगत को उपदेश देने हेतु कई महात्मा बक-बक कर मर गये परन्तु जगत तो उसी स्थान पर खड़ा है । राम राम !
दरिया बहु बकवाद तज, कर अनहद से नेह ।
औंधा कलसा ऊपरे, कहां बरसावे मेह (2)
आचार्यश्री दरियावजी महाराज फरमाते हैं कि बहुत अधिक बातें भी नहीं करनी चाहिए अर्थात लोगों को बहुत अधिक समझाना भी बुरा है, इसकी अपेक्षा तो अनहद अर्थात परमात्मा से प्रेम करना चाहिए । क्योंकि जब तक कलश (घड़ा) उल्टा है तब तक उसके ऊपर कितनी ही वर्षा हो, वह नहीं भरेगा । इसी प्रकार यह दुनिया भी उल्टी है । जिस व्यक्ति का दिमाग उल्टा होता है, उसके हृदय में कभी ज्ञान नहीं उतरता है । राम राम!
बिरही प्रेमी मोम-दिल, जन दरिया निःकाम ।
आशिक दिल दीदार का, जासे कहिए राम (3)
आचार्यश्री दरियावजी महाराज ने बिरही तथा राम के प्रेमी भक्तों को एवं जिनके जीवन में परमात्मा प्राप्ति के अलावा अन्य किसी प्रकार की कोई कामना नहीं है, उन व्यक्तियों को उपदेश सुनने का अधिकारी बताते हुए कहा है कि जिसके दिल में परमात्मा के दीदार (मिलन) हेतु आस्तिकता है, उसे ही राम नाम का उपदेश देना चाहिए । राम राम!
जन दरिया उपदेश दे, भीतर प्रेम सधीर ।
गाहक होय कोई हींग का, कहा दिखावै हीर (4)
आचार्यश्री दरियावजी महाराज फरमाते हैं कि जिसके हृदय मैं प्रभु के प्रति प्रेम हो तथा विश्वास हो कि मुझे रामजी अवश्य मिलेंगे, उसे ही उपदेश देना चाहिए । क्योंकि हींग खरीदने के इच्छुक ग्राहक को हीरा दिखाया जाता है तो उसे हीरा पसंद नहीं आता है । उसी प्रकार यदि भौतिकवाद की चकाचौंध में फँसे व्यक्ति को उपदेश दिया जाए तो वह उपदेश उसके हृदय में ठहरता नहीं है ।
दरिया गैला जगत से, समझ औ मुख से बोल ।
नाम रतन की गाँठड़ी, गाहक बिन मत खोल (5)
आचार्यश्री दरियावजी महाराज फरमाते हैं कि तू इस संसार से समझ-विचार कर ही बात कर । क्योंकि यहाँ तो मूर्खों का मेला भरा हुआ है । अतः अपनी नामरतन की जो गाँठड़ी है अर्थात जो अनुभव है, वह अनुभव कभी भी दूसरों को नहीं बताना चाहिए बिना ग्राहक (आवश्यकता ) के जो वस्तु दी जाती है,उसका कोई आदर नहीं होता है । राम राम!
दरिया गैला जगत को, क्या कीजै समझाय ।
चलना है दिश उत्तर को, दक्षिण दिश को जाय (6)
आचार्यश्री दरियावजी महाराज फरमाते हैं कि इस जगत को किस प्रकार से समझाया जाए । हम इसे उत्तर दिशा की और चलने को कहते हैं तो यह दक्षिण की और चलता है । इस प्रकार यह जगत तो वास्तव में ही गैला(उल्टा) है । हमें यह मानव शरीर रामभजन करने के लिए प्राप्त हुआ है । परंतु अज्ञानी मानव अनैतिक कार्यों के द्वारा इसका दुरुपयोग करने मैं लगा हुआ है । उसे समझाने से कोई लाभ नहीं होगा । राम राम !
दरिया गैला जगत को, कैसे दीजै सीख ।
सौ कौसाँ चालन करे, चाल न जाने भीख (7)
आचार्यश्री दरियावजी महाराज फरमाते हैं कि इस जगत को कैसे समझाएं ? मानता तो है नही । प्रयत्न तो करते हैं कि मैं सौ कोस चलूँगा परन्तु बीस कोस भी नहीं चल सकता है । जीव में जड़ता है इसीलिए वह आगे नहीं बढ़ सकता । आगे महाराजश्री कहते हैं कि तुम्हारी समझ को तुम गुरूदेव के चरणों में समर्पित कर दो, क्योंकि तुम्हारी समझ सही नहीं है । राम राम !
दरिया गैला जगत से, कैसे कीजै हेत ।
जो सौ बेरा छानिये, तौहू रेत की रेत (8)
आचार्यश्री दरियावजी महाराज फरमाते हैं कि इस जगत से क्या हेत करना है । जिस प्रकार रेत को कितनी ही बार छाना जाए, उसमें से रेत ही निकलेगी, घी नहीं निकलेगा ।उसी प्रकार संसार को कितनी ही सीख देते रहो परन्तु वह तो अपने दुष्कर्मों में लिप्त रहेगा । राम राम !
दरिया गैला जगत को, क्या कीजै सुलझाय ।
सुलझाया सुलझै नहीं, फिर सुलझ सुलझ उलझाय (9)
आचार्यश्री दरियावजी महाराज फरमाते हैं कि इस गैला जगत को कैसे समझाएं ? यह सुलझ-सुलझ कर फिर उलझ जाता है, अर्थात एक बार तो मान लेता है परन्तु पुनः गलती कर देता है । राम राम !
दरिया गैला जगत को, क्या कीजै समुझाय ।
रोग नीसरै देह में, पाहन पूजन जाय (10)
आचार्यश्री दरियावजी महाराज फरमाते हैं कि इस मूर्ख संसार को अध्यात्म उपदेश देने से कोई लाभ नहीं होगा ,क्योंकि यह संसार शरीर में उत्पन्न होने वाले रोग को पत्थर ( मूर्ति ) की पूजा करके शान्त करना चाहता है, जो कि सर्वथा असंभव है । राम राम !
भेड़ गति संसार की, हारे गिने न हाड ।
देखा देखी परबत चढ़ै, देखा देखी खाड (11)
आचार्यश्री दरियावजी महाराज फरमाते हैं कि भेड़ों के झुंड में से यदि कोई एक भेड़ गड्ढे में गिर जाती है तो उसके पीछे-पीछे चलने वाली सारी भेड़ें गड्ढे में गिर जाती है । इसी प्रकार इस संसार की भी भेड़ गति है । कोई एक व्यक्ति गलत काम करता है तो दूसरे भी उसका अनुसरण करने लग जाते हैं, परन्तु अच्छे काम का कोई अनुसरण नहीं करता है । इस प्रकार आज लोगों में निर्णय-क्षमता नहीं है तथा न ही विवेक द्वारा सोचने की क्षमता है । राम राम !
दरिया सौ अंधा बिचै, एक सूझा को जाय ।
वह तो बात देखी कहै, वा के नाहीं दाय (12)
आचार्यश्री दरियावजी महाराज फरमाते हैं कि सौ अंधों के बीच में एक दीखने वाला व्यक्ति है तथा उन अंधों को समझाता है कि कागज सफेद होता है परन्तु अंधे उसकी बात नहीं मानते हैं क्योंकि उनकी संख्या बहुत ज्यादा है । इसी प्रकार से दुनिया में अज्ञानी अंधे तो बहुत है तथा दीखने वाले ज्ञानवान बिरले ही हैं जो परमात्मा की बात कहते हैं परन्तु अंधों को वह अच्छी नहीं लगती है । राम राम !
दरिया सारा अंध को, कहै देख देख कुछ देख ।
अंध कहै सूझै नहीं, कोई पूरबला लेख (13)
आचार्यश्री दरियावजी महाराज सभी अंधों (अज्ञानियों) से कहते हैं कि तुम जरा देखो तो सही। परंतु अंधा कहता है कि मुझे तो कुछ सूझता ही नहीं है । शायद मेरे पूर्व जन्म के कर्म ही ऐसे हें । अतः महाराजश्री कहते हैं कि व्यक्ति को कभी भी भाग्य पर निर्भर नहीं रहना चाहिए । भगवत भजन करते रहना चाहिए ।राम राम !
कंचन कंचन ही सदा, काँच काँच सो काँच ।
दरिया झूठ सो झूठ है, साँच साँच सो साँच (14)
आचार्यश्री दरियावजी महाराज फरमाते हैं कि सोना तो सदा सोना ही रहेगा तथा काँच काँच ही रहेगा । इसी प्रकार असत्य असत्य ही रहेगा तथा सत्य सत्य ही रहेगा । महाराजश्री ने सारे संसार को तथा सांसारिक व्यवहार को झूठा बताया है तथा सत्य की अनुपालना करने हेतु प्रेरणा दी है । राम राम !
जन दरिया निज साँच का, साँच ही व्यवहार ।
झूठ झूठ ही नीवड़ै, जामें फेर न सार (15)
आचार्यश्री दरियावजी महाराज फरमाते हैं कि सत्य का व्यवहार सच्चा होता है , झूठ हमेशा अन्त में झूठ ही प्रकट होता है , इस कथन में लेशमात्र भी संशय नहीं है । अतः मनुष्य मात्र को सत्य नहीं छोड़ना चाहिए । राम राम !
दरिया सांच न संचरै, जब घर घालै झूठ ।
सांच आन प्रकट हुआ, तब झूठ दिखावै पूठ (16)
आचार्यश्री दरियावजी महाराज फरमाते हैं कि जब तक हमारी असत्य के प्रति निष्ठा एवं लगाव है , तब तक सत्य हमारे हृदय में प्रकट नहीं हो सकता । जब सत्य प्रकट हो जाएगा तब हमारे हृदय में सत्य परमात्मा स्वतः ही प्रकट हो जायेंगे । राम राम !
जन दरिया इस झूठ की, डागल ऊपर दौड़ ।
सांच दौड़ चौगान में,सो संतां सिर मौड़ (17)
आचार्यश्री दरियावजी महाराज फरमाते हैं कि झूठ की दौड़ तो डागला (छत) की दौड़ है जिसकी सीमा है परंतु मैदान (चौगान) में चाहे कितना ही दौड़ो, मैदान का अन्त नहीं आता है । अतः सत्य तो संतों के सिर पर मौड़ है तथा असत्य संसार है । आगे आचार्यश्री कहते हैं कि सदा ही सत्यस्वरूप परमात्मा को ही स्वीकार करना चाहिए जिससे हमारे मन की दौड़ मिट सके और हम शाश्वत शांति को प्राप्त कर सकें । राम राम !
कानों सुनी सो झूठ सब, आंखों देखी साँच ।
दरिया देखे जानिये, यह कंचन यह काँच (18)
आचार्यश्री दरियावजी महाराज फरमाते हैं कि आँखों से देखी हुई बात सत्य होती है तथा कानों से सुनी हुई बात झूठ होती है , क्योंकि आंखों से देखने पर ही कँचन और काँच के बीच अन्तर मालूम पड़ता है । अतः जब हम सत्यस्वरूप परमात्मा का साक्षात्कार कर लेते हैं तब हमें यह संसार असत्य लगने लगता है । राम राम !
साध पुरुष देखी कहै, सुनी कहै नहीं कोय ।
कानों सुनी सो झूठ सब, देखी सांची होय (19)
आचार्यश्री दरियावजी महाराज फरमाते हैं कि संत सदैव अनुभव की बात कहते हैं । वे जो परमात्मा के स्वरूप का, उनकी सत्ता का, उनकी लीला का, उनके धाम तथा माया का वर्णन करते हैं वह सब वे स्वयं अनुभव करने के पश्चात ही कहते हैं । सुनी हुई बातों पर उनका विश्वास नहीं होता है क्योंकि वह झूठी होती हैं । राम राम !
दरिया आगे साँच के, झूठ किसी एक बात ।
जैसे ऊगे भान के, रात अंधारी जात (20)
आचार्यश्री दरियावजी महाराज फरमाते हैं कि सत्य के सामने झूठ कुछ भी नहीं है । जिस प्रकार सूर्य उदय होते ही अन्धेरी रात नष्ट हो जाती है उसी प्रकार सत्य के प्रकट होते ही झूठ का आवरण हट जाता है । सत्य का अनुभव तो आत्मा में ही किया जा सकता है । राम राम !
दरिया सांचा राम है, और सकल ही झूठ ।
सन्मुख रहिये राम से, दे सबही को पूठ (21)
आचार्यश्री दरियावजी महाराज फरमाते हैं कि केवल एक रामजी(परमात्मा) ही सत्य है तथा ईश्वर को छोड़कर सारा संसार असत्यस्वरुप है ।अतः सदा ही परमात्मा के सन्मुख रहना चाहिए तथा संसार को पूठ दे देनी चाहिए अर्थात त्याग करके भगवान का नाम स्मरण करते हुए जीवन सफल बनाना चाहिए । राम राम !
दरिया साँचा राम है, फिर साँचा है सन्त ।
वह तो दाता मुक्ति का, वह मुख राम कहन्त (22)
आचार्यश्री दरियावजी महाराज फरमाते हैं कि एक तो राम सत्य है तथा दूसरे सन्त सत्य हैं । शरीर के छूटने के पश्चात संतो की महान आत्मा सदा-सदा के लिए सत्यस्वरूप परमात्मा में लीन हो जाती है । इसीलिए सन्त सत्य है क्योंकि उन्होंने राम की शरण ली है । राम राम।
दरिया गुरु दरियाव की, साध चहूँ दिस नहर ।
संग रहै सोई पियै, नहीं फिरै तृषाया वहर (23)
आचार्यश्री दरियावजी महाराज फरमाते हैं कि जिस प्रकार मीठे पानी के दरिया में से हजारों की संख्या में नहरें निकलती है, उसी प्रकार गुरुदेव तो अथाह सागर के समान हैं तथा उनकी साधना नहरों के समान है जो कि मानवमात्र का कल्याण करती है । संतों के पास जो भी प्यासा आता है, उसे वे पानी पिलाते हैं । अतः सतगुरु का जो संग करता है, वही वास्तव में पानी पी सकता है अन्यथा सारा जगत प्यासा घूम रहा है । राम राम !
साधु सरोवर राम जल, राग द्वेष कछु नाहीं ।
दरिया पीवे प्रीत कर, सो तृप्त हो जाहिं (24)
आचार्यश्री दरियावजी महाराज फरमाते हैं कि साधु सरोवर के समान है, जिसमें राम रूपी जल भरा रहता है । अतः इनमें राग द्वेष के लिए स्थान नहीं रहता । जो महानुभाव संतों से प्रीति कर लेते हैं, वे तो राम रूपी जल पीकर तृप्त हो जाते हैं । राम राम !
दरिया हरि गुन गाय के, बहूता अंग शरीर ।
बलिहारी उस अंग की, खैंचा निकसै खीर (25)
आचार्यश्री दरियावजी महाराज फरमाते हैं कि यह संसार एक गाय के समान है । जिस प्रकार गाय के सींग,नाक, कान इत्यादि अनेक अंग होते हैं तथा दूध भी गाय के पूरे शरीर में संचरित रहता है तथापि उसके किसी भी अंग को खींचने से दूध नहीं निकलता है, दूध तो केवल गाय के स्तनों से ही निकलता है । इसी प्रकार इस गाय के शरीर रूपी संसार में परमात्मा दूध के समान व्यापक होते हुए भी अनंतानंत साधन करने पर भी प्रकट नहीं होते हैं, परमात्मा तो केवल संत रूपी स्तनों से ही प्रकट होते हैं । राम राम!
साधु जल का एक अंग, बरतै सहज सुभाव ।
ऊँची दिशा न संचरै, निवन जहाँ ढ़लकाव (26)
आचार्यश्री दरियिवजी महाराज फरमाते हैं कि साधु और जल का एकसा स्वभाव होता है । वर्षा होती है तो पानी निवान (उतार )पर बहता है, पानी कभी ऊपर की ओर नहीं बहता है । अतः जल मैं नम्रता होती है । इसी प्रकार संतों का भी सहज स्वभाव होता है अर्थात उनके जीवन में अहंकार किचिन मात्र भी नहीं होता है । राम राम !
दरिया नाके पोल के, इक पंछी आवै जाय ।
ऐसे साधु जगत में, बरतै सहज सुभाय (27)
आचार्यश्री दरियावजी महाराज फरमाते हैं कि जिस प्रकार कोई पक्षी मकान के अंदर आता है तो वह किसी के भी कार्य में बाधा डाले बिना ऊपर से ही ( पोल में से ) आता है तथा ऊपर से ही चला जाता है । इसी प्रकार संत भी संसार के अंदर रहकर भी संसार को कष्ट न देते हुए अपनी ऐहलौकिक लीला संवरण कर लेते हैं । ऐसे साधु जगत में रहते हुए भी जगत की माया से ऊपर उठे हुए हैं । राम राम !
मच्छी पंछी साध का, दरिया मार्ग नांहि ।
अपनी इच्छा से चलै, हुकम धनी के मांहि (28)
आचार्यश्री दरियावजी महाराज फरमाते हैं कि मछली पानी में चलती है तो उसका कोई मार्ग नहीं होता है तथा पक्षी का भी आकाश में कोई सही मार्ग नहीं होता है । इसी प्रकार संत का भी मार्ग नहीं होता है वे परमात्मा के हुकम में चलते हैं क्योंकि परमात्मा ही उनके धनी ( मालिक, पति ) होते हैं । राम राम !
साधु चन्दन बावना, एक राम की आस ।
जन दरिया एक राम बिन, सब जग आक पलाश (29)
आचार्यश्री दरियावजी महाराज फरमाते हैं कि जिस प्रकार चन्दन का महत्व समझने वाले व्यक्ति को केवल चन्दन का वृक्ष ही अच्छा लगता है । उसी प्रकार परमात्मा का महत्व समझने वाला भगवद् भक्त केवल एक राम की ही आशा में लगा रहता है । इस प्रकार से राम तो उसे चंदन के समान लगते हैं तथा सारा संसार आक-पलास के समान लगता है । राम राम !
नारी आवे प्रीत कर, सतगुरु परसै आण ।
दरिया हित उपदेश दे, माय बहन धी जाण (30)
आचार्यश्री दरियावजी महाराज फरमाते हैं कि स्त्री भी संतों के पास प्रीति(प्रेम) करके आती
है तो उसे भी माँ, बहन और धी (पुत्री ) समझकर उपदेश देना चाहिए अर्थात उन स्त्रियों में कभी अवगुण नहीं देखना चाहिए क्योंकि सभी अवतारों और ईश्वरकोटि के संतों को नारी ही ने प्रकट किया है । राम राम !
नारी जननी जगत की,पाल पोष दे पोस ।
मूर्ख राम बिसार के, ताहि लगावे दोस (31)
आचार्यश्री दरियावजी महाराज फरमाते हैं कि प्रत्येक मानव के जीवन को उत्कृष्ट बनाने का श्रेय मातृ शक्ति को होता है क्योंकि बच्चे की प्रथम गुरू उसकी माता होती है । जो मूर्ख होता है, वह राम को भूलकर नारी के ऊपर दोष लगाता है, तो क्या नारी के अंदर राम नहीं है । राम राम !
माला फेरे क्या भया, मन फाटै कर भार ।
दरिया मन को फेरिये, जामें बसे विकार (32)
आचार्यश्री दरियावजी महाराज फरमाते हैं कि हाथ में तो माला फेरता है परन्तु मन सांसारिक विषय वासना में आबद्ध है तो कोई लाभ नहीं होगा । शास्त्रों में मन को ही जीव के बंधन व मोक्ष का कारण माना जाता है । अतः मन को फेरना बहुत आवश्यक है । राम राम !
जो मन फेरे राम दिस, कल विष नासै धोय ।
दरिया माला फेरते, लोग दिखावा होय (33)
आचार्यश्री दरियावजी महाराज फरमाते हैं कि जो साधक मन को परमात्मा की ओर मोड़ देता है तथा मन के ऊपर चढ़ी विषय-वासना रूपी मैल को भगवत नाम रूपी पानी से धो देता है, वही वास्तव में परम लाभ (मोक्ष) को प्राप्त कर सकता है । अन्यथा कई लोग तो हाथ में माला लेकर संसार के सामने दिखावा करते हैं । राम राम !
कण्ठी माला काठ की, तिलक गार का होय ।
जन दरिया निजनाम बिन, पार न पहुंचे कोय (34)
आचार्यश्री दरियावजी महाराज फरमाते हैं कि कण्ठी,माला,तिलक यह सब तो बाहरी वेशभूषा के चिन्ह मात्र हैं । अतः साधु बन गया तो क्या हुआ? जब तक नामजाप (साधना) करके परम लक्ष्य की प्राप्ति नहीं करेंगे, तब तक कल्याण नहीं होगा । राम राम !
पाँच सात साखी कही, पद गाया दस दोय ।
दरिया कारज ना सरै, पेट भराई होय (35)
आचार्यश्री दरियावजी महाराज फरमाते हैं कि पाँच सात साखी कहकर सुना दी अथवा सुंदर ढंग से पद गाकर सुना दिया इससे पेट तो अवश्य भर सकता है, परंतु कार्य की सिद्धि नहीं हो सकती । जब तक जीवन में उन बातों को क्रियान्वित नहीं कर लेंगे । राम राम !
साँख जोग पपील गति, विघ्न पड़ै बहु आय ।
बावल लागै गिर पड़ै, मंजिल न पहुंचे जाय (36)
आचार्यश्री दरियावजी महाराज ज्ञानयोग और भक्तियोग की तुलना करते हुए कह रहे हैं कि भक्तियोग की तुलना में ज्ञानयोग कठिन है । जिस प्रकार चींटी पेड़ के ऊपर चढती है तो मार्ग में बहुत विघ्न आते हैं तथा अंत में हवा लगते ही वह पुनः नीचे गिर जाती है । राम राम !
भक्ति सार बिहंग गति,जहँ इच्छा तहँ जाय ।
श्री सतगुरु रक्षा करै,विघ्न न व्यापै ताय (37)
आचार्यश्री दरियावजी महाराज फरमाते हैं कि भक्तियोग पक्षियों की गति है । पक्षी आकाश में जहाँ इच्छा हो, वहाँ उड़ सकता है उसके मार्ग में कोई विघ्न नहीं आता है । इसी प्रकार भक्ति सदा ही निर्बाध गति से आगे बढ़ती रहती है, क्योंकि भक्त की सदा ही श्री सतगुरु रक्षा करते हैं । राम राम!
इति श्री दरियावजी महाराज की दिव्य वाणीजी का "
उपदेश का अंग "संपूर्ण हुआ । राम राम ।
आदि आचार्य श्री दरियाव जी महाराज एंव सदगुरुदेव आचार्य श्री हरिनारायण जी महाराज की प्रेरणा से श्री दरियाव जी महाराज की दिव्य वाणी को जन जन तक पहुंचाने के लिए वाणी जी को यहाँ डिजिटल उपकरणों पर लिख रहे है। लिखने में कुछ त्रुटि हुई हो क्षमा करे। कुछ सुधार की आवश्यकता हो तो ईमेल करे
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डिजिटल रामस्नेही टीम को धन्येवाद।