30 . स्वरूप भिन्न भिन्न पर ईश्वर एक है
सृष्टि के प्रारम्भ से ही मानव के स्वभाव व रुचि में भिन्नता चली आ रही है। रुचि भिंन्नता के कारण ही खान पान ,रहन सहन एवं विचारों में भी भेद भाव बढ़ता गया और इस तरह भिन्न भिन्न धर्मो का प्रचलन । धार्मिक भेद भावों ने अपने अपने विचारों एवं मान्यताओं के आधार पर सृष्टि रचयता भगवान के स्वरूप को भी अलग अलग रूप में प्रस्तुत किया । अपनी अपनी बुद्धि के अनुसार भगवान के अनेक नामकरण किये गए । भगवान की पूजा व भगति की कई प्रकार की पद्धतियों का प्रचलन हुआ और इसप्रकार अन्त में भगवान कि पूजा पद्धति को ही संकीर्ण 'धर्म' का नाम दिया गया ।इन विभिन पूजा उपासना पद्धतियों के कारण मानव मानव का शत्रु बन गया । धर्म के नाम पर समाज व देश मे फुट डालने वाले, अशांति फैलाने वाले असामाजिक तत्वों से सावधान रहना चाहिये । वैसे भगवान स्वयं जब जब असामाजिक तत्वों का प्रभाव बढ़ जाता है तब तब इन दुष्टों का संहार करने तथा सदाचार की पुनः स्थापना हेतु अवतार लेते है । वास्तव में ईश्वर अनन्त रूपो में होने पर भी एक ही है ।
एको देवः सर्वभूतेषु गूढ़ सर्वव्यापी सर्वभूतंत्रात्मा ।
कर्माध्यक्षः सर्वभूताधिवास साक्षी चेता केवलो निरवूनश्च।।
कर्माध्यक्षः सर्वभूताधिवास साक्षी चेता केवलो निरवूनश्च।।
सागर के बिखरे मोती
रेण पीठाधीश्वर " श्री हरिनारायण जी शास्त्री "
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