34 . माया के स्वरूप को जानना ही ईश्वर प्राप्ति करना है:
नाशवान शरीर की सुंदरता का अभिमान न करके शरीर के द्वारा राम भजन व सत्संग करना तथा प्राणी मात्र को भगवत स्वरूप समझकर सबकी सेवा करना ही शरीर की उपयोगिता है ।
तीन लोक चौदह भुवन व यह दृश्यमान जगत सब परिवर्तनशील है अतः इसकी ममता त्याग कर राम नाम जाप करना ही सार्थकता है । प्राणी मात्र मृत्यु ( काल ) से भयभीत है परन्तु महाकाल (राम ) मृत्यु (काल) को भी मरता है अतः इनकी (राम नाम) शरण ग्रहण कर लेने पर मानव सभी प्रकार के भय चिन्ताओ से मुक्त हो जाता है । जीवन मे माया का बड़ा दुष्प्रभाव है । माया एक सर्पिणी के समान है ,सर्पिणी अपने शरीर को कुंडलाकार बना कर बच्चे देती है । कुंडलाकार (चारो ओर के भीतरी भाग में ) में रहने वाले अपने ही बच्चों को खा जाती है परन्तु जी बच्चा कुंडलाकार से बाहर निकल जाता है वह मृतु से बच जाता है ,ऐसे ही माया ही जीवों की भक्षक बनती है लेकिन जो व्यक्ति इस माया रूपी सर्पिणी (परिवार,धन,समाज,संसार शरीर के अध्यास) के विषय मे ज्ञान प्राप्त करके इसे मिथ्या समझ कर इसके कुंडलाकार (आसक्ति) से बचकर निकल जाता है वही ईश्वर को प्राप्त कर सकता है अतः माया के स्वरूप को जानना ही ईश्वर को जानना है ।
तीन लोक चौदह भुवन व यह दृश्यमान जगत सब परिवर्तनशील है अतः इसकी ममता त्याग कर राम नाम जाप करना ही सार्थकता है । प्राणी मात्र मृत्यु ( काल ) से भयभीत है परन्तु महाकाल (राम ) मृत्यु (काल) को भी मरता है अतः इनकी (राम नाम) शरण ग्रहण कर लेने पर मानव सभी प्रकार के भय चिन्ताओ से मुक्त हो जाता है । जीवन मे माया का बड़ा दुष्प्रभाव है । माया एक सर्पिणी के समान है ,सर्पिणी अपने शरीर को कुंडलाकार बना कर बच्चे देती है । कुंडलाकार (चारो ओर के भीतरी भाग में ) में रहने वाले अपने ही बच्चों को खा जाती है परन्तु जी बच्चा कुंडलाकार से बाहर निकल जाता है वह मृतु से बच जाता है ,ऐसे ही माया ही जीवों की भक्षक बनती है लेकिन जो व्यक्ति इस माया रूपी सर्पिणी (परिवार,धन,समाज,संसार शरीर के अध्यास) के विषय मे ज्ञान प्राप्त करके इसे मिथ्या समझ कर इसके कुंडलाकार (आसक्ति) से बचकर निकल जाता है वही ईश्वर को प्राप्त कर सकता है अतः माया के स्वरूप को जानना ही ईश्वर को जानना है ।
संतो माया सबकु लुटे,
है जग में ऐसा जन कोई राम नाम कहि छुटे।
है जग में ऐसा जन कोई राम नाम कहि छुटे।
संतो कहा गृहस्थ कहा त्यागी
जेहि देखूं तेहि बाहर भीतर घट घट माया लागी।।
जेहि देखूं तेहि बाहर भीतर घट घट माया लागी।।
*सागर के बिखरे मोती*
*रेण पीठाधीश्वर "श्री हरिनारायण जी शास्त्री "*
*रेण पीठाधीश्वर "श्री हरिनारायण जी शास्त्री "*
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