37. धर्म वही है जिससे प्राणी मात्र का हित हो :
जिस धर्म के द्वारा मानव के अन्तरकर्ण की असद्भावनाओ में वृद्धि होती है । वह सचे अर्थों में धर्म नही है । जिसके जीवन मे धर्म नही है । वह न तो धर्म की उपयोगिता स्वीकार करता है और न धर्म का आचरण ही करता है । वह केवल बाहरी सम्प्रदाय (धर्म का आभास ) को ही धर्म मानता है । ऐसे धर्म पर आरूढ़ व्यक्ति निश्चित रूप से नीचे ही गिरेगा। जिस धर्म मे स्वयं को सत्य की अनुभूति हो ओर सामने वाले ( श्रोता- पाठक ) को भी उसमे अपने हित की अनुभूति हो वही धर्म है , परन्तु जिस धर्म मे स्वयं को तो सत्य की अनुभूति हो लेकिन सामने वाले ( श्रोता - पाठक ) की क्रोधग्नि भड़क उठे , विद्वेष की उतपन्न तीव्र भावना से जगड़ा हो जाय तो वह धर्म नही है वह तो धर्म का आभास मात्र बन कर रह जाता है । धर्म का स्वरूप यही है कि वह प्राणी मात्र के लिये सूखकर बने । धर्म का प्रमुख कार्य प्राणी मात्र को मिलना है , दूरी बढ़ाना नही । अतः धर्म वही है जिसमे प्राणी मात्र का हित हो ।
" आत्मनः प्रतिकूलानि परेशान समाचरेत"
सागर के बिखरे मोती
रेण पीठाधीश्वर " श्री हरिनारायण जी शास्त्री "
रेण पीठाधीश्वर " श्री हरिनारायण जी शास्त्री "
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