36 . परोपकार करके ही धन का पात्र बनता है :
मानव ईष्या ,द्वेष व घृणा के कारण अपने को श्रेष्ठ तथा दूसरों को हीन समझता है और अकारण ही क्रोधावेश में दूसरों को अपने वंगबानो से पीड़ा पहुँचाता रहता है । जो पुरुष अपनी क्रोधग्नि को अपने हृदय में शांत कर लेता है और अपने कठोर वचनों से दूसरों के हृदय को आगात नही पहुचता है वह शांत प्रकति व्यक्ति तीनो (सत्व रज तम ) गुणों पर विजय प्राप्त कर लेता है। जो मनुष्य इस नाशवान शरीर से दुखी प्राणियों पर दया करके मुख्यतः धर्म,तथा गौरत यश प्राप्त नही करता वह जड़ पेड़ पौधों से हीन( गया बिता )है । महापुरूषो ने इस अविनाशी धर्म की उपासना की है । किसी भी प्राणी के दुख में दुख का अनुभव करना तथा सुख में सुख का अनुभव करना ही मानव धर्म है।खेद इस बात का है कि मरणशील मानव अपने शरीर बुद्धि व धन से परोपकार नही करता है । जगत के जन ,धन ,शरीर व सभी प्रदार्थ क्षण भ्रगुर है अतः इनको परोपकार में लगाना ही धर्म का पात्र बनता है ।
न ही वैरेण वैराणी शम्यांतिः कदाचन।
अवैरण च शमियान्ति एषः धर्म सनातनः ।।
अवैरण च शमियान्ति एषः धर्म सनातनः ।।
सागर के बिखरे मोती
*रेण पीठाधीश्वर "श्री हरिनारायण जी शास्री "*
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