35. आत्मा को जानना ही ज्ञान की उपयोगिता है :
जड़ चेतन मय विश्व मे चेतन्य की ही प्रधानता है । संसार मे यावत चेतन्य प्रवृत्ति है उसमें भी चित की ही मुख्यता है इसलिये विस्तृत वेद ( ज्ञान-रश्मि ) में इस चित्त को चिन्तामणि कहते है। लोक की असंख्य स्वर्ण राशि,असंख्य रत्न और अन्य जितनी भी सांसारिक बहुमूल्य वस्तुएं है वे सभी इस चिन्तामणि के तुल्य नही हो सकती है । मुक्ति भक्ति पुरुषार्थ चतुष्टय इस चित के ही अधीन है । यदि इस चित रूपी चिन्तामणि का उपयोग नाम स्मरण में किया जाय तो इसकी सार्थकता है । विवेकहीन मानव इसका उपयोग न जानने के कारण ही दुखी है । यदि जीव संत महापुरूषो के सत्संग से इसका सदूपयोग करने लगे तो वह परम पवित्र बनकर लोक परलोक दोनों की समस्याओं का समाधान करके सत्यमेव स्वतः ही शिव (राम व ब्रह्म ) बन सकता है। यह जीव इन महामणि आत्म स्वरूप को न पहचानने के कारण ही अविनाशी पद को प्राप्त करने में असमर्थ है ।
अनादि काल से सतगुरू इस अमूल्य अलौकिक चिन्ता मणि की और जीवो को प्रेरित करते रहे है। संत और वेद मत भिन्न नही है । वे वैदिक ऋषि देश काल पात्र के अनुसार समय समय पर इस चिन्तामणि के महत्व को प्रर्दशित करते रहे है अतः आत्मा को जानना ही ज्ञान की उपयोगिता है ।
अनादि काल से सतगुरू इस अमूल्य अलौकिक चिन्ता मणि की और जीवो को प्रेरित करते रहे है। संत और वेद मत भिन्न नही है । वे वैदिक ऋषि देश काल पात्र के अनुसार समय समय पर इस चिन्तामणि के महत्व को प्रर्दशित करते रहे है अतः आत्मा को जानना ही ज्ञान की उपयोगिता है ।
जीव ब्रह्म का अंश है ज्यूँ रवि का प्रतिबिम्ब होय।
घट पड़दा दुरा भया ब्रह्म जीव नही दोय।।
घट पड़दा दुरा भया ब्रह्म जीव नही दोय।।
"सागर के बिखरे मोती
*रेण पीठाधीश्वर " श्री हरिनारायण जी शास्त्री "*⛳
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