ब्रह्म परचे का अंग
अथ श्री दरियावजी महाराज की दिव्य वाणीजी का
"ब्रह्म परचे का अंग
" प्रारंभ
दरिया त्रिकुटी सन्धि में, महायुद्ध रन पूर ।
कयर जन पूठा फिरै , सुन पहुंचै कोई शूर (1)
आचार्यश्री दरियावजी महाराज कहते हैं कि
मेरी सुरति जब त्रिकुटी में चली गई, तब घमासान युद्ध हुआ । माया एवं ब्रह्म दोनों जीव को अपनी और खींचना चाहते हैं । माया के जाल में फंसकर जीव का पतन हो जाता है वहीं ब्रह्म के संग से जीव का कल्याण हो जाता है । इस प्रकार से जो कायर होता है वह तो वापस लौट जाता है परंतु जो शूरवीर होता है वह आगे बढता है । राम राम!
दरिया मेरू उलंघिया , त्रिकुटी बैठा जाय ।
जो वहाँ से पूठा फिरै, तो विषयों का रस खाय (2)
आचार्यश्री दरियावजी महाराज कहते हैं कि जब साधक त्रिकुटी में पहुंचता है , तब उसे बहुत आनंद आता है । परंतु यह आनंद माया का होता है ।त्रिकुटी में आने पर साधक के सामने असंख्य भोग और प्रलोभन आते हैं । यदि साधक इनमें फंस जाता है तो भोगों में लिप्त हो जाता है । राम राम!
दरिया मन निज मन भया, त्रिकुटी मंझ समाय ।
जो वहाँ से पाछा फिरै, तो मन का मन हो जाय (3)
आचार्यश्री दरियावजी महाराज कहते हैं कि निरंतर साधना करने से मन निजमन हो जाता है । मुक्ति के मार्ग पर चलने वाले मन को निजमन कहते हैं तथा सांसारिक भोगों के मार्ग पर चलने वाले मन को परमन कहते हैं । इस प्रकार यदि साधक त्रिकुटी में आने वाले प्रलोभनों से आकर्षित न होकर आगे बढ जाता है उसका मन निजमन हो जाता है एवं इसके विपरीत यदि साधक त्रिकुटी में आने वाले प्रलोभनों में फंसकर पीछे चला जाता है उसका मन परमन हो जाता है । राम राम!
दरिया देखे दोय पख , त्रिकुट सन्धि मन्झार ।
निराकार एकै दिशा , एकै दिशा आकार (4)
आचार्यश्री दरियावजी महाराज कहते हैं कि त्रिकुटी की सन्धि में मुझे दो पक्ष दिखाई दिए । त्रिकुटी के ऊपर निराकार परमात्मा है तथा त्रिकुटी के नीचे साकार परमात्मा है । राम राम!
निराकार आकार बिच , दरिया त्रिकुटी सन्ध ।
परे स्थान जो सुरत का , उरे सो मन का बन्ध (5)
आचार्यश्री दरियावजी महाराज कहते हैं कि निराकार और आकार के बीच में त्रिकुटी की सन्धि है । त्रिकुटी के आगे सुरत का स्थान है तथा त्रिकुटी के नीचे मन का स्थान है । यदि सुरत त्रिकुटी से आगे चली जाती है तो ब्रह्म की प्राप्ति कर लेती है एवं नीचे चली जाती है तो मन के बंधन में
बंध जाती है । राम राम!
मन बुध चित्त अहंकार की, है त्रिकुटी लग दौड़ ।
जन दरिया इनके परे , ब्रह्म सुरत की ठौड़ (6)
आचार्यश्री दरियावजी महाराज कहते हैं कि मन और बुद्धि केवल त्रिकुटी तक जाते हैं एवं इसके आगे केवल सुरति जाती है । मन से निकली हुई सूक्ष्म किरणों को सुरति कहते हैं ।परमात्मा की और से जो वृत्ति प्रदान की जाती है उसे चेतन वृत्ति कहते हैं । जो परमात्मा तक पहुंचती है । रामराम !
मन बुध चित्त अहंकार यह, रहै अपनी हद मांहि ।
आगे पूरन ब्रह्म है, सो इनको गम नांहि (7)
आचार्यश्री दरियावजी महाराज कहते हैं कि मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार, ये केवल अपनी सीमा तक ही रहते हैं । उनकी सीमा के आगे पूर्णब्रहम का निवास है । वहाँ उनकी पहुँच नहीं है । राम राम!
मन बुध चित्त अहंकार के , सुरत सिरोमनी जान ।
ब्रह्म सरोवर सुरत के, दरिया संत प्रमान (8)
आचार्यश्री कहते हैं कि मन , बुद्धि , चित्त और अहंकार से भक्त की सुरति सूक्ष्म बुद्धि
श्रेष्ठ होती है ।श्री दरियावजी महाराज आगे कहते हैं कि इस तथ्य को सिद्ध करने वाला में ही स्वयं अपनी योग- साधना के अनुभव के आधार पर प्रमाण स्वरूप हूं कि इनकी सीमा लांघने के पश्चात सुरति निरन्तर ब्रह्म रूपी सरोवर में स्नान करती रहती है अर्थात उस अवस्था को प्राप्त कर लेने पर आत्मा और परमात्मा में कोई भेद नहीं रहता है । राम राम!
मन बुध चित्त अहंकार यह, रहै सुरत के मांहि ।
सुरत मिली जाय ब्रह्म में, जहँ कोई दूजा नांहि (9)
आचार्यश्री कहते हैं कि मन, बुद्धि , चित्त और अहंकार ये सदैव सुरति के अंदर ही रहते हैं । परन्तु सुरति तो ब्रह्म का साक्षात्कार करती है और ये नहीं कर पाते हैं । ऐसी स्थिति आ जाने के पश्चात फिर वह जीव जन्म-मरण से मुक्त हो जाता है तथा सदा-सदा के लिए सुखी, शांत और आनंदस्वरूप होकर ब्रह्मपद को प्राप्त हो जाता है । राम राम!
ममा मेरू से बावड़ै , त्रिकुटी लग ओंकार ।
जन दरिया इनके परे, ररंकार निरधार (10)
आचार्यश्री दरियावजी महाराज कहते हैं कि ममा मेरू तक चला जाता है , ओंकार त्रिकुटी तक जाता है तथा इसके आगे केवल ररंकार जाता है । यहाँ से लेकर भगवत धाम तक केवल एक राम नाम की ही निसरनी है तथा इसी रकार और मकार को अपनाकर अन॔तानंत जीवों का उद्धार हुआ है । राम राम!
दरिया त्रिकुटी हद लग , कोई पहुंचै संत सयान ।
आगे अनहद ब्रह्म है , निराधार निर्वान (11)
आचार्यश्री दरियावजी महाराज कहते हैं कि त्रिकुटी से आगे कोई संत सयान ही पहुंच पाते हैं । सयान अर्थात होशियार
(बुद्धिजीवी ) । जो शूरवीर होता है, वही दृढ़ता के साथ आगे बढकर ब्रह्म तक पहुंच जाता है । परमात्मा के अलावा उसे किसी का आधार भी नहीं
रहता है । राम राम!
दरिया त्रिकुटी के परे , अनहद ब्रह्म अलेख ।
जहाँ सुरत गैली भई , अनुभव पद को देख (12)
आचार्यश्री दरियावजी महाराज कहते हैं कि त्रिकुटी के आगे अलेख निराकार ब्रह्म का निवास है, सुरति उस ब्रह्म के पास पहुंचकर तरह-तरह के अनुभव करके ब्रह्म मेंं ही लीन हो जाती है । राम राम!
रतन अमोलक परख कर, रहा जौहरी थाक ।
दरिया तहँ कीमत नहीं, उनमुन भया अबाक (13)
आचार्यश्री दरियावजी महाराज कहते हैं कि एक जौहरी को ऐसा रत्न मिला , जिसकी परीक्षा करते-करते वह थक गया क्योंकि वह अनमोल रत्न था । इसी प्रकार परमात्मा के स्वरूप का अवलोकन करते-करते साधक थक गया । उसकी वाणी बंद हो गई क्योंकि वहाँ पर वाणी और मन की पहुँच ही नहीं है । राम राम!
इड़ा पिंगला सुषुम्ना, त्रिकुटी सन्धि मन्झार ।
दरिया पूरन ब्रह्म के, यह भी उल्ली वार (14)
आचार्यश्री दरियावजी महाराज कहते हैं कि इड़ा, पिंगला और सुषुम्ना, शरीर की इन तीनों प्रमुख नाड़ियों की पहुंच भी केवल त्रिकुटी तक ही है, इसलिए ये तीनों पूर्ण ब्रह्म तक पहुंच नहीं पाती है, क्योंकि पूर्ण ब्रह्म का साम्राज्य तो त्रिकुटी की सीमा से आगे है । राम राम!
सुरत उलट आठों पहर, करत ब्रह्म आराध ।
दरिया तब ही देखिये, लागी सुन्न समाध (15)
आचार्यश्री दरियावजी महाराज कहते हैं कि सुरति उलट गई अर्थात सुरति दुनिया से विमुख हो गई तथा परमात्मा के सन्मुख हो गई । इस प्रकार से जब सुरति आठों ही पहर ब्रह्म की आराधना करने लगती है , तब उसे सुन्न समाधि कहते हैं । राम राम!
सुरत ब्रह्म का ध्यान धर,जाय ब्रह्म में पर्ष ।
जन दरिया जहँ एकसा , दिवस एक सौ वर्ष (16)
आचार्यश्री दरियावजी महाराज कहते हैं कि साधारण रूप से सौ वर्ष तक राम-राम करने से जो लाभ होता है, वही लाभ ध्यानयोग सहित श्वासोश्वास राम-राम करने से एक ही दिन में हो जाता है । ऐसी स्थिति में सुरति अहर्निश ब्रह्म का
ध्यान धरकर अंततः ब्रह्म के ही अन्दर एकाकार हो
जाती है । राम राम!
ररंकार धुन हौद में, गरक भया कोई दास ।
जन दरिया व्यापै नहीं, नींद भूख और प्यास (17)
आचार्यश्री दरियावजी महाराज कहते हैं कि जब कोई जीव राम-राम करते-करते ररंकार के अंदर मस्त हो जाता है, उस समय ऐसा आनंद आता है कि उसकी नींद, भूख और प्यास सब मिट जाती है । राम राम!
जन दरिया आकाश लग, ओंकार का राज ।
महसुन्न तिसके परे , ररंकार महाराज (18)
आचार्यश्री दरियावजी महाराज कहते हैं कि आकाश तक ओंकार का राज है लेकिन ररंकार महाराज का राज उससे आगे महाशून्य पूर्ण समाधिस्थ अवस्था तक है । राम राम!
दरिया सुरति सिरोमनी, मिली ब्रह्म सरोवर जाय ।
जहँ तीनों पहुंचे नहीं, मनसा वाचा काय (19)
आचार्यश्री दरियावजी महाराज कहते हैं कि सुरति ब्रह्मरूपी सरोवर में जाकर मिल गई अर्थात मेरा जीवात्मा परमात्मा में विलीन हो गया , इस अवस्था को देखने की क्षमता मन वचन और शरीर
में नहीं है क्योंकि इन तीनों की वहाँ पहुँच नहीं है । राम राम!
काया अगोचर मन अगोचर, शब्द अगोचर सोय ।
जन दरिया लवलीन होय , पहुँचेगा जन कोय (20)
आचार्यश्री दरियावजी महाराज कहते हैं कि परमात्मा इस शरीर से भी अनिर्वचनीय है । मन भी परमात्मा को नहीं पकड़ सकता तथा शब्द भी परमात्मा तक नहीं पहुंच सकता । जो साधक परमात्मा के अंदर लवलीन हो गया है , वही वास्तव में उन तक पहुंच पाता है । राम राम!
धरती गगन पवन नहीं पानी, पावक चन्द न शूर ।
रात दिवस की गम नहीं, जहँ ब्रह्म रहा भरपूर (21)
आचार्यश्री दरियावजी महाराज कहते हैं कि जब मेरी सुरति पूर्ण ब्रह्म मेंं समाविष्ट हो गई, तब मैंने अनुभव किया कि इस अवस्था को प्राप्त हो जाने पर धरती , आकाश, पवन अग्नि , चन्द्रमा , सूर्य तथा रात और दिन का कोई अस्तित्व नहीं है । इस अवस्था मेंं केवल पूर्ण ब्रह्म का अस्तित्व ही दिखाई देता है । राम राम!
ररंकार सतगुरु ब्रह्म, दरिया चेला सुर्त ।
जैसा मिल तैसा भया, ज्यों संचे माहि भर्त (22)
आचार्यश्री दरियावजी महाराज कहते हैं कि मेरे सतगुरु ररंकार ब्रह्म है और उनका शिष्य मैं सुरति हूँ । जिस प्रकार किसी संचे में डाला हुआ पात्र संचे के आकार का बन जाता है उसी प्रकार मैं भी सतगुरु की कृपा से उनके समान ही बन गया हूँ अर्थात अब मैं भी पूर्ण ब्रह्म आकार हो गया हूँ । राम राम!
दरिया सुरति सर्पनी , चढ़ी ब्रह्म के मांय ।
जाय मिली परब्रह्म से, निर्भय रही समांय (23)
आचार्यश्री दरियावजी महाराज कहते हैं कि मेरी सुरति रूपी सर्पिणी ब्रह्म मेंं समा गई है ; उस ब्रह्म में लीन होकर अब मेरी सुरति को किसी का कोई भय नहीं है । परमात्मा से तादात्म्य स्थापित करने के कारण अब मुझे किसी का भय नहीं है । राम राम!
दरिया देखत ब्रह्म को, सुरत भई भयभीत ।
तेज पुंज रवि अग्नि बिन , जहँ कोई उष्ण न शीत (24)
आचार्यश्री दरियावजी महाराज कहते हैं कि ब्रह्म को देखकर सुरति बेचारी भयभीत हो गई क्योंकि सुरति ने आज तक कभी ऐसे ब्रह्म का अवलोकन नहीं किया था ।ब्रह्म आनंद और प्रकाश स्वरूप है , इसीलिए सुरति जब परमात्मा से मिलती है तब वह डरती है तथा सुरति के परमात्मा मेंं मिल जाने के पश्चात दूसरा कोई नहीं रहता है । राम राम!
पाप पुण्य सुख दुख नहीं, जहँ कोई कर्म न काल ।
जन दरिया जहँ पड़त है , हीरों की टकसाल (25)
आचार्यश्री दरियावजी महाराज कहते हैं कि भगवत धाम में पाप-पुण्य , सुख-दुख कुछ नहीं है । वह परमात्मा का देश कर्म और काल से भी अतीत है । वहाँ तो केवल राम नाम रूपी हीरों की वर्षा होती रहती है । राम राम!
सुरत निरत पर्चा भया , अरस परस मिल एक ।
जन दरिया बानक बना , मिट गया जन्म अनेक (26)
आचार्यश्री दरियावजी महाराज कहते हैं कि अब मेरी सुरति ने ब्रह्म का निरन्तर स्पर्श -संग करके उसका पूर्ण परिचय प्राप्त कर लिया है । अब मुझमें और मेरे ब्रह्म में कोई भेद नहीं रह गया है । मैं भी ब्रह्माकार हो गया हूँ तथा नया जन्म लेने का अब कोई डर नहीं है । राम राम!
तज विकार आकार तज , निराकार को ध्याय ।
निराकार में पैठकर , निराधार लौ लाय (27)
आचार्यश्री दरियावजी महाराज कहते हैं कि यदि तुम्हे ब्रह्म से मिलना है तो आकार और विकार दोनों का त्याग करके निराकार परमात्मा का ध्यान करना होगा । अतः तू इस स्वनिर्मित आकार को छोड़कर परमात्मा निर्मित निराकार में बैठ जा और तत्पश्चात निराधार होकर प्रभु के अंदर लिव लगा । परमात्मा का ध्यान करते समय कोई आधार नहीं होना चाहिए । राम राम!
सुरत मिली जाय ब्रह्म से, अपनो इष्ट संभाल ।
जन दरिया अनुभव शब्द, जहँ दीखै काल विशाल (28)
आचार्यश्री दरियावजी महाराज कहते हैं कि जब मेरी सूरति अपने इष्ट के प्रति सजग होकर ब्रह्म में मिल गई, तब मैंने अनुभव में विशाल काल के दर्शन किए । काल को वही देख सकता है जिसका काल सदैव वर्तमान होता है । राम राम!
सुरत मिली जाय ब्रह्म से, मन बुध को दे पूठ ।
जन दरिया जहँ देखिये , कथनी बकनी झूठ (29)
आचार्यश्री दरियावजी महाराज कहते हैं कि सुरति जब ब्रह्म में मिल गई, तब उसने मन और बुद्धि को पूठ दे दी । हम सोचते हैं तो मन से तथा निश्चय करते हैं तो बुद्धि से । इस प्रकार मन और बुद्धि से ही हम सारे संसार का व्यवहार करते हैं । राम राम!
दरिया जहँ लग गगन हैं, जहँ लग सुरत निवास ।
इनके आगे सुन्न है, जहँ प्रेम भाव परकास (30)
आचार्यश्री दरियावजी महाराज कहते हैं कि जहाँ तक आकाश है वहीं तक सुरति का निवास है , इसके आगे सुन्न समाधि कि स्थान है जहाँ प्रतिक्षण प्रेम की ज्योति प्रज्वलित रहती है । राम राम!
दरिया अनहद अग्नि का ,अनुभव धुवाँ जान ।
दूरा सेती देखिये, परसे होय पिछान (31)
आचार्यश्री दरियावजी महाराज कहते हैं कि अनुभव केवल अग्नि के धुएँ के समान है , धुएँ को देखने से अग्नि का ज्ञान नहीं होता है । अग्नि का ज्ञान एवं प्रभाव केवल अग्नि का स्पर्श करने से ही होता है । दूसरों
के अनुभव भी धुएँ के समान हैं, केवल व्यक्तिगत आचरण से सत्य का बोध होता है । राम राम!
मान बड़ा अनुभव शब्द, दूर देशांतर जाय ।
अनहद मेरा साइयाँ , घट में रहा समाय (32)
महाराजश्री कहते हैंं कि दूसरों के अनुभवों की भक्ति संबधी बातों को बड़ा महत्वशाली समझकर लोग बिना सोचे समझे घर त्याग कर बाहर वनों में भक्ति-साधना करने चले जाते हैं, लेकिन उन्हें यह ज्ञात नहीं है कि जिस भगवान् को बाहर ढूंढ रहे हो, वह तो तुम्हारे शरीर में ही है । राम राम!
प्रथम ध्यान अनुभव करै , जासे उपजै ज्ञान ।
दरिया बहुता करत है , कथनी में गूजरान (33)
आचार्यश्री दरियावजी महाराज कहते हैं कि ध्यान के द्वारा जिस अनुभव का प्राकट्य होता है , वह वास्तव में ज्ञान होता है । परन्तु कई लोग शास्त्रों में पढी हई बात लोगों को सुनाकर तथा शब्द जाल में फंसाकर आकर्षित कर लेते हैं जिससे समस्या हल होने वाली नहीं है यह तो कथनी में गुजरान करना है ।राम राम!
अनुभव झूठा थोथरा , निर्गुण सच्चा नाम ।
परम जोत परचै भई, तो धुआं से क्या काम (34)
आचार्यश्री दरियावजी महाराज कहते हैं कि यदि तुम अनुभव में ही रह जाओगे तो कभी आगे नहीं बढ़ पाओगे । महाराजश्री ने ध्यान योग द्वारा प्रकट इस अनुभव वाणी (भगवत्वाणी) को भी धुआं के समान ही माना है क्योंकि हमारा लक्ष्य तो परमात्मा है । श्री प्रभु ने निर्गुण राम के नाम-जप को ही सच्ची भक्ति माना है ।राम नाम जाप से ही भक्त के हृदय में परमज्योति का आभास होता है एवं जब ज्योति प्रज्वलित हो जाती है, तब धुएं का कोई महत्व नहीं होता है । राम राम!
आँखों से दीखै नहीं, शब्द न पावै जाने ।
मन बुध तहँ पहुंचे नहीं , कौन कहै सेलान (35)
आचार्यश्री दरियावजी महाराज कहते हैं कि कण-कण में व्याप्त निराकार ब्रह्म आँखों से दिखाई नहीं देता, शब्दों से उनका वर्णन संभव नहीं है तथा मन और बुद्धि की भी उन तक पहुंच नहीं है । इसलिए मैं परमात्मा के स्वरूप के विषय में कुछ नहीं कह सकता । राम राम!
भाव मिलै परभाव से, धर कर ध्यान अखण्ड ।
दरिया देखै ब्रह्म को, न्यारा दीखै पिण्ड (36)
आचार्यश्री दरियावजी महाराज कहते हैं कि जब मैंने निरन्तर अखण्ड ध्यान करके अपने भाव को, अपने अस्तित्व को, परभाव-परमात्मा तत्व में पूर्ण रूप से विलीन कर दिया तब मुझे ब्रह्म के स्वरूप का ज्ञान हुआ । राम राम!
भाव करम सुख दुख नहीं, नहीं कोई पुन्य न पाप ।
दरिया देखै सुन्न चढ़ , जहँ आपहि उर रहा आप (37)
आचार्यश्री दरियावजी महाराज कहते हैं कि परमात्मा के धाम में पाप-पुण्य , सुख-दुख, कर्म-काल कुछ भी नहीं है । कर्मों के आधार पर ही जीव को विभिन्न योनि प्राप्त होती है । अतः कठिन कर्मों को तोड़ने के लिए हमें रात-दिन नाम जाप करना होगा तब ही हम ब्रह्म तक पहुंच सकते हैं । राम राम!
अगम दलीचा अगम घर, जहँ कोई रूप न रेख ।
जन दरिया दुविधा नहीं, स्वामी सेवक एक (38)
आचार्यश्री दरियावजी महाराज ने उस दिव्य स्थल को ' अगम देश ' की संज्ञा प्रदान की है
। माया के प्रभाव से मुक्त होने पर जब जीव अपने वास्तविक स्वरूप को पहचान कर ब्रह्म स्वरूप बन जाता है, तब उस अगम देश में जीव और ब्रह्म में अर्थात जीवात्मा और परमात्मा में कोई भेद नहीं रहता है । यह सब केवल निर्गुण ब्रह्म
(राम) के ध्यान से ही संभव हो सकता है । राम राम!
सुन्न मण्डल में प्रगटा, प्रेम कथा प्रकाश ।
वक्ता देव निरंजना , श्रोता दरियादास (39)
यहाँ पर आचार्यश्री दरियावजी महाराज ने उस अलौकिक स्थान को
"सुन्न मण्डल " की संज्ञा प्रदान की है । आचार्यश्री कहते हैं कि उस सुन्न मण्डल में कथा हो रही है । वहाँ पर ब्रह्म स्वयं ही मेरे वक्ता हो गये तथा मैं श्रोता बन गया । इस प्रकार से मैं तो कथा सुन रहा हूँ तथा भगवान् मुझे कथा सुना रहे हैं । राम राम!
पंछी उड़ै गगन में, खोज मंडै नहीं मांहि ।
दरिया जल में मीन गति, मार्ग दरसै नांहि (40)
आचार्यश्री दरियावजी महाराज कहते हैं कि आकाश में पक्षी उड़ता है तो उसके चिन्ह आकाश में अंकित नहीं होते हैं ऐसे ही जल में मछली चलती है तो उसके चिन्ह जल में अंकित नहीं होते हैं । राम राम!
मन बुध चित पहुँचे नहीं, शब्द सकै नहीं जाय ।
दरिया धन वे साधवा , जहाँ रहे लौ लाय (41)
आचार्यश्री दरियावजी महाराज सुन्न समाधि की विशेषता बता रहे हैं कि मन,बुद्धि और चित्त की यहाँ पहुँच नहीं है शब्दों से भी इसका वर्णन असंभव है । वास्तव में मन,बुद्धि, चित्त और शब्द की सीमा को लांघ कर सुन्न समाधि में लीन रहने
वाले साधु धन्य हैं । राम राम!
दरिया सुन्न समाधि की, महिमा घणी अनन्त ।
पहुंचा सोई जानसी , कोई कोई बिरला सन्त (42)
आचार्यश्री दरियावजी महाराज कहते हैं कि प्रत्येक साधक मुक्ति प्राप्त करना चाहता है परन्तु कोई बिरला सन्त ही सुन्न समाधि की अवस्था तक पहुंच सकता है तथा वही भाग्यशाली वहाँ के अनन्त आनंद का अनुभव कर सकता है। राम राम!
एक एक को ध्याय कर , एक एक आराध ।
एक एक से मिल रहे, जाका नाम समाध (43)
आचार्यश्री दरियावजी महाराज कहते हैं कि एक का ही ध्यान होगा, एक की ही आराधना होगी तथा एक के ही प्रति आसक्ति (लगाव) होगी, तब ही शून्य समाधि की अवस्था होगी । इस प्रकार से जब केवल एक से ही मिलन (प्रेम) होता है, तथा दूसरों के लिए जीवन में कोई स्थान ही नहीं रहता है तब उसे शून्य समाधि कहते हैं । राम राम!
भाव मिलै परभाव से, परभाये परभाय ।
दरिया मिलकर मिल रहै , तो आवागमन नसाय (44)
आचार्यश्री दरियावजी महाराज कहते हैं कि ब्रह्म में मिलने के लिए शिष्य ने अपना भाव सतगुरू के भाव में मिला दिया तब सतगुरू और शिष्य का भाव मिलकर परभाव अर्थात सगुण साकार में मिल गया । यही भाव परमात्मा में मिलने पर इस जन्म मरण से छुटकारा मिल सकता है । अतः महाराजश्री कहते हैं कि ऐसी स्थिति प्राप्त होने पर मुझे शरीर के प्रति उदासीनता हो गई एवं शरीर में जो अहम था , उसका मैंने त्याग कर दिया । राम राम!
पाँच तत्व गुण तीन से,आतम भया उदास ।
सगुण निर्गुण से मिला, चौथे पद में वास (45)
आचार्यश्री दरियावजी महाराज कहते हैं कि जब मुझे यह आभास हुआ कि पाँच तत्व
और तीन गुन से बना यह शरीर मैं नहीं हूँ तो मैं इनसे तटस्थ हो गया और इनका त्याग कर दिया तथा मैंने निर्गुण ब्रह्म में आश्रय ले लिया अर्थात अब मेरा आत्मतत्व-परमात्वतत्व में पूर्ण रूप से विलीन हो गया है । राम राम!
माया तहाँ न सँचरे,जहाँ ब्रह्म का खेल ।
जन दरिया कैसे बने, रवि रजनी का मेल (46)
आचार्यश्री दरियावजी महाराज कहते हैं कि जिस भक्त के हृदय में ब्रह्म का निवास हो गया है, उसके हृदय पर माया का कोई प्रभाव नहीं हो सकेगा । जिस प्रकार रात और दिन का मेल संभव नहीं उसी प्रकार माया और ब्रह्म का मेल असंभव है । राम राम!
जीव जात से बीछुड़ा, धर पंचतत्व का भेख ।
दरिया निज घर आइया, पाया ब्रह्म अलेख (47)
आचार्यश्री दरियावजी महाराज कहते हैं कि जीव ब्रह्म से तब तक दूर भागता है जब तक उसे अपने वास्तविक स्वरूप का ज्ञान नहीं होता ।नित्य जीव ने पंचतत्व से निर्मित शरीर का आश्रय लेकर अनित्य शरीर से संबंध जोड़कर दुःख की सृष्टि की है । अतः इस जीव के परमात्म तत्व में विलीन होकर तादात्म्य भाव स्थापित कर लेने से ही सुख की उपलब्धि हो सकती है । राम राम!
जात हमारी ब्रह्म है , मात पिता है राम ।
गृह हमारा सुन्न में, अनहद में विश्राम (48)
आचार्यश्री दरियावजी महाराज कहते हैं
कि जीव के माता पिता भगवान ही हैं तथा जीव की जाति ब्रह्म की जाति है । जीव का घर अलौकिक स्थान सुन्न मण्डल में है एवं असीम,अखण्ड, अविनाशी आत्मरूप राम में ही विश्राम अर्थात मुक्ति है । वास्तव में सबके एक ही माता-पिता
(ब्रह्म ) होने के कारण सब मनुष्य समान हैं । राम राम!
अथ श्री दरियावजी महाराज की दिव्य वाणीजी का ब्रह्म परचे का अंग संपूर्ण हुआ । राम
आदि आचार्य श्री दरियाव जी महाराज एंव सदगुरुदेव आचार्य श्री हरिनारायण जी महाराज की प्रेरणा से श्री दरियाव जी महाराज की दिव्य वाणी को जन जन तक पहुंचाने के लिए वाणी जी को यहाँ डिजिटल उपकरणों पर लिख रहे है। लिखने में कुछ त्रुटि हुई हो क्षमा करे। कुछ सुधार की आवश्यकता हो तो ईमेल करे dariyavji@gmail.com
डिजिटल रामस्नेही टीम को धन्येवाद।
दासानुदास
9042322241
No comments:
Post a Comment